द केरल स्टोरी


यदि ऐसा वे लोग कर रहे होते जो राजनीति में हैं तो समझ में आता था. उन्होंने हमेशा यही किया है. वे लोग कर रहे होते जो कट्टर मज़हबी हैं, तब भी समझ में आता था. मज़हबी यानी अफ़ीम का घोल पिये लोगों ने भी हमेशा यही किया है. नुक्कड़ की दूकान का पंसारी ऐसा कर रहा होता तब भी मालूम था, तौलने में वह हमेशा से डंडी मारता आया है.

       मगर अचरज है कि अब ऐसा कर रहे हैं बुद्धिजीवी और उनका मीडिया!! जिस तरह ठेलों पर हमारी रुचि के अनुकूल बिकती विविधता उपलब्ध रहती थी — मूँगफली, अमरूद, खजूर, गुड़, बर्त्तन, खिलौने, बाल सँवारने की कंघी, वैसे ही अब मीडिया-क्लिप सुलभ्य हैं — जो पसन्द में फ़िट हो उसे उठाओ और ठेलो!

              पहले उसने ‘मुस्’ कहा, फिर ‘तक़’ कहा, फिर ‘बिल’ कहा।

              इस  तरह ज़ालिम ने  मुस्तक़बिल  के टुकड़े  कर  दिये!

       लगता है मीडिया के ज़ालिम टुकड़-कर्त्ता कमोबेश हम सभी हैं. यह घड़ी वह है जब जिस किसी का जिस भी रूप में मीडिया से कोई रिश्ता रहा है, उसे शर्मिन्दा होकर रह जाना चाहिये!

       फ़िलहाल यह ठेलम-ठेल चल रही है ‘दि केरला स्टोरी’ नाम की फ़िल्म को लेकर. इनमें कुछ ही प्रतिक्रियायें हैं जो फ़िल्म देखने के बाद दी गई हैं. अन्य सब सुनी-सुनाई बातों का शोर है. अचरज इसलिए है कि हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया-कर्मी शोर पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, मुद्दे पर नहीं. जबकि बुद्धिजीवी होने का औचित्य मुद्दे पर बात करने में निहित है, शोर के समर्थन अथवा विरोध पर उतरने में नहीं.

       हमारे बीच ऐसे बहुत लोग हैं जो मानकर चल रहे हैं कि ‘द केरला स्टोरी’ मुसलमानों और इस्लाम के ख़िलाफ़ है. उन्हें भय है इससे मुसलमानों को देश में शान्ति भंग करने के लिए कारण मिलता है. अनेक मुस्लिम नेताओं के बयान इस भय की पुष्टि भी कर रहे हैं.

       यह भय और इसकी पुष्टि इस बात का प्रमाण है कि इन सभी लोगों की अवधारणाएं शोर-शराबे पर आधारित हैं, मुद्दे पर नहीं.

       ठीक से देखा जाए तो ये सभी लोग एक स्वर से केवल इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं. ये लोग कृपया बतायें क़ुरान-ए-मजीद की कौन सी आयतें ऐसी हैं जो इस बात को मुसलमानों पर फ़र्ज बता रही हैं कि लड़कियों को केवल बच्चा पैदा करने की मशीन समझो, उन्हें सेक्स-स्लेव बनाओ और लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद उन्हें मार डालो? स्पष्ट है कि ऐसी घटनाओं को सब मुसलमानों और इस्लाम पर इसलिए थोपा जा रहा है कि ऐसा करने वाले आतंकी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ के गुर्गे वे हैं जो मुसलमान हैं! इनके हथकंडों को बयाँ करना आतंकवाद के प्रति सजग करता है या इस्लाम के ख़िलाफ भड़काता है?

       हमारे बुद्धिजीवियों के भय का एक अन्य कारण भी समझना होगा. उन्हें अहसास है कि ऐसी अनेक आयतें क़ुरान में मिल जाएंगी जो काफ़िरों की हत्या, उन्हें लूटने और लूट का माल आपस में बाँट लेने से सम्बन्धित हैं. इस्लाम को फैलाने के आदेश के रूप में हैं. यहाँ ये लोग, विशेषत: मुस्लिम नेता यह नहीं बताते कि क़ुरान के ऐसे तमाम सन्दर्भ केवल सामयिक हैं, देश-काल के परे नहीं हैं. वे एक विशेष कालखंड की ऐतिहासिक आवश्यकता के लिए थे. मैं ख़ुद क़ुरान के विभिन्न संस्करणों से गुज़रा हूँ जो स्वयं मुसलमानों– मुस्लिम स्कॉलरों के द्वारा की गई व्याख्यायें हैं और हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में हैं. मूल अरबी-फ़ारसी भाषाओं का मुझे कोई ज्ञान नहीं है. मुझे लगा, क़ुरान का मुख्य स्वर अल्लाह के प्रति समर्पण और अध्यात्म है, न कि आतंकवादी आचरण. कहना न होगा, ‘द केरला स्टोरी’ का प्रदर्शन आतंकी हथकंडों को बेपर्दा करता है. जबकि इसका विरोध स्पष्ट रूप से इस्लाम पर बदनामी का स्थायी ठप्पा लगाने की साज़िश जैसा सिद्ध होता है. अब कृपया कोई यह तर्क देने की चेष्टा न करे कि अनूदित क़ुरान में पढ़ी गई जानकारी ग़लत है!!

       हमारे मीडियाकर्मियों और बुद्धिजीवियों की पूरी ‘समझदारी’ यह बता रही है कि वे सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे बुद्धिजीवियों का हश्र देखकर सहमे हुए हैं. डरे हुए लोगों से यह उम्मीद रखना इनसे नाइंसाफी होगी कि ये किसी भी तरह इस प्रकार की असामाजिकता को बेनक़ाब करने वाले पब्लिक मीडिया (सिनेमा अथवा सोशल मीडिया) को सही और सार्थक सन्दर्भ में देखना चाहेंगे.

       ‘द केरला स्टोरी’ देखे बिना इससे अधिक कुछ कहना ग़लत होगा. यों भी यह टिप्पणी इस फ़िल्म पर नहीं है. उन ‘समझदारियों’ पर है जिनकी तटस्थता के चलते राष्ट्र-ध्वज से अशोक चक्र हटाने की हिंसा पर चुप रहा जा सकता है. इस बार किसी मन्दिर का स्थापत्य नहीं नष्ट हुआ है, किसी मूर्त्ति का शिल्प नहीं खंडित हुआ है कि जिसे ‘मज़हबी बुखार’ कहकर अनदेखा किया जा सकता हो. यह सीधे-सीधे राष्ट्रीय अस्मिता का नकार है!

       फ़िल्म को तो जब देखना हो पायेगा तब होगा. सोच रहा हूँ क्या वैसे ही देखना सम्भव होगा जैसे ‘सम्पूर्ण रामायण’ या जेम्स बांड फ़िल्में देखी थीं? निस्सन्देह वैसी एक-मनस्कता मुद्दे के प्रति पूर्वाग्रह-मुक्त रह पाने के सामर्थ्य से ही सम्भव हो पायेगी. आख़िर जेम्स बांड फ़िल्मों ने भी सामाजिक मुद्दे उठाये थे — समूचे विश्व पर अधिनायकवादी सत्ता, आतंकवाद, जल-समस्या, परमाणु चोरी, मीडिया का दुरुपयोग, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, हथियारों की होड़ आदि. जिस केन्द्र-बिन्दु के इर्द-गिर्द ये फ़िल्में घूमी हैं वह है Special Executive for Counter-intelligence, Terrorism, Revenge and Extortion. इन शब्दों का प्रथमाक्षर लेकर बनता है SPECTRE — इन फ़िल्मों का विलेन! वास्तविक समाज में Spectre कहीं है ऐसा नहीं है. तथापि ऐसा भी नहीं है कि बांड फ़िल्मों में उठाये गये मुद्दे समाज में कहीं नहीं हैं. जबकि ISIS तो वास्तव में है भी! उसके लिए जी-जान से कुछ भी कर गुज़रने वाले इस्लाम को कलंकित कर रहे (या इस्लाम पर चल रहे?) मुसलमान भी हैं. केरल की सरकार और हाईकोर्ट भी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘लव जिहाद’ एक सत्य है!

       इसलिए सावधान! केवल मुद्दे पर ही नज़र रहे!

       और रामायण?

       ‘रामायण’ के मुद्दे मैं कुछ अलग ही तरह से देखता हूँ. इन मुद्दों से हमारे बुद्धिजीवी किस तरह इन्कार करते हैं उनकी उस अदा से रू-ब-रू होना दिलचस्प होगा.

       यह सर्व-विदित है कि ‘रामायण’ विभिन्न आदर्श प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है — आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, पत्नी, भाई, परिवार, आदर्श मित्र, सेवक, राज्य, आदर्श शासन आदि. ‘रामायण’ के नायक श्रीराम स्वयं शील-शक्ति-सौन्दर्य जैसे तीनों आदर्शों का समन्वय हैं और इनकी पराकाष्ठा भी हैं.

       ‘आदर्श’ शब्द का अर्थ है ‘दर्पण’. इसका उपयोग सभी लोग घर की सजावट से लेकर स्वयं को निहार कर नार्सिसस — आत्ममुग्ध हो जाने तक विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं. किन्तु दर्पण का सर्वाधिक उपयोग सँवरने के लिए होता है. चेहरे पर दाग-धब्बे हों, कोई बदसूरती हो, तो मेक-अप करके उस असुन्दरता को ढाँपने-छिपाने-सुधारने में दर्पण सहायक होता है.

       रचनाधर्मिता के सामाजिक सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि साहित्य में अनुस्यूत बृहत्तर आदर्श (दर्पण) मानव-समाज में उपस्थित अनेकविध असुन्दरताओं की ओर संकेत करते हैं — आतंक, ग़ैर-आनुपातिक महत्त्वाकांक्षा, षड्यन्त्र, युद्ध और हिंसा आदि! कालजयी रचना ‘रामायण’ की ओर निरन्तर बढ़ता आकर्षण इस बात की सूचना है कि मानव-समुदाय अपनी बदसूरतियों से निरन्तर लड़ते रहने को अभिशप्त है.  असंख्य लोगों ने विविध भाषाओं में रामकथा कही है. इसे सेल्युलॉयड पर भी तरह-तरह से उतारा गया है. मूल कथ्य को हानि पहुँचाये बिना हर बार सम-सामयिक सन्दर्भ भी दिये गए हैं.

       ऐसे में ‘द केरला स्टोरी’ को इस लड़ाई के मात्र एक अध्याय की तरह देखा जाना चाहिए. लड़की को बच्चों की हेड़ पैदा करने की मशीन की तरह इस्तेमाल करके उसे मार देना और पैशाचिक आतंक फैलाना आधुनिक समाज की बहुत बड़ी बदसूरती है. इसके प्रति हर सामाजिक को सजग करना प्रत्येक बुद्धिजीवी की ज़िम्मेदारी है.

       ‘रामायण’ का दूसरा मुद्दा है ट्रेजेडी. आख्यानों में और साहित्य में ग्रीक ट्रेजेडी या फिर शेक्सपियर की ट्रेजेडी को श्रेष्ठ माना गया है. ये वास्तव में हैं भी अद्भुत. शेक्सपियर की चार ट्रेजेडी प्रमुख हैं — मैकबेथ, हेमलेट, ऑथेलो और किंग लीयर. चारों नाटकों में ये चार महानायक हैं. ये सभी शक्ति, वीरता व गुणों से सम्पन्न हैं. सब तरह से पूर्णता को स्पर्श करते इन महानायकों में कोई एक चारित्रिक कमी है जिसके कारण उनका भरा-पूरा जीवन दु:खान्त में समाप्त होता है. इस दोष को विद्वानों ने Tragic Flaw अथवा Fatal Flaw कहा है. मैकबेथ अत्यधिक महत्वाकांक्षी है तो ऑथेलो सहज विश्वासी तथा तुरत-ईर्ष्यालु है. किंग लीयर अहंकारी है तो हेमलेट अपने वहम का शिकार होकर ज़रूरी कामों को टालता चला जाता है. बस यह एक दोष इन महानायकों के जीवन की इति जिस तरह ट्रेजेडी में करता है वह शेक्सपियर की कलम से अत्यन्त मर्म्मस्पर्शी होकर निकला है.

       Tragic Flaw की मौजूदगी पाश्चात्य जीवन-दृष्टि की परिचायक है. इससे भिन्न ‘रामायण’ के महानायक राम सर्वत: आदर्श-सम्पन्न व्यक्तित्त्व हैं. एक ट्रेजेडी की तरह विश्व की सभी ट्रेजेडियों में ‘रामायण’ इसलिए बीस है कि यहाँ Tragic Flaw की आवश्यकता ही नहीं है. जीवन की हर ट्रेजेडी के लिए नायक का एक सामान्य मनुष्य होना पर्याप्त है! ‘रामायण’ को मूल रूप में पढ़ने के बाद कौन न कहेगा कि श्रीराम के जीवन की एक-एक व्यथा सामान्य मनुष्य की ही कथा है?

       प्रसंगवश कहता चलूँ, जिस तरह मैं भाषा के अज्ञानवश क़ुरान शरीफ़ को मूल रूप में नहीं पढ़ पाया वैसे ही अपने मुसलमान भाइयों के हर काम को आगे बढ़ाने को तत्पर हमारे बुद्धिजीवियों ने ‘रामायण’ को मूल रूप में अवश्य नहीं पढ़ पाया होगा. मूल में इस साहित्यिक कृति को पढ़ पाने से एक-मनस्कता प्राप्त होती है. एकाग्रता आती है. मुद्दे पर टिके रहना सम्भव हो पाता है.

       इतना ही नहीं कि नायक में सामान्य मनुष्यता पर्याप्त है, ‘रामायण’ का खलनायक भी ध्यान देने योग्य है. वह किसी भी तरह डेविल अथवा शैतान (Satan) नहीं है. तथापि प्रति-नारायण (Anti-Christ) है. नारायण विरोधी है, फिर भी उन्हीं का प्रतिरूप है, अभिन्न अंग है.

       यदि हमें स्मरण हो, जब ब्रह्मा के चारों मानस-पुत्र सनकादि मुनि (सनक, सन, सनत्कुमार और सनन्दन) बैकुंठ में प्रवेश कर नारायण से मिलना चाहते थे तो जय-विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया. तब कुपित मुनियों ने उन्हें बैकुंठ से पतित हो भूलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला. यह कुछ अलग क़िस्म का Paradise Lost था. क्षमायाचना करने पर उन्हें हर जन्म में नारायण के हाथों मुक्ति पाकर ड्यूटी पर लौटने का वरदान भी मिल गया. इस तरह जय को संसार में तीन बार हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल का, तथा विजय को हिरण्यकशिपु, कुंभकर्ण और कंस का जन्म ग्रहण करना हुआ.

       श्राप क्या होता है और कैसे काम करता है, उसके विश्लेषण का यहाँ अवकाश नहीं है. किन्तु इतना तय है कि रावण का होना बताता है आगे जो होगा वह उस पर निर्भर करता है आपने अभी क्या किया है. ‘कर्म’ का यह सिद्धान्त पूरे भारतीय चिन्तन का सार है. अधिक विस्तार में न जाकर इतना कहना पर्याप्त होगा कि न्यूटन का Third Law Of Motion ही Law of Karma है —  Every action has its equal and opposite reaction! इस वैज्ञानिकता पर आधारित देश को नष्ट करने के लिए यदि कोई व्यक्ति या समुदाय देश की बेटियों को इसलिए सीरिया ले जाने की साज़िश रचता है कि वे हिन्द के ख़िलाफ़ और अधिक ग़ाज़ी पैदा करने की मशीन बनेंगी तो यही एक कारण काफ़ी है कि ‘द केरला स्टोरी’ के विरोध का मुँह बन्द कर दिया जाए.

       हम मनुष्यों के जीवन-नाट्य में रावण ऐसा खलनायक हुआ जो प्रोलितेरीयेत को संगठित कर स्वर्णपुरी के पूँजीवाद को नष्ट करने का माध्यम बना. प्रोलितेरीयेत को आधार बनाकर मार्क्स ने जो संवेदनशील राजनैतिक दर्शन देना चाहा था उसे हमारे यहाँ के बुद्धिजीवियों ने नष्ट कर दिया. अपने प्रमाद में ये ‘प्रोलितेरीयेत’ का अर्थ शब्दकोश में तलाशते रहे. इनको पक्का था कि शोषित समाजों के ‘सर्वहारा’ या रूसी बोल्शेविक ही प्रोलितेरीयेत हैं. भारत का जनसामान्य या वनवासी तो ‘हिन्दू’ है. वह प्रोलितेरीयेत कैसे हो सकता है?

       यहाँ हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे, भारतीय जनसामान्य हिन्दू? क्यों? मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख — इन सबका क्या हुआ? बुद्धिजीवी हैं, इसलिए वे यह समझने की ज़हमत नहीं करेंगे कि यहाँ उनके उस दौर का सन्दर्भ है जब उन्होंने पूरे ही भारतीय जनसामान्य को प्रोलितेरीयेत मानने से इनकार करना शुरु किया था. जब उन्होंने समूचे भारतीय इतिहास को मार्क्स के ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री’ तक सीमित करना शुरु किया था. जबकि मार्क्स के इन नोट्स का इरादा कुछ और था. इस पर अलग से फिर कभी लिखूँगा. यहाँ मुद्दा यह है कि इस शब्दकोशीय रवैये के चलते इन सभी का ‘कनेक्ट’ भारतीय प्रोलितेरीयेत से कट गया. वे ज़मीनी हक़ीक़तों को जानने से वंचित रह गये. परिणामस्वरूप ‘प्रगतिशील’ कहलाकर भी अब वे क़ुरान शरीफ़ की समसामयिक व्याख्या पर बात नहीं कर सकते. कहने को मज़हब के विरुद्ध हैं, मगर केरल का सत्य सामने आते ही उसे  ISIS वाले मज़हबी अस्तित्व पर हमला बताने लगते हैं. तब इनका पूरा सरोकार मज़हब से हो जाता है. उसी साँस में प्रोलितेरीयेत के प्रति संवेदन-शून्य भी हो जाते हैं.

       क़ुरान की समसामयिक व्याख्या की बात होगी तो आप पायेंगे, ऐसा करना अनुचित है इसलिए सम्भव नहीं है.  कारण जानने के लिए पहले वेद और पुराण का उदाहरण समझना होगा. जब वेदोक्त सत्य को समझना कठिन लगने लगा तो महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने उस सत्य को सरलता से समझाने के लिए भगवान् की लीलाओं का आश्रय लिया. इस तरह उन्होंने अठारह पुराणों की रचना की और ‘वेद-व्यास’ कहलाये. इसी तरह जब क़ुरान में व्यक्त ‘हक़’ (सत्य) को समझना मुश्किल लगने लगा तब हदीस लिखी गईं. हदीसों में क़ुरान की बातों को हज़रत मोहम्मद के जीवन के प्रसंगों से समझाया गया है कि किसी स्थिति-विशेष में नबी ने क्या किया था. जब क़ुरान समझ में न आये तो हदीस पढ़कर नबी के उदाहरण से समझ लेना चाहिए. संसार का हर मुसलमान जो भी कुछ करता है नबी के इन उदाहरणों से आदेश लेकर करता है. यही प्रेरणा मोमिनों के ‘उम्मा’ का आधार है. क़ुरान की किसी आयत की नबी के आदेश से अलग व्याख्या करना गुस्ताख़ी है. गुस्ताख़-ए-नबी की एक ही सज़ा है — सर तन से जुदा!

       आप यदि इस्लामिक साहित्य गहरे उतरकर सहानुभूतिपूर्वक पढ़ेंगे तो पायेंगे कि यूपी में अतीक अहमद, मुख़्तार अंसारी आदि जो कर रहे थे वह इस्लाम के विरुद्ध नहीं था. यदि वे कहें वे उनके मज़हब का पालन कर रहे थे तो एक स्तर पर वे ग़लत नहीं कह रहे होंगे. इसी स्तर पर कह सकते हैं कि उनके खिलाफ़ की गई कार्यवाही कितनी भी संविधान के अन्तर्गत हो, थी वह ‘मुसलमानों'(?) के खिलाफ़! याद कीजिये यह बात ओवेसी जैसे मुस्लिम नेताओं ने कही भी थी. यूपी सरकार की रक्षा केवल यह तथ्य करता है कि कोई कार्यवाही मुसलमानों के विरुद्ध हो जाने के लिए नहीं, अपराध पर क़ानून लागू करने के लिए थी. इसी स्तर पर आप यह भी पायेंगे कि दुनिया भर के देशों के संविधानों और इस्लाम के मज़हबी आदेशों के बीच मेल बिठाना मुश्किल होता है. वास्तव में बुद्धिजीवियों को इस तालमेल का रास्ता बनाने के लिए काम करना है. मगर वे अपनी ज़िम्मेदारी से बचकर चलते हैं और कहना चाहते हैं –‘हमें क्या?’

       संविधान के प्रावधानों और इस्लाम के आदेशों में तालमेल का रास्ता बन सकता है तो ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों से. ज़रा सोचिए, कितने ही मुसलमान हैं जो ISIS जैसे संगठनों के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहते हैं मगर कुछ कह नहीं पाते, ऐसी फ़िल्में इन लोगों की भी आवाज़ बनती हैं और उन्हें साहस देती हैं. बुद्धिजीवी यहाँ कूदकर कहेंगे कितने ही मौलवियों ने ISIS के खिलाफ़ बोला तो है. और क्या चाहिये? बेहतर है, ये बुद्धिजीवी चुप ही रहें. मुद्दा मौलवियों का नहीं उन मुसलमानों का है जो भारतीय प्रोलितेरीयेत का हिस्सा हैं.

       बुद्धिजीवियों से अपेक्षित है कि वे निडर होकर हम सब को समझायें क़ुरान को लेकर ईमानदारी से बात करना सम्भव नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी’ मत बनाओ. जहाँ मुसलमानों की बात हो वहाँ इस तरह सच कहना  उचित नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी मत दिखाओ. जहाँ दीन का सवाल हो वहाँ आधुनिक अर्थ-घटन ख़तरनाक है. इस्लामी दुनिया को समझकर चलें तो ये सभी सच्ची बातें हैं. पहले इस इस सच को कहने से बचना, फिर ‘द केरला स्टोरी’ पर रोक लगाने की बात करना डरपोकपन है, बुद्धिजीविता नहीं. सच कहना दरअसल क़ुरान का ही सम्मान करना है. क़ुरान का पूरा ज़ोर ‘हक़’ (सत्य) पर है.

       ये बुद्धिजीवी ‘रामायण’ का मुद्दा आत्मसात किये होते तो ‘द केरला स्टोरी’ इन्हें भी भारतीय प्रोलितेरीयेत का रक्षण कर रही फ़िल्म जान पड़ी होती. मगर इनका एजेण्डा कुछ अलग है.

       इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में इन बुद्धिजीवियों और इनके एजेण्डा को परिभाषित करने हेतु भी ‘रामायण’ की ओर देखा जाना चाहिए. राष्ट्र के तिरंगे से सम्राट् अशोक के धम्मचक्र को हटाकर वहाँ कलमा लिख दिये जाने के बाद इन की चुप्पी के कारण ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है.

       ‘रामायण’ का वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें राम युद्ध करते हुए रावण के दसों सिर और बीसों भुजायें काट डालते हैं, किन्तु वे फिर उग आती हैं. बार-बार ऐसा होता है. रावण के मारे जाने की कुंजी न जाने क्या है! तब विभीषण श्रीराम को सुझाते हैं कि रावण की नाभि में अमृत-कुण्ड है. नाभि पर प्रहार करने से रावण नष्ट हो जाएगा.

       ‘रामायण’ का नाम आते ही सबसे पहले वाल्मीकि-रामायण का ध्यान हो आता है क्योंकि राम-कथा का मूलभूत ग्रन्थ वही है. किन्तु यह प्रसंग वाल्मीकि-रामायण में न होकर ‘अध्यात्म रामायण’ में है.

       हमारे बुद्धिजीवियों की मनोवांछा के सम्मान में ‘अध्यात्म रामायण’ का विभीषण द्वारा बोला गया श्लोक तिरंगे पर वहाँ लिख दिया जाना चाहिये जहाँ अशोकचक्र हटाकर कलमा लिखा गया था! हिन्द पर ग़ाज़ी बनकर टूट पड़ने को तैयार ISIS के समूहों को ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ का रहस्य बतलाना बुद्धिजीवियों को आसान हो जायेगा — “इस देश की हस्ती मिटाने के लिए उस विचार पर प्रहार कीजिये जिसके अनुसार देश की बेटियाँ आद्या पराशक्ति देवी हैं. उसके बाद कोई ‘द केरला स्टोरी’ कहने का साहस नहीं करेगा! इस प्रहार के लिए लव-जेहाद एकदम कारगर अस्त्र है.”

       हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे कि देश के 80 प्रतिशत मुसलमान शान्तिप्रिय हैं. सबको दोष नहीं दिया जा सकता. ‘द केरला स्टोरी’ से 20 प्रतिशत के कारण सभी मुसलमानों की छवि ख़राब होती है.

       हमारे यहाँ ही क्यों, दुनिया में सभी जगह 80% लोग हमेशा शान्तिप्रिय होते हैं. विनाशलीला तो 20 प्रतिशत मूलतत्त्व (रेडिकल) ही मचाते हैं. नाज़ी जर्मनी को ही देख लीजिए. 80% जर्मन शान्तिप्रिय ही थे. तब भी हिटलरवादी प्रतिशत 6 करोड़ हत्यायें करने में सफल रहा. ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! रूस में भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी शेष 20% लोगों की बदौलत दो करोड़ से अधिक लोग मारे गये! ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! दूसरे विश्वयुद्ध के समय जापान के भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी जापानियों ने लगभग सवा करोड़ हत्यायें कीं. 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के समय अमेरिका में भी ढाई लाख अरब शान्ति से रह रहे थे. केवल 19 जिहादी थे जो 9/11 के दिन पूरे अमेरिका को घुटनों पर ले आये थे. वहाँ के ढाई लाख शान्तिप्रिय अरब किस काम के थे? किसी काम के नहीं!

       80% शान्तिप्रिय के भरोसे प्रोलितेरीयेत को अब और मुग़ालते में नहीं रखा जा सकता. 1947 में विभाजन तथा करोड़ों हत्याओं के समय भी ‘शान्तिप्रिय’ लोगों का प्रतिशत लगभग यही था मगर वे भी नबी के आदेश और उम्मा से बाहर नहीं थे. इनके लिए देश ‘भारतमाता’ नहीं ज़मीन का टुकड़ा है. अब और चाहिए! केवल यहाँ का नहीं, विश्व-भर का अनुभव सबके सामने है.

       हमारे ये शान्तिप्रिय बुद्धिजीवी सब बुद्धिजीवियों का 80% होते भी तब भी यह सच इन्हें जान लेना चाहिये कि हृदय से विचार और बुद्धि से प्रेम करना नष्ट हो जाने के मार्ग पर पहला चरण है. प्रोलितेरीयेत को शब्दकोश में धकेलने के दिन से ये उसी मार्ग के मुसाफ़िर हैं. इस तथ्य का प्रमाण यह है कि ये अब केवल ‘पुरस्कृत’ कृतियाँ दे पाते हैं.

       एक व्यक्ति बुक-स्टोर पर गया और काऊंटर पर खड़ी लड़की से बोला — “मुझे कोई पढ़ने योग्य पुस्तक दीजिए.”

       काऊंटर-गर्ल ने किताबों का ढेर लगा दिया — “इसे नोबेल पुरस्कार मिला है, यह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित है, इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है, इसने राज्य अकादमी पुरस्कार पाया था, इस पुस्तक को भाषा-पुरस्कार से नवाज़ा गया है, इसे गाँधी पुरस्कार, इसे मन्त्री पुरस्कार, इसे नुक्कड पुरस्कार, इसे पनवाड़ी पुरस्कार, इसे…इसे…इसे…..”

       उस व्यक्ति ने हाथ आगे बढ़ाया और पुस्तकों के पूरे ढेर को एक ओर सरकाते हुए कहा — “मैंने कोई पढ़ने योग्य पुस्तक माँगी है.”

       ये बुद्धिजीवी, ये साहित्यकार-कवि, ये मीडिया-कर्मी किस काम के हैं?

       उत्तर प्रत्यक्ष है.

       तब क्या ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फ़िल्म बनाना और पूरे देश को दिखाना ज़रूरी नहीं हो जाता?

       मगर हमारे बुद्धिजीवी मानेंगे नहीं. इसलिए उनके इरादों को ऑथेंटिक बनाने के लिए ‘अध्यात्म रामायण’ से विभीषण-कथन का मूल श्लोक प्रस्तुत है —

              नाभिदेशेSमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्…….

       मैं ‘द केरला स्टोरी’ देखने के इन्तज़ार में हूँ. एक-मनस्क होकर देखूँगा. मुद्दे से नहीं भटकूँगा. यह वादा है.

13-05-2023

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पत्थर का रहस्य


जो लोग हमारे प्रति शत्रु-भाव रखते हैं उन्हें ठीक से जानेंगे नहीं तो उनसे निपटेंगे कैसे?

इसलिए इसे पढ़ने के बाद यदि आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ कहें तो मुझे आपत्ति नहीं होगी.

यस सर, हिन्दू होकर भी मैं उनकी आसमानी क़िताब आपको पढ़वाना चाह रहा हूँ. तब भी आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ न कहें तो हज़ारों बार सूरज भले उग लिया, मगर आप सो रहे हैं.

रामनवमी की शोभा-यात्राओं पर पत्थरबाज़ी हिन्दू नव-वर्ष पर हुई पत्थरबाज़ी की ही कड़ी है.

पूर्व-नियोजित.

करौली, राजस्थान की यह पत्थर-हिंसा अगस्त 2020 में बंगालुरु, कर्णाटक की अगली कड़ी थी.

पूर्व-नियोजित.

इसके पहले की कड़ी थी 2020 में ही फ़रवरी में दिल्ली में पत्थर-वर्षा.

पूर्व-नियोजित.

ये पत्थर 1990 में कश्मीर के रलीव (मुसलमान बनो), चलीव (छोड़कर भाग जाओ) या गलीव (मारे जाओ) की ही शृंखला में थे.

पूर्व-नियोजित.

1990 का कश्मीर सत्रहवीं शताब्दी में गुरु तेग़बहादुर को जलते तवे पर बैठाने और उनका सिर काटकर चाँदनी चौक में लटकाने के ‘गलीव’ की निरन्तरता में था.

प्रशासनिक स्तर पर नियोजित.

अठारहवीं शताब्दी का नादिरशाही क़त्लेआम अल्लाह के फ़रमान के मुताबिक था.

पूरी तरह नियोजित.

लगभग ढाई-तीन वर्ष पहले मैंने इस पत्थरबाज़ी पर कुछ निवेदन किया था. उस निवेदन के कुछ अंश यह ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’  यहाँ दोहरा रहा है.

पत्थरबाज़ी को अभी तक हम अपने न्यूज़ चैनलों पर देख-देख कर ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ से आगे और कुछ नहीं समझ रहे. कश्मीर में बरसों-बरस चली पत्थरबाज़ी को कैसे और क्यों हिन्द के हर शहर में लाया गया, बोरियों में भर-भरकर पत्थर क्यों इकट्ठे किए गए, क्यों गाड़ियों-ऑटोरिक्शाओं में ढोये गए और कैसे पूरी प्लानिंग की गई इसकी गंभीरता हम तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम इस्लाम में ‘रज्म’ (रजम) का महत्व नहीं जानेंगे.

अपनी बेशुमार ‘उम्मतों’ में उलझे हुए हिन्द को इतमीनान से मुग़ालता है कि पत्थर और इस्लाम-कनेक्शन जैसा कुछ होता नहीं. चाहे तस्लीम रहमानी हो, चाहे महमूद पराचा, चाहे असदुद्दीन ओवेसी, या फिर शोएब जमई, इन सबके बयानों और गतिविधियों को हम रजम, हिज्राह, शिर्क-अल-अक़बर, दारुल इस्लाम आदि परिभाषाओं को जाने बिना समझ नहीं पाएंगे. मुग़ालते में ही रहेंगे. ये कनवर्टेड हिन्दू लीडरान इन्हीं शब्दों को घिस-घिस कर अपनी ‘वर्क-फ़ोर्स’ को काम में लगाते हैं. जैसे पहले कश्मीर में और अब हिन्द के बड़े हिस्से में लगाया.

जब तक आप इस तरह की पूरी शब्दावली को ठीक-ठीक नहीं जानेंगे, आप यही समझते रह जाएंगे कि कहने वाला अपने मज़हब की आयत के उद्धरण दे रहा होगा. कुछ उस तरह जैसे किसी से गीता का कोई उद्धरण सुना और समझे बिना भी उसे धार्मिक उल्लेख समझ लिया. मज़हब की आयतें ये शब्द नहीं हैं, आयतों की व्याख्या क्यों और कैसे करें उसकी चाबी इस शब्दावली में छिपी है.

‘रजम’ का सीधा-सा मतलब है पत्थर मारना. हज के दौरान शैतान को सात पत्थर मारना भी यही है. ‘हुदूद’ की सज़ाओं के लिए भी शरीयत में ‘रजम’ बताया गया है. ‘हुदूद’ को अपने-अपने प्रान्तवाद-भाषावाद में उलझे हम हिन्द के ‘उम्मती’ इस तरह समझें कि जिसने लक्ष्मण-रेखा पार कर दी, हद से आगे चला गया वह ‘हदूद’ की सज़ाओं का हकदार हो गया. उसे ‘रजीम’ करना ही पड़ेगा. ‘रजीम’ यानी जिसे पत्थरों से मारा जाए. ‘रजीम’ के लिए ‘रजूम’ हो जाना – यानी पत्थरबाज़ बन जाना — मोमिनों पर फर्ज़ है.

समझें — पत्थरबाज़ी मुसलमानों का धार्मिक मान्यता प्राप्त ‘फर्ज़’ है!

हिन्द के हिंदुओं से बढ़कर ‘रजीम’ (पत्थर मारने योग्य) और कौन होगा जो अल्लाह के बराबर बहुत-से देवी-देवता लाकर, ईश्वर की मूर्त्ति बनाकर, और भी बहुत सी मूर्त्तियाँ – जैसे बुद्ध आदि की मूर्त्ति बनाकर हद पार कर गए हैं?

यह ‘शिर्क-अल-अक़बर’ है – बहुत बड़ा कुफ़्र. हिन्दू तो अल्लाह के सिवा दूसरे की भी कसम खा लेते हैं, जैसे ‘राम-कसम’. यह थोड़ा छोटा कुफ़्र है – ‘शिर्क-अल-असग़र’.

इसलिए हिंदुओं के ऊपर पत्थरबाज़ी मुसलमानों पर मज़हब का बताया फर्ज़ है. क़ुरान-ए-मजीद की क़सम!

जो बात ये मुसलिम नेता असलीयत सामने आ जाने से बचने के लिए बोलेंगे नहीं, मगर जिस कारण इन्होंने हमेशा मुसलमानों को ‘रजूम’ अर्थात् पत्थरबाज़ हो जाने को सबाब और फर्ज़ कहकर उकसाया है, उसका आधार है ‘हिज्राह’.

‘हिज्राह’ यानी अपनी जगह से दूसरी जगह जाना. हज़रत मुहम्मद जब मक्का से मदीना गये थे तो वह ‘हिजरत’ थी.

‘हिज्राह’ को मस्जिदों और मदरसों में जिस तरह समझाया जाता है उसे देखते लगता है यह पत्थरबाज़ी तो कुछ भी नहीं!

एक मुसलिम देश से जाकर दूसरे मुसलिम देश में पनाह लेने को सऊदी अरब जैसे देश अथवा अन्य मुस्लिम देश बढ़ावा नहीं देते. उनके मज़हब के आदेश से उन्हें मालूम है मुसलमानों को ग़ैर-मुसलिम देशों में जाकर बसना चाहिए. इसके लिए ये देश बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. इस्लामिक देश यही पैसा उजड़कर आए इन मुसलमानों के कल्याण के लिए ख़र्च नहीं करते. उन्हें ग़ैर-इस्लामिक देशों में बसाना इसलिए ज़रूरी समझते हैं कि वे वहाँ रहकर उन देशों का इस्लामीकरण करें. अगर वे देश सीधे-सीधे नहीं मानते तो उन्हें भी उजाड़ें.

क्योंकि इनके मुताबिक़ इस्लाम ने दुनिया को एकदम साफ़-साफ़ बाँट रखा है. और यह बँटवारा अल्लाह का हुक्म है.

अल्लाह की बनाई इस ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ के लोग इस्लाम पर ईमान लाते हैं ‘दारुल-इस्लाम’ कहलाता है. सभी घोषित इस्लामी देश ‘दारुल-इस्लाम’ (दार-अल्-इस्लाम) हैं.

कुछ जगहें ऐसी हो सकती हैं जहां सब तो मुसलमान नहीं हो गए, मगर ऐसे देशों के पड़ोस में जो ‘दारुल-इस्लाम’ है उसके साथ अगर उनका यह समझौता हो गया है कि हम ‘अपने मुसलमानों का’ पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे तो वे देश ‘दारुल-सुलह’ या ‘दारुल-अहद’ हुए. अर्थ हुआ ‘संधि-प्रदेश’. ऐसे ‘दारुल-अहद’ देशों के ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया हमेशा जारी रहती है.

मगर जो देश जब तक पूरी तरह इस्लामी नहीं बन जाते उन्हें ‘दारुल-हर्ब’ कहा जाता है. ‘दारुल-हर्ब’ – यानी युद्ध क्षेत्र. 1947 में पाकिस्तान बना तो वह था ‘दारुल-इस्लाम’. भारत जो रह गया वह हुआ ‘दारुल-हर्ब’. अतः टुकड़े-टुकड़े गैंग का एक और इंशा अल्ला नारा है – “भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”.

‘दारुल-हर्ब’ में जिहाद हमेशा जारी रहता है. हिन्द है तो जब तक ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ करके ईंट से ईंट न बजा दी जाए, तब तक जिहाद होता रहेगा. बचना है तो इस्लाम क़बूल कर लो.

हमारे ये कन्वर्टेड हिन्दू पूरे मन से जो भी कुछ कहते-करते हैं वह बेमतलब नहीं है.

यदि आप इनकी किसी बात पर भरोसा कर लेना चाहें तो जैसे इनका खाना-पीना ‘हलाल-सर्टिफ़ाइड’ है, वैसे ही इनकी भरोसे-जैसी बात ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ होती है.

‘तक़ीया’ जानते हैं न? वह भी मोमिनों का मज़हब-सम्मत फ़र्ज़ है. सीधा-सीधा शब्दकोषीय अर्थ है — जो बात कहने का मन न हो उसे भी तात्कालिक लाभ के लिए झूठ-मूठ कह दो! जबकि ये तो पूरे मन से, पूरी ईमानदारी से ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ बात कहते हैं. ये जानते हैं, आप ‘तक़ीया’ के बारे में न जानने से चुप लगा जाएंगे. और ये आगे बढ़ लेंगे.

अगर आप इतनी-सी इस बात को पत्थर खा-खाकर हज़ारों साल में भी नहीं समझे तो आप धर्मनिरपेक्ष नियम के अनुसार इस्लाम की इज्ज़त नहीं करते.

आप ‘रजीम’ हैं. पत्थरों से मारे जाते रहना आपकी नियति है और पत्थर मारना ‘रजूमियों’ का मज़हबी फर्ज़ है.

जय श्रीराम.

12-04-2022

एक केमिकल लोचा


[इस लेख में संकलित अनेक विचार व कथन मेरे अन्य लेखों में भी हैं. आवश्यकतानुसार यहाँ पुन: लिखे गए हैं.]

अमेरिका के न्यूरोसाइंटिस्ट सैमुएल हैरिस ने अभी कोई सात साल पहले एक किताब लिखी थी  —  ‘वेकिंग अप’. सैम एक पॉडकास्टर भी हैं, मीडिया के आदमी हैं. तर्क, धर्म, नैतिकता, आतंकवाद से लेकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तक सब उनके लेखन व शोध के विषय हैं. ‘वेकिंग अप’ के पहले ही अध्याय में सैम ने एक्सटेसी नामक ड्रग (methylenedioxy-N-methylamphetamine) का अपना अनुभव बताया है कि कैसे उस रसायन ने उनके दिमाग़ में एक केमिकल लोचा किया. इस अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य-जीवन को ड्रग से नहीं, धर्म-अध्यात्म के केमिकल लोचे से – बौद्ध-चिन्तन पर उनका ज़ोर है, बहुत बेहतर बनाया जा सकता है. ड्रग के प्रभाव में वह अपने निकट बैठे मित्र के लिए अचानक अपार प्रेम से भर गए. इतना कि वह उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर सकते थे. उनके सामने उस मित्र की प्रसन्नता ही सब कुछ हो गई जो उस समय उनके प्रेम का लक्ष्य था. सैम का कहना है कि उस क्षण जो भी उनके दरवाज़े से प्रवेश करता वही इस अपार प्रेम का हिस्सा बन जाता. सैम ने इस अनुभूति को नैतिक परिप्रेक्ष्य में और उसके परे जाकर वर्णन किया है.

सैम हैरिस के अनुभव से यह भी पता चला कि जो भी कुछ दिमाग़ में केमिकल लोचा कर सके उसी के प्रति सजगता अनिवार्य है. फिर वह चाहे ड्रग हो, कोई अन्य नशा हो, धर्म हो, या फिर कोई मान्यता, आस्था, विश्वास या विचार. आचार्य मार्क्स ने तो धर्म को अफ़ीम कहा ही था. 

मुट्ठी भर-भर रात-दिन विचार उलीचने वाला मीडिया दिमाग़ी केमिकल लोचा करने में आज धर्म से बढ़कर ताक़तवर नशा है. इसलिए मेरा यह निवेदन अपने मीडिया-मित्रों से विशेष रूप से है. क्योंकि विचार को अब विज्ञान किसी तरह का धुआँ या गुबार न मानकर एक जीवित सत्ता  — एक  living entity मानता है. इस विषय में अनुसंधान करने वालों ने पाया कि विचार रेंगते हुए एक से दूसरे दिमाग़ में प्रवेश करते हैं.

उदाहरण के लिए मिट्टी के किसी खिलौने या गुल्लक वगैरह की कल्पना कीजिये, जिसे बहुत समय से किसी ऊँची जगह, किसी आले में या किसी अलमारी के ऊपर रखकर छोड़ दिया गया हो. फिर वह एक दिन अचानक हमारे हाथ से गिरकर टूट जाता है. उसमें से निकलकर अनेक कीड़े रेंगते हुए चलते हैं और आस-पास रखी वस्तुओं, फ़र्नीचर आदि में जा छुपते हैं.

इन शोधकर्त्ताओं ने किसी मरते हुए व्यक्ति का उदाहरण देते हुए कहा है कि उस व्यक्ति के विचार भी टूट गए मिट्टी के खिलौने में से निकलकर रेंग आते हैं और आस-पास खड़े लोगों में प्रवेश कर जाते हैं. विचार रह गए, यद्यपि मिट्टी का शरीर गया मिट्टी में. बाइबिल कहती है – डस्ट अनटु डस्ट! किन्तु मुझे लगता है किसी व्यक्ति की हत्या शायद इसलिए नहीं बुरी कहलाती कि वह कोई अधार्मिक कुकृत्य है, बल्कि इसलिए बुरी है कि वह एक विचारहीन हिंसा है.

अच्छे या बुरे विचार कभी मरते नहीं. हमेशा बने रहकर दिमाग़ों में केमिकल लोचा करते रहते हैं.

हो न हो अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस  का भी सम्बन्ध ऐसे ही केमिकल लोचे से है. मीडिया से भी पहले सबसे बड़े लोचा-कर्त्ता धर्म और उसके ईश्वर के बारे में मेरा सोचना कुछ ऐसा है कि मनुष्यों का ईश्वर केवल इसलिए मनुष्यों जैसा है क्योंकि अगर चींटियों का कोई ईश्वर है तो वह चींटियों जैसा होगा, मच्छरों का मच्छर जैसा और बकरियों का बकरी जैसा. वह निराकार परमात्मा जब स्वयं को मनुष्य के रूप में प्रकट करता है तो वह शरीर के गुण-सूत्र – chromosome – से स्वयं को बचाकर नहीं करता. एक्स (X) और वाई (Y) दोनों क्रोमोज़ोम का नियंता यही ईश्वर (प्रकृति) है. यह उसका ख़ुद का निर्णय है कि मनुष्य शरीर में XX क्रोमोज़ोम प्रधान होंगे तो वह मनुष्य-शरीर ‘स्त्री’ कहलाएगा. और जब XY के जोड़ीदार यानी pairing क्रोमोसोम की प्रधानता रहेगी तो मनुष्य-शरीर ‘पुरुष’ होगा. यों दोनों तरह के शरीरों में दोनों तरह के क्रोमोज़ोम मौजूद रहते ही हैं. यह विज्ञान-सम्मत सत्य है. पुरुष-शरीर के Y गुणसूत्र को पूर्ण होने के लिए X की आवश्यकता है जबकि स्त्री XX के साथ अपने आप में पूर्ण है. विज्ञान भी female species को अधिक मज़बूत (stronger) कहता है.

XX और XY क्रोमोज़ोम के सन्दर्भ में ध्यान देना होगा कि पश्चिम का मनोविकास इस पृष्ठभूमि में हुआ है कि हव्वा को आदम की डेढ़ पसली से बनाया गया था. इसलिए जिस तरह पुरुष मूलतः ईश्वर (की सेवा) के लिए है वैसे ही स्त्री (पुरुष की अधीनता) के लिए है. ये संदर्भ बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट में उपलब्ध हैं. स्वर्ग से आदम के पतन की भी वजह स्त्री को ठहराया गया. निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन….(मिर्ज़ा ग़ालिब). पश्चिमी मन पूरी तरह इस ‘आदिम पाप’ – archetypal sin – की छाया में पला-पनपा है तथा एक बुनियादी अपराध-बोध में क़ैद है.

आज से दो-एक दशक पूर्व तक हम east meets west की बात करते ज़रूर थे, और यह भूगोल की बात नहीं थी, मगर सच्चाई यह है कि आज पूरब कहीं है नहीं. विचार के भूगोल में पश्चिम में भी पश्चिम है और पूरब में भी पश्चिम है. इस तरह हमारा यह archetypal sin दुनिया भर के दिमाग़ों में केमिकल लोचा कर रहा है जिसे हम ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ कह रहे हैं ताकि हम अपने आदिम पाप-बोध को थोड़ा-बहुत पूर सकें.

इस केमिकल लोचे का सम्बन्ध सीधे-सीधे original sin के archetype से बन गए हमारे मनोवैज्ञानिक ढाँचे से है. महिला को समानता और आज़ादी भी देगा तो पुरुष देगा! मीडिया को यह सोचना और स्थापित करना है कि डेढ़ पसली तो क्या, स्त्री को कुछ भी देने वाला पुरुष है कौन?

यहाँ फिर दोहरा दूँ कि यह निवेदन समाज का वैचारिक नेतृत्त्व करने वाले मीडिया के प्रति है. मीडिया से इतर समाज में, विभिन्न देशों में नीतियाँ बनाने वाली सरकारों में अपराध-बोध को पूरने से ही सही, स्त्री के पक्ष में जो हुआ है शुभ हुआ है. नोबेल पुरस्कार पाने वाले लेखक वी.एस. नॉयपाल को याद करें तो उनके अनुसार संसार में ये तीन हैं जो वास्तव में शोषित और दलित हैं – भारत के दलित, संसार भर की स्त्रियाँ और स्वयं भारत देश!  

बाइबिल के बाद अब हम भारत के पुराणों को देखते हैं. किसी धार्मिक विवेचन के लिए अथवा कम या ज़्यादा अच्छा-बुरा कहने के लिए नहीं. विचार-संस्कार के archetype जो केमिकल लोचा करते हैं उनकी पृष्ठभूमि में. यों देखा जाए तो कोई विचार यदि विज्ञान-सम्मत होने से श्रेष्ठतर है और उसकी श्रेष्ठता को केवल इसलिए स्वीकार करने से बचा जाए कि वह मूलत: भारतीय मूल का है, उचित नहीं है. मीडिया में तो बिलकुल नहीं.

पुराणों में संदर्भ है कि एक बार नारायण ध्यान लगाकर बैठ गए. ब्रह्मा सहित अन्य देवताओं ने जिज्ञासा व्यक्त की कि भगवान् पद्मनाथ तो स्वयं सबका ‘कारण’-तत्त्व हैं, सब उन्हीं का ध्यान करते हैं. उनसे ऊपर तो कोई है नहीं. तब नारायण किसका ध्यान कर रहे हैं ? नारायण ने स्पष्ट किया कि महामाया जगदम्बिका की शक्ति के बिना मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता. मैं उन्हीं का ध्यान कर रहा हूँ.

इस कारण नारायण स्वयं वही हैं जो आदिशक्ति जगदम्बिका हैं. और आद्याशक्ति देवी वही हैं जो नारायण हैं ! इस शक्ति के बिना शिव केवल ‘शव’ हैं. जब मनुष्य घोषणा करता है – ‘अनल हक़’ —  ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तो वह XY pairing वाले पुरुष-शरीर तक सीमित घोषणा नहीं है. ‘मैं ही सत्य हूँ, ब्रह्म हूँ’ का यह उद्घोष XX क्रोमोज़ोम-प्रधान शरीर वाली मानुषी के लिए भी स्वतः सिद्ध है.

इतना ही नहीं, यह XY और XX भी माया हैं. सृष्टि-चक्र चलता रहे इसलिए हो रही लीला. एक फूल दूसरे फूल पर नया फूल खिलाने के लिए जैसे पराग फेंकने का खेल करता हो. हमसे वही भूल हो रही है जो सन्नाटे पर नहीं शब्द पर, शून्याकाश पर नहीं, पदार्थ पर ध्यान देने में होती है. हम स्त्री देख रहे हैं, पुरुष देख रहे हैं जबकि हमारी क्षमता XX की लीला और XY की माया को देख पाने की है. पुरुष के रिश्ते से हमें XY के pairing क्रोमोज़ोम में फ़िज़िक्स की लीला को देखना है और स्त्री की दिशा से XX क्रोमोज़ोम में केमिस्ट्री की माया को देखना है. पुरुष को श्रेष्ठ कहकर हम मिथ्या सम्भाषण कर रहे हैं. स्त्री को पुरुष के समान बताकर हम उसे उसकी श्रेष्ठता से गिरा रहे हैं. जीवन-चक्र का संचालन करने में यदि XY की pairing ‘बल’ है और घृत की तरह है तो XX क्रोमोज़ोम संचालित जीवन का ‘माधुर्य’ है और मधु की तरह है. घृत और मधु को समान भाग में मिलाने से कोब्रा के विष से भी भयंकर विष बन जाता है. पश्चिमी सोच के मूल अपराध बोध से ऐसा दिमाग़ी केमिकल लोचा हुआ कि समानता के फेर में अधिकांश गृहस्थियाँ विषाक्तता का दंश झेल रही हैं. हर नया फूल (सन्तान) वैसा बनता है जैसी माँ होती है. छत्रपति शिवाजी को माता जीजाबाई ने बनाया. यह मातृत्त्व और कुछ नहीं क्रोमोज़ोम का लोचा है और इस तरह जीवन-शैली का आधारभूत तत्त्व है. विचार का सही केमिकल लोचा लाने से स्त्री-शक्ति को प्राप्त अवसर जस के तस रह जाते हैं, कहीं चले नहीं जाते.

प्रचार-माध्यमों में होती हमारी बात एक नारेबाज़ी, एक औपचारिकता होकर रह जाती है. क्रोमोज़ोम न नारा है, न औपचारिकता. मीडियाकर्मी भी यदि मीडिया के केमिकल लोचे का शिकार होकर बात करेंगे तो समाज में उनकी विशिष्ट हैसियत का क्या होगा?            

मगर लीला और माया को देख पाने मात्र से हिंसा नहीं मिट जाती. जैसे आत्मा अमर है कहने से गर्दन अमर नहीं हो जाती. गर्दन आत्मा नहीं है इसलिए तलवार से कटती रही है. उसी तरह नारायण और उनकी लीला के बावजूद भारत में सब ठीक था या सब अच्छा-अच्छा है, ऐसा कहना अपने आप को छलने जैसा होगा.  धीरे-धीरे पूरब फिर आँख ज़रूर खोल रहा है क्योंकि यह archetype विज्ञान-सम्मत अधिक और धर्म-सम्मत कम है. ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग यहाँ ‘मज़हब’ के अर्थ में हुआ है, गुण-धर्म के अर्थ में नहीं.

मीडिया को इन मौलिक पाप-पुण्य वाली धारणाओं से होने वाले केमिकल लोचे से स्वयं को बचाते हुए देखना यह है कि शिक्षित सभ्य समाज में धन और सत्ता के बल पर चल रहे छद्म को कैसे पहचानें. शोषक-वर्ग के ये विशेष लक्षण पुरुषों के behaviour में अधिक दिखाई देते हैं. अब समानता का दौर है इसलिए आप इन लक्षणों को स्त्रियों में भी देख सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर, धनवान अथवा सत्ताधीश व्यक्ति (पुरुष हो या स्त्री) दूसरों के कल्याण-कार्यों के लिए काम कम करेगा, उनमें रुचि ही नहीं लेगा, दिखावा ज़्यादा करेगा. वह हमेशा दूसरों को एक ख़ास ‘टाईप’ की परिभाषा से आँकेगा. आपसे बात करेगा तो आपसे बराबरी पर आँख मिलाकर बात करने में अपनी हेठी समझेगा. अपने बारे में उसे हमेशा यही लगेगा कि जो भी कुछ वह चाहे उसे वह मिलना उसका जन्मजात अधिकार है. दूसरा कोई भी सामने हो तो वह सवाल किये बिना उसकी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए है. क्योंकि व्यवहार के जो नियम दूसरों के लिए हैं, वे उसपर लागू नहीं होते. गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर ही रखा रहता है और पलटवार के अंदाज़ में जवाब देने में ही उसकी श्रेष्ठता है! क़ानून कोई सा भी हो उसे तोड़ने में उसकी शान है! उसे तो कोई हाथ तक नहीं लगा सकता. वह क़ानून के ऊपर की सत्ता है. उसके ग़ैरक़ानूनी व्यवहार और धंधों में उसे उसी जैसे दूसरे लोगों का साथ और समर्थन भी मिल जाता है.

पैसे और सत्ता वालों के बच्चे बचपन से ही ये सब लक्षण अपने माँ-बाप से सीखते रहते हैं. सत्ता बहुत लुभावनी होती है और बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती है. हिन्दू शास्त्रों ने तो सत्ता के जाल के फैलने को बताया ही इन शब्दों में है : “बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति”! इसीलिये पॉवर आदत डालने वाली चीज़ है. ज़्यादातर यह आदत नशों की होती है.

सबसे ख़ास बात तो यह है कि सत्ता की स्थिति में आने को प्रयत्नशील व्यक्ति हर तरह की सामाजिक हैसियत का इस्तेमाल करके सत्ता में पहुँचता है और पहुँचते ही भूल जाता है कि अब उसे समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार करना उचित है. इस प्रक्रिया में उसने अगर कभी किसी का अहसान लिया होता है तो उसकी खिसियाहट मिटाने के लिए वह दुर्व्यवहार को नॉर्मल मानता है. कभी अहसान का बदला चुकाने के लिए अहसानकर्त्ता को उसकी ज़रूरत भी पड़ सकती है. ऐसे में उसे ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं जो वह नहीं करना चाहता!

इस सब लक्षणों से पुरुष का ध्यान आता है या स्त्री का, कहना मुश्किल है. 

जिस किसी ने अपने को किसी भी पॉवर की हैसियत में माना – पैसा, अधिकार और अफ़सरी, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार की हैसियत, कलाकार का दर्ज़ा, चर्च-मस्जिद-मन्दिर का मठाधीश, आध्यात्मिक गुरु या बाबा, अत्यन्त रूपवती स्त्री — समझ लीजिये कि उसके हाथों अन्याय होने ही वाला है! हमें महिला दिवस, दीन-दुःखी दिवस, मज़दूर दिवस, ग़रीब दिवस, कृषक दिवस, पर्यावरण दिवस, हिन्दी दिवस की, और वह दिन दूर नहीं जब इन्सान-दिवस की ज़रूरत पड़ने ही वाली है. ध्यान दें तो ये सब युग-युगान्तर से  रेंगते चले आये अविचार का केमिकल लोचा हैं.

मीडिया पर ख़ुद यह समझकर औरों को, स्त्री और पुरुष सबको समझाने का दायित्व है कि दूसरों को अपनी सम्पत्ति समझना बन्द करो!  

08-03-2021

विचित्र किन्तु सत्य !


चलिये, मैं आपको एक अलग ही दुनिया में लिये चलता हूँ.

आकाशवाणी और दूरदर्शन के अधिकारियों ने मिलकर व्हाट्सऐप पर एक ग्रुप बनाया जिसमें लगभग दो सौ सेवा-युक्त और सेवा-मुक्त अधिकारी शामिल हुए – अनेक महानिदेशक, अवर महानिदेशक, उप-महानिदेशक, केंद्र निदेशक व अन्य अधिकारी. इनमें अनेक इंजीनियर भी थे. इस ग्रुप में अपने अनुभव, विचार और अपने बारे में बताते हुए परिचित-अपरिचित साथियों के बीच एक दिलचस्प आदान-प्रदान होता रहा. ऐसे अवसर का एक क़तरा यहाँ प्रस्तुत है जिसमें आपको संस्मरण की तरलता मौजूद मिलेगी.   

यह दुनिया इतनी भी अलग नहीं थी कि आकाशवाणी की दुनिया न हो. बल्कि कहना चाहिए यह एकान्ततः आकाशवाणी की ही दुनिया थी. जब अलग-अलग लोग व्हाट्सऐप पर अपना सब तरह का इतिहास कह ही रहे हैं – अच्छा भी, बुरा भी, तब मुझे लगा यह भी इसलिए कह लिया जाए कि यह सब इसी आकाशवाणी में सचमुच हुआ था!

इसमें से जो आपको कहने जैसा लगे, उतना ही सुनियेगा, बाक़ी छोड़ दीजिएगा.

जब-तब मैं आकाशवाणी के अपने अनेक गुरुओं का ज़िक्र करता रहा हूँ –  श्री डी.के. सेनगुप्ता, श्री गिजुभाई व्यास, श्री के. के. नय्यर और अन्य अनेक. किन्तु मेरे पहले और आख़िरी गुरु थे आकाशवाणी, जलंधर के असिस्टेंट प्रोड्यूसर (बाद में प्रोड्यूसर) स्वर्गीय श्री विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक’. मेरे पिता.

बचपन से ही उन्हें कभी रूपक, कभी संगीत रूपक या संगीत-ऑपेरा, कभी नाटक-झलकी तो कभी गीत लिखते देखता था. किराये के मकान के आँगन में खुरदरी खाट बिछाकर, उसपर लोहे का ट्रंक टिकाकर, ट्रंक पर काग़ज़ रख लेते थे और लिखा करते थे. आर्थिक संघर्ष करते परिवार के पास टेबिल-कुर्सी की सुविधा नहीं थी. उन काग़ज़ों को समेटने और सलीके से रखने में कुछ-न-कुछ मेरे भीतर भी सेंध लगाता रहा होगा.

पिताजी की बदौलत मैं आकाशवाणी के उन दिनों से परिचित था जब ‘द इंडियन लिसनर’ या ‘सारंग’ नामक पत्रिकाओं में विभिन्न केन्द्रों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों का विवरण प्रकाशित होता था और छापे गए एक भी कार्यक्रम के प्रसारित न होने पर, जिसे आकाशवाणी की अंदरूनी भाषा में ‘डेविएशन’ — deviation कहते थे, सम्बन्धित व्यक्ति को नौकरी से निकाल दिया जाता था. ये वे दिन थे जब नाटकों के लिए ड्रामा-वॉयस और इफेक्ट्स्मैन के पद होना विभाग का ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था. ड्रामा भी लाइव प्रसारित होते थे. ‘केवल आलेख’ के रूप में आमंत्रित वार्त्ताओं को लाइव पढ़ने के लिए प्रोड्यूसर को रात को भी दोबारा ऑफ़िस जाना होता था.

रेडियो के श्रोताओं को सब कुछ चकाचक देने का काम चुनौती-भरा था जिसकी अपनी अलग ही थ्रिल थी. रेडियो का दबदबा था. इसके लिए इतना कहना कि तब इलेक्ट्रोनिक मीडिया में रेडियो अकेला ही था, कोई प्रतियोगिता या चुनौती नहीं थी, उस समय की बेहद अनुशासनपूर्ण और अद्भुत कार्य-संस्कृति का तिरस्कार ही कहा जाएगा.

मुझे इसका भी अहसास बराबर हासिल होता रहा कि एक कवि, रचनाकार या सृजनशील व्यक्ति को यथोचित सम्मान न देना कैसा महापाप है. दफ़्तरी व्यवस्थाओं का हिस्सा हो जाने के बाद भी इस अहसास को अपने अन्दर जीवित रखने में मैं सफल रहा. 

अपने स्वाभिमान, स्पष्टवादिता, निर्भीकता, क्रोध एवं अतिशय भावुक हृदय के लिए जाने जाते बटुकजी को अनदेखा करना लगभग असम्भव था.

जलंधर (तब ‘जालन्धर’) में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई आयोजन था (आकाशवाणी का नहीं था) जिसका उद्घाटन तब के उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवनराम ने किया था और संचालन बटुकजी कर रहे थे. अपने उद्घाटन-भाषण में कहीं श्री जगजीवनराम कह बैठे कि हिन्दी किसी की भी मातृभाषा नहीं है. फिर क्या था, बटुकजी अपने संचालन-वक्तव्य में वहीं बाबू जगजीवनराम से भिड़ गए. उप-प्रधानमंत्री का तो ख़ैर क्या बिगड़ना था, कांट्रैक्ट-याफ़्ता असिस्टेंट प्रोड्यूसर की नौकरी पर ज़रूर बन आयी थी. बहुत दिनों तक बावेला मचा रहा था.

कांट्रेक्ट-याफ़्ता का मतलब था, उन दिनों जाने-माने लेखक, संगीतकार आदि नियमित नौकरी में न होकर एक निर्धारित मासिक शुल्क का अनुबंध स्वीकार करते थे और आकाशवाणी के लिए काम किया करते थे. एक तरह से यह नौकरी थी भी — रोज़ी-रोटी का जुगाड़, और नौकरी नहीं भी थी.     

हमारे घर में आने-जाने वालों में कुछ नाम याद आते हैं – बनारसीदास चतुर्वेदी, उपेन्द्र्नाथ ‘अश्क’, पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, जयनाथ ‘नलिन’, मधुर शास्त्री, श्यामाचरण श्रीवास्तव…. 

याद आता है नुक्कड़ के राशनवाले का उधार, माँ का बहुत-सा वक़्त आटा गूँधने में निकलना, घर की हवा का ऐसा होना कि जिसमें कविता, साहित्य, दर्शन-चिन्तन पर होती चर्चाएं होली के रंग और गुलाल के गुबार-सी उड़ा करें. रंग भी ऐसा कि कितना भी मल-मल कर नहाओ, न छूटे! जिसे दुनियावी समझ कहते हैं – practical prudence – कभी खिड़की के काँच पर दो हथेलियों को टिकाकर मिचमिची आँखों से हमारे घर के अन्दर झाँकने आयी भी होगी तो ज़रूर लौटते पाँवों से आयी होगी.      

शिक्षा-दीक्षा में जब मैं एम.ए. तक पहुँचा तो हम बाप-बेटा रोज़ सुबह एक-सवा घंटे की सैर को जाते थे. उस एक घण्टे में किसी दिन कबीर, किसी रोज़ तुलसी, कभी मोहन राकेश तो कभी ‘कामायनी’ पर पिताजी का भाषण चला करता था. शायद वह जानते थे कि गुरु से शिष्य में सरस्वती के अत्यल्पांश का भी ट्रांसफ़र एक निरन्तर प्रक्रिया से गुज़रे बिना नहीं हुआ करता.

इन सब के बीच इस दिल को फ़ुरसत के वे रात-दिन ढूँढने की फ़ुर्सत न हुई. अन्ततः अपुन तसव्वुरे-जानाँ किये बिना ही साठ के हुए!

इसलिए यह दुनिया यही दुनिया भी है, अलग भी है!

मेरे इन गुरु का, पिताजी का अंतिम ज्ञानोपदेश था – “मैंने तुम्हें बड़ी मेहनत से तैयार किया है. इसलिए कभी ऐसा न हो कि तुम संसार को आश्चर्यचकित करना भूल जाओ.”

जैसाकि संसार का हर गुरु करता है, सब सिखा देता है, मगर एक सबक, सबसे क़ीमती पाठ इसलिए छोड़ देता है कि अपने आप ढूँढो. वही मेरे साथ पिताजी ने भी किया. उस एक सबक को हासिल करने के बाद आप गुरु का प्रतिबिम्ब तो होते हैं, प्रतिच्छाया नहीं रह जाते. आप अचानक आप हो जाते हैं. अपने पिता-गुरु का Projection, न कि shadow!

मेरे इन गुरुजी ने यह नहीं बताया कि लोगों को चकित कैसे करना होगा!

मैंने बहुत-सी किताबें पढ़ देखीं. मगर हमेशा कोई-न-कोई ऐसा मिल गया, जो ज़्यादा पढ़े हुए हो. कहानी लिखने की कोशिश की तो देखा हमारे बीच पहले से ही कहीं बेहतर कहानी-लेखक हैं. कविता में उतरा तो पाया कि यह अपना मैदान नहीं है. सोचा कि चलो संस्कृति का अध्ययन कर देखता हूँ तो ऐसे भी अनेक अध्येता दिख गए जो मुझ से बढ़कर कहीं गहरे में उतरे थे. हारकर शरीर को तगड़ा करने के लिए वर्जिश करना और च्यवनप्राश चाटना शुरु किया कि पहलवान को देखकर तो अवश्य लोग चकित होंगे. मगर दूरदर्शन ने दारासिंह की फ़िल्में दिखा दीं!

पिता-गुरु की अवज्ञा हुई जा रही थी!!      

तभी दैव ने कुछ ऐसा किया कि मेरे ट्रांसफ़र होने शुरु हो गए. पहले दो-एक तबादलों में ही ज्ञानोदय हो गया कि नये-नये लोगों के बीच ढलना होगा. तब कुछ भिन्न समझना हुआ. पुरानी लीक पर चलने की आसानी न रही. हर बार बहुत कुछ शुरु से शुरु करना पड़ा.

और मन्त्र मिल गया!

Be an ever evolving personality! ऐसा व्यक्ति बन जाने की आदत हो गई जो निरन्तर ‘ग्रो’ कर रहा हो!!  फिर-फिर मिलने पर लोग पुराने को ढूँढें, मगर उन्हें हर बार एक नया ही अजनबी मिले. किसी को पहले से अच्छा, किसी को पहले से बहुत बुरा! वे हैरान क्योंकर न होंगे!

इस तरह उमड़ता-घुमड़ता, ऐंठता-इठलाता जब तक मैं 1987 में केंद्र-निदेशक होकर जोधपुर पहुँचा, कुछ ऐसा हो गया कि साथी और मातहत मित्र मुझे ‘विचित्र किन्तु सत्य’ कहने लगे.

क्योंकि जब यह हुआ मैं जोधपुर में था.

आकाशवाणी के दिल्ली-स्थित महानिदेशालय से आने वाले डाक के लिफ़ाफ़े में एक दिन एक आदेश-पत्र निकला जिसके अनुसार तीन महीने की किसी ट्रेनिंग पर मुझे हॉलैण्ड जाना था.

मैंने ‘नहीं जाऊँगा’  लिखकर भेज दिया. भाषा यह नहीं थी. मेरे लिखे का भाव अवश्य था.

इसके बाद किसी कार्यवश जब जोधपुर से दिल्ली जाना हुआ तो दो व्यक्ति मुझपर बहुत ख़फ़ा थे. एक, स्टाफ़-ट्रेनिंग के निदेशक श्री एस.के. शर्मा नाम के अधिकारी, और दूसरे उप-महानदेशक श्री सी.आर. रामास्वामी. शर्माजी कड़क लेकिन मोम जैसे हृदय वाले, अनुशासन के पक्के और न्यायप्रिय अधिकारी थे. मुझे तभी मालूम हुआ कि विदेश की ये ट्रेनिंग स्टाफ़-ट्रेनिंग के रेकमेण्डेशन पर ही तय होती हैं. अपनी की गई व्यवस्था के पूरा न होने पर शर्मा साहब की नाराज़गी के पीछे से मेरे प्रति उनका स्नेह भी झाँक रहा था.

कुछ ऐसा ही मामला श्री रामास्वामी के साथ था. हर बार मिलने पर ‘आज मुझे क्या सिखाओगे’ कहकर मुझे झेंपने को विवश कर देने वाले श्री रामास्वामी को शिकायत थी कि ‘हम यंग लोगों को मौक़ा देते हैं और वे हमारी अपेक्षा पर खरा नहीं उतरते’.

मेरा निवेदन था, यंग मैं अकेला थोड़े हूँ. जिसे चाहिए, मौक़ा उसे दीजिए.

“तुम समझते हो तुम्हें ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत नहीं है?”

ट्रेनिंग की तो शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरत मुझे ही है. मगर हॉलैण्ड से नहीं, आपसे. मेरी जो बीस-बाईस वर्ष की नौकरी और है, उसमें आप मुझे रोज़ घंटा-दो घंटा ट्रेनिंग दीजिये, मुझे मंज़ूर होगा. 

“यह तुम्हारी ड्यूटी थी”.

सर, ड्यूटी होती तो ज़रूर जाता. आज गया, कल लौट आया. तीन महीने तक किसी और देश की धूल फाँकने के लिए जाना मुझे नहीं रुचता. कभी-कभार मैं उनकी एक-आध किताब पढ़ लेता हूँ, उनकी कोई फ़िल्म देख लेता हूँ, रेडियो सुन लेता हूँ तो जान जाता हूँ वे किस तरह सोच रहे हैं. दिन-दिन मेरा विश्वास गहरा होता जाता है, उनकी भाषा हमारे राष्ट्र का सत्यानाश कर रही है और उनकी ट्रेनिंग आकाशवाणी का बंटाढार करने में लगी है. अभी तक मैं साऊथ इंडिया को जानता नहीं हूँ, नॉर्थ-ईस्ट के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है, और तीन महीने बाद लौटकर आऊँ तो तीन साल तक क़मीज़ का कॉलर सीधा न करूँ – यू सी, व्हेन आइ वाज़ इन नीदरलैंड्ज़…..सर, यह मेरे मूल्यों में बैठ नहीं रहा.

फिर मुझे याद आए बचपन के वे दिन जब देसी घी कुछ मंहगा लगने लगा तो माँ ने टिन का एक पुराना डिब्बा धो-पोंछ कर साफ़ किया था और बहुत छुप-छुपाकर एक सेर वनस्पति घी लायी थी. कोई देख लेता तो कुल की प्रतिष्ठा धूल में जा मिलती कि ये लोग घी नहीं, ‘डालडा’ खाते हैं! विदेश की ट्रेनिंग मेरे लिए घी छोड़ डालडा खाने जैसी थी. मैं जिस टाइप का व्यक्ति हूँ, हॉलैण्ड हो आया तब कॉलर अकड़ाना तो जाने दीजिये, मुँह और छिपाता फिरूँगा.

अपनी ऐसी ही फाकामस्ती के चलते अभी पिछले दिनों मैंने अपनी लिखी – लिखी क्या, घसीटी — तमाम कविताएं कम्प्यूटर से डिलीट कर दीं. मुझे लगा अब कविता वहाँ उतर आयी है जहाँ से केवल झूठ बोला जा सकता है. कभी कुछ कहना-लिखना होता है तो गद्य का सहारा लेता हूँ. मेरे देखे गद्य भाषा का जाट है. यहाँ ‘जाट’ जाति-सूचक शब्द न होकर इस अर्थ में है कि जो सीधी, खड़ी और खरी कह सके.

अनेक शुभचिन्तक जब-तब इन सब लेखों को पुस्तक-रूप में प्रकाशित करवाने का भी सुझाव देते रहते हैं. फिलहाल इससे भी बच रहा हूँ. एक किताब आ गई और ख़ुदा-न-ख्वास्ता एकाध पुरस्कार का जुगाड़ हो गया तब तो मैं कहीं का न रहूँगा.    

उस वक़्त सर मुझे डाँट लगा रहे थे, इधर मैं सामान्यत: सहमा-सकुचाया, अपने में सिमटा रहने वाला प्राणी, सिर पर आ बनी तो बहुत कुछ कह गया. श्री रामास्वामी का स्नेह और अपनापन भी मैं देख पा रहा था. उन्होंने सब सुना, आँखों की पुतलियाँ कुछ ऐसे घुमायीं मानो ‘incorrigible’ की स्पेलिंग जाँच रहे हों, ‘ओ के’ कहकर उन्होंने हाथ आगे किया, और मैं चला आया.

घर पर भी लगभग ऐसी ही स्थिति रही. सब को लग रहा था मैंने परिवार को मिलते गौरव से उन्हें वंचित कर दिया है. जब पिताजी गुस्सा कर रहे हों तो किसी और के बोलने की ज़रूरत नहीं होती थी. उनके कहे हुए में सब अपने आप आ जाते थे.

जोधपुर लौटते-लौटते मुझे एक सत्य कन्फ़र्म हो गया. हम धनिक हो सकते हैं, समृद्ध हो सकते हैं, बड़े हो सकते हैं. फिर भी हम आधे-अधूरे मनुष्य रह जाते हैं. केवल इसलिए कि हम हमारे प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखने वाले अपने बड़ों की महत्त्वाकांक्षाओं के क़ैदी होते हैं. पुत्र भरत के लिए राज्य माँगकर कभी माता कैकेयी ने यही किया होगा. शायद हमारे बड़े-बूढ़े प्रचलित सामाजिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में अपनी किसी महत्त्वाकांक्षा की हद तक हमारा हित देखते हैं.

निश्चित ही जिन समाजों में वर्त्तमान पीढ़ी इन महत्त्वाकांक्षाओं को अपने अन्दर स्वयं पालने में समर्थ हो जाती है वहाँ बुज़ुर्गों की इज्ज़त होना समाप्त होने लगता है और वृद्धाश्रम खुलने लगते हैं.

साल-दो साल भी न गुज़रें होंगे कि इस बार बी.बी.सी. जाने का आदेश आ गया. सो भी छह महीने के लिए!

‘नहीं जाऊंगा’ – (रिपीट).

अबके ज़्यादा मारा-मारी नहीं हुई. मेरे माथे पर लिखा – ‘हम नहीं सुधरेंगे’ सहज पढ़ लिया गया.

कोई माने-न-माने, मेरा मन सदा से यह कहता रहा था कि भारतीय प्रतिभा बेहतर है. हमारे रंग-ढंग, रहन-सहन, खान-पान, सोच-समझ अधिक सहज हैं.

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि विदेश जाने, विभिन्न लोगों से मिलने, उन्हें जानने, दुनिया घूमने-देखने से मेरा विरोध नहीं है. मीडिया-कर्म के लिए विदेशी ट्रेनिंग के प्रति सजग रहने का अवश्य पक्षधर हूँ. 

ऐसे ही एक बार पी वी नरसिंहराव की नई अर्थनीति पर आकाशवाणी भवन, नयी दिल्ली में चल रही एक बैठक में महानिदेशक महोदय बता रहे थे कि प्रधानमन्त्री इस दिशा में आकाशवाणी के प्रयत्नों से नाख़ुश हैं. भरी मीटिंग में उचित अवसर देखकर मेरे मुँह से निकल गया, ऐसा क्यों होता है कि हम दूर-दराज से दिल्ली आते हैं और हमेशा एक अपराध-बोध लेकर लौटते हैं? (तब मैं जोधपुर से नहीं, भुज, कच्छ से गया था).

श्री सी. आर. रामास्वामी  ने मुझ से कहा, “यू कम विद मी” और मुझे अपने साथ अपने कक्ष में ले गए. शायद उन्हें भय था, यह अभी और गड़बड़ करेगा!

उनके कमरे में मैंने उनसे कहा, मैं इस बात पर दृढ़ हूँ कि भुज, कोहिमा, जगदलपुर दिल्ली को बतायें, क्या करना है, दिल्ली इन्हें नहीं बतायेगी. भारतवर्ष या अफ़्रीकी देश अमेरिका को बतायें, क्या करना चाहिए, अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र क्योंकर हमें बताये क्या करना है?

हमारे एक साथी स्व. श्री अभय पाढ़ी ने एक बार कहा था, दिल्ली की पोस्टिंग के बाद हर शेर बेकार हो जाता है! एक मज़ाक़ में कही लगने वाली यह बात दरअसल बहुत गहरी है. 

हमारे यहाँ की एक-से-एक बढ़कर प्रतिभायें अपनी बात खुलकर कहती हैं. उनकी प्रतिभा को न देखना बहुत भद्दी बात होगी. मगर यह और भी भद्दी बात होगी कि विदेश-यात्रा के चक्कर में हम यह न देख पायें हम किस तरह अपने यहाँ की प्रतिभाओं का कचरा किये डाल रहे हैं!   

बात विदेश-यात्रा की नहीं है. उसे इतराने जैसा मान लेने की है. हमारी प्राथमिकताओं की है. शीघ्र ही अन्तरिक्ष में भी छुट्टी मनाने का प्रबन्ध होने जा रहा है. तब विदेश-यात्रा ऐसी लगेगी जैसे साइकिल से बग़ल के गाँव जाना. मगर कोरोना-कार्टून में भूखा बच्चा पिता से इतना ही पूछ रहा होगा – बाबा, रोटी ग्रीन ज़ोन में आती है या रेड ज़ोन में?

यह सब कितना विचित्र है, मुझे मालूम नहीं. सत्य है, बस इतना मालूम है.

और जब यही मैं आकाशवाणी, अहमदाबाद में केन्द्र निदेशक था, अचानक एक दिन उर्दू के बड़े शायर सरशार साहब ने मेरे कमरे में प्रवेश किया. पाँवों की एक चप्पल इधर उछाली, दूसरी उधर जो दरवाज़े के किनारे रखे सोफ़े के नीचे घुस गई.

मैं कुर्सी से उठा, उन्हें प्रणाम किया, हाथ पकड़कर बड़े सोफ़े पर आराम से बैठाना चाहा मगर वह धम्म से बैठ गए. उनके पास मैं ख़ुद बैठ गया. उर्दू के कार्यक्रम अधिकारी सादिक़ भाई – श्री सादिक़ नूर पठान और सहायक केन्द्र निदेशक श्री तुषार शुक्ला को बुलवाया, (या वे दोनों श्री सरशार के साथ ही आये थे, याद नहीं).

सरशार साहब बहुत परेशान थे, एकदम बदहवास. उन्हें पानी पिलवाया. कुछ चाय-नाश्ता मँगवाया और उनका हाथ थाम कर पूछा, सब ख़ैरियत?

सरशार साहब पूरे फ़क़ीर आदमी, बुज़ुर्ग और ऊँचे पाये के शायर. उन्हें कष्ट में देखकर हम सब भी परेशान हो गए.

श्री सरशार को अपने घर सहारनपुर जाना था और बड़े संकोच से उन्होंने बताया कि वह किस आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहे थे. इतने भी पैसे उनके पास नहीं थे कि वह सहारनपुर का टिकट ख़रीद सकें!

ऐसा आर्थिक अभाव हमेशा से लगभग हर सच्चे कवि का सहोदर रहता आया है. हमारे होने की धन्यता इसी में है कि ऐसी स्थिति में कोई कवि या कलाकार आकाशवाणी की ओर देखे तो उसकी एक आँख में भरोसा हो, दूसरी में अपनापन!

तुषारजी और सादिक़ भाई ने मिलकर जितने सम्भव थे उतने प्रस्ताव और अनुबन्ध तैयार किये जो किसी कवि को प्रसारण के शुल्क का भुगतान करने के लिए आवश्यक औपचारिकताएं होती हैं. मेरी प्रशासनिक व्यवस्था में मुझे कुछ कहना नहीं पड़ता था. मेरी टीम का हर सदस्य जानता था, मेरे रहते उन्हें किस परिस्थिति में क्या करना है.

प्रशासनिक अधिकारी को बुलाकर बता दिया गया कि इन सब अनुबन्धों की कुल रक़म का कैश में भुगतान करें, या किसी को बैंक भेजकर बेयरर चेक से कैश मँगवाएं. यद्यपि नियम यह था कि क्रॉस किये चेक से ही भुगतान किया जाता था.

सादिक़ भाई तमाम रेकार्डिंग पूरी करने के लिए सरशार साहब को स्टूडियो में ले गए. उतनी देर में मैंने श्री नन्दन मेहता को फ़ोन किया. ज़िंदगी में पहली बार.

श्री नन्दन मेहता अहमदाबाद में तबला के अच्छे कलाकार थे. संगीत की क्लासेस भी चलाते थे. अच्छे समृद्ध व्यक्ति थे. अचानक मेरा अनपेक्षित फ़ोन गया तो वह हैरान-परेशान! बोले, “दीक्षितजी, आप फ़ोन पर? क्या हुआ?”

“हुआ कुछ नहीं. बस, इस विजय दीक्षित को आज आपसे पाँच हज़ार रुपये की ज़रूरत है, सो भी नक़द, अभी और इसी वक़्त! मैं परवेज़ को आपके पास भेज रहा हूँ. वह बतला देगा क्यों चाहिएं.”

मैं कभी किसी को फ़ोन नहीं करता था. इस तरह रुपये माँग लूँगा, यह तो सपने में भी कोई सोच न पाये! अहमदाबाद में भूकम्प के कुछ झटके लाने के लिए यह एक फ़ोन काफ़ी था.

परवेज़ वहाँ का प्यारा-सा, सबका मददगार, मधुर स्वभाव वाला सीनियर क्लर्क था और श्री नन्दन मेहता उसे अच्छे से पहचानते थे, उसपर भरोसा रखते थे. उसे बुलाकर पूरी बात समझायी और कहा, ऑफ़िस की गाड़ी ले जाओ और नन्दनजी से रुपये ले आओ. सरशार साहब स्टुडियो से आयें तो अपने हाथों से उन्हें देना. इस कार्य का पूरा पुण्य और फ़क़ीर का आशीर्वाद तुम्हें मिलना चाहिए.

अब तक पूरे ऑफ़िस को मालूम हो चुका था, शायर का क्या मूल्य है.

इधर सरशार साहब लौटे, उधर बैंक से उनका पैसा भी आ गया. अभी उन्होंने पानी भी पूरा नहीं पी पाया था कि नन्दनजी के यहाँ से परवेज़ भी आ गया और उसने रुपये सरशार साहब के हाथों में रख दिए. वे क्षण हम सभी को एक साथ रोमांचित कर रहे थे.

नीयत में शिद्दत हो तो पूरी कायनात भी सौ तरह से मदद करने की साज़िश रच लेती है. तभी अचानक गुरुजी उधर आ निकले. यों तो वह सामान्य गृहस्थ थे, आध्यात्मिक व्यक्ति होने के नाते मैं उन्हें ‘गुरुजी’ कहता था. एक नास्तिक से बदलकर मन्त्र-जाप में इन्हीं गुरुजी ने मुझे प्रेरित किया था. (मेरे इस ‘पूजा-पाठ’ के चर्चे दिल्ली तक हो गए थे, जिसे मैं ‘महादेव को धोखा देना’ कहा करता था. वह किस्सा अलग से कभी.)

उठकर मैंने गुरुजी के चरण-स्पर्श किए और सरशार साहब से उनका परिचय करवाया. गुरुजी भी मगन होकर एक शायर के साथ हो रही आकाशवाणी के लोगों की बात सुनते रहे, उसमें शरीक़ होते रहे. बातों-बातों में जब उन्हें पूरी बात जानने को मिली, गुरुजी ने अचानक अपने कुर्त्ते की जेब में हाथ डाला और जो दो-चार हज़ार रुपये निकले, सब सरशार साहब के हाथों पर रख दिये.

पूरा आकाशवाणी परिसर उन चार-छह घंटों के लिए एक काव्यात्मक और आध्यात्मिक स्वप्निलता में डूबा रहा. हम सब उन क्षणों में भावना के उस मानसरोवर में डुबकी लिये हुए तीर्थ-यात्री थे जहाँ का मूल निवासी कला और साहित्य से सम्बन्धित मीडिया को सदा होना चाहिए.   

श्री सरशार अपनी सारी उदासी, सारा अकेलापन आकाशवाणी के उस छोटे-से डस्टबिन में डालकर चलने को हुए, तो उन्हें उनकी एक ही चप्पल मिली. मैं पास ही खड़ा था. झुककर मैंने सोफ़े के नीचे हाथ डाला, दूसरी चप्पल निकाली और अपने हाथों से कवि के पाँव में पहना दी. सादिक़ भाई ‘अरे, अरे’ कर रहे थे. गुरुजी अपने शिष्य के प्रति गर्व से भर रहे थे.

श्री सरशार ने अपनी जेब से उनका निजी सुलेमानी पत्थर निकाला और मुझे थमा दिया. उनका हाथ मेरे सिर पर था.

वह सुलेमानी पत्थर मेरे पूजा-स्थल पर रखा हुआ है. मेरे गणेशजी दिन में कई बार उसमें से निकलते फ़क़ीर के आशीष-स्पन्दन मुझ तक पहुँचाया करते हैं.

जून 2020

करबद्ध क्रोध


यदि मैं कहूँ कि मुझ से कभी कोई ग़लती नहीं हुई, मैंने कभी कोई भूल नहीं की, मैं कभी नहीं लड़खड़ाया, अपने जीवन में, अपनी नौकरी में हमेशा केवल ठीक ही निर्णय किये, तो इन सब बातों का केवल एक अर्थ निकलता है – कि मैं झूठ बोल रहा हूँ.

आज की दुनिया के समझदारों के बीच झूठ-झाठ बोलकर कोई कितने दिन टिका रह सकता है, सो सब को मालूम है.

फिर भी आकाशवाणी की दुनिया में एक असत्य का सामना वहाँ काम करने वाले हम सब करते आ रहे हैं – बल्कि कहें कि उस एक ‘असत्य’ को हम सब अपने-अपने खीसे में संभालते आ रहे हैं. सो भी स्वेच्छा से! इस असत्य की पड़ताल में गुरुओं का आशीर्वाद मेरे बहुत काम आया. गुरुओं ने दिया तो बहुत, किन्तु मुझ में इतना ही समा पाया. वही यहाँ प्रस्तुत है.

पिछले दिनों एक वकील साहब की हथेली और बाँह पर एक गिलहरी को प्यार और इतमीनान से खेलते हुए देखा था, कुछ फ़ोटो में. वास्तव में ब्रॉडकास्ट का पूरा-का-पूरा कारोबार संवेदन के संवाद पर चलता है – गिलहरी हो या ग़ज़ल. दोनों अपनी त्वरा में इतने स्मार्ट हैं कि उनके आचरण में किंचित् भी छन्द-भंग उनके कम्यूनिकेशन को तुरन्त पटरी से उतार देता है. सहजता का व्याकरण है ही कुछ ऐसा कि असावधानी या उपेक्षा की नहीं कि गिलहरी और ग़ज़ल, दोनों हमसे छिटक जायेंगी. उन्हें समझने से इनकार उनका नहीं, हमारा छन्द-भंग है.

‘असत्य’ ही छन्द-भंग है, छन्द-भंग का कारण है.

जब रेडियो ब्रॉडकास्ट का सिलसिला शुरुआती दौर में था और लोकप्रिय हो रहा था उस समय शॉर्टवेव और मीडियम वेव वह तकनीक थी जो हमारे प्रसारण का आधार थी. उस तकनीक को इस बात की ज़रूरत थी कि हम श्रेष्ठ मंच-नाटकों, जाने-माने उपन्यासों आदि का रेडियो नाट्य-रूपान्तरण करें और उन्हें लोगों तक पहुँचाएं. किसी उपन्यास को किताब में पढ़ने का जो सुख है, वह उसे नाट्य-रूप में सुनने पर भी उतना ही मिले. क्योंकि इस रूप में उस रचना का मज़ा ही कुछ और है.

‘लोगों तक पहुँचाएं’ से अभिप्राय इस ‘कुछ और ही’ आनन्द को अनुभव करने-करवाने से था. यह अर्थ नहीं था कि ये रचना-धर्मी कृतियाँ लोगों तक पहुँची नहीं थीं. वे प्रसारण-माध्यम के बिना भी उन पाठकों के बीच थीं जिनके बीच उन्हें होना चाहिए था. जो पढ़ नहीं सकते थे, वे उन दिनों रेडियो-सेट भी नहीं ख़रीद सकते थे. इन रचनाओं की ज़रूरत मीडियम वेव-शॉर्टवेव तकनीक को अपनी धन्यता हासिल करने के लिए थी. मूलतः तकनीकी माध्यमों को श्रेष्ठ सृजन-धर्मी रचनाओं की ज़रूरत थी. उपन्यास-कहानियों की, नाटकों की, विचार-वार्त्ताओं की, परिचर्चाओं, सूचनाओं, समाचारों की, जन-सामान्य को नयी-से-नयी जानकारियों में शिक्षित करने में जो सहायक हों ऐसे आलेखों की ज़रूरत थी. शिक्षण के अतिरिक्त मनोरंजन के लिए श्रेष्ठ गीतों और सुमधुर संगीत की ज़रूरत थी.

यह प्रश्न सब तरह से बेमानी था कि इस सब को जन-जन तक पहुँचाने का काम प्रसारण-कर्मियों के सामने कोई ‘चुनौती’ है. चुनौती नहीं, वह सृजन-धर्म के गौरव का सम्मान सुरक्षित रखते हुए एक और सृजन-कर्म था!  

जब हम संवेदन और सृजन के सामने सवाल उठाते हैं, उन्हें तकनीक की ‘चुनौती’ नाम के भूखे शेर से मल्ल-युद्ध करने में डालते हैं तो यह पड़ताल ज़रूरी हो जाती है कि छन्द-भंग कहाँ हो रहा है.

विज्ञान की उपलब्धियों से आतंकित होकर उसके प्रति अतिरिक्त आग्रह रखने के कारण आधुनिक मन और बुद्धि किसी भी नयी तकनीक के आते ही चिन्तित हो उठते हैं कि अब रचनात्मकता के सामने चुनौती आ खड़ी हुई है. चुनौती यह कि उसे स्वयं को अब इस नई तकनीक के अनुकूल कैसे ढालना होगा. सृजन-कर्म को अब अपने अन्दर कुछ ऐसे परिवर्त्तन लाने होंगे जिनके चलते वह ‘लोगों तक पहुँचने’ के नवीनतम प्लेटफ़ॉर्म के अनुकूल बन जाये. मीडियम वेव-शॉर्ट वेव से लेकर एफ़ एम तकनीक और फिर डिजिटल माध्यम आदि तकनीक के निरन्तर परिवर्त्तित-विकसित स्वरूप को लेकर रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों के सामने ‘चुनौती’ बताकर ऐसे प्रश्न उठाए जाते हैं. इन प्रश्नों को बेमानी कहना आज ग़ैर-वैज्ञानिक ठहराकर कहने वाले को शर्मिन्दा होने की स्थिति में ला दिया जाता है.   

इस चिन्ता को गोबर के उपलों की तरह रेडियो-प्रसारण की दीवार पर सर्वाधिक चिपकाया गया है. विशेषत: एफ़ एम तकनीक आने के बाद से. उपला तो लिजबिजा ही रहा, दीवार ज़रूर सूख गयी. जबकि सत्य यह है कि ऐसी चिन्ता न केवल मिथ्या है, अपितु प्रोग्राम-संरचना के आधार-रूप में जो उदात्त सृजन-शक्ति सक्रिय रहती है उससे अपरिचय की भी द्योतक है.

यही वह झूठ है जिसके कारण रेडियो के तमाम कार्यक्रम रचनाकारों को, प्रोग्राम केडर के सभी लोगों को उनके मूल चरित्र से ही बेदख़ल हो जाना पड़ा. छंद-भंग ऐसा हुआ कि पूरा-का-पूरा मामला हमेशा के लिए बेसुरा हो गया लगता है.

ऐसी मिथ्या चिन्ता को सृजन-शक्ति से तो अपरिचय है ही, इस एक सत्य से आँख चुराये रखने का भी हठ है कि विज्ञान के अपने अंधविश्वास होते हैं. इस सोच को विज्ञान को अंधविश्वासी मानने से इनकार है. विज्ञान तो अन्धविश्वास को दूर करने वाला माना जाता है. यह विचारणीय है कि समाज में प्रचलित अन्य किसी भी कोटि के अंधविश्वास किन्हीं अनुभवों पर आधारित होने से शायद उतने ख़तरनाक न भी हों, जितने अवांछित परिणाम लाने वाले विज्ञान के अंधविश्वास हो सकते हैं, क्योंकि वे तथ्यों से निकले होते हैं. विज्ञान तथ्य-परक है. 

विज्ञान और तकनीक को लेकर एक बहुत बड़ा अन्ध-विश्वास यह है कि वह एक क्रान्ति है. वह परम्परा-भंजक है. जबकि सत्य इसके एकदम विपरीत है. सच तो यह है कि विज्ञान की एक परम्परा होती है. एक लंबी परम्परा के बिना विज्ञान चल ही नहीं सकता. हर नया वैज्ञानिक दरअसल अपने से पहले वाले वैज्ञानिक के कन्धों पर पाँव टिकाकर खड़ा होता है. वैज्ञानिक का काम इतना चुनौती भरा है कि आगे बढ़ने के लिए उसे पहले की कोई खोज चाहिये, चाहे वह अकस्मात जान लिया गया कोई प्राकृतिक रहस्य ही हो. ध्यान से देखें तो आर्किमिडीज़, पायथागोरस, गैलीलियो, न्यूटन से लेकर आइन्स्टाइन तक विज्ञान के हर क्षेत्र की एक परम्परा है. बीच की एक भी कड़ी निकाल दीजिये, सब ताश के पत्तों से बनी मीनार की तरह भरभरा कर ढह जाएंगे.

विज्ञान एक परम्परा है, पारम्परिक शृंखला है. तकनीक इस परम्परा की घिसावट में से निकला बुरादा है.

इसका यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान निन्दनीय अथवा त्याज्य है. विज्ञान और उसपर आधारित तकनीक उपयोगी हैं. चाँद पर जाना हो और कोई कहे मैं तो अपनी घोड़ा-बग्घी या बैलगाड़ी में ही जाऊँगा तो नहीं चलेगा. यहाँ विज्ञान और उसका बनाया यान ही उपयोगी है. यों, बग्घी और बैलगाड़ी भी आख़िर किसी तकनीक से काम करते थे, करते हैं.

बग्घी से ध्यान आया, सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में, अमेरिका में भी, ‘स्टेजकोच’ या ‘स्टेजवैगन’ नाम की बग्घियाँ चला करती थीं. ये आम तौर पर चार घोड़ों से चलती थीं और लम्बे सफ़र में काम में लायी जातीं थीं. इन में पैसा देकर (टिकट?) यात्रा की जाती थी. बीच-बीच में ‘स्टेज-स्टेशन’ भी हुआ करते थे जहाँ रुककर ‘कोच’ के घोड़े बदलकर ताज़ादम घोड़े जोते जाते थे.

जब स्टीम इंजन वाली गाड़ी आयी तो ‘स्टैंडर्ड गेज’ की जो रेल-पटरियाँ बिछायी गयीं वे ‘स्टेजकोच’ के दोनों तरफ़ वाले पहियों की दूरी पर थीं! इस परम्परा को निभाने के बाद ज़रूरत के अनुसार ब्रॉड-गेज, मीटर-गेज या नैरो-गेज की पटरी बिछाना कहाँ मुश्किल था?

दुनिया भर में ट्रेन का आज तक चला आ रहा रेलवे गेज ‘स्टेजकोच’ की परम्परा में है! ‘वैगन’ और ‘कोच’ जैसी संज्ञायें तो ख़ैर इस परम्परा की हैं ही.

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जेम्ज़ वाट ने जो स्टीम इंजन बनाया था वह टॉमस न्यूकमेन नाम के इंजीनियर द्वारा पहले बनाये गए स्टीम इंजन की परम्परा में था.

यह विज्ञान का अपना अंधविश्वास है कि वह परम्परा-भंजक है. दरअसल विज्ञान एक परम्परा है.

सृजन-क्रिया के लिए ऐसा कहना सही नहीं है. तात्कालिक दृष्टि से – प्रथम दृष्ट्या ऐसा लग सकता है कि रचना-संसार में भी परम्परा होती है. कृष्ण-काव्य की परम्परा है. राम-काव्य में वाल्मीकि की ‘रामायण’ से लेकर मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ तक एक परम्परा है.

किन्तु मेरे देखते रचना की प्रक्रिया प्रथम-दृष्ट्या तथ्य को चीरकर गहरे उतरती है. राम-काव्य की परम्परा में से तुलसी को हटा देने से आकाश का एक जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र अवश्य लुप्त हो जाता है, मगर राम-काव्य की परम्परा विज्ञान की माफ़िक भरभरा कर ढह नहीं जाती.

इसे यों समझना होगा. दैनन्दिन सूर्योदय प्रकृति की एक परम्परा है. खगोल-विज्ञान ने बता दिया है कि — विज्ञान के महत्त्व से इनकार नहीं है, उसे सिर पर बैठा देने पर पुनर्विचार किया जा रहा है — सूर्य रोज़-ब-रोज़ बुझता जा रहा है. करोड़ों वर्षों में यह कभी पूरा बुझ जायेगा. इसलिए नित्य का सूर्योदय सदा एक बदले हुए, एक नये सूर्य का उदय है. कल का सूरज आज नहीं उगा, आज का कल नहीं उगेगा. कहाँ है परम्परा? ठीक ऐसे ही रचना के संसार में प्रत्येक कवि, लेखक और सृजन-कर्त्ता का सूरज परम्परा में नहीं, अपनी स्वतन्त्र सत्ता में नया ही उगता है.

रेडियो-प्रसारण को केवल प्रोपेगेण्डा-प्रसारण मान लेना और ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ से आगे न देखना, इसे केवल रेवेन्यू-कमाई का साधन मान लेना जो कर सकता था उसने किया. सर्जनात्मक प्रतिभा की पहचान गँवा देने से ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ को ‘गनपत दारू ला’ में बदल दिया. प्रोग्राम केडर के हम लोगों का क्रोध इस पर सदा करबद्ध ही रहा. मेरे कवित्त पढ़ो तो लगे क्रोध है. यह सावधानी ज़रूर रखता हूँ कि सत्ता को बस जुड़े हुए दो हाथ नज़र आयें!

सांस्कृतिक आत्महत्या की टेक लिये हुए मन और सृजन की हाराकीरी पर उतारू बुद्धि को छत से कूद जाना हर बार एक चुनौती जैसा लगता रहेगा.

रचना-कर्म की अन्तश्चेतना और विज्ञान की बाह्य-दृष्टि में अन्दर-बाहर का यह जो अन्तर है, वह भी विज्ञान को अन्धविश्वास में धकेलने का काम करता है.  

एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिये जो रात के अँधेरे में चला जा रहा है. रास्ते के रोड़ों-रुकावटों से टकराते-जूझते धीरे-धीरे उसका आगे बढ़ना ही उसकी विकास-यात्रा है. लेकिन विज्ञान की दुनिया में इसे विकास कहना इसलिए अंधविश्वास है कि यात्रा को मंज़िल नहीं माना जा सकता. आख़िर आँख बन्द करके विश्वास कर लेने को ही अन्धविश्वास कहते हैं.

इसी भूल के चलते विज्ञान के निष्कर्ष कुछ वर्षों के भीतर बदल जाते हैं. अँधेरे की इसी यात्रा को न्यूटन ने विशाल सागर के किनारे कंकड़ बीनना कहा था. थॉमस एडिसन ने भी स्वीकार किया था कि हम एक प्रतिशत का दस लाखवाँ हिस्सा भी नहीं जानते हैं.

अँधेरे में चल रहा व्यक्ति अपनी टॉर्च की रोशनी डालता है और सामने सड़क के गहरे गड्ढे का तथ्य उसके हाथ लग जाता है. टॉर्च ने निस्सन्देह गड्ढे से बचने में उसकी मदद की. थोड़ा आगे जाने पर टॉर्च की बीम ने जो दिखाया उससे तथ्य बदल गया. अब गड्ढा नहीं, एक बड़ी चट्टान रास्ते की रुकावट है. टॉर्च की मदद से वह चट्टान से टकराने और चोट खाने से भी बच गया. उसके आगे की यात्रा कभी रास्ते पर भरे पानी की सूचना लाती है तो कभी ऐसे ख़तरनाक मोड़ की जहाँ से गहरी खाई में गिरने का भय था.

हर क़दम परिवर्तित स्थिति और तदनुसार नये निष्कर्ष में ले जाने का ही काम करता है. यह विज्ञान और तकनीक की नियति है. 

मगर यदि आसमान में अचानक बिजली चमक जाए तो सामने के पत्थर, खड्डे, पानी, मोड़ और खाई एकबारगी दिखलाई पड़ जाते हैं!

जब यात्रा न तो टॉर्च की मदद से, न आकाश में चमक कर ग़ायब हो जाने वाली बिजली में बल्कि चमचमाते सूर्य के प्रकाश में होती है तो सब कुछ साफ़-साफ़ देखकर निष्कर्ष दिये जाते हैं. इन निष्कर्षों पर पहुँचने का नाम है रचनाशीलता, सर्जन-प्रक्रिया, सृजन-कर्म, और प्रसारण की भाषा में कहें तो प्रोग्राम-धर्म!

यह ‘प्रोग्राम-धर्म’ कैसे काम करता है और क्या कर दिखलाता है, विज्ञान के अंधविश्वासों से प्रभावित व्यक्तियों ने ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ में इसकी प्रभाविता को देखा और उसे रेवेन्यू-कमाई से जोड़ने में देर नहीं लगायी. विज्ञान नियम-नियंत्रित है. इसलिए प्रोग्राम की ‘स्वतन्त्र सत्ता’ को इस तरह नियन्त्रित करके ही बदलती तकनीक को चुनौती की तरह पेश किया जा सकता था. स्वतन्त्रता विज्ञान-बुद्धि को भयभीत करती है! जर्मनी के मनोविश्लेषक एरिक फ़्राम ने तो ‘The Fear of Freedom’ नाम की किताब ही लिख डाली थी!

जो ये महानुभाव नहीं देख पाये, जिसे देखने के लिए परम्परा के पार जा सकने की क्षमता का वरदान चाहिये, जो वरदान केवल सृजन-कर्म अर्थात् प्रोग्राम-धर्म को उपलब्ध है, उसे देखना ज़रा गहरी बात है. उस गहराई तक जाने के लिए वैज्ञानिक तर्क-बुद्धि नहीं, आर्टिस्ट-मिजाज़ काम लगेगा.

आपको याद होगा, ‘रामायण’ के लिए कहा जाता है, महर्षि वाल्मीकि ने उसे राम के जन्म लेने से पहले ही लिख दिया था. सदियों से यह कथन चला आता है. तर्क-बुद्धि ने इस बात को मोड़ देकर इसे ‘नियतिवाद’ बता दिया कि सब कुछ पूर्व-निर्धारित होना भाग्यवाद है. मेरी समझ से वह कोई रेडियो का आदमी रहा होगा जिसने राम-जन्म के पहले ‘रामायण’ का लिखा जाना बताया.

क्योंकि सब कुछ स्क्रिप्टेड है!

वाल्मीकि जैसा कवि कुछ लिख दे तो ब्रह्म को भी आकर उसे निभाना होता है. अब आप कल्पना कीजिये, राम को ब्रह्म होते हुए भी राज-पाट छोड़ना पड़ रहा है, वन जाना पड़ रहा है, सीता के चुरा लिए जाने पर, या लक्ष्मण को मूर्च्छा आने पर रोना पड़ रहा है. राम ब्रह्म हैं भी, नहीं भी हैं, बस मनुष्य हैं. इधर रामलीला में जिस मनुष्य को राम की भूमिका निभानी है, वह भी जानता है, वह राम नहीं, पड़ोस वाला रामचन्द्र गुप्ता है. यदि वह अपने को सचमुच राम समझ बैठे तो सीता के चुराये जाने पर उसे हार्ट अटैक आ जाएगा और खेल वहीं रुक जाएगा. वह राम है भी, वह राम नहीं भी है!

रेडियो में लोहा सिंह बने रामेश्वर कश्यप लोहा सिंह भी थे और रामेश्वर कश्यप भी थे. रमई काका बहरे बाबा थे भी, नहीं भी थे, जानकी दास भारद्वाज ठुणिया राम भी थे, और जो वह थे वह भी थे. ‘काके दी अम्मा’ का रोल करती हुई सुखजिन्दर कौर काके की अम्मा भी थी, सुखजिन्दर भी थी!

सब कुछ एक Psycho-Drama है और था! सृजन-कर्म यह साइको-ड्रामा क्रियेट करके श्रोता को पॉज़िटिव पब्लिसिटी के पॉइंट बता रहा है — रक्त-दान करना है, दहेज़ नहीं माँगना है, सद्भाव बनाकर रखना है, फिजूलख़र्ची नहीं करनी है, वगैरह-वगैरह. हमारे सामाजिक इसी तरह समझते आये हैं कि उनकी परिस्थितियाँ भी और कुछ नहीं, साइको-ड्रामा हैं और उन सब के बीच अपनी भूमिका निभा ले जाना उनके अपने हाथ में है. 

यह काम प्रोग्राम-धर्म का है, किसी तकनीक का नहीं. किसी ऑफ़िस ऑर्डर या संसद् में बने क़ानून का भी नहीं. चुनौती अगर कोई है तो तकनीक के सामने है कि प्रोग्राम-धर्म को नये प्लैटफ़ॉर्म पर कैसे ले जाना है.

क्योंकि कल आपकी टॉर्च की बीम किसी अन्य निष्कर्ष पर पड़ने ही वाली है. प्रोग्राम धर्म को उससे क्या?

कविवर बिहारी की नायिका एड़ियाँ ऊँची करके पंजों के बल उचकी है, दोनों बाँहें ऊपर को उठी हुई हैं क्योंकि वह दही की हाँडी छींके पर रख रही है. या शायद उतार रही है. छींके को छुए हुए वह बहुत नीकी, बेहद ख़ूबसूरत लग रही है. कवि का दोहा है –

अहे दहेंड़ी जिनि धरै, जिनि तू लेइ उतारि

नीके  ह्वै  छींके छुवै, ऐसे ही  रहि  नारि।

“हे सखि! तू न तो दही हाँडी को छींके पर रख, न उसे उतार. छींके को छुए हुए तू सुन्दर दिखती है, इसलिए हे नार! बस ऐसे ही रह जा.”

इस ‘ऐसे ही रहि नारि’ में आपने कैमरे की ‘क्लिक’ सुनी? सृजन धर्म को कैमरे की दरकार कहाँ है? उलटे, कैमरे की तकनीक को फ़ोटो खींचने के लिए ऐसे या अन्य दृश्यों की ज़रूरत रहेगी.

इसका यह भी अर्थ नहीं कि सर्जनशीलता के सामने कोई चुनौती नहीं है. वस्तुतः वह स्वयं अपने सामने एक चुनौती है. मिसाल के तौर पर, आज जो महागाथा (एपिक) लिखी जायेगी, वह न तो ‘महाभारत’ जैसी होगी, न ‘इलियड’  या ‘ईडिपस’ जैसी. शायद आज का कोई एपिक ‘वार एंड पीस’ की तरह लिखा जा सकेगा. सवाल यह भी है कि महागाथा के लिए आज अवसर है भी या नहीं है? गाथा पुरातन या ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित नहीं होगी तो क्या केवल फ़ेन्टेसी होगी? इस तरह के अनेक प्रश्न हैं जो सृजनात्मकता के सामने चुनौती हैं. इनका उत्तर उचित समय पर रचना-धर्म के अन्दर से आयेगा.

दुनिया और जीवन बेहद रंगीन हैं. तरह-तरह के रंग हैं! मगर सपने सभी केवल ब्लैक एण्ड व्हाईट में आते हैं. ऐसा सोचना भी कि तकनीक अपने किसी भी परिवर्त्तन के बाद रचना-प्रक्रिया के सामने कभी चुनौती बनकर आ पायेगी, एक सपना है, बदलते निष्कर्षों का कोई ब्लैक एण्ड व्हाईट सपना! यह कल्पना बहुरंगी जीवन की सर्जनात्मक जिजीविषा के सामने चुनौती बनकर कभी आ नहीं पायेगी.

रचना-कर्म ने ऐसी ब्लैक एण्ड व्हाईट ना-इंसाफ़ी के सामने जाने किस गफ़लत में उँगलियों को मुट्ठी में बाँधकर, बाँहें ऊपर उठाकर कभी विरोध नहीं किया! भिंची मुट्ठियों वाले कर-बद्ध क्रोध की तासीर कुछ अलग है!

2 दिसम्बर, 2020      

एक भूमिका


उस दिन बैठे-ठाले, बस यूँ ही पलकों से टीवी खुरच रहा था. टीवी में न्यूज़ चैनल उस सावन जैसे हैं जिसके आते ही व्यर्थ-निरर्थक सोच के बादल उमठना शुरु हो जाते हैं. शाहीनबाग़ के बाद दिल्ली की एक और घेराबन्दी चल रही थी. इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक की जाट-लैण्ड का किसान समुदाय ‘कृषिक्षेत्रे शासनक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः’ हुआ आन्दोलन कर रहा था. मुझे लग रहा था हम हिन्दुस्तानियों को अभी तक एक संविधान के अधीन एक राष्ट्र की तरह उपक्रम करने की आदत नहीं पड़ी है. दुनिया भर में हमारे मुसलिम भाइयों की तो एक ‘उम्मत’ होती है – नबी की उम्मत, मगर हम हिन्दुस्तानियों की ‘उम्मत-ए-हिन्द’ के अब तक पते नहीं हैं. प्रान्त, जाति, भाषा, व्यवसाय, राजनीति आदि की इतनी उम्मतें हैं कि हम अपने-अपने गुट को उम्मत का दर्जा देकर जब-तब सिर-फुटव्वल में मशगूल रहते हैं.

टीवी के बादलों में बिजली तो क्या कड़कती, बग़ल में रखा फ़ोन गरजने लगा.

बादलों को हथेली से एक तरफ़ सरकाया और रिमोट रखकर फ़ोन उठाया. देखा तो मित्रवर महेन्द्र मोदीजी!

आकाशवाणी में जब नौकरीशुदा थे, रिटायर नहीं हुए थे, तब इस महावृक्ष ने चिन्तन-दर्शन-कर्मण के जाने कितने बीज हम लोगों के जीवन के भू-विस्तार में छितराये. वे बीज अलग-अलग परतों में दबे-ढँके सोये रहते हैं.

महेन्द्र जी ने बताया ‘रेडियोनामा’ सीरीज़ की चौथी पुस्तक “ले बाबुल घर आपनो” उन्होंने लिखकर पूरी कर ली है और उसकी ‘प्रस्तावना’ मुझे लिखनी है.

महेन्द्र मोदी जी की बात और पांडुलिपि पढ़ने का अवसर मिला तो उसने जो रिमझिम कर दी उन छींटों से कुछ बीजों की नींद टूटी और मन की परतें फोड़कर चंद कोंपलें उचक आयीं. उन सब को समेटा और ‘बरबादियों का जश्न’ शीर्षक की गाँठ से बाँधकर महेन्द्र जी के हवाले कर दिया.

वे मुट्ठी-भर विचार उस पुस्तक की ‘प्रस्तावना’ बन गए जो यहाँ दे रहा हूँ.

मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे कवि के सामने मेरे जैसे अकिंचन ज़रूर क़तरा हैं. मगर भले ही बढ़ रही उम्र के चलते हाथ में जुंबिश कम होती जाती हो, लिखने-पढ़ने का रसिया होने से ऐसे किसी अवसर के साग़र-ओ-मीना सामने आते ही मेरी आँखों को याद आ जाता है उनमें अभी दम बाक़ी है.

जब मैंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि पढ़नी शुरु की तो मित्र-धर्म पीछे छूट गया. ज्यों-ज्यों आगे पढ़ता गया मुझे स्पष्ट होता गया कि मैं एक मित्र की पाण्डुलिपि पढ़कर कोई अहसान नहीं कर रहा था, बल्कि एक ज़ोरदार सत्यकथा पढ़ रहा था! ऐसी कथा जिसकी घटनाएं, वास्तविक पात्र और पेंचदार परिस्थितियाँ पाठक के ऊपर कई स्तरों पर काम करने जा रही हैं. जो लोग रेडियो को – आकाशवाणी – को अन्दर से जानते हैं, उनपर एक ख़ास तरह से; जो सामान्य पाठक हैं उनपर दूसरी तरह से; और जो केवल एक ऐसे जीवन-चरित्र में कुतूहलवश दिलचस्पी रखते हैं जो अपनी आवाज़, रेडियो के माध्यम और फ़ोटोग्राफ़ी से प्रसिद्ध हो गया हो, उनपर अलग तरह से.

यहाँ ‘जीवन-चरित्र’ कहना शायद भ्रामक होगा. व्यक्ति को जानने और उसके माध्यम से जीवन को समझने के मुख्य रूप से तीन साधन हैं – जीवन-चरित्र, आत्मकथा और संस्मरण/डायरी. ‘जीवन-चरित्र’ उसे कहेंगे जब किसी का जीवन-वृत्त कोई दूसरा व्यक्ति लिखे. ‘आत्मकथा’ में अपने जीवन की गाथा व्यक्ति स्वयं कहता-लिखता है. जब जीवन में आये व्यक्तियों, घटे हुए प्रसंगों, यात्राओं, मुलाक़ातों आदि के बारे में विशेष प्रसंग चुनकर लिखा जाता है तो उसे ‘संस्मरण’ कह दिया जाता है. इन्हें बहुधा ‘डायरी के पन्ने’ भी कहा गया है. 

आत्मकथ्य का यों भी एक-स्तरीय हो पाना मुमकिन नहीं है. व्यक्ति भले एक हो, जीवन की बल खाती-इठलाती-बदलती परिस्थितियाँ कितने ही वातायन खोलती चलती हैं. जैसे कि एक ही मकान के अनेक खिड़की, दरवाज़े, रोशनदान! अलग-अलग कमरों की अलग-अलग दीवारें, छतें और फ़र्श!! 

‘रेडियोनामा’ की पहली तीन पुस्तकों और अब इस चौथी कड़ी में लेखक श्री महेन्द्र मोदी ने आत्मकथा के पुष्प और यथा-प्रसंग संस्मरण के मोती पिरोकर माला सजायी है. इस सीरीज़ में ‘आत्मकथा’ की सुवास और ‘संस्मरण’ की छटा दोनों एक साथ विद्यमान हैं.

‘रसीदी टिकट’ शीर्षक से पंजाबी की वरिष्ठ लेखिका अमृता प्रीतम की आत्मकथा बहुचर्चित हुई थी. बाद के संस्करणों में अमृताजी ने उसे काट-छांट कर बहुत कम कर दिया था और इसका कारण बताते हुए कहा था  – “कई घटनाएं जब घट रही होती हैं, अभी-अभी के ज़ख्मों-सी, तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर आती है… लेकिन वक़्त पाकर अहसास होता है कि ये बातें, लम्बे समय के लिए साहित्य को कुछ दे नहीं पायेंगी… ये वक़्ती आँधियाँ होती हैं…”

वक़्ती यानी सामयिक, तात्कालिक.

यों देखें तो हर क्षण ‘वक़्ती’ है. वक़्त के गुज़रने का अर्थ ही है क्षण का सरक जाना. उस फिसलते क्षण में व्यक्ति जब दूरगामी परिणामों पर असर डालने वाले निर्णय लेकर आचरण करता है तो उसका वक़्ती आचरण समय की थाती बन जाता है, हवाओं पर छप जाता है.

दरअसल महेन्द्र मोदी जी अपनी कथा तो कह ही रहे हैं, जीवन की भी बात कर रहे हैं. जब लेखक व्यक्ति की तरह नहीं यायावर की तरह जीवन-प्रान्तर में घूम रहा हो और अपने आप से फ़ासला रखकर शाब्दिक फ़ोटोग्राफ़ी कर रहा हो तो उसके पास व्यक्तिगत आग्रहों के लिए फ़ुर्सत ही कहाँ होती है? ऐसा करते हुए मोदीजी ने लगातार ‘फ़्लैश बैक’ और ‘फ़्लैश फ़ारवर्ड’ का भरपूर इस्तेमाल किया है. आग्रह-युक्त और उसी क्षण में आश्चर्यजनक ढंग से आग्रह-मुक्त वर्णन होने के कारण पाठक को यह परेशानी नहीं होने पाती कि वर्त्तमान से अचानक बीस बरस आगे या दस वर्ष पहले की बात कैसे होने लगी. सब कुछ हवाओं पर छपता चल रहा है. कभी इस झोंके पर, कभी उस झकोरे पर.

जो और जैसे व्यक्ति लेखक को मिले, जो परिस्थितियाँ बनी-बिगड़ीं, जिसने जैसा किया, उन हालात में जो कुछ हुआ, जो ‘लै बाबुल घर आफ्नो’ में, पहले के भागों में भी पढ़ने को मिलता है, वैसा क्योंकर हुआ होगा, उसे समझने के लिए लेखक महेन्द्र मोदी को व्यक्ति महेन्द्र मोदी की तरह समझना, और उसके बाद यायावर की तरह देखना सहायक होगा.

सोचते-सोचते मुझे एक कहानी याद हो आयी. कहानी हमारा सबसे बड़ा गुरु है. जो सबक हम उपदेश में सुनकर ऊब जाते हैं और भूलने को तत्पर होते हैं, कहानी वही शिक्षा हमें सहज दे जाती है. हमेशा के लिए. 

एक किसान का बेटा कृषि विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर गाँव लौटा. फ़सल की आगामी बुवाई में पिता का हाथ बँटाते हुए ग्रेजुएट बेटे ने कहा, “बापू, हम लोग इतनी मेहनत करते हैं. लेकिन कभी बेवक़्त बारिश तो कभी आँधी और कभी लगातार चिलचिलाती धूप! अक्सर हमारी मेहनत बेकार चली जाती है.”

पिता ने लम्बी साँस भरते हुए कहा, “अब जैसी परमात्मा की मर्ज़ी बेटा.”

बेटे ने कहा, “अगर एक साल, सिर्फ़ एक साल आपका यह परमात्मा मेरे काम में दख़ल न दे तो मैं इसी खेत में चमत्कार कर सकता हूँ. वरना इतनी पढ़ाई का फ़ायदा ही क्या?”

परमात्मा लड़के की बात सुन रहा था. उसकी इच्छा जानकर वहाँ प्रकट हो गया.

लड़के ने पूछा, “सर, इतना मेकअप करके, इस नौटंकी वाले कॉस्टयूम में आप कौन? और आप अचानक कहाँ से प्रकट हो गये?”

“मैं परमात्मा हूँ और तुम्हारी बात सुनकर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आया हूँ. बोलो पुत्र, क्या चाहते हो?”

लड़के को देखकर साफ़ पता चल रहा था कि वह अपनी हैरानी कम, अविश्वास अधिक छुपाने की कोशिश कर रहा था. फिर भी, एटीकेट-वश बोला, “ऐसा ही है सर, तो एक वर्ष के लिए मुझे अपने आँधी-पानी-ताप-धूप वगैरह से मुक्त कर दीजिये. मैं शानदार फ़सल उगाकर पूरे ज़माने को दिखाना चाहता हूँ.”

‘तथास्तु’ कहकर परमात्मा अन्तर्धान हो गया.

अब तो लड़का लग गया जी-तोड़ मेहनत करने में. पूरी तरह नियन्त्रित तापमान, ज़रूरत जितने नपे-तुले पानी की सिंचाई, उचित प्रकाश, अनुकूल छाया आदि का बंदोबस्त करके लड़के ने फ़सल उगाई. समय पाते उसके खेत की फसलें बढ़ चलीं. अगल-बग़ल के खेतों में फसलें अगर चार फ़ीट की तो उसके खेत में आठ फ़ीट ऊँची. दूसरों के यहाँ बालियाँ बालिश्त भर की तो उसके खेत में दो-दो फ़ीट लंबी. पूरा गाँव तारीफ़ के बोलों और ईर्ष्या भरी निगाहों से देखता हुआ ग्रेजुएट लड़के के कृषि-ज्ञान से प्रभावित हुआ घूमे.

फ़सल कटाई का समय आया तो परमात्मा फिर प्रकट हो गया. लड़के की प्रशंसा करते हुए बोला, “वाक़ई, तुमने कमाल कर दिखाया है. ज़रा बालियों का दाना भी देखें.”

लड़का मुट्ठी-भर बालियाँ काट लाया. छील कर देखा तो दाना एक नहीं. दूसरे कोने से और बालियाँ लाया. उनमें भी एक भी दाना नहीं. और लाया तो वे भी छूँछी!

लड़का सिर पकड़ कर बैठ गया.

ईश्वर बोला, “पुत्र, ये फ़सलें आँधी-पानी, धूप-बादल और हवाओं से जितना संघर्ष करती हैं, इनमें दाना उससे आता है. तुमने इनका संघर्ष छीनकर इन्हें दाने से वंचित कर दिया.”                             

इस पुस्तक के लेखक ने जितना संघर्ष झेला, ईर्ष्या, उपेक्षा, षड्यंत्र का सामना किया, चुनौतियों में छलांग लगायी, अधिकारों से वंचित हुआ उसी सब से महेन्द्र मोदी एक ऐसे व्यक्ति बने जिसमें हर परिस्थिति का सामना करने की कूव्वत हो, डट जाने का संकल्प हो, बात निभाने का माद्दा हो और जब उचित लगे तब टाल जाने का बड़प्पन भी हो. आवाज़ और प्रतिभा तो कुदरत की दी हुई है ही.

‘ले बाबुल घर आफ्नो’ ऐसे ही ‘दाना-दार’ इनसान की कहानी उसकी अपनी ज़ुबानी है. 

आम तौर पर मीडिया का काम इतने तक माना जाता है कि किसी विषय या समस्या के विभिन्न पहलू आम श्रोता के सामने लाने के बाद निष्कर्ष अथवा परिणाम पर पहुँचना श्रोता पर ही छोड़ दे. ऐसा आदर्श स्थापित है कि प्रो-एक्टिव होकर समस्या को हल की ओर ले जाना मीडिया का दायित्व नहीं होना चाहिए.  

मगर मोदीजी इस पुस्तक में सामाजिक समस्याओं पर कार्यक्रम करते हुए उन्हें किसी सार्थक निष्कर्ष तक ले जाने की कोशिश करते दिखेंगे. यहाँ तक कि ड्रग्स जैसे नशे की बुराई की जड़ तक जाते हुए जान का ख़तरा तक मोल लेते दिखाई देंगे. क्योंकि समाज को समस्या से निजात दिलाना उन्हें अपने काम को पूरा करने जैसा लगा. वर्ना काम अधूरा. 

इससे पहले कि ऐसा करना किसी को अति-उत्साह जैसा लगने लगे इस विषय पर और विचार करना उपयुक्त होगा.

आम तौर पर हम सभी में एक वृत्ति, एक मनोविज्ञान सक्रिय रहता है. बड़ी संख्या में समाज के लोगों को परेशान करने वाली कोई समस्या हमारे सामने आती है तो हम किनारे खड़े रहकर ईश्वर की तरह तमाशबीन हो जाना पसंद करते हैं. हम भूल जाते हैं कि जब तक मंसूर की मानिंद ‘अन-अल-हक़’ का अनुभूति-जन्य सत्य हमारा स्पर्श न कर ले, हम ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहने के हक़दार नहीं हो जाते. तब तक हम ईश्वर नहीं, मनुष्य हैं, और मनुष्य का काम तमाशा देखना नहीं है. वह तमाशे की पुतली हो जाने को अभिशप्त है. 

उदाहरण के लिए एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जो ऑफ़िस  जाने के लिए घर से निकलता है, थोड़ी हड़बड़ी में है, शायद थोड़ा लेट हो गया है, मगर बस स्टॉप के रास्ते में दो आदमियों को मारामारी करते देखता है. ऑफ़िस के लिए हो रही देरी भूलकर वह उन दोनों का झगड़ा देखने के लिए वहीं रुक जाता है. थोड़ी देर में वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो जाती है जिनके लिए वहाँ चल रही मार-धाड़ एक तमाशा है. लड़ने वाले दोनों व्यक्ति भी इतने लोगों को जमा हो गया देखकर हीरो हो जाने के लिए विरोधी को परास्त करने में पूरी ताक़त लगाने लगते हैं. हिंसा की मंशा और ज़ोर पकड़ लेती है.  

यह एक काल्पनिक दृश्य भले हो, किन्तु ऐसा वास्तव में होता हुआ हम में से हर किसी ने कभी-न-कभी अवश्य देखा होगा. यहाँ विचार करने की बात यह है कि वहाँ इकट्ठा हो गई भीड़ में से किसी के भी लिए वहाँ हो रही हिंसा ऐसा मामला नहीं थी जिसे सुलझाया जाए. उलटे, उस भीड़ के हर व्यक्ति में झलकती उत्सुकता उस आग में और ईंधन डालने का काम कर रही थी. क्या हमने कभी सोचा है कि अन्य भी सभी समस्याओं में हमारी तटस्थता इसी तरह हमारे जाने-अनजाने उस समस्या को और बढ़ाने का कारण बनती चली जाती है? यह हमारी शराफ़त या निर्लिप्तता का नहीं, सामाजिक समस्याओं को गहराने में हमारे योगदान का प्रमाण है.

तमाशे का हिस्सा हो जाने का अर्थ यह कैसे हो गया कि यदि मार-पीट हो रही है तो उसमें शामिल हो जाएं? यह क्यों नहीं कि हिंसा की अग्नि को बुझाने वाले बन जाएं? अन्याय या शोषण है तो उस स्थिति में कूद जाने का यह अर्थ क्यों नहीं हो जाता कि वैसी मनोवृत्ति को अर्थहीन बनाने में जुट जाएं? ऐसा न हुआ तो एक मीडिया-कर्मी और एक माफ़िया-डॉन के बीच का फ़र्क कैसे तय होगा? बुद्धिजीवी और जगत्गति न ब्यापने वाले मूढ़ में क्या अन्तर रह जाएगा? क्या हम बुद्धिजीवियों की इस क़दर मानसिक कण्डीशनिंग हो चुकी है?

कम-से-कम यह मुझे सिर झटक कर टालने जैसी बात नहीं लगती.

यदि हमारे मित्र, इस पुस्तक के लेखक श्री महेंद्र मोदी स्वभाव-वश अपने आचरण से यह बता रहे हैं कि प्रो-एक्टिव होकर समस्याओं को सुलझाना हर व्यक्ति का नहीं तो कम-से-कम बुद्धिजीवियों और मीडिया का उत्तरदायित्व अवश्य है तो इसे अति-उत्साह नहीं, ग्रहण करने योग्य चरित्र कहना सम्यक् होगा.

इस तरह लेखक से एक काम और हो गया है. वह भी शायद अनजाने में, सहज रूप से.

ज़रा पुराने रेडियो सेट को याद कीजिये. ट्रांज़िस्टर-युग से भी पहले वाले रेडियो को, जिसमें वाल्व होते थे और कमरे की छत के पास इस दीवार से उस दीवार तक एरियल लगाना पड़ता था. मुझे अपने बचपन की याद हो आयी जब हमारे घर का ऐसा ही रेडियो सेट बिगड़ गया था. घर का बड़ा बेटा होने के नाते उसे ठीक करवाकर लाना मेरा काम था. यों भी, वह रेडियो जिस टेबिल पर रखा रहता था मैं वहीं बैठकर स्कूल की पढ़ाई, होमवर्क आदि किया करता था. जिन घरों में तब रेडियो था, वहाँ रेडियो सुनना एक आदत बन जाती थी. मुझे भी रेडियो चलाकर पढ़ाई करने की आदत हो गयी थी. इसलिए उस रेडियो के आकाश का पुनः वाणीमय हो जाना घर भर में सबसे ज़्यादा मेरी ज़रूरत थी. रेडियो की ख़ामोशी मेरे लिए ऐसी हो गई मानो स्कूल से मेरा नाम कट गया हो!

लिहाज़ा मैं रेडियो सेट उठाकर विक्रेता के पास ले गया. उसके टेकनीशियन ने यह देखने के लिए क्या गड़बड़ है उसे पीछे से खोला. बाहर से तो हम रेडियो को बड़े चाव से झाड़-पोंछ कर चमकाकर रखते थे. मगर अन्दर का नज़ारा कुछ और ही था. अन्दर देखा तो धूल और जालों ने अपनी पूरी दुनिया बसा रखी थी. कौन सा तार कहाँ से किधर जा रहा है, समझना मुश्किल था. काँच के वाल्व माया की मीनारों जैसे लग रहे थे. वहाँ तो जैसे एक तिलिस्मी प्रपंच रचा हुआ था!

कुछ इसी तरह का हाल आकाशवाणी का भी कहा जा सकता है. एक आम श्रोता तो धुली-पुंछी आवाज़ें, सधे हुए कार्यक्रम और गुनगुनाता संगीत ही सुनता है. अन्दर कितनी धूल होगी, कहाँ-कहाँ कितने जाले लगे होंगे, किस महानुभाव के तार किस अफ़सर से जुड़ते होंगे और क्यों, उसे क्या मालूम! वह नहीं जानता कितने तरह के कर्मचारी होंगे, उनमें से कितने लोग कार्यक्रम तैयार करते होंगे, कितने प्रशासन चलाते होंगे और कितने महज़ क्लर्की करते होंगे. किसी श्रोता को जानकर करना भी क्या है कि इस विभाग में लोगों की भरतियाँ कैसे होती हैं, जब तक कि उसकी ख़ुद की दिलचस्पी आकाशवाणी का कलाकार हो जाने की न हो जाती हो. इंजीनियर वर्ग की पहली पसन्द नौकरी के लिए चुने जाने के बाद रेलवे अथवा डाक-तार-टेलीफ़ोन विभाग में नियुक्ति की होती थी. आकाशवाणी तो तीसरे नम्बर पर आती थी. यांत्रिक जगत् में कैरियर को प्राथमिकता मिलना स्वाभाविक था.     

घटनाचक्र को उकेरते हुए श्री महेन्द्र मोदी ने भीतर के जाल-जंजाल की भी झलक दे दी है. इतनी साफ़गोई से इन बातों को कोई ‘दाना-दार’ व्यक्ति ही कह सकता था.

मेरा स्वयं का भी मानना यही है कि आकाशवाणी, जो कि कला-साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित होने के कारण निस्संदेह देश की सर्वश्रेष्ठ संस्था थी, उस दिन से पतन की फिसलती ढलान पर आ गयी जिस दिन से व्यक्तियों (कर्मचारियों-अधिकारियों) के चयन में प्रमाद होना आरम्भ हुआ. शिक्षा एवं सूचना-प्रसारण कोरा व्यवसाय नहीं, उससे बहुत आगे की चीज़ हैं. इन क्षेत्रों में प्रवेश केवल नौकरी के लिए नहीं, समाज के नैतिक नेतृत्त्व के लिए हो, इसका तर्क नहीं होता. केवल औचित्य होता है. जब आकाशवाणी मात्र एक नौकरी हो गई तो पदोन्नतियाँ भी वरिष्ठता-सूची के क्रमांक से होंगी. गोया स्कूली बच्चों के रोल नम्बर से उनकी हाज़िरी लगायी जा रही हो! मुझे नहीं लगता ‘रघुवंश’, ‘शाकुंतलम्’ या ‘मेघदूत’ लिखना कालिदास की ‘नौकरी’ थी. या फिर ‘ओथेलो’, ‘हैमलेट’ या ‘किंग लीयर’ लिखने की ‘हैसियत’ शेक्स्पीयर में इसलिए बन गयी थी कि उनका रोल नम्बर आ गया था.

आप किसी को भी केन्द्र निदेशक-महानिदेशक कुछ भी बनाइये, किसी भी केडर से व्यक्ति का चुनाव कीजिये, मगर यह ज़रूर देख लीजिये कि वह जगदीशचन्द्र माथुर या हरिश्चंद्र खन्ना है या नहीं! अनमने भाव से ‘कैरियर प्रथम’ वाले इंजीनियरों का मूल्य उनकी प्रतिभा और शिक्षा  के परिमाण में अवश्य आँका जाए, किन्तु आकाशवाणी जैसे संस्थान के केंद्र पर विभागाध्यक्ष? केंद्र-संचालक? आकाशवाणी का महानिदेशक?  

ऐसी स्थिति के लिए मैंने अपने एक अन्य लेख में जो उदाहरण दिया है, मुझे लगता है उसे यहाँ भी दोहरा देना चाहिए.

रद्दीवाला याद है आपको? घर-घर से पुराने अख़बार की रद्दी व अन्य बेकार सामान उठाने वाला कबाड़ी? अब तो वह डिजिटल काँटा लाने लगा है, मगर कभी वह तराज़ू और बाट लेकर चलता था. एक पलड़े में एक किलो का बाट रखता और दूसरे में उतने अख़बार रखकर तौलता. फिर उन्हें बाट वाले पलड़े में रखकर दो किलो बना लेता था. फिर दो किलो तौलकर चार किलो बना लेता था. दोनों पलड़े के आठ किलो उठाना मुश्किल लगता तो हौले से एक किलो वाला लोहे का ओरिजिनल बाट निकालकर एक तरफ़ सरका देता था.

और चल पड़ता था रद्दी से रद्दी तुलने का सिलसिला!

हमारी प्रिय आकाशवाणी में भी भरती और प्रमोशन जब रद्दी से रद्दी तौलकर होने लगे तो जो हो सकता था वही हुआ!

श्री महेन्द्र मोदी ने कितना भी क्षुब्ध होकर इस स्थिति पर सवाल उठाया हो, उनकी यह बात हर किसी के द्वारा ध्यान दिये जाने की दरकार रखती है.

जिन लोगों ने एकहार्ट टॉल की पुस्तक ‘द पॉवर ऑफ़ नाओ’ पढ़ी है, वे जानते हैं यथार्थ क्या है और भ्रम क्या. टॉल ने ‘ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या’ की पहेली को बहुत सरल करके समझा दिया है कि सत्य क्या, मिथ्या क्या है.

आधी रात के बाद कभी अचानक नींद उचट जाए तो हम पाते हैं कि घोर नि:स्तब्धता छायी हुई है. घुप्प चुप्पी! यदि अचानक निकट के हाईवे पर कोई वाहन गुज़र जाए या कोई कुत्ता भौंक दे तो उसकी आवाज़ ज़रूर सन्नाटे की ख़ामोश लहरों पर तैरती हुई हम तक आ जाती है. लगातार पसरे सन्नाटे के विस्तृत आकाश में यह एक ध्वनि बादल के टुकड़े की तरह प्रकट हुई और फिर उसी मौन में बिखर कर लुप्त हो गयी. वाहन की या भौंकने की आवाज़ ने आकर बताया कि यह आवाज़ जिसमें तैरी वह अनन्त मौन इस आवाज़ के आने के पहले भी था और लुप्त हो जाने के बाद भी है. ठीक से देखें तो आवाज़ ने प्रकट होकर हमें सन्नाटे के लगातार होने का अहसास कराया! यदि ये शब्द प्रकट न होते तो हमारे लिए अप्रकट मौन का होना एक शब्द-हीनता मात्र होता.  

इसी तरह जब हम अपने लिए कोई नया मकान या फ़्लैट देखने जाते हैं तो हमारा सामना पूरी तरह ख़ाली पड़े कमरों से होता है. हमारा सामान और फ़र्नीचर उस ख़ाली को, उस अवकाश, उस आकाश को उस दिन भरेगा जब हम इस फ़्लैट को ख़रीद कर उसमें रहने आ जायेंगे. फ़र्नीचर वहाँ होकर यह बतायेगा कि हमारी टेबिल और कुर्सी, पलंग और अलमारी उसमें हैं जो सब तरफ़ पसरा आकाश —  अवकाश, शून्य, ख़ालीपन – है!

शब्द अथवा मेज़ का होना और कुछ नहीं मौन और शून्याकाश के परिचय-सूत्र हैं. जो आते-जाते हैं, हटते हैं, विलीन होते हैं वे फ़र्नीचर या शब्द हैं. शून्य और मौन तो वहीं रहते हैं. अब यह हमारी मानसिक कण्डीशनिंग का आलम है कि हमारा ध्यान सदा लय हो जाने वाली मेज़-कुर्सी-अलमारी या ध्वनि पर केन्द्रित रहता है. वस्तुतः जो ख़ालीपन अथवा सन्नाटा है उस पर तब केन्द्रित होना शुरु होता है जब फ़र्नीचर या शब्द से हमारा रिश्ता बनता है.

यह भी अवश्य हमारी मानसिक कण्डीशनिंग ही कही जाएगी कि हम इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं के घात-प्रतिघात और उनके लब्ध पर केन्द्रित होने को चुन लेंगे – अमुक व्यक्ति ऐसा निकला, ऐसी-ऐसी नीति ने वैसा-वैसा परिणाम ला दिया, किसी-किसी शहर की ‘कल्चर’ ऐसी है, आदि आदि. फिर हो सकता है हम यह भी कहें कि हमें तो मालूम नहीं, महेंद्र मोदी ने अपनी किताब में  ऐसा बताया है.

जबकि हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए उस जीवन पर जो लेखक के इर्द-गिर्द पसरा रहा है. स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बनकर मौजूद रहा है. अन्ततः लेखक का जीवन, किसी भी व्यक्ति का जीवन अनन्त आकाश की तरह है. घटनाओं का उपलब्ध अथवा हाथ में आये परिणाम पसरे हुए सन्नाटे में उगे शब्द की तरह हैं, कमरे के ख़ालीपन में दिखे फ़र्नीचर की तरह हैं. निष्पत्तियों के रिश्ते से वास्तव में हमें देखना तो जीवन के विस्तार को है!

निष्पत्तियों का – व्यक्तियों की कमज़ोरियों, झूठ, कपट, लोभ, भ्रष्टाचार, पक्षपात आदि को कहने का अर्थ है यह बताना कि उनका कोई स्थायी महत्त्व नहीं है, वरना लेखक उन्हें कहता ही क्यों? ‘लै बाबुल घर आपनो’ कहकर उसने इस ‘प्रकट’ अस्थायित्व को जीवन की सच्चाइयों के आधारभूत (अप्रकट) कैनवस पर चित्र की तरह उकेर दिया है.

इस किताब का पढ़ना इस पर निर्भर रहेगा कि हमारा ध्यान किस पर केन्द्रित है – घटनाओं और उनकी परिणति पर, अथवा उस सत्य पर जिसके आकाश में ये ‘प्रकट’ जुगनू टिमटिमाये हैं.      

जो पाठक सदा से, बहुत पहले से रेडियो सुनते आये हैं वे इस बात की साक्षी देंगे कि फ़िल्मी गीतों में यदि कोई शायर वेदान्त को उतार पाया तो वह थे साहिर लुधियानवी. संसार की हर शै को इक धुन्ध से आना है और इक धुन्ध में जाना है कहने वाले इस कवि ने अपने एक गीत में यह भी कहा था कि बरबादियों का सोग मनाना फ़िजूल था, बरबादियों का जश्न मनाता चला गया! 

इस पुस्तक के सब हासिलों, हर उपलब्धि, विभिन्न निष्कर्षों को लेखक ने अनन्त में लय हो जाने वाली बरबादियों की तरह देखा है जिनका सोग मनाना फ़िजूल है. इसलिए लेखक जीवन के सिरजनहार से कहता मालूम होता है — ले बाबुल, अपना घर संभाल. तू जाने तेरा काम जाने. मैंने तो तेरे आँगन में जैसा जंचा, खेल लिया.

श्री महेन्द्र मोदी का यह लेखन बरबादियों का जश्न है. आप न भी चाहें तब भी यह पुस्तक आपको हाथ पकड़कर इस जश्न में शामिल होने के लिए खींच लायेगी.

जनवरी, 2021                                             

ध्रुवीकरण


बीजेपी ने ध्रुवीकरण की हद्द कर दी!

कुछ लोगों का ऐसा कहना है.

बीजेपी के साथ इसे जोड़ना यह स्थापित करने में काम आएगा कि ‘ध्रुवीकरण’ ऐसी गाली है जिसे मोदीजी को दी जाने वाली गालियों के अम्बार में मुट्ठी-भर और डालने के लिए बचाकर रख लिया जाए.

‘ध्रुवीकरण’ गाली इसलिए है कि यह समाज में मौजूद अच्छे-ख़ासे अनेकानेक मतभेदों का कुछ ऐसा पनीर जैसा बना देता है जिससे लोग आसानी से ‘हम’ बनाम ‘वो’ करने-कहने में सक्षम हो जाते हैं! तब इन विभिन्न मत-वादों के लिए चिल्ला-चिल्लाकर कहना पड़ता है कि इनकी मौजूदगी बहुत नॉर्मल-सी बात होनी चाहिए थी, ‘हम-वो’ से दूध फाड़कर पनीर क्यों?

कोई-कोई ध्रुवीकरण के लाभ भी बताता है. सो यों कि किसी एक राजनैतिक दृष्टि का चयन आसान हो जाने से लोकतन्त्र में लोगों की राजनैतिक हिस्सेदारी बढ़ती है और राजनैतिक पार्टियाँ मज़बूत बनती हैं.

इस तरह मुँह में कई-कई ज़ुबान रखने वाले लोग ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करना और निशान बीजेपी के गाल पर लगा देना अपने लिए आसान बना लेते हैं.

बीजेपी की बीजेपी जाने, हमें क्या मतलब? हमें सरोकार है अपने देश और उसके लोगों से. ईमानदारी से ‘राष्ट्र प्रथम’ हो जाये तो ठीक क्या और ग़लत क्या अपने आप हमें मालूम होता चलता है. जो ठीक के पक्ष में होते हैं, ‘ठीक’ ऑटोमेटिकली उनके पाले में चला जाता है, और ‘ग़लत’ ग़लत वालों के पाले में. कसौटी हमेशा यह रहती है कि ‘राष्ट्र प्रथम’ है या नहीं, या फिर मेरे सुने-सुनाये मत-वाद के लिए सोच-समझ के बिना हो रही मेरी बयानबाज़ी महत्त्वपूर्ण है! इस कसौटी को कोई भी कभी भी आज़मा देखे. ‘स्वयं’ से बाहर आए बिना ‘कसौटी’ की स्वीकृति नहीं होती, नहीं हो सकती.

देखा जाए तो ध्रुवीकरण कब और कहाँ नहीं रहा? ‘कम्यूनिज़्म’ और ‘लोकतन्त्र’ दो ध्रुव नहीं थे? या फिर ‘उदारवाद’ और ‘रूढ़िवाद’? ‘समाजवाद’ और ‘पूँजीवाद’ को क्या कहेंगे? या छोड़िए, सीधे-सीधे कहते हैं – ‘ग़रीब’ और ‘अमीर’? ये दो ध्रुव नहीं हैं? मार्क्सवादी शब्दों में ‘सर्वहारा’ और ‘बूर्जुआ’ दो ध्रुव नहीं तो और क्या थे? या ‘मालिक’ और ‘मज़दूर’? और, आज तक जो ‘औद्योगीकरण’ बनाम ‘कृषि-कृषि’ खेला गया, क्या वह ध्रुवीकरण नहीं था? और भारत जिस ‘साम्राज्यवाद’ से जूझते हुए ‘राष्ट्रवाद’ में से गुज़रकर आज़ाद हुआ सो? जिसे ‘तीसरी दुनिया’ कहकर ‘अमेरिकी-सोवियत ब्लॉक’ के मुक़ाबिल खड़ा करने की कोशिश हुई उसे ध्रुवीकरण कहेंगे या नहीं? अस्सी-सौ साल पहले लड़े गए विश्वयुद्धों में ‘मित्र-राष्ट्र’ बनाम ‘धुरी-राष्ट्र’ दो ध्रुव नहीं थे? फिर उसके बाद ‘नाटो’ बनाम ‘सोवियत’?

सच कहें तो मानव-सभ्यता सदा इतने सब ध्रुवों में से गुज़री है तब जाकर किसी या किन्हीं परिणामों पर पहुँची है. 

तब हिन्दू-मुसलमान के ध्रुवीकरण से क्या?

क्षमा कीजिये, ऐसा कोई ध्रुवीकरण है ही नहीं! होता तो किसी परिणाम पर पहुँचने की सोची जा सकती थी! 1947 में मज़हब को एक ध्रुव बताकर ज़बर्दस्ती भारत का जो विभाजन किया गया वह परिणाम पर नहीं, दुष्परिणाम पर पहुँचने जैसा था!! ‘दार-अल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) के हासिल को ‘परिणाम पर पहुँचना’ मानने वाले कौन लोग हैं?

अब तक मैं भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ वाला एक बौड़म हुआ करता था. मगर लगातार कई महीनों तक चलने वाले दिल्ली  के शाहीनबाग़ वाले कब्ज़े ने बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखा दिया है. यह कब्ज़ा न तो कोई आंदोलन था, न जन-आंदोलन, न प्रदर्शन, न विरोध-प्रदर्शन और न कोई संवैधानिक अधिकार. यह भदेस क़िस्म की मुसलमानी इस्लामिक ताक़त का दिखावा मात्र था, जिसकी न ज़रूरत थी, न औचित्य. यह निरर्थक हड़बोंग अराजक और ग़ैर-संवैधानिक थी जिसने expose कर दिया ‘ऐसे वाले’ मुसलमान हमेशा ग़लत क्यों होते हैं.

यदि किसी की अन्तड़ियाँ कुलबुलाने लगी हों कि यह तो मुस्लिम-विरोधी बात होने लगी, वह आगे पढ़ना बन्द करने को स्वतंत्र है. उसे फिर कभी मित्र-भाव से न देखा जा सकेगा. इसके लिए मैं स्वतन्त्र हूँ. मित्र-भाव के लोप का कारण मुसलमानों का पक्ष या विरोध नहीं बल्कि ऐसे लोगों के दिलो-दिमाग़ में ‘राष्ट्र प्रथम’ की कसौटी का न होना है. मुसलमानों को लेकर तो अभी पूरी-पूरी और खुली बात करना बाक़ी है. राष्ट्र-द्रोही जो बोलते हैं, उनके बोलने का क्या?

या तो जो हैं ना-फ़हम वो बोलते हैं इन दिनों,

या जिन्हें ख़ामोश रहने की सज़ा मालूम है.

तय कैसे होगा इन लोगों में राष्ट्र-भाव है या नहीं? तय करने के लिए रॉकेट-साइंस की कहाँ ज़रूरत है?

देश के लिए जब सही दिशा में काम होता हो तब भी रोड़े अटकाते चले जाना और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के साथ खड़े होने के लिए सौ तरह के जस्टीफ़िकेशन दिये चले जाना क्या इंगित करता है?

कभी सिराजुद्दौला को अंग्रेज़ों से पिटवाकर ख़ुद बंगाल का नवाब बन जाने वाला मीर जाफ़र हुआ था. उसके पहले पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए पिटे हुए मुहम्मद गौरी को न्योतने वाला जयचंद भी हुआ था. उसके भी पहले आम्भीक (आम्भी) — राजा पुरुवास (पोरस) के विरुद्ध सिकंदर की मदद करने वाला — हो ही चुका था. इन सबके पहले विभीषण की भी कथा हम सब जानते हैं जिसे स्वयं राम-भक्तों ने ‘घर का भेदी’ कहा था. इन सभी के पास देश-द्रोह के लिए अपने-अपने justification मौजूद थे. इन्हें किसी और ने नहीं, मार्क्सी इतिहासकारों ने अपने इतिहास-पोथों में ‘देशद्रोही’ की संज्ञा दी थी. ऐसा कैसे कि इन सबके जस्टीफ़िकेशन तब तो ग़लत थे, मगर आज के मार्क्सवादी एक्टिविस्ट रणबाँकुरों की ज़ुबान से उच्चरित होते ही वही सारे देश-विरोधी तर्क सही हो जाते हैं? उन्हें किसी से देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं रहती?

तीन तलाक़ से लेकर CAA-NRC तक के तमाम मुसलमानी भड़कावे पर आधारित शाहीनबाग़ का अनाप-शनाप समर्थन इस बात की सूचना दे रहा है या नहीं कि ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव इन लोगों में है ही नहीं? राष्ट्र-भाव की बात करने में हिन्दूपन कहाँ से घुस गया? आपके कहे अनुसार, अगर घुस ही गया तो क्या आप स्वयं नहीं कह रहे राष्ट्र हिंदुओं का है इसलिए वे चिंता कर रहे हैं?

क्या तीन तलाक़ की कुप्रथा समाप्त होना मुसलमान-विरोधी है? क्या कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय राष्ट्र-हित नहीं है? तब धारा 370 पर समुचित निर्णय मुसलमान-विरोधी कैसे है? क्या अयोध्या का न्याय राम-मंदिर के मसले को राजनैतिक मुद्दा बनाये रखने की वृत्ति पर प्रहार नहीं है? क्या नागरिकता संशोधन मुसलमानों की नागरिकता छीन लेने के लिए है या अन्याय के शिकार लोगों को नागरिकता देने के लिए है? जिन्हें किसी भी अन्य देश में नागरिकता नहीं मिल सकती उनके लिए है? नागरिकता रजिस्टर (NRC) जब भी आयेगा — आना भी चाहिए — हिन्दू हो या मुसलमान हर घुसपैठिए को निकाल बाहर करेगा या सिर्फ़ मुसलमानों को? इस पर झूठ किस राजनीतिक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए बोला जा रहा है? वर्त्तमान CAA केवल दिसंबर 2014 तक सीमित है, तब उसके लिए यह झूठ क्यों कि आगे आने वाले NRC में इससे हिन्दू को फ़ायदा दिया जाएगा, मुसलमान को नहीं? गृहमंत्री ने लोकसभा में कहा  chronology समझिये, पहले CAA तभी NRC. इस बयान का बहाना लेकर शाहीनबाग़! सच समझे-जाने बिना? जब एक सांसद ने CAA और NCR एक साथ लाने पर आपत्ति की थी तब गृहमंत्री ने समझाया था CAA से जब तक देश के उचित नागरिक तय नहीं हो जाते तब तक नागरिकता रजिस्टर कैसे आ सकता है? दोनों एक साथ हैं ही नहीं. पहले नागरिकता संशोधन फिर नागरिकता रजिस्टर! यह है chronology. इसे समझिये. इस बात में बतंगड़ कहाँ है कि नानी-दादियाँ घर से निकाल बाहर कीं?

और, शाहीनबाग़ की दादी-नानियों ने क्या सुना? कि जब फूफी के मूँछ निकलेगी तब ये काफ़िर मोदी वगैरह ज़बर्दस्ती करेंगे किअब फूफी को चचा कहो! दादी तो दादी, पोते-पोती-नाती-नातिन ने भी यही माना और एसिड-पत्थर-पेट्रोल से इस्लाम सुरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया!

चलिए, राष्ट्र-भाव की इस ‘हाँ’-‘ना’ के ‘ध्रुवीकरण’ के साथ किसी परिणाम पर पहुँचने की कोशिश करते हैं.

शाहीनबाग़ में महीनों तक भारत सरकार ने कोई पुलिस एक्शन नहीं किया.

क्यों?

16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का इतिहास भूलने वाले देशवासी इतिहास दोहराने को अभिशप्त हुए और उस दिन के बिम्ब के रूप में उन्हें शाहीनबाग़ उपलब्ध हुआ. ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा हड़ताल के रूप में हुई थी. यह घोषणा मुस्लिम लीग काउंसिल ने पाकिस्तान बनने के समर्थन में ऐसी ही raw मुस्लिम ताक़त का परिचय देने के लिए की थी. इसकी वजह से देश-भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे जो उस दिन तक के सबसे भयानक दंगे कहे जाते हैं.

शाहीनबाग़ का कब्ज़ा शुरू होते ही मुस्लिम नेताओं-प्रवक्ताओं की 1946 वाली छटपटाहट साफ़ दिखायी पड़ रही थी. कैसे भी पुलिस एक्शन हो जाए और पूरे देश में जगह-जगह दंगे हो जाएं, इस मन्नत पर ‘आमीन’ पूरी शिद्दत के साथ मुसलमानों की ज़रूरत था. पुलिस एक्शन न होने से मुसलमानों की यह हाजत पूरे देश में पूरी न होकर दिल्ली तक सिमटकर रह गई.

दिल्ली भी इसलिए क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दिल्ली में मौजूद थे. संसार भर में हिंदुस्तान पर लानत भिजवाने का ज़बर्दस्त मौक़ा मुसलमानों के हाथ में था. लिहाज़ा, दिल्ली में खुलकर दिखा दिया गया कि इस्लामीकरण के लिए जारी जिहाद वाली ज़मीन ‘दार-उल-हर्ब’ — Land of War — की शक्ल कैसी होती है. शाहीनबाग़ में जिस जिहादी आतंकवाद ने आँख खोली उसकी शुरुआत जामिया मिलिया के तथाकथित ‘छात्र आंदोलन’ से और अमानतुल्ला खाँ के तीन तलाक़, धारा 370 वगैरह पर ‘हमारी ख़ामोशी को हमारी कमजोरी समझा’ वाले भाषण से हो चुकी थी.

इसके बाद से घट रही हर घटना ने इस सच पर रोशनी डाली है कि वास्तव में मुसलमान चाहते क्या हैं. यह चाहत पुन: चुपचाप अन्दर ही अन्दर सक्रिय रह सके इसके लिए देशद्रोहियों सहित हर मुसलमान नेता-प्रवक्ता-मौलवी बढ़-बढ़कर अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और जाने कौन-कौन से ‘हिन्दू’ नाम गिनवा रहा है ताकि हमेशा की तरह ‘तुम भी दोषी-हम बाद में दोषी’ की चौपड़ बिछायी जा सके और फिर सब वैसे ही चलने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं. मुसलमानों के मन में हिन्द केवल जिहाद-ज़मीन ‘दार-अल-हर्ब’ है, मानो यह सत्य उजागर हुआ ही नहीं!

जब तक “Fuck Hinduism” कहा जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. “सब बुत उठवाये जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्ला का” गाया जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. सरेआम “Free Kashmir” के पोस्टर लहराये जाते रहे, कोई दंगा नहीं भड़का. “मोदी और शाह को कुत्ते की मौत मारेंगे” घोषित करते जाने से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत का चिकन-नैक् काट दो” वाले भाषण से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत में हर जगह सड़कें ब्लॉक कर दो ताकि यह अंदर ही अंदर आर्थिक रूप से ख़त्म हो जाये” के प्लान से कोई दंगा नहीं भड़का. “हर जगह शाहीनबाग़ बना दो” के भाषणों से कोई दंगा नहीं भड़का. “हिन्दू तेरी क़ब्र खुदेगी” के गान से कोई दंगा नहीं भड़का. “सभी मुसलमान अपनी ख़ातूनों और बच्चों सहित घर से बाहर निकलकर जाम लगा दो”  के आह्वान से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो फिर देखो” से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 करोड़ 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे” से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह” से भी दंगा नहीं भड़का.

जैसे ही कपिल शर्मा ने कहा, हर जगह शाहीनबाग़ नहीं बनने देंगे, तीन दिन में जगह खाली करो — कि दिल्ली में सीरिया उतार लाये! हिन्दू-मुसलमान बराबर के गुनहगार कैसे हो गए? ‘देश के ग़द्दारों को’ ही तो कहा, ‘मुसलमानों को’ तो नहीं कहा. ओवेसी ने कैसे कह दिया “मुझे मारो गोली”? ख़ुद ही ख़ुद को ग़द्दार कह रहा है और हत्याएं हो रही हैं उनकी जो ग़द्दार हैं नहीं. “पत्थरबाज़ कपड़ों से पहचाने जाते हैं”, इतना ही तो कहा, “मुसलमानों के कपड़ों से” तो नहीं कहा. उसी ओवैसी ने कैसे कह दिया “मेरे कपड़े आपके कपड़ों से ख़राब हैं क्या”? ख़ुद ही कह रहा है पत्थरबाज़ मुसलमानी कपड़ों में हैं, और मारे जा रहे हैं वे मुसलमान जो मुसलमानी कपड़े ही नहीं पहनते!

मुसलमान पादते रहें और हिन्दू चुपचाप सूँघते रहें, कोई दंगा नहीं होता. हिन्दू को डकार भी आ गई तो दंगा भड़क जाता है. मुसलमानों के पास दंगा तैयार ही रहता है. तैयारी भी रहती है. 

ग़द्दारों के लिए ‘गोली मारो’ नहीं तो ‘आरती उतारो’ कहा जाएगा? देश के कुछ नागरिकों की दादी-नानियाँ ग़लत-सलत कुछ भी मानकर सड़क रोके बैठी रहें, और कोई अन्य नागरिक ‘अब और सहन नहीं’ भी न कहे? जबकि सिर्फ़ कहा, किया कुछ नहीं. मुसलमान कहते नहीं, बहुत ज़्यादा कर रहे होते हैं. जितना कहते भी हैं, वह ‘तक़ीया’ (कपट, झूठ) के इस्लामी प्रावधान के अधीन कहते हैं ताकि पकड़े जाने पर ख़ुद को बचा सकें!

हिंदुस्तान की ऐसी क्या लाचारी है कि ऐसे मुसलमानों का अनाप-शनाप कुछ भी सहन करता चला जाए? अब भेद खुल रहा है कि आज तक दिल्ली की सरकारें ऐसे मुसलमानों की बदौलत इस्लामाबाद् से चलती आई हैं. अब नहीं चल रही तो तकलीफ़ हो रही है — पाकिस्तान से ज़्यादा यहाँ के मुसलमानों को.

आपका इस्लाम भले कहता है हर काफ़िर को मुसलमान बनाओ, जो न बने उसे मार दो. लेकिन कौन भला आदमी आप जैसा मुसलमान बनना चाहेगा? तब आप क्या करेंगे? वही करेंगे न अंकित शर्मा को जिस तरह 400 बार चाकू से गोदने का काम किया? फिर उसकी अंतड़ियाँ खींचकर बाहर निकाल लीं. इससे तो हमें कारगिल युद्ध के शहीद कैप्टेन कालिया की याद हो आती है. ऐसी ही वहशियाना हरकत तब भी हुई थी और आँखें बाहर निकाल ली गईं थीं. या लांस नायक हेमराज और लांस नायक सुधाकर सिंह का ध्यान आ जाता है जिनके सिर पाकिस्तानी काट कर ले गए थे. आपको तो मौक़ा मिलने भर की देर है, मेरे जिस्म में भी चाकू छेद-छेदकर तृप्ति हासिल की जाएगी, एक-एक उँगली काटी जाएगी, आँखें फोड़ कर उँगली घुसाकर सॉकेट से बाहर खींची जाएंगी, पेट चीरकर आँतें मुट्ठी में भींचकर बाहर घसीटी जाएंगी, दोनों किड्नी चीरी जाएंगी. आप लोग ईद मुबारक कहकर अल्लाहो अक़बर इसीलिए चिल्लाते हैं क्या? हम कैसे मान लें हर बक़रीद पर आप निरीह बकरे को धीरे-धीरे काटते हुए, उसे torture करते-करते रक्त बहने और शिकार के छटपटाने का मज़ा लेने की प्रैक्टिस नहीं करते?

क्योंकि आप हर तरह से एक ही बात स्थापित करने और हमें समझाने में लगे हैं –  कि हम ‘जंग रहेगी-जंग रहेगी’ वाले ‘दार-उल-हर्ब’ ( Land of Jehadi War) में रह रहे हैं, जिसे आप ‘दार-उल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) बनाने के लिए कुछ भी करेंगे, करते रहेंगे, कभी भी किसी भी हालत में रुकेंगे नहीं. इससे यह सत्य (हक़?) उजागर हो गया है कि पाकिस्तानियों और इस तरह के हिन्दुस्तानी मुसलमानों में कोई फ़र्क नहीं है. दोनों में कैप्टेन कालिया और अंकित शर्मा को हलाल करने का मज़ा लेना बिलकुल एक जैसा है!

दिल्ली के एक हिस्से के लिए कितने गैलन एसिड, कितने टन पत्थर, कितने पेट्रोल-बम, कितनी गुलेलें, कितनी बोतलें, कितनी थैलियाँ, चुपचाप चलती कितनी प्लानिंग और ‘इस्लाम’ में कितनी गहरी आस्था!

इस्लाम के विश्वासियों के लिए कुछ होता होगा ‘दारुल-इस्लाम’. हमें क्या मतलब? देख तो लिया ‘दारुल-इस्लाम’ पाकिस्तान! वक़्त आ गया है जब इस पाकिस्तान को पूरी तरह तबाहो-बर्बाद कर दिया जाए. इसके साथ बांग्लादेश को भी रहना मुश्किल हो गया था, जो कि ख़ुद दारुल-इस्लाम है! जिन्नाह की इस्लामी महत्वाकांक्षा की औक़ात पश्चिम पंजाब जितने टुकड़े से ज़्यादा की नहीं थी. सिंध, बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान का स्वतन्त्र सार्वभौम देश हो जाना ही ठीक है. रहेंगे ये भी बांग्लादेश की तरह दारुल-इस्लाम ही. ऐसा कर देने से मुसलमानों के मज़हबी विश्वास पर चोट पहुंचाने का काम होगा नहीं, मगर ये हिन्दी मुसलमान घायल ज़रूर हो जाएंगे, क्योंकि इनके मन में ‘कुछ-कुछ’ चलता रहता है. पाकिस्तान इनकी लंबी प्लानिंग का हिस्सा जो था!

हर वह काम होना चाहिए जिससे कट्टर जिहादी इस्लाम का हौसला पस्त होता हो. यह अब ज़रूरी हो गया है. हर वह काम भी होना चाहिए जिससे हिंदुस्तान के दिल्ली-दंगाई मुसलमानों पर लगाम कसे. ये मुसलमान इस योग्य सिद्ध नहीं हुए हैं कि आगे इनकी और ज़्यादा परवाह की जाये. ‘रजम’ (पत्थरबाज़ी) को भी मज़हबी रस्म तक महदूद कर देना अब लाज़िम है. सिर्फ़ और सिर्फ़ हज के दौरान शैतान के लिए मक्का में ‘रजूम’ (पत्थरबाज़) होने की कोई मनाही नहीं. रवायत है, ठीक है. मगर इज़राइल के सैनिकों के बाद कश्मीर में, फिर हिन्द के अलग-अलग शहरों में, और अंततः दिल्ली-दंगे में इस कदर पत्थरबाज़ी! ऐसी हरकत के लिए देखते ही गोली मारने का अधिकार पुलिस और सेना को दे देना चाहिए.

क़ुरान और इस्लाम की हर शिक्षा की मनमानी व्याख्या करने वाले मुसलमान इसके लिए भी कहेंगे, इज़राइली सैनिकों की तरह भारत के सैनिक और पुलिसवाले भी ‘शैतान’ का ही रूप हैं. इसलिए टीवी चैनलों पर मुस्लिम प्रवक्ता चाहे जितनी ‘च्च्-च्च्’ करें, मन ही मन वे आश्वस्त हैं कि अंकित शर्मा को बर्बर होकर मारने से इस्लाम की सिद्धि हुई है.

शैतान की यह फ़ितरत है कि वह हर शैतानी किस्म के काम के लिए प्रेरित भी करता है और उसी साँस में यह भी कहता है वह अल्लाह का ही काम कर रहा है!

यह जो आए दिन ‘हिन्दू-आतंकवाद’ या ‘भगवा-आतंकवाद’ का हौआ लहराया-फहराया जाने लगा है, उसपर भी स्पष्ट होना ज़रूरी है.

दूसरे-दूसरे देशों में जाकर हिन्दू कोई हरकत नहीं करते. इस्लामाबाद से चलने वाली दिल्ली-सरकारों की बेरुख़ी के चलते अपने देश में छोटा-मोटा अपराध कर लेते हैं, मगर वह है अपराध ही, जिसके खिलाफ़ देश का क़ानून हरकत में आ जाता है. वह आतंकवाद नहीं है. आतंकवाद पर तो मुसलमानों का कॉपीराइट है. लगाके तक़रीबन हज़ार साल से, या शायद इससे भी ज़्यादा, इन लोगों ने आतंकी होने के लिए बहुत मेहनत की है. इनके मुक़ाबले हिन्दू क्या खाकर आतंकवादी होगा?

यह सब सभ्यता और संस्कृति के सरताज देश भारत में इस्लाम के नाम पर किया गया!

लिहाज़ा, ध्रुवीकरण कोई है तो ‘सभ्यता’ और इनके वाले ‘इस्लाम’ के बीच है!!

ग़नीमत है कि भारत में संतुलित बुद्धि वाले मुसलमानों की कमी नहीं है. ये मुसलमान खुलकर पाकी-वृत्ति वाले मुस्लिमों पर सवाल उठाते हैं. इस्लाम को उसके सही स्वरूप में समझते-समझाते हैं. सबके साथ मिलकर देश की विकास-यात्रा के बटोही हैं. बात-बिना बात जिन्नाह अथवा ओवैसी की तरह ‘मुसलमान-चालीसा’ का पाठ नहीं करते रहते.

इन सही केटेगरी के मुसलमानों की रीढ़ तब मज़बूत होगी जब कुछ मिथक तोड़े जाएंगे. जयचंदी भारतीय, उनमें भी विशेषतः हिन्दू, इन मिथकों को अपनी गुल्लक में इसलिए बचाकर रखते हैं कि यह उनकी आदत है. उन्हें पक्का है यह गुल्लक उस दिन काम आएगी जिस दिन आर.एस.एस. और बीजेपी की ‘बेवकूफ़ियों’ के कारण भारत का इस्लामीकरण पूरा हो जाएगा. तब सबसे पहले लपक कर ये लोग कलमा पढ़ेंगे. ‘ईद मुबारक’ कहने के बाद मुहर्रम की भी तैयारी इनकी अभी से है.

कभी-कभार कुछ बातें तब अधिक साफ़ होती हैं जब उन्हें समझाने के लिए थोड़ी अश्लीलता का हल्का-सा तड़का लगाया जाता है. इन जयचंदों की ‘आदत’ के संज्ञान के लिए यह तड़का उपयोगी रहेगा.

हुआ यूँ कि एक सीधा-सादा आदमी बार में अपने स्टूल पर चुपचाप बैठा बीयर के सिप ले रहा था. अभी वहाँ आये उसे ज़्यादा समय नहीं हुआ था.

तभी हॉलीवुड की काऊबॉय मूवीज़ के अंदाज़ में बार के दरवाज़े के स्प्रिंगदार कपाट खुलते हैं. एक हट्टा-कट्टा, लम्बा-चौड़ा हैटधारी प्रवेश करता है, चारों ओर नज़र घुमाकर बार के वातावरण का जायज़ा लेता है और सधे हुए क़दमों से चलकर बीयर चुसक रहे सज्जन के पास आता है. पाँव की ठोकर से एक स्टूल सरकाता है, फिर इधर-उधर देखता है और बीयर वाले इंसान की बग़ल में बैठ जाता है.

अपना ड्रिंक ऑर्डर करने के बाद आगंतुक ने जेब से सिगार निकाला, सामने का हिस्सा दाँतों से काट कर थूका और गिलास का इंतज़ार करते हुए लाइटर को उँगलियों में घुमाने लगा. बारटेंडर जब उसका ड्रिंक रख गया तो उसने दो-एक सिप लिये और संतोष का भाव जतलाया. थोड़ी देर में सिगार पीने की तलब हुई, सो उसने सिगार को बीयर-प्रेमी के पिछवाड़े में डाला, निकाला, सुलगाया और पीने लगा.

यही सिलसिला थोड़ी देर चला. हर बार हैटधारी ने सिगार को बग़लवाले के पिछवाड़े में डालने के बाद सुलगाया.

इसी तरह दो-चार सिगार पीकर उसने अपना बिल चुकाया और चला गया.

दूसरे दिन भी इसी तरह हुआ. आज तो सिगार कुतरने का कटर भी उसके पास था. दाँत से काटना नहीं पड़ेगा.

तीसरे और उसके अगले दिन फिर ड्रिंक और सिगार के दौर इसी मानिंद चले.

इसके बाद काफ़ी दिन बीत गये. वह हैटधारी दिखाई नहीं दिया.

कुछ साल बाद अचानक बार का स्प्रिंगदार दरवाज़ा खुला और उसी हैटवाले ने प्रवेश किया. स्टूल सरकाया और बीयर वाले सज्जन के पास बैठ गया. ड्रिंक आया, उसने चुस्कियाँ लेना शुरु किया, मगर सिगार के कहीं पते नहीं थे.

हैटवाले का दूसरा ड्रिंक भी आ लिया, फिर भी उसने सिगार नहीं निकाला. तीसरे ड्रिंक पर भी जब सिगार नहीं निकला तो बीयरवाले से रहा नहीं गया. उसने पूछ ही लिया, “जनाब, आज आप सिगार नहीं पी रहे?”

जवाब मिला, “यस डीयर, अब देश आज़ाद है. सरकार भी जन-हित की योजनायें चलाती है. मैंने सिगार पीना छोड़ दिया है.”

“यह तो आपने बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी”, बीयरप्रेमी बोला.

“क्यों क्या हुआ? धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है”.

बीयर वाले ने कहा, “सो तो ठीक है”, और अपने पिछवाड़े की तरफ़ इशारा करते हुए बताया,  “मगर मुझे जो आदत लग गई है, उसका क्या?”

इन ‘प्रोग्रेसिवों’ की आदत समझ लेने से पहला मिथक अपने आप टूट जाता है.

धर्म-अध्यात्म-ईश्वर-समाधि-जागृति आदि ऐसे मामले हैं जो आधे-अधूरे रह नहीं पाते. या तो ये बिलकुल नहीं होते – लाख कोशिश कर लो. या जब होते हैं तो पूरे ही होते हैं. सूर्य चमकता है तो पूरा ही चमकता है, मगर भूमण्डल का ऐसा भाग उस समय भी रहता है जहाँ सूरज नहीं चमकता. सूर्य के बावजूद उसे अँधेरा ही मंज़ूर है. मुसलमानों की ज़मीन ‘दारुल-इस्लाम’ का दम भरने वाले जिहादी इस्लाम के रसियाओं का कुछ ऐसा ही आलम है.

क़ुरान-ए-मजीद में अल्लाह के जो 99 नाम आए हैं, जिन्हें हदीस में संकलित किया गया है, वे सब ‘विष्णुसहस्रनाम’ में उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं. ये ‘उम्मत-ए-हिन्द’ शीर्षक लेख में देखे जा सकते हैं. सूरज-चाँद सभी तरह की रोशनी जिन्हें पूरी-पूरी उपलब्ध थी, उन हज़रत मुहम्मद ने बर्बर और सब तरह निगेटिव जातियों को उतना ही दिखाया जितना वे अपने अंदर समो सकती थीं, जितनी उनकी क्षमता थी — एक मोबाइल फ़ोन में एस.एम.एस. जितना. जो ‘आदत’ वाले हिन्दू नहीं हैं वे समझ सकेंगे उनके पास पहले से 70 एम.एम. की स्क्रीन पर अध्यात्म उपलब्ध है. वे जब क़ुरान पढ़ेंगे तो 70 एम.एम. के समूचे कैनवस के इशारे वहाँ भी देख पाना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा.

वहाबी-सलाफ़ी इस्लाम वाले ये कट्टरपंथी जिहादी मुसलमान 70 एम.एम. को निरंतर मोबाइल के एसएमएस तक सीमित रखने के लिए जो तलवार भाँज रहे हैं और अभी तक उतने ही निगेटिव बने रहने को इस्लाम समझ रहे हैं, वे नबी और उनके माध्यम से उपलब्ध ईश्वर के फ़रमान के घोर अपमान में मुब्तिला हैं. ख़ुद कुफ़्र करके ये आतंकवादी मुसलमान दूसरों को आँख दिखाने की हिमाक़त करते हैं. ये लोग भारत में अरब का रेगिस्तान उतार लाना चाहते हैं और भूल जाते हैं जितना ज़रूरी था उतना रेगिस्तान अल्लाह ने हिन्द को पहले से दे रखा है. इनकी हरकतें यहाँ irrelevant हैं. दिल्ली-दंगा यहाँ इस्लाम के लिहाज़ से भी कोई अर्थ नहीं रखता और ग़ज़वा-ए-हिन्द की आपकी योजनाओं को केवल बेनक़ाब करता है. ग़ज़वा के लिए मुहम्मद साहब के व्यक्तित्व जितनी औक़ात चाहिये. उतनी औक़ात की सोचना भी मत. आप चिन्दीचोर फ़सादी हैं, ग़ाज़ी नहीं.

‘आदत’ वाले जयचंद स्वयं को ‘लेफ़्ट-लिबरल’ कहने में शान समझते हैं. वे मानते हैं वे ‘रेशनलिस्ट’ हैं, प्रोग्रेसिव हैं, मार्क्सवाद से प्रेरित हैं. हिंदुस्तान को बरजते हैं, ‘ख़बरदार जो इतिहास का ‘पुनर्लेखन किया”! उस समय भूल जाते हैं मार्क्स ने इतिहास के पुनर्लेखन को ‘पहला मैदान-ए-जंग’ कहा था! बेचारे करें भी क्या? इतिहास की कचरा-किताबों में ख़ूब ढोलकी बजा चुके हैं, मुसलमानों ने भारत को यह दिया, वह दिया. sms मानो 70 mm को सिनेमा दिखाने ले जा रहा है!

जिन दिनों मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर चढ़ाई करना शुरु किया था, भले मुसलमान आक्रमण करने नहीं आते थे. बाबर और नादिरशाह-टाईप लोग आते थे. इनके पास ख़ून-ख़राबे से ज़्यादा देने को कुछ होता नहीं था. यह हिन्द के हवा-पानी का असर था जो अनेक आक्रांताओं को लगा यहाँ बसा भी जा सकता है. धीरे-धीरे हिन्द ने मुसलमानों को अवसर दिया, आओ, खुसरो हो जाओ, आओ जायसी, रहीम, रसखान, ग़ालिब हो जाओ, दारा शिकोह हो जाओ, बड़े ग़ुलाम अली खाँ, बिस्मिल्लाह खाँ हो जाओ. अन्तहीन सूची है. जो भी दिया, हिन्द ने दिया जिसे निभाने वालों ने निभाया भी. भारत ने कभी किसी से कुछ लिया नहीं. भारत अवसर न देता तो रह जाते सब के सब तैमूर और चंगेज़! निभाने की नीयत नहीं हो तो दिल्ली में दिखा दिया न अपने मूल स्वरूप में ये लोग क्या हैं!

कहते हैं सरिश्त (प्रकृति, स्वभाव) बदलती नहीं, श्मशान तक साथ जाती है.

बुरी सरिश्त न बदली जगह बदलने से,

चमन में आ के भी काँटा गुलाब हो न सका!

नाम लेते हैं लाल क़िले और ताजमहल का!

चलिये, ताज को देखते हैं.

याद करें, अभिनेत्री श्रीदेवी का शव जब अग्नि-संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो मेकअप से शव की ख़ूबसूरती कुछ ऐसी कर दी गई थी जैसे ताजमहल! मगर था तो मृत शरीर ही!  

ताज क्या है? है तो वह सजावट किये हुए एक क़ब्रगाह ही! एक ऐसा मुर्दाघाट, जो न सिर्फ़ ग़रीबों की मुहब्बत का मज़ाक उड़ाता है, बल्कि जिन कारीगरों ने बनाया उनके हाथ कटवा दिये जाने की मुसलमानी दास्तान भी कहता है! इसे इनसानों के प्रति ग़ैर-इंसानी नफ़रत का म्यूज़ियम कहने के बजाय मुहब्बत की यादगार कहना प्रेम जैसे काव्यात्मक भाव पर कलंक लगाने जैसा है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ को भी यह काल के गाल पर ठहरा हुआ आँसू ही लगा था. ‘काल’ का अर्थ समय ही नहीं, मृत्यु भी है.

मुहब्बत का वास्तविक स्मारक कोई है तो रामेश्वरम का पुल है, जिसे बनाने में देश के वनवासी नागरिकों का अभिनंदन भी हुआ था और बनाने वालों के हाथ भी नहीं कटवाये गये थे. प्रिय पत्नी के प्रति श्रीराम के उत्कट प्रेम के सात्विक स्मारक के रूप में रामेश्वरम को याद किया जाना चाहिए या क़ब्रगाह को?

यह तो वही बात हुई, असदुद्दीन ओवेसी औरंगज़ेब को ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ कहकर बखानता है. आज़ाद हिंदुस्तान में औरंगज़ेब को लेकर गुरु गोबिन्द सिंह और छत्रपति शिवाजी के अनुभवों को तरजीह दी जाएगी या ओवेसी के जिहादी नज़रिये को?

और ये कहते हैं इतिहास का पुनर्लेखन मत करो! राष्ट्रप्रेम का सर्टिफ़िकेट मत बाँटो!!

“आदत” !!!  

ऐसी ‘आदत’ या तो लोभवश डाली जाती है, या भयवश. 1947 के बाद से जिहादी मुसलमान का भय इन लोगों के मन में जो इतना गहरा बैठ गया है, उसका तिलिस्म छिपा है क़ुरान में लिखी हर बात को मक्खी पर मक्खी मारकर समझने-समझाने की बेईमानी में. इसलिए, अगर कहा है जिहाद मुसलमानों पर फर्ज़ है तो उनकी व्यर्थ मार-काट को चुपचाप मान लो, क्योंकि यह उनका ‘धर्म’ है. कोई नहीं पूछेगा क्यों झूठ बोलते हो? अपने ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार करने के लिए किया जाने वाला संघर्ष जिहाद है, निरर्थक मारामारी नहीं. क़ुरान में कहा गया सब तारीफ़ अल्लाह के लिए है, अल्लाह पर ईमान लाना फर्ज़ है. कोई नहीं पूछेगा ‘अल्लाह’ अरबी भाषा का शब्द है. और सब अनुवाद किया, ‘अल्लाह’ का अनुवाद क्यों नहीं किया? अल्लाह का अर्थ किसी भाषा में God है तो किसी में ‘नारायण’. जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, ज़बरदस्ती ही करनी है तो उनपर करो. यानी नास्तिकों पर. God या नारायण को मान रहे लोग तो अल्लाह पर ईमान लाये हुए ही हैं. ना भाई, इस्लाम में तो क़ुरान का कोमा-फुलस्टौप भी छेड़ना मौत को बुलावा देना है. ‘भय’ कहेगा, यह उनका धर्म है, वे जो कहें चुपचाप मान लो. क़ुरान में किन्हीं परिस्थितियों में झूठ बोल देना जायज़ है, कभी तो यह फर्ज़ भी है. इस झूठ का नाम है ‘तक़ीया’. ‘किन्हीं परिस्थितियों में’ को बड़े आराम से छिटक दिया और अपने अर्थ वाला जिहाद कर-करके पूरे देश को दारुल-इस्लाम बनाने के लिए तक़ीया, बस तक़ीया, सिर्फ़ तक़ीया!!

शाहीनबाग़ के कब्ज़े के बाद से हर मुल्ला, प्रवक्ता, मुस्लिम नेता अपने ढब का इस्लाम सिर्फ़ ‘तक़ीया’ से धकेलने में लगा है. लाचार बने कसमसाते रहो क्योंकि यह उनका धर्म है. क्या तक़ीया वाले ये मुसलमान विश्वास-योग्य हैं?

“आज़ादी-आज़ादी” चिल्लाकर हम ग़रीबी, बेरोज़गारी से आज़ादी माँग रहे हैं – तक़ीया.

हमने जिन्नाहवाली आज़ादी नहीं कहा, ‘जीनेवाली आज़ादी’ कहा – तक़ीया.

अच्छा हुआ, शरजील इमाम का पता चल गया, हम हैरान थे हमारे बीच कौन ग़द्दार है – तक़ीया.

कपिल मिश्रा के कारण दंगा भड़का – तक़ीया.

जो भी गुनहगार है उसे सज़ा दो – तक़ीया.

बहस में हमें हरा दो, दिल्ली को मत हारने दो – तक़ीया.

अभी नहीं बोले तो तुम्हारे जनाज़े उठेंगे – तक़ीया.

और, जो ये दम भरते हैं ‘मुसलमान अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं झुकता’, तब क्या हुआ था जब अली-बन्धु बीमार पड़े गाँधीजी के पाँव चूम रहे थे – मुहावरे में नहीं, सचमुच झुककर चूम रहे थे? क्योंकि तब उन्हें गाँधीजी को किसी भी तरह खिलाफ़त आंदोलन के पक्ष में लाना था! – तक़ीया! ‘अल्लाह के सिवा नहीं झुकते’ कहना भी ‘तक़ीया’, और पाँव चूमना भी ‘तक़ीया’, क्योंकि जैसे ही उल्लू सीधा हो गया अली-बंधुओं का बयान था – गिरे-से-गिरा मुसलमान भी गाँधी से अच्छा है! मतलब होगा तो पाँव चूमेंगे, नहीं तो आपको अंकित शर्मा बनाएंगे!

1947 में हमने भारत में रहना चुना था, पाकिस्तान नहीं! –तक़ीया.

1946 के विशेष चुनाव में पाकिस्तान बने या न बने इस पर 75% से अधिक मुसलमानों ने पार्टीशन के पक्ष में वोट दिया  था, मगर विभाजन के बाद गये केवल 2% ही! अब समझ में आया इनकी पाकी वृत्ति का पेंच? ये इसलिए यहाँ रुके थे कि अब इस हिस्से को भी ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने के लिए काम करना है! शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे तक इस लक्ष्य का काफ़ी रास्ता पार कर लिया है. रहा-सहा अगले दस-बीस वर्ष में पूरा करने का विश्वास है.  

धर्मनिरपेक्षता है कि कहती है, यह उनका धर्म है!

वह आदमी मिठाई की दूकान के सामने खड़ा भरे-भरे थाल ताक रहा था. थोड़ी देर तक कुछ बोला नहीं तो हलवाई ने पूछा, “क्या चाहिए?”

उसने कहा, “वह बर्फ़ी क्या भाव है?”

हलवाई – “साढ़े छ्ह सौ रुपये किलो”.

वह – “एक किलो तौल दो”.

हलवाई ने तौल दी. “और कुछ?”

वह – “वह इमरती क्या भाव?”

हलवाई – “छ्ह सौ की एक किलो”.

वह – “इमरती भी एक किलो तौल दो. एक किलो बालूशाही, एक किलो घेवर, एक किलो कलाकंद, एक-एक किलो लड्डू और पेड़ा. और एक डिब्बा यह काला गुलाबजामुन.”

हलवाई ने बड़ी तत्परता से सब तौल दिया. ऐसा गाहक कभी-कभार ही आता है.

वह – “अब इन सबको एक बड़ी कढ़ाही में डालकर अच्छे से मिक्स कर दो.”

हलवाई ने अचकचाकर ग्राहक की तरफ़ देखा.

वह – “सोच क्या रहे हो? सबको मिक्स कर दो. एकदम आटे की माफ़िक गूँध दो.”  

हलवाई हैरान-परेशान तो हुआ, मगर क्या करता? ग्राहक तो भगवान् होता है. गूँध दिया.

वह – “अब इस मिक्स्चर में से एक पुड़िया में चवन्नी की मिठाई मेरे लिए बाँध दो.”

वह आदमी जानता था वह मिठाई ख़रीदने में अक्षम है.

‘आदत’ वालों की अक्षमता के चलते चवन्नी की पुड़िया का नाम है धर्म-निरपेक्षता!

काश! ‘धर्म-निरपेक्षता’ यथार्थ में सबके लिए समान रूप से लागू हो सकने वाला सामाजिक-राजनैतिक सिद्धान्त होता! कौन सी मजबूरी है जो कोई बोलता नहीं, दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यकों को जैसे ही आप धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित करते हैं, आप धर्म-निरपेक्ष न रहकर धर्म-सापेक्ष हो जाते हैं. बहुसंख्यक भी धर्म के ही आधार पर नहीं हैं क्या? कहाँ है धर्म-निरपेक्षता? यह चवन्नी की पुड़िया नहीं तो और क्या है?

इसलिए, जैसे ही कोई कहे, ‘मैं मुसलमान हूँ’, उससे कहा जाए, ‘हमें तो हिन्दुस्तानी नज़र आते हो. 1947 में अंतिम रूप से तय हो चुका है, मुसलमान कहाँ रहेंगे, और हिन्दुस्तानी कहाँ – उनका धर्म कुछ भी हो. मुसलमान हो तो वहीं रहो जहाँ के लिए तय हो चुका है.’ या, ‘मुसलमान हो तो अपने घर में हो. हम पर क्या अहसान है?’

मुसलमानों के औसाफ़ (गुण) बहुत सुने, मगर वे सब सद्गुण हैं कहाँ?

सुनते रहे हैं आप के औसाफ़ सबसे हम,

मिलने का आप से कभी मौक़ा नहीं मिला.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का होना, अल्पसंख्यक के रूप में अतिरिक्त सुविधा-सहायता उपलब्ध होना, देवबंद में दारुल-उलूम का इस्लामी दर्शन पर विचार और अध्ययन करने से बढ़कर सामाजिक-राष्ट्रीय क्षेत्र में मुसलमानों की भूमिका और उसके स्वरूप पर नियंत्रण करना, सामान्य संपत्ति क़ानून से अलग वक़्फ़ बोर्ड का होना, मुसलमान के रूप में राजनीतिक पार्टियों का होना और क़ुरान के मुताबिक राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश करना – सब के सब धर्म-निरपेक्षता के विपरीत और ग़ैर-संवैधानिक नहीं हैं तो क्या हैं? भारतीय संसद् और संविधान हर तरह से भारत को ‘इस्लामी’ राष्ट्र बनाने के हर इंतज़ाम को समर्थन देते जान पड़ते हैं?     

मालूम नहीं यह कौन सी गंगा-जमनी तहज़ीब है कि जिसमें गंगा भी हिन्द की, जमना भी हिन्द की, मगर पाकिस्तान बना नहीं कि गंगा-जमना दोनों ग़ायब और आब-ए-ज़मज़म हाज़िर! पीछे बचे दारुल-हर्ब हिन्द में फिर वही ‘गंगा-जमनी तहज़ीब’ का नारा!!  — तक़ीया? बेशक़ तक़ीया!

कहते हैं हिंदुस्तान हमारा देश है, हमें इससे मुहब्बत है. आप तो मुसलमान हैं, और हिंदुस्तान ‘दारुल-इस्लाम’ है नहीं. फिर भी मुहब्बत है? – तक़ीया!

दिल्ली में दंगा नहीं होता तो क्या होता?

जिस तेज़ी से मुसलमान अपनी जनसंख्या बढ़ाते हैं उसका भी रहस्य अब रहस्य नहीं रहा. कश्मीर में जो इन्होंने कहा था, “हमें कश्मीर चाहिए, हिंदुओं के बिना, मगर हिंदुओं की औरतों के साथ”, तो वह कोई बलात्कारी घोषणा-मात्र नहीं थी. औरत इनके लिए और ज़्यादा मुसलमान पैदा करने की मशीन है, इसलिए कहा था. जितनी तेज़ी से इनकी संख्या बढ़ेगी, चाहे घुसपैठिए और रोहिङ्ग्या लाकर बढ़ानी पड़े, भारत उतनी जल्दी दारुल-इस्लाम बन सकेगा. हार्वर्ड के एक अध्ययन ने तो घोषित कर भी दिया है, आने वाले 20 वर्ष में (2040 तक) भारत में हिन्दू और मुसलमान बराबर की संख्या में हो जाएंगे. तब इस्लामी सरकार बनाने और भारत को इस्लामी देश घोषित करने की माँग ज़ोरों से उठेगी, और पूरी भी होगी.

अध्ययन, अफ़वाह, प्रचार, fake news आदि एक तरफ़. इन्हें छोड़कर सिर्फ़ इतना देखें कब-कब क्या-क्या होता रहा है तब भी इन जिहादी मुसलमानों के लिए कहा जा सकता है — तक़ीया पर आधारित राजनीतिक लक्ष्य, क़ुरान पर आधारित आध्यात्मिक उद्देश्य नहीं!!

1947 से 2020 तक संख्या बढ़ाने की  दिशा में मुसलमानों की प्रगति उनके लिए संतोषकारक है. शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे ने यह भी रेखांकित कर दिया है कि इस्लामी सन्तोष के साथ और क्या-क्या आता है.   

धर्म-निरपेक्षता की चवन्नी की पुड़िया के चलते यह भुला दिया जा रहा है कि हिन्द की पहचान क़ुरान कभी नहीं बन सकती, वेद-पुराण-गीता-रामायण ही रहेंगे. ज़मज़म यहाँ नहीं बह सकती. यहाँ गंगा ही बहेगी. मक्का यहाँ नहीं आ सकता. यहाँ इक्यावन शक्ति-पीठ और बारह ज्योतिर्लिंग ही रहेंगे. यहाँ मुहर्रम नहीं होगी, कुम्भ का मेला ही लगेगा.  

शक्ति-पीठ से याद आया, इक्यावन नहीं, भारत में अब पैंतालीस शक्ति-पीठ हैं. एक पाकिस्तान (बलूचिस्तान) में चला गया – हिंगलाज में ‘हिंगुलादेवी’. पाँच बांग्लादेश में गए – श्रीशैल, अपर्णा, यशोरेश्वरी, चट्टल भवानी, और जयंती.

दो बातें.

मुसलमान 1947 से पहले भी और आज भी हज के लिए जाते हैं तो उन्हें वीज़ा लेना होता था और लेना होता है. 1947 से पहले हिंदुओं को इन छहों शक्तिपीठ की यात्रा के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता था. पार्टीशन के कारण आज वीज़ा लगता है.

दूसरी बात यह कि दारुल-इस्लाम बनकर भी पाकिस्तान की पहचान मक्का या इस्लाम न होकर हिंगलाज माता ही रहीं. या कराची, सिंध के पंचमुखी हनुमान्! यक़ीन न हो तो पूछ देखिए वहाँ के लोगों से. बांग्लादेश की भी पहचान ये पाँच शक्तिपीठ और आर्य भाषा परिवार की बाँगला भाषा हैं.

जैसे अफ़गानिस्तान की पहचान बामीयान की बौद्ध मूर्त्तियाँ हुआ करती थीं. तालिबानी तोपों के धुएँ में धुंधलाने के बावजूद अब भी हैं. मूर्त्ति तोप से उड़ सकती है, पहचान नहीं. 

भारत इस्लामी राष्ट्र हो भी गया तो आप कुछ हासिल करेंगे या कुछ गँवाएंगे?

तमाम ग्रन्थों, साहित्य, संगीत, नृत्य, मन्दिरों, मूर्त्तियों – के साथ जो होगा, नहीं दीखता? बामीयान के बाद भी?

और जीती-जागती औरतों के साथ जो होगा? नहीं दीखता? कश्मीर के बाद भी?

कला, शिल्प, रचनाधर्मिता का दम भरने वाले लेफ़्ट-लिबरलों को मंज़ूर है?

चवन्नी की पुड़िया ‘आदत’ को तरजीह देगी, सबको दीखता है.     

इस्लाम 124000 पैग़म्बरों का होना मानता है. हज़रत मुहम्मद आख़िरी थे. इसलिए क़ुरान आख़िरी ‘वचन’ हुआ. मुसलमान भी स्वीकार करते हैं पहला वचन वेद है, और आख़िरी क़ुरान. (बशर्त्ते वेद-सम्बन्धी कथन इनका ‘तक़ीया’ न हो.)

मगर कुदरत तो मुल्ला की नहीं अल्लाह की है. अध्यात्म के 70 mm इस भारत देश में उसने लगभग 600 वर्ष पूर्व गुरु नानक की परम्परा में दस पैग़ंबर और भेज दिए. गुरु गोबिन्दसिंह अब आख़िरी पैग़ंबर हो गए और आख़िरी वचन अब क़ुरान नहीं रहा, श्री गुरुग्रंथ साहब हो गया. अलबत्ता, पहला वचन अब भी वेद ही है और क़ुरान की महत्ता भी कुछ कम नहीं हो गई. मगर आख़िरी वचन ज़रूर श्रीगुरुग्रन्थ साहब हो गया!

हम देख सकते हैं कितने मिथकों के सिर पर पाँव रखकर इन जिहादी मुसलमानों का एजेंडा आगे बढ़ता है. ‘आदत’ वाले प्रोग्रेसिव’ लिबरल इनकी इस तीर्थयात्रा में इनके जूतों पर गुलाबजल छिड़कते हैं. सच्ची बात के लिए इन लोगों पर नहीं, संतुलित विचार वाले मुसलमानों पर भरोसा किया जाना चाहिए. मुसलमानों पर इतनी सब बातें कहने की ज़रूरत इन संतुलित मुसलमानों की तरफ़ देखकर नहीं पड़ती रही है.

सच पूछें तो, यह भी इन्हीं अच्छे मुसलमानों का काम है कि तीन तलाक़ समाप्त करने, कश्मीर समस्या हल करने और ‘CAA से हिंदुस्तान के किसी मुसलमान की नागरिकता नहीं जा रही’ जैसी बातों पर वे टीवी तक महदूद न रहें. अपने जैसे और मुसलमानों को इकट्ठा करें और शाहीनबाग़ की दादी-नानियों के सामने मोर्चा जमायें. वहाँ सच बात रखें, इन ग़लत क़िस्म के जिहादियों को बेनक़ाब करें और कपिल मिश्रा जैसों का सड़क पर आना ग़ैर-ज़रूरी है, यह साबित करें.

क्या ये भारत में मुसलमानों की मेनस्ट्रीम बनना पसंद करेंगे, ताकि मुसलमान पर उल्टे-सीधे सवाल उठना बंद हो? ताकि ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करते रहने की ज़रूरत न रहे?

ये अच्छे लोग हैं. इनसे भी यह सवाल करना बनता है कि यदि पूरा हिंदुस्तान पूरी तरह इस्लामी राष्ट्र हो जाए, सब केवल क़ुरान पढ़ें, नमाज़ अदा करें, देव-वाणी संस्कृत और तमिल को भुलाकर अल्लाह की ज़ुबान अरबी का अभ्यास करें तो इन अच्छे मुसलमानों का क्या बिगड़ेगा? कुछ बिगड़ेगा भी नहीं, और ये ऐसा हो जाने के लिए काम भी नहीं करते. ये वे मुसलमान हैं जो इस्लाम के आध्यात्मिक पक्ष से उसे धर्म की श्रेणी में लाते हैं, न कि ज़बान की तलवार चमकाने वालों की तरह रक्त-रंजित राजनीतिक आकांक्षा को अध्यात्म कहते हैं. 

हिन्द के असली मुसलमान हम हैं, वो नहीं, क्या ये ऐसा स्थापित करने में सफल होंगे?

क्या ये कह सकेंगे ? –-

मुझे दिल की ख़ता पर ‘यास’ शरमाना नहीं आता,

पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता.

हिन्द में कोई ध्रुवीकरण है तो दरअसल अच्छे और बुरे मुसलमानों के इस ‘हम’ और ‘वो’ के बीच है.   

यदि अच्छे मुसलमान इस्लामी मेनस्ट्रीम नहीं बन पाते और मुसलमानों के बीच का यह ध्रुवीकरण ढह जाता है तो सदा के लिए बात पूरी हो जाएगी. तय हो जाएगा जैसे अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद कुछ नहीं होता, आतंकवाद आतंकवाद होता है, वैसे ही अच्छा मुसलमान और बुरा मुसलमान भी कुछ नहीं होता. मुसलमान मुसलमान होता है.

केवल हिंदुओं में हिन्दू नहीं होता. उनमें ‘आदत’ वाले भी होते हैं.

ऐसा स्पष्ट हो जाने के बाद भारत को जो फ़ैसला करना होगा, बेहतर है अभी से कर रखे.

तथास्तु!

05-03-2020   

तालकटोरा स्टेडियम — एक फ़ेंटेसी ….?


नवम्बर 2018 में 3 और 4 तारीख को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में अयोध्या के राम-मंदिर के निर्माण को लेकर करीब तीन हजार साधु-संत ‘धर्मादेश सम्मेलन’ में शामिल हुए. ‘फ़तवा’ जारी करने का चलन संत-समाज में है नहीं, इसलिए ‘धर्मादेश’ शायद ही कभी दिया गया हो. अयोध्या में मौजूद श्रीराम के मंदिर को भव्य स्वरूप देने में सुप्रीम कोर्ट की टालमटोल ने इस विषय में चल रही राजनीति को ICU में डाल दिये जाने से बचा लिया. इस राजनीति पर लगाम लगाने के लिए ये सब संत ‘इमाम-ए-हिन्द’ श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुए.

इस ‘धर्मादेश सम्मेलन’ ने धर्मनिरपेक्षता के साये में पले-बढ़े और पढ़े आम हिन्दुस्तानी को कुछ अचरज में डाला. एक तो यह तय हुआ कि मुग़लों के बनाये तालकटोरा गार्डन की बग़ल में स्थित स्टेडियम में बैठने में संतों को कोई उज्र नहीं था. हिन्दू-मुसलमान में विरोध निराधार प्रचार है. दूसरे, राजनीति की रैलियों और सभाओं के लिए काम में आने वाला यह स्टेडियम शायद पहली बार किसी भले काम के लिए उपयोग किया गया. तीसरे यह कि धर्मादेश दे रहे साधु-संतों ने पहली बार हर भारतीय को यह बताया कि आने वाले चुनाव में किसे प्रधानमंत्री चुनना है! चौथी बात यह कि साधु-संतों के एक छोटे वर्ग ने राजनैतिक निर्णय देने का विरोध भी किया.

आधुनिकता के फेर में हम सामान्य भारतीय नागरिक साधु-संतों के बारे में कुछ ज़रूरी जानकारी भुला बैठे हैं.

पहली और सबसे महत्त्व की बात यह कि हमारे मन में आदतन संतों का सम्मान होना चाहिए. आजकल के भीड़-भाड़ वाले नगरों में अव्वल तो कोई साधु सड़कों पर आता-जाता दिखता नहीं. कभी कोई नज़र आ भी जाए तो या तो हम तिरस्कार से भर जायेंगे या फिर इस उलझन में पड़ेंगे कि इस साधु ने हमसे भिक्षा मांग ली तो दें या दुत्कार कर भगा दें?

मेरे विचार से हमें जो भी गेरुआ धारण किये हुए दिखे उसे दान देना ही चाहिए.

आप पूछ सकते हैं, हमें कैसे मालूम कि वह पाखण्डी नहीं है?

निवेदन है कि बात गेरुआ वस्त्रों के प्रति हमारे भाव की है, व्यक्ति की नहीं. हमें दान देना है, वोट नहीं. यदि साधु-वेश में जो हमारे सामने है, वह पाखण्डी है तो ऐसा होना-न होना उसका अपना सिरदर्द है, हमारा चरित्र नहीं. आप क्या समझते हैं, लक्ष्मण-रेखा लाँघने में असफल जो ‘साधु’ भिक्षा मांग रहा था वह कौन है, सीता जी नहीं जानती थीं? फिर भी उन्होंने वही किया जो उन्हें करना बनता था! ‘कर्म’ के क़ानून से भी हमारे संविधान के क़ानून की तरह कोई नहीं बचता!

साथ ही यह भी समझना होगा कि भारतवर्ष के – या यों कहें कि हिन्दुओं के — ये साधु-सन्त, ये धूनी रमाये बैठे वैरागी दरअसल हैं कौन.

संभवतः भर्तृहरि के ‘वैराग्य-शतक’ ने दो पंक्तियों में पूरी व्याख्या कर दी है : “अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि ;  शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः?” — हम भिक्षा में मिले अन्न का आहार करें, आकाश को अपना वस्त्र बनाएं, धरती की सतह पर शयन करें, (दौलत पर आधारित) ऐश्वर्य का क्या करेंगे?

जिन्होंने अत्यल्प साधनों में जीवन जीने का यह मार्ग व्याख्यायित किया वह भर्तृहरि किसी झोंपड़-पट्टी में रहने वाला सामान्य व्यक्ति नहीं, राजा थे! फिर भी, हर समय घबराए रहने वाले हम आधुनिक बुद्धि के लोग इन साधुओं को ऐसे परिभाषित करना चाहेंगे कि इनमें से कोई भग्न-हृदय होगा जो प्रेम में असफल रहने से दुनिया से भाग गया, या कोई शेयर मार्केट में घाटा उठाते-उठाते डर गया होगा, पढ़ाई-लिखाई में निकम्मा रहा होगा, कानून के शिकंजे से बचता फिरता कोई मुजरिम होगा, वगैरह-वगैरह. अपनी जानकारी और अनुभवों का आरोपण इन संतों पर करने से कतई आगे नहीं जा पाएंगे. ठीक वैसे जैसे अपने सीमित-संकुचित दृष्टिकोण का आरोपण पश्चिम ने भारत और हिन्दुत्व पर किया.

हमारी कल्पना में नहीं बैठेगा कि यह किसी भी तरह के पिंजरे से मुक्त पंछी की परिभाषा है!

एक बार मैंने अपने एक मित्र से गुरुओं की महिमा बखान की तो उन्होंने अविश्वास का वही ‘वैज्ञानिक’ राग अलाप दिया – “मुझे तो ऐसा एक भी नहीं मिला”. जबकि मेरा अनुभव बहुत बड़े सिद्धों के साथ न होकर बहुत सीमित और कम था, एकदम मामूली.  अब पूछे कोई कि आप हैं कौन कि आपको ये मिलें? आप भारत के प्रधानमन्त्री हों या अमेरिका के राष्ट्रपति, इन संतों को क्या मतलब? आप ही का क्या प्रयत्न अथवा उद्यम था कि आप किसी सच्चे साधु तक पहुँच पायें?

इन्हें ढूँढना और पाना असंभव है. कुम्भ के मेले में या शिवरात्रि पर ये सब जाने कहाँ से लाखों की संख्या में प्रकट हो जाते हैं और उसके बाद फिर ग़ायब!

हिन्दुत्व का कहना है कि संसार में हर किसी का एक गुरु, एक देवता, और एक मंत्र नियत है. टी.वी., कंप्यूटर और गूगल वाले ‘महाज्ञानी’ हम हरगिज़ नहीं जानते कि मेरा गुरु कौन है. सामने आकर खड़ा हो जाये हम तब भी कैसे पहचानेंगे? जिस दिन हमारी पात्रता बन जाती है ये अपने आप सामने आकर खड़े हो जाते हैं. हम नहीं जानते गुरु कौन है, मगर ये जानते हैं कि शिष्यता किसमें उपज आयी है.   

जिस तरह हमारे UPSC वगैरह के सेलेक्शन बोर्ड होते हैं, या सरकार का मंत्रिमंडल होता है, वैसे ही इन परम सिद्ध गुरुओं का ‘गुरुमंडल’ है!

यहाँ आपको लगेगा कि क्या दिमाग़ की ख़राबी है और यह नीचे, इसके आगे किस Shangri-La अथवा ‘वंडरलैंड’ का वर्णन होने जा रहा है! बहुत फ़िल्में देख ली हैं, या अंग्रेज़ी के बहुत फ़ेंटेसी नॉवेल पढ़ लिए हैं, या फिर एलएसडी का सेवन कर लिया है?

ऐसा कुछ नहीं. मैं तो उन लोगों में से एक हूँ जिन्होंने तालकटोरा स्टेडियम का ‘धर्मादेश-सम्मेलन’ भी बस टी.वी. पर देखा था.

हिमालय में रोहतांग से आगे ब्यास नदी के उद्गम के निकट चंद्रा नदी है. इसकी घाटियों में कहीं ‘चंद्र-घाटी’ है. इसी ‘चंद्र-घाटी’ की गुफाओं में से किसी एक में हल्की नीली आभा लिए प्रकाश रहता है जहाँ गुरु-मण्डल आपस में मिलता है. इनमें जो सबसे सीनियर है वह हिमालय की ‘चंद्र-घाटी’ से पूरे जगत का कारोबार चलाता है!

सीनियर और जूनियर?

जी हाँ. Law of Karma से ये साधु-संत-सिद्ध भी मुक्त नहीं. इसलिए सीनियर-पद से च्युत होकर कभी भी जूनियर हो जाते हैं.

कल्पना कीजिये कि किसी समय महर्षि वेदव्यास senior-most हैं.

महर्षि के लिये कहा जाता है कि वह हर समय विद्याध्ययन में डूबे रहते थे. कहते हैं, उनकी पत्नी भी बड़ी तपस्विनी थीं. वह पति के लिए पीने का पानी नदी से अपने आँचल में भरकर लाती थीं और एक भी बूँद पानी टपकता नहीं था!

एक बार उन्होंने नदी में एक गंधर्व-युगल को जल-क्रीड़ा करते देखा. उनके मन में संस्कार उदय हुआ कि काश कभी मेरे पति भी अध्ययन तज कर यहाँ आते और हम भी ऐसे ही क्रीड़ा करते.

बस, यहीं उस महासती से ‘कर्म’ हो गया!

उस दिन लाख प्रयत्न करने पर भी पानी आँचल में नहीं ठहरा और एक-एक बूंद टपक गई. हारकर उन्हें उस दिन जल मटके में ले जाना पड़ा.

महर्षि ने जल पिया तो उसके स्वाद में बहुत अंतर पाया. उन्होंने कारण जानना चाहा तो उनकी पत्नी ने सब बात कह सुनाई.

सुनकर महर्षि वेदव्यास को हल्का-सा क्रोध हो आया. उन्होंने पत्नी को डाँटते हुए कहा, “ऐसा विचार मन में आया ही क्यों? मालूम है अब तुम्हें वही शक्ति प्राप्त करने के लिए कितनी तपस्या फिर करनी पड़ेगी?”

अब महर्षि की बारी थी! क्रोध करते ही ‘कर्म’ हो गया!

लिहाज़ा उन्हें भी फिर एक लंबी तपस्या करने के लिए निकल जाना पड़ा.

उधर ‘चंद्र-घाटी’ में जगत का व्यापार चलाने का दायित्व अब जो सीनियर मुनि थे उनपर आन पड़ा.

बहुत कठिन है डगर पनघट की…!

चंद्रघाटी के ये सिद्ध चाहें तो पानी को पेट्रोल कर दें, पत्थर के टुकड़े को उँगली के इशारे से सोना बना दें, बोतल-बन्द शराब शरबत में बदल जाये, हाथ उठाकर मूसलाधार बरसता पानी रोक दें – सिनेमा का कोई सीन फ़्रीज़ हो जाने की तरह, फिर वहीं से आगे बरसात शुरू कर दें, एटम बम को फटने से रोक दें, चलती ट्रेन रुक जाये और टस से मस होने से इनकार कर दे!

प्रकृति का हर नियम इन सिद्धों के अधीन है! या यों कहें कि इन्हें सिद्ध है.  

भारत-भूमि अध्यात्म व धर्म (‘Religion’ नहीं) की धरती होने से इन महासिद्धों को विशेष प्रिय है. तथापि पूरा विश्व इनके लिए समान है. जहाँ की प्रजा जैसा चाहती है, उस देश को ये वैसा हो जाने देते हैं. विश्व में हिंसक जातियाँ व देश प्रकृति के नियम से हैं. उद्यमशील धनी देश हैं तो प्रकृति की अनुमति से. मनुष्य-संस्कृति की सर्वोच्चता वाले लोग कहीं हैं तो divine intervention से. मनुष्यों के लिए यही  (ईश्वरीय) आदेश व न्याय है. भारत भूमि के मनुष्य यदि अध्यात्म के शिखर और भौतिक समृद्धि के चरम में समन्वय नहीं करते तो जान रखिये, वे ईश्वरीय न्याय के विपरीत आचरण कर रहे हैं!

सिद्ध-गुरुओं के अनुशासन की आवश्यकता इसलिए है! अध्यात्म का शिखर और भौतिक समृद्धि का चरम — इन दोनों में समन्वय के लिए!

तालकटोरा स्टेडियम में धर्मादेश के लिए एकत्र संतों के वचनों पर कुछ कहने के पहले इतना जानना और ज़रूरी है :–

कहते हैं कि पाँचवीं-छठी शताब्दी के महाज्ञानी मण्डन मिश्र के घर के तोते भी संस्कृत जानते थे. पं. मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने के पूर्व किसी को भी पहले इन तोतों को हराना पड़ता था!

उधर पंडित जी की पत्नी उभय भारती जी भी परम विदुषी थीं. जब आदि शंकराचार्य से पं. मण्डन मिश्र का शास्त्रार्थ हुआ तो निर्णय देने के लिए किसे बैठाया जाये यह समस्या उत्पन्न हुई. पूर्व मीमांसा और अद्वैत वेदान्त का इन दोनों से बड़ा और कोई भी विद्वान् दार्शनिक उपलब्ध नहीं था. तब संत-समाज ने न्याय दिया कि केवल उभय भारती ही ऐसी विदुषी हैं जो इस शास्त्रार्थ पर निर्णय सुना सकती हैं.

आदि शंकराचार्य ने भी यह न्याय स्वीकार किया. प्रतिद्वंद्वी की पत्नी के जज होने से उन्हें कोई चिंता नहीं हुई.

भारती जी ने यह शर्त्त रख दी कि मैं तभी निर्णायक बनूँगी जब दोनों के गले में ताज़े फूलों की माला डाल दी जाएगी.

शास्त्रार्थ शुरु हुआ और कई दिन चला. पूरी विद्वद्सभा को विस्मय था कि दोनों में से विजयी कौन होगा. शास्त्रार्थ के सम्पन्न होने के दिन उभय भारती जी ने निर्णय सुनाया कि शंकराचार्य विजेता हैं.

अन्य विद्वानों ने निर्णय का आधार जानना चाहा क्योंकि मिश्र जी के भी सब तर्क पूरी तरह ठीक थे.

भारती जी ने स्पष्ट किया कि तर्क करते हुए अनेक बार ऐसा हुआ कि मेरे पति ने बल दिया, मैं जो कह रहा हूँ, यही सत्य है. शंकर केवल वही कहते रहे जो सत्य है. पराजय को निकट जान मेरे पति बार-बार अहंकार से भरे और इस कारण उनसे क्रोध का ‘कर्म’ हुआ. आप देख सकते हैं कि क्रोध के ताप से उनके गले की माला के फूल कुम्हला गए हैं. जबकि आचार्य शंकर की माला के फूल ज्यों के त्यों ताज़े बने हुए हैं. शंकराचार्य ही विजेता हैं.

कंप्यूटर और ई-मेल तो अब आए हैं. हम भारत के लोग सृष्टि के आरंभ से ही ईश्वर के साथ ई-मेल पर वार्त्तालाप करते आ रहे हैं.

ईश्वर का e-mail address है – अहं@कर्म.कॉम ; अंग्रेज़ी में me@act.com !

तालकटोरा स्टेडियम में जो संत-समाज एकत्र हुआ, मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ से अभिव्यक्ति उधार लें तो वे गुरु हीरामन हैं, जिन्हें पराजित करना या जिनके आदेश का उल्लंघन करना असंभव जितना कठिन है. पहले इनसे शास्त्रार्थ करें, पात्रता हासिल करें, तब सिद्धों के दर्शन की सोचें! इनका आशीष पाकर इनके ही भावोद्रेक से हम ‘चंद्रघाटी’ के सिद्धों का आह्वान करने की उम्मीद बाँध सकते हैं.

इन गुरुओं में जो राजनीति से दूर रहने का विचार रखने वाले संत हैं उनसे मेरा विनयपूर्वक निवेदन है कि अब किसी भी ‘राजधर्म’ का पालन ‘धर्मादेश’ के बिना नहीं किया जा सकता. आज वह समय नहीं है कि कोई सम्राट्  विक्रमादित्य शासन करता है और समाज अपनी मूल राष्ट्रीय अस्मिता की सुरक्षा की ओर से निश्चिंत रह सकता है. वह समय गया जब कहावत थी ‘यथा राजा तथा प्रजा’. अब प्रजातन्त्र है इसलिए कहना होगा  ‘यथा प्रजा तथा राजा’. यदि साधु-सन्त प्रजा को मार्ग नहीं दिखाएंगे कि किसे वोट देना चाहिये तो सामान्य जन के पास भटकने के बहुत कारण रहते हैं. संवैधानिक पद पर बैठे प्रधानमंत्री के लिए आपके ‘धर्मादेश’ का पालन करना तभी संभव होगा जब प्रजा भी किसी के बहकावे में न आकर आपके वचन का मान रखती हो. 

राम-मंदिर के निर्माण को लेकर आपने जो धर्मादेश दिया है, उस से हमारे देश का एक वर्ग सीधे-सीधे प्रभावित होता है. ये वे लोग हैं जो अपने को ‘मुसलमान’ कहते हैं. इनमें से चंद पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों की चिंता नहीं, मगर हमारे जो दूसरे मुसलमान भाई हैं, उन्हें लेकर बहुत तरह की राजनीति की जाती है.

आप सब ज्ञानवान गुरुओं के संज्ञान में यह लाना उचित रहेगा कि इस राजनीति के चलते हम सामान्य-जन किस-किस तरह की समस्याओं का सामना करते हैं.

होता क्या है कि एक मार्क्सवादी महाशय आरोप लगा देते हैं, हिन्दुओं को मुसलमानों जैसा बनाया जा रहा है, जबकि होना इसका उलटा चाहिये!

इसका क्या मतलब हुआ?

साफ़ है कि मार्क्सवादी हों या अन्य ‘धर्मनिरपेक्ष’, ये लोग मुसलमानों को बिलकुल अप्रूव नहीं करते और नहीं चाहते कि कोई उनके जैसा बने! यानी मुसलमान को देखते ही साँस खींचेंगे और बोलेंगे ‘तलाक़-तलाक़-तलाक़’. जब उनसे पिटेंगे तो साँस छोड़ेंगे और बोलेंगे ‘कुबूल है -कुबूल है -कुबूल है’! कहलाएंगे ‘प्रगतिशील’!

मैंने उन महोदय से जानना चाहा, हिंदू अगर मुसलमानों जैसे हो जायें तो बुरा क्या है? कृपया स्पष्ट करें कि मुसलमानों जैसे होकर हिंदू आपकी नज़र में कैसे-कैसे हो जायेंगे. 

मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पास इस विषय पर कुछ नोट्स हैं. आपकी विद्वत्ता से उनकी तुलना करके मुझे कुछ सीखने को मिलेगा.

इस पर वह कुछ कहने को तैयार नहीं. 

मेरी समझ में हम हिन्दू कहाँ गड़बड़ करते हैं, कहता हूँ. हो सकता है मैं ग़लत होऊँ. फैसला ख़ुद कर लें.

काम, क्रोध आदि षड्-रिपु हैं. मगर अध्यात्म के मार्ग पर. लीला-रूप  संसार-धर्म निभाने में नहीं. समुद्र किसी तरह रास्ता न दे, माने ही नहीं तो उठा लो धनुष! क्रोध करो. ऐसा क्रोध रिपु-वर्ग में नहीं होगा, सात्त्विक होगा. रिपुवर्ग में होता तो रिपुदमन श्रीराम क्रोध करते ही नहीं. 

करणीय सांसारिक कर्त्तव्य को पूरा करने में ये सभी  षड्-रिपु समयानुसार साधन हैं. कर्त्तव्य सामने हो और हाथ काँपने लगें, मुँह सूखने लगे, पसीना निकल आये और हम ‘नहीं मारूँगा’ कहकर धम् से बैठ जायें तो नारायण कहेंगे : “उत्तिष्ठ भारत!”

इसके उलट, यदि हम सोचें कि बैंक में चैक जमा कराते रहने से सांसारिक कर्तव्य पूरा हो जाएगा, या ‘छोड़ो, कौन नाश्ता बनाये’ कहकर भूखे रह जाने से अध्यात्म सध जायेगा तो हम गड़बड़ कर रहे हैं. 

यह तो ठीक कि आत्मा तलवार से नहीं कटेगा. मगर गर्दन तो आत्मा नहीं है. वह कटती आ रही है. इसे नहीं  देखकर हम गड़बड़ कर रहे हैं. 

इसलिए हमें मुसलमानों जैसा हो जाना चाहिये. 

यह साम्प्रदायिकता-भरा कथन नहीं है.  मुसलमान जैसा होकर हम धर्म पर दृढ़ सत्पुरुष ही बनेंगे. 

राजपूत राजा अपना खज़ाना मुसलमान के हाथ में रखते थे, हिंदू के पास नहीं, क्योंकि उनका विश्वास था सच्चा मुसलमान ईमान का पक्का और भरोसेमंद होता है. 

मुसलमान जैसा धर्म-दृढ़ होकर हिंदू और भी ईमान के पक्के और भरोसेमंद हो जायेंगे. कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों जैसे लिज्ज-बिज्ज नहीं रहेंगे.

एक अच्छा मुसलमान ज़बान का पक्का होता है. हिंदू इतना आज़ाद-ख्याल होता है कि सभी इतना स्वतंत्र हैं कि आत्मानुशासन-भर काफी है (वह भी अगर हो, वरना उसके बिना भी ‘हम भी हिन्दू!!). इन ‘प्रोग्रसिव’ ‘हिंदुओं’ में समाजोन्मुख अनुशासन अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ़ है! जबकि वास्तविक ‘आज़ाद-खयाल’ हिन्दू को वी. एस. नायपॉल ने (स्वर्गस्थ हुए भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार) एक स्तर पर  ‘a million mutinies’ कहकर बयान किया है.

मुसलमान जैसा होकर हिंदू एक अनुशासन से बँधने की आदत डालेंगे. 

इन बातों से ये लोग कन्नी काटकर निकल जाने कि कोशिश करते हैं. कम-से-कम अब तो हम यह जानें कि ‘कुफ़्र’ करने वाले को सज़ा दी ही जानी चाहिये. उसे कन्नी काट कर निकल जाना मना है. भले ही सज़ा देने के लिए हमें हाथ में पत्थर उठाना पड़े! 

मुसलमान जैसा होकर हिंदू भी आधुनिक रीति से – अपनी पारंपरिक रीति छोड़, दृढ़-प्रतिज्ञ होना सीखेंगे और हर दुष्ट को उसके ही सिक्के में भुगतान करना जानेंगे.

अगर ऐसा करना ग़लत आचरण की श्रेणी में गिना जाता है — संविधान के विपरीत होता है — तो हिंदू-मुसलमान दोनों कम से कम इस सहमति पर आ सकेंगे कि चलो, अब इस सिक्के में व्यापार बंद करें!

मार्क्सवादी मक्कारी के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा.

तथाकथित प्रोग्रेसिवों को समझना होगा कि मुसलमान का मतलब सिर्फ़ मार-काट नहीं है, और भी बहुत कुछ होना सम्भव है.

हिंदुओं का मुसलमानों जैसा हो जाना  शुभ है!

‘एकता’ और ‘समानता’ की इस नयी प्रक्रिया को न तो आर.एस.एस. ने शुरु किया न धर्मादेश ने. इस प्रक्रिया को अब कहीं जाकर आरंभ किया है भारत-भूमि पर मनुष्यों के लिए निर्धारित ‘ईश्वरीय आदेश’ के अंधाधुंध विनाश ने!

भारतीय अस्मिता की इस अनाप-शनाप बरबादी को सामने देखकर भी हम जाने किस दबाव में देखते नहीं.

रद्दी अख़बार तौल-तौल कर ले जाने वाला याद है? आजकल तो डिजिटल काँटा लेकर आता है. कहीं-कहीं अभी भी उसी दो पलड़ों वाली तराज़ू से तौलता है.

एक पलड़े में एक किलो का बाट रखता है. एक किलो रद्दी तौलकर बाट वाले पलड़े में शिफ़्ट कर देता है ताकि दो किलो तौल सके. अब और दो किलो रद्दी बाट वाले पलड़े में जमा देता है. दोनों पलड़ों की चार-चार किलो रद्दी एक साथ उठा नहीं पाता तो एक किलो का बाट सरका कर अलग रख देता है. और, चल पड़ता है रद्दी से रद्दी तौलने का सिलसिला!

1947 में आज़ाद होने के बाद जब हमें अपना देश ख़ुद चलाने का अवसर आया तो वह समय था आधुनिक-बोध के साथ भारतीय जीवन-मूल्यों को समन्वित करके हम देश को आगे ले जाएं. हमारा ‘वैल्यू-सिस्टम’ कुछ भी मापने-तौलने के लिए एक किलो वाला ओरिजिनल बाट था. सबसे पहले हमने तौला जवाहर लाल को और भारतीयता वाले पलड़े में जगह दे दी. जल्दी ही अपनी जीवन-शैली वाला असली बाट हमें सरका कर अलग कर देना पड़ा.

और, चल पड़ा रद्दी से रद्दी तुलने का सिलसिला!

आधुनिकता और भारतीय परंपरा में कोई विरोध होता तो आज मोदीजी कैसे दोनों को साध पा रहे हैं? जो काम 1947 में होना चाहिए था वह अब हो रहा है! किसने सोचा था जवाहर लाल की तरफ से अंग्रेज़ निश्चिंत थे कि राज तो उनका ही चलता रहेगा. बस एक दिन भारतीय किसान को आत्महत्या करनी होगी!        

हमारे पास आज आधुनिक रीति-नीति है, एक समृद्ध संविधान है, एक मज़बूत लोकतंत्र है. देखना तो यह है कि इस देश का हर नागरिक – किसी भी पंथ-संप्रदाय, जाति, हैसियत या मिजाज़ का हो, मन में कैसा संस्कार लाये, और किस विधि लाये, ताकि प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर हर संवैधानिक नियम के अनुसार आचरण होता रह सके, प्रजा के संस्कार के अनुरूप राजनीति चल सके, मूल भारतीय जीवन-शैली और कृषक-अर्थव्यवस्था हमारे उत्थान की व्यवस्था बनी रह सके.

कौन तय करेगा कि एक किलो वाला हमारा मौलिक बाट कौन सा है? मुहम्मद अली जिन्नाह तो कर नहीं पाये. जवाहर को भी जो खेल करना था कर गए. आज हालत यहाँ तक आ गई है जिनके लिए भारत  ‘भारतमाता’ नहीं, सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा है, वे कहने की तैयारी में हैं “और चाहिये”. ऐसे में कौन बताएगा भारतीय जीवन-मूल्य क्या हैं? राष्ट्रपति-भवन? प्रधानमंत्री कार्यालय? ‘Other Priorities’ वाला सुप्रीम कोर्ट? JNU? फ़िल्म सेंसर बोर्ड? स्टॉक एक्सचेंज? या फिर टी.वी. चैनल?

भारतीय मूल्य तय करना अकादमियों का काम नहीं है. न ही ऐसा कर पाना इन संस्थाओं के बस का है. उसके लिए साधु-संतों के ही अनुशासन की आवश्यकता रहेगी. इसलिए वे कृपया ‘प्रजा’ को संभालने से इनकार न करें. ‘तंत्र’ और ‘राजनीति’ केवल प्रजा का एक्स्टेंशन हैं, प्रजा के राजा नहीं.

तालकटोरा स्टेडियम में घटी ‘धर्मादेश-सम्मेलन’ की पूरी फ़ेंटेसी वक़्त का तक़ाज़ा है, एक reality है!

10-11-2018

उम्मत-ए-हिंद


अब यह तो मालूम नहीं कि अरबी और फ़ारसी भाषाओं के व्याकरण के अनुसार यह शब्दावली — ‘उम्मत-ए-हिंद’ — सही है या नहीं. यदि समय रहते विश्व की ये दोनों शास्त्रीय भाषाएं – classical languages — सीखने को मिली होतीं तो मैं अपनी बात और अधिक आत्मविश्वास के साथ कह रहा होता. ‘जश्न-ए-रेख्ता’ के एक अधिवेशन में परम पूज्य श्री जावेद अख़्तर से पता चला था बादशाह अकबर कैसे एक मामूली इंसान था, तहमद (लुंगी) बांधकर घूमता था, कहीं भी खड़े होकर लोगों से बतियाता था, और चूँकि उस वक़्त उर्दू ने भाषा के रूप में शक्ल अख़्तियार नहीं की थी पंजाबी में बतियाता था. जब ऐसा अकबर ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हो सकता है तो जिस राष्ट्र ‘हिन्द’ के लोग ‘हिंदू’ कहलाए, वहाँ की ‘उम्मत’ को अवश्य ‘उम्मत-ए-हिंद’ कहा जा सकता होगा.

अरबी भाषा के इस शब्द ‘उम्मत’ का अर्थ है किसी पैग़म्बरी धर्म के तमाम अनुयायियों का समुदाय. इसे समूह और गिरोह के भी अर्थ में प्रयोग किया जाता है.

इस्लाम की यह प्रतिबद्धता प्रशंसनीय है कि ‘उम्मत’ के चलते दुनिया के किसी एक कोने में रहने वाला मुसलमान किसी दूसरे कोने में रह रहे अपरिचित मुसलमान से भी सबसे पहले जुड़ाव रखेगा और उसके लिए फ़िक्रमंद रहेगा. अपने लोगों को आपस में बाँधकर रखने के लिए यह भाव अत्यन्त सहायक है.

संसार के किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों को इस्लाम के प्रशंसनीय पक्षों को कलंकित करने वालों का समूह देखना हो तो उन्हें पाकिस्तान अथवा उससे भी बढ़कर हिंदुस्तान का वीज़ा लेना चाहिए. हिंदुस्तान में तो ‘मुसलमान-मुसलमान’ करते हुए रात-दिन मुहर्रम-मोड में बने रहने वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ देखने-सुनने को मिलेगी. पाकिस्तान को भी और कहीं के नहीं, हिंदुस्तान के ही मुसलमानों की इतनी चिंता है कि वहाँ की स-फ़ौज सरकार को नींद न आने की बीमारी हुई रहती है.

इस तरह की बेमतलब बीमारियों का इलाज हो नहीं पा रहा. ‘उम्मत-ए-हिन्द’ की सही-सही समझ के बिना होगा भी कैसे?

दरअसल ‘उम्मत-ए-हिन्द’ की तरफ़ उस समय बेसाख़्ता ध्यान चला गया जब भारतीय संसद् ने दोनों सदनों में नागरिकता संशोधन बिल को स्वीकार कर लिया और असम सुलग गया. उसके बाद देश के और हिस्से भी भभके –  विशेषतः जहाँ-जहाँ ‘हिन्दू-राष्ट्र की प्रतीक’ बी.जे.पी. सरकार थी.

संशोधित अधिनियम का हिन्दुत्व से कुछ लेना-देना न होते हुए भी पहली लपट असम के आसमान में लपकी, इसलिए पहले असम की बात.

अंग्रेज़ी के पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने असम का होने के बूते अपने कार्यक्रम में असम के लोगों को भी बहस में शामिल किया और स्पष्ट किया यद्यपि वह स्वयं भी नागरिकता संशोधन का समर्थक नहीं, मगर देख रहा है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रम फैलाकर हिंसा करवाई जा रही है. अर्नब ने बताया आप हिन्दू हैं या मुसलमान, असम में मायने नहीं रखता.

और जगह रखता है?

यह भी बताया भारतरत्न भूपेन हज़ारिका क़व्वाली गा लेते थे, परवीन सुलताना भजन.

कोई अहसान करते थे क्या?

शिव कृष्ण बिस्सा ने शीन काफ़ निज़ाम नाम से और रघुपति सहाय ने ‘फ़िराक’ नाम से उर्दू में शायरी की तो कोई अहसान किया क्या? जायसी, रहीम, रसखान ने और राही मासूम रज़ा ने हिन्दी में लिखा तो पूरी ‘हिन्दू’ क़ौम पर परोपकार कर दिया क्या? या ऐसा होना यों ही भारतीय (हिन्दू) संस्कृति की रवायत है? एक सामान्य जीवन-शैली मात्र है?   

दूसरे असमिया बंधुओं ने बताया वे पहले असमी हैं, तभी तो भारतीय हैं. उनके अनुसार बी.जे.पी. और कुछ नहीं, भगवा कांग्रेस है और हम उसे भी निकाल बाहर करेंगे. 1985 के असम समझौते का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जा सकता? असम-अस्मिता का प्रश्न है.

अर्नब के चैनल के Nation First No Compromise का क्या हुआ? हमें तो ‘असम फ़र्स्ट’ सुनाई दिया. असम में आंदोलन करने वाले लोगों और इन असमिया बांधवों ने एक बार को नहीं सोचा राजनैतिक दल और मुसलिम नेता देश में अस्थिरता लाने के लिए बस एक बहाना ढूँढ रहे थे. वह बहाना हाथ में आया नहीं कि शुरु! असम किसी रिले रेस की तरह baton इन्हें थमाकर हरी घास पर बैठ धूप सेकने लगा और ये भारत-माता की सिकाई करने के अपने पुश्तैनी धंधे में लग गए. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की इतनी हिम्मत कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ से छुटकारा दिला दे और शांति बनी रहे! कश्मीर पर इस्लामी नियंत्रण न रहकर वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का हिस्सा हो जाये और कहीं पत्थरबाज़ी न हो? चलो, बनाओ सब जगह कश्मीर! हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मंदिर के पक्ष में फ़ैसला दे दिया और कहीं मुंबई के बम-ब्लास्ट या 26/11 जैसा कुछ हुआ नहीं! ऐसा कैसे चलेगा?

असम-समझौता के हिमायतियों ने बता दिया कि ‘असम’ एक उम्मत-ए-हिन्द है!

हमारी एक और उम्मत है बंगाल, एक है मराठा, एक उम्मत है तमिल – हमारे राष्ट्र-गान में हमारी अधिकांश उम्मतें गिना दी गई हैं – पंजाब, सिंध (?), गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग! और भी हैं जो गिनायी भले नहीं गयीं मगर हैं – जाट, गुज्जर, पटेल, राजपूत, ब्राह्मण, बनिया! हम किस मुँह से मुसलमानों की निंदा करते हैं जिनकी तो एक नबी की उम्मत है, मगर यहाँ तो उम्मतों का अंबार लगा हुआ है? उम्मतें ही उम्मतें!!

किसी को यह चिंता कि लालू यादव को जेल से कैसे निकालें? किसी को फ़िक्र कहीं उनके हुक्काम चिदम्बरम के जैसे तिहाड़-वास न करने लगें. कोई इसलिए दाहिनेहुं बायें (बिनु काज एक्को नाहीं, बेचारे परले दर्जे के संत जो ठहरे!) कि दाऊद को पाकिस्तान भगा देने में अपने मददगार नेता की मदद कैसे की जाये! इसलिए दे पत्थर, दे आग, दे तोड़-फोड़, दे छात्र, दे बुद्धिजीवी! आख़िर, इस ढेर-ए-उम्मत-ए-हिन्द का दम घुटा जा रहा था! देश को साँसत में डाल अब साँस में साँस आयी!

और, बात कुछ नहीं! सिर्फ़ इतनी कि उन ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता देकर बात ख़त्म करो जो क़ानूनी कागज़ात लेकर आए थे, बरसों से यहाँ रह रहे थे, धार्मिक प्रताड़ना के कारण जाने से इनकार कर रहे थे! मुसलमानों के अतिरिक्त ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति अगर सरकार अपना कोई भी दायित्व निभाती है तो देश ‘हिन्दू-राष्ट्र’ हुआ जा रहा है! लगाओ आग!!

इसलिए क्या कोई यह बताने का कष्ट करेगा, हम तब इनमें से कौन सी उम्मत में से गर्दन उचका कर कह रहे होते हैं – “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई” –  जब हमारे मेहमाने-ख़ास कह रहे होते हैं – “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला, इंशा अल्ला”? अल्ला ने तो इंशा कर ही रखी है — होंगे नहीं, टुकड़े हुए रखे हैं! इस बात को कहने के लिए हिम्मत की नहीं, इस सत्य को जान रखने भर की ज़रूरत है.  

पाकिस्तान के बाशिंदे और हिन्दुस्तान के मुस्लिम नेता-प्रवक्ता-मौलवी हमारे इस सत्य को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए सँभालकर रखे हुए हैं. जब-तब पानदान में से निकालते भी रहते हैं. इन सबका हर बयान इसी सत्य की तश्तरी में रखकर पेश किया जाता है. तश्तरी दिखाई नहीं देती क्योंकि ‘यह हमारा भी देश है’ के रूमाल से ढँकी होती है, जिसमें ‘वन्दे मातरम् नहीं बोलेंगे’ की गाँठ भी लगी रहती है.

यह शायद क़ुदरत का इंसाफ़ है कि इन कठमुल्लों की बातों में न आकर भारत के अनेक शिक्षित मुसलमान खुलकर सामने आना शुरु हुए हैं जो इस्लाम की अच्छाइयों से जुड़े रहते हैं. इस तरह वे अपने धर्म और देश-धर्म में संतुलन बनाकर इनकी बातों को निरर्थक सिद्ध करने का भी काम करते हैं. जबकि ये कठमुल्ले अधिकांश मुसलमानों को शिक्षा से दूर रखते हैं और उस हालत में रखते हैं जिसमें हमने गोल टोपी लगाए मुसलिम युवाओं को पत्थरबाज़ी करते पाया था. यह भीड़ इन मुस्लिम नेताओं की ‘वर्क-फ़ोर्स’ है, इसलिए उन्हें समुचित शिक्षा से दूर रखना इनके लिए ज़रूरी है.

पत्थरबाज़ी को अभी तक हम अपने न्यूज़ चैनलों पर देख-देख कर ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ से आगे और कुछ नहीं समझ रहे. कश्मीर में बरसों-बरस चली पत्थरबाज़ी को कैसे और क्यों हिन्द के हर उस शहर में लाया गया, बोरियों में भर-भरकर पत्थर क्यों इकट्ठे किए गए, क्यों गाड़ियों-ऑटोरिक्शाओं में ढोये गए और कैसे पूरी प्लानिंग की गई इसकी गंभीरता हम तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम इस्लाम में ‘रज्म’ (रजम) का महत्व नहीं जानेंगे. अपनी बेशुमार उम्मतों में उलझे हुए हिन्द को इतमीनान से मुग़ालता है कि पत्थर और इस्लाम-कनेक्शन जैसा कुछ होता नहीं. चाहे तस्लीम रहमानी हो, चाहे महमूद पराचा और चाहे असदुद्दीन ओवेसी, इन सबके बयानों और गतिविधियों को हम रजम, हिज्राह, शिर्क-अल-अकबर, दारुल इस्लाम आदि को जाने बिना समझ नहीं पाएंगे. मुग़ालते में ही रहेंगे. ये लोग इन्हीं को घिस-घिस कर अपनी ‘वर्क-फ़ोर्स’ को काम में लगाते हैं, जैसे पहले कश्मीर में और अब हिन्द के बड़े हिस्से में लगाया.

‘रजम’ का सीधा-सा मतलब है पत्थर मारना. हज के दौरान शैतान को सात पत्थर मारना भी यही है. ‘हुदूद’ की सज़ाओं के लिए भी शरीयत में ‘रजम’ prescribe किया गया है. ‘हुदूद’ को हम हिन्द के उम्मती इस तरह समझें कि जिसने लक्ष्मण-रेखा पार कर दी, हद से आगे चला गया. उसे ‘रजीम’ करना ही पड़ेगा. ‘रजीम’ यानी जिसे पत्थरों से मारा जाए. ‘रजीम’ के लिए ‘रजूम’ हो जाना – पत्थरबाज़ बनना — मोमिनों पर फर्ज़ है.

समझें — पत्थरबाज़ी मुसलमानों का धार्मिक मान्यता प्राप्त ‘फर्ज़’ है!

हिन्दी हिंदुओं से बढ़कर ‘रजीम’ (पत्थर मारने योग्य) और कौन होगा जो अल्लाह के बराबर बहुत-से देवी-देवता लाकर, ईश्वर की मूर्त्ति बनाकर, और भी बहुत सी मूर्त्तियाँ – जैसे बुद्ध आदि की मूर्त्ति बनाकर हद पार कर गए हैं. यह ‘शिर्क-अल-अकबर’ है – बहुत बड़ा कुफ़्र. हिन्दू तो अल्लाह के सिवा दूसरे की भी कसम खा लेते हैं, जैसे ‘राम-कसम’. यह थोड़ा छोटा कुफ़्र है – ‘शिर्क-अल-असग़र’. इसलिए इनके ऊपर पत्थरबाज़ी मुसलमानों पर मज़हब का बताया फर्ज़ है. क़ुरान-ए-मजीद की क़सम!

यह कारण है कि ये मुसलिम-नेता ‘पत्थरबाज़ी’ की निंदा करते कभी दिखाई नहीं देते. इसी पत्थरबाज़ी – रजम – के वीडियो और फ़ोटो दिखाकर आतंकवाद से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े इन मुस्लिम लीडरान को विदेश से और पैसा मिलेगा. ‘दार-अल-हर्ब’ (युद्ध-क्षेत्र) हिन्द को ‘दार-अल-इस्लाम’ (इस्लाम-परस्त ज़मीन) बनाने के लिए इस नमूने से मिले पैसे को ‘काम पूरा करने’ के लिए लगाया जाएगा.

नागरिकता संशोधन क़ानून किसी की भी नागरिकता लेने के लिए नहीं, बहुत समय से अटके पड़े कुछ ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का अधिनियम है. तब यह मुसलमानों के विरुद्ध कैसे हो गया?

जो बात ये मुसलिम नेता असलीयत सामने आ जाने से बचने के लिए बोलेंगे नहीं मगर जिस कारण इन्होंने इस अधिनियम के सामने मुसलमानों को ‘रजूम’ अर्थात् पत्थरबाज़ हो जाने को सबाब और फर्ज़ कहकर उकसाया उसका आधार है ‘हिज्राह’.

‘हिज्राह’ यानी अपनी जगह से दूसरी जगह जाना. हज़रत मुहम्मद साहब जब मक्का से मदीना गए थे तो वह ‘हिजरत’ थी. अनावश्यक युद्ध टालने के लिए ऐसे ही कभी भगवान् श्रीकृष्ण भी मथुरा से द्वारका जाकर ‘रणछोड़राय’ हुए थे. हिंदुओं में भी कोई ओवैसी हो और चाहे तो वह भी इसी तरह श्रीकृष्ण के ‘हिज्राह’ को तोड़-मरोड़कर उलटा-सीधा भड़काने के लिए काम में ला सकता है.

बहरहाल, ‘हिज्राह’ को मस्जिदों और मदरसों में जिस तरह समझाया जाता है उसे देखते लगता है यह पत्थरबाज़ी तो बहुत कम रही!

एक मुसलिम देश से जाकर दूसरे मुसलिम देश में पनाह लेने को सऊदी अरब जैसे देश अथवा अन्य मुस्लिम देश बढ़ावा नहीं देते. उनके मज़हब के आदेश से उन्हें मालूम है मुसलमानों को ग़ैर-मुसलिम देशों में जाकर बसना चाहिए. इसके लिए ये देश बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. क्योंकि इनके मुताबिक़ इस्लाम ने दुनिया को एकदम साफ़-साफ़ बाँट रखा है. और यह बँटवारा अल्लाह का हुक्म है.

अल्लाह की बनाई इस ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ के लोग इस्लाम पर ईमान लाते हैं ‘दारुल-इस्लाम’ है. सभी घोषित इस्लामी देश ‘दारुल-इस्लाम’ हैं. कुछ जगहें ऐसी हो सकती हैं जहां सब तो मुसलमान नहीं हो गए, मगर ऐसे देशों के पड़ोस में जो ‘दारुल-इस्लाम’ है उसके साथ अगर यह समझौता हो गया है कि हम अपने मुसलमानों का पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे तो वे देश ‘दारुल-सुलह’ या ‘दारुल-अहद’ हुए. अर्थ हुआ ‘संधि-प्रदेश’. ऐसे देशों के ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया जारी रहती है.

मगर जो देश जब तक पूरी तरह इस्लामी नहीं बन जाते उन्हें ‘दारुल-हर्ब’ कहा जाता है. ‘दारुल-हर्ब’ – युद्ध क्षेत्र. 1947 में पाकिस्तान बना तो वह हुआ ‘दारुल-इस्लाम’. भारत जो रह गया वह हुआ ‘दारुल-हर्ब’. अतः, टुकड़े-टुकड़े गैंग का एक और इंशा अल्ला नारा है – “भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”. ‘दारुल-हर्ब’ में जिहाद हमेशा जारी रहता है. हिन्द है तो जब तक ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ करके ईंट से ईंट न बजा दी जाए, तब तक जिहाद होता रहेगा. बचना है तो इस्लाम क़बूल कर लो.

राजनीति में शौकिया लिप्त हमारी बुद्धि आज तक यही माने बैठी है पाकिस्तान का बनना एक राजनैतिक घटना थी. ये जो ‘रज्म’ (रजम) के पत्थर आज नज़र आ रहे हैं आजतक हमारी अक्ल पर पड़े रहे हैं जो हमें मार्क्स की उक्ति कभी ठीक नहीं लगी – धर्म अफ़ीम है. दारुल-इस्लाम पाकिस्तान इसी अफ़ीम की लहलहाती खेती था, है और रहेगा.   

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की, और इन तमाम काफ़िर हिंदुओं की इतनी हिम्मत कि ‘दारुल-इस्लाम’ पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्ला देश से ‘दारुल-हर्ब’ हिन्द में आ रहे मुसलमानों को आने वालों में नहीं गिनेंगे! अल्पसंख्यक वहाँ रह नहीं सकेंगे, और हिन्द के मुसलमान उन्हें यहाँ रहने नहीं देंगे. इसलिए मुसलमानों को भी आने दो क्योंकि उनका कैसे भी वहाँ से यहाँ आना ‘हिज्राह’ नामक इस्लामी फ़र्ज़ है, ताकि वे दारुल-हर्ब हिन्द को दारुल-इस्लाम बनाने के काम में जुट सकें. उन्हें न आने देना इस्लाम से दुश्मनी है जिसकी सज़ा है पत्थरबाज़ी – रजम!

यह कारण था जो इन नेताओं के लिए बहुत ज़रूरी हो गया कि बोरियाँ और गाड़ियाँ भर-भर पत्थरों का इंतज़ाम करें और दिखा दें ‘रजम’ का इस्लामी हुक्म कैसे बजाया जाता है.

मुझे पक्का विश्वास है क़ुर’आन-ए-पाक में ये सब बातें इस रूप में और इस उद्देश्य से नहीं कही गई होंगी. ये शैतान आई.एस.आई.एस.-मानसिकता के समर्थन में क़ुर’आन की आयतें उद्धृत करते हैं और यदि कोई नेक मुसलमान दुनिया के किसी कोने से उठकर इन्हें ग़लत कहता भी है तो ये उसे काफ़िर घोषित करके उसकी जान तक लेने पर उतारू हो जाते हैं. जितना मेरी समझ में आया है हज़रत मुहम्मद इतनी बड़ी हस्ती थे कि ज़रा से में उनका अपमान या ‘ईश-निन्दा’ – blasphemy – हो ही नहीं सकती. संभव ही नहीं है. सम्भव मानना स्वयं मुसलमानों द्वारा नबी की हस्ती को कम करके आँकना है.

इस एक उदाहरण से यह बात समझ में आ सकेगी.

अल्लाह के जो 99 नाम इस्लाम में बताए गए हैं और जो क़ुर’आन के पाठ में से संकलित हैं, वे सभी ‘विष्णुसहस्रनाम’ में आ गए हैं.

आप स्वयं देख लीजिए —

1  अर रहमान   — बहुत मेहरबान  — प्रियकृत्

2  अर रहीम    — निहायत रहम वाला   — प्रीतिवर्धन:

3  अल मलिक  — बादशाह  — लोकनाथ:

4  अल कुद्दुस  —  पाक ज़ात  — पूतात्मा

5   अस सलाम — सलामती वाला  — शरणं शर्म

6   अल मु अमिन — अमन देने वाला — शांतिद:

7   अल मुहयमिन — निगरानी करने वाला  — रक्षण:

8   अल अजीज़ – ग़ालिब — जेता

9   अल जब्बार   — ज़बरदस्त — महाबल:

10  अल मुतकब्बिर — बड़ाई वाला  – महाशक्ति:

11  अल खालिक — पैदा करने वाला — स्रष्टा

12  अल बारी — जान डालने वाला — विधाता

13  अल मुसव्विर — सूरतें बनाने वाला — विश्वकर्म्मा

14  अल गफ़्फ़ार — बख्शने वाला   — क्षमिणावर:

15  अल क़हहार — सब को अपने काबू में रखने वाला — दारुण:

16  अल वहहाब — बहुत अता करने वाला — वरद:

17  अर रज़्ज़ाक —  रिज़क देने वाला — वाजसन:

18  अल फतताह  — खोलने वाला — योगविदांनेता

19  अल अलीम  — खूब जानने वाला — सर्वज्ञ:

20  अल काबिज़ — नपी तुली रोज़ी देने वाला — प्रग्रह:

21  अल बासित — रोज़ी को फराख देने वाला — उदारधी:

22  अल खाफ़िज़ — पस्त करने वाला — दमयिता

23  अर राफ़ी — बुलंद करने वाला — उत्तारण:

24  अल मुईज़ — इज्ज़त देने वाला — मानद:

25  अल मुज़िल — ज़िल्लत देने वाला — दर्पहा

26  अस समी — सब कुछ सुनने वाला — विश्रुतात्मा

27  अल बसीर — सब कुछ देखने वाला — सर्वदृक्

28  अल हकम – फ़ैसला करने वाला — नियन्ता

29  अल अदल — अदल (न्याय) करने वाला — समात्मा

30  अल लतीफ़ — बारीक बीं — सूक्ष्म:

31  अल खबीर — सब से बाख़बर — विद्वत्तम:

32  अल हलीम — निहायत सहनशील — सहिष्णु:

33  अल अज़ीम  — बुज़ुर्ग — महान्

34  अल गफ़ूर — गुनाहों को बख्शने वाला — सर्वसह:

35  अश शकूर – कदरदान — कृतज्ञ:

36  अल अली — बहुत बुलंद, बरतर — प्रांशु:

37  अल कबीर — बहुत बड़ा — श्रेष्ठ:

38  अल हफ़ीज  — निगेहबान — गोप्ता

39  अल मुक़ीत  — सबको रोज़ी, तवानाई (बल) देने वाला  — भूतभृत

40  अल हसीब   — काफ़ी — पुष्ट:

41  अल जलील — बुज़ुर्ग  — प्रतिष्ठित:

42  अल करीम   — बेइंतिहा करम करने वाला — भक्तवत्सल:

43  अर रक़ीब – निगेहबान — प्रजागर:

44  अल मुजीब  — दुआएं सुनने और कुबूल करने वाला — अनुकूल: 

45  अल वासिऊ — फराखी देने वाला — व्यापी

46  अल हकीम  — हिकमत वाला — वैद्य:

47  अल वदूद — मुहब्बत करने वाला — सुहृत्

48  अल मजीद — बड़ी शान वाला — गुरुतम:

49  अल बाईस — उठाने वाला — बीजमव्ययम्

50  अश शहीद — हाज़िर — साक्षी

51  अल हक़ —   सच्चा मालिक — सत्य:

52  अल वकील  — काम बनाने वाला — आधारनिलय:

53  अल क़वी – ज़ोरावर — शक्तिमताम्श्रेष्ठ:

54  अल मतीन — कुव्वत वाला — महावीर्यः

55  अल वली — हिमायत करने वाला — लोकबंधु:

56  अल हमीद   — ख़ूबियों वाला  — स्तव्य:

57  अल मुह्सी   — गिनने वाला — कालः

58  अल मुब्दी    — पहली बार पैदा करने वाला — उद्भवः

59  अल मुईद — दोबारा पैदा करने वाला — समावर्त:

60  अल मुह्यी — ज़िंदा करने वाला — प्राणद:

61  अल मुमीत   — मारने वाला — शर्व:

62  अल हय्युल — ज़िंदा  — जीवन:

63  अल क़य्यूम  — सबको क़ायम रखने,निभाने वाला — शाश्वतः

64  अल वाजिद — हर चीज़ को पाने वाला — संग्रह:

65  अल माजिद — बुज़ुर्गी और बड़ाई वाला — शुचिश्रवा:

66  अल वाहिद  — एक अकेला — एकः

67  अल अहद — एक अकेला — एकात्मा

68  अस समद — बेनियाज़ (निस्पृह) — विविक्त:

69  अल क़ादिर  — कुदरत रखने वाला — विक्रमी

70  अल मुक्तदिर — पूरी कुदरत रखने वाला — क्षम:

71  अल मुक़द्दम — आगे करने वाला — भूतादि:

72  अल मुअख्खर — पीछे और बाद में रखने वाला — अंतक:

73  अल अव्वल — सब से पहले — सर्वादि:

74  अल आख़िर — सब के बाद — विक्षर:

75  अज ज़ाहिर  — ज़ाहिर व आशकार — व्यक्तरूप:

76  अल बातिन — पोशीदा व पिन्हा — अव्यक्त:

77  अल वाली –मुतवल्ली (देखरेख करने वाला) — शास्ता

78  अल मुताआली — सब से बुलंद व बरतर — उदीर्ण:

79  अल बर — बड़ा अच्छा सुलूक करने वाला — पुरुसत्तम:

80  अत तव्वाब — सब से ज्यादा कुबूल करने वाला  — पापनाशन:

81  अल मुन्ताक़िम — बदला लेने वाला — शत्रुतापन:

82  अल अफ़ुव्व — बहुत ज्यादा माफ़ करने वाला — सह:

83  अर रऊफ़ — बहुत बड़ा मुश्फ़िक (कृपालु) — सुंद:

84  मालिकुल मुल्क — मुल्कों का मालिक — लोकस्वामी 

85  अजजुल जलाली वल इकराम —- अज़मतो जलाल और इकराम वाला — महातेजा: मान्य:

86  अल मुक्सित — अदलो इन्साफ कायम  करने वाला — न्याय:

87  अल जामिऊ — सब को जमा करने वाला — श्रीनिधि:

88  अल गनी — बड़ा बेनियाज़ व बेपरवा  — निधिरव्यय:

89  अल मुग्नी — बेनियाज़ व गनी बना देने वाला — धनेश्वर:

90  अल मानिऊ — रोक देने वाला — दुरारिहा

91  अज ज़ार्र — ज़रर (आघात)  पहुँचाने वाला — प्रतर्दन:

92  अन नाफ़िऊ — नफ़ा पहुँचाने वाला — सिद्धिद:

93  अन नूर —    सर से पैर तक नूर बख्शने वाला — प्रकाशात्मा

94  अल हादी — सीधा रास्ता दिखाने व चलाने वाला — नेता

95  अल बदी — बेमिसाल चीज़ को ईजाद करने वाला — सर्गः

96  अल बाक़ी — हमेशा रहने वाला — सनात्

97  अल वारिस  — सब के बाद मौजूद रहने वाला — वंशवर्धन:

98  अर रशीद — बहुत रहनुमाई करने वाला — गुरु:

99  अस सबूर — बड़े तहम्मुल(सहिष्णुता)वाला — धृतात्मा

अल्लाह अनन्त है. उसे न 99 नामों में समेटा जा सकता, न एक हज़ार नामों में. इसका यह अर्थ नहीं कि हज़रत मुहम्मद को 99 से आगे मालूम नहीं था. अनादि, अनन्त, असीम, अरूप, अविकार अल्लाह को वह पूरा-पूरा जानकर ही कुछ कहते-करते थे. इसलिए उन्होंने प्रकट रूप से उतना ही कहा जितना अरबिस्तान की तात्कालिक परिस्थितियों में ज़रूरी था. बर्बर जीवन के लिए अभिशप्त वहाँ की मनुष्य-श्रेणी के अन्तर्मन में अध्यात्म और अल्लाह के प्रति समर्पण का फूल खिलाने के लिए जितना और जो कुछ ज़रूरी था, वह सब उन्होंने कहा और 99 नामों में समेटकर रख दिया.

हमारे शैतान दोस्त इसी सब को तोड़-मरोड़ कर अपनी कट्टरता के लिए इस्तेमाल करते हैं. अपनी इस तोड़-मरोड़ और संकीर्णता को यह डेढ़ हज़ार वर्ष पहले के अरबिस्तान पर रुका हुआ देखना चाहते हैं. इनकी साम्प्रदायिकता का विरोध करो तो उसे अपना नहीं इस्लाम का विरोध सिद्ध करने में लग जाते हैं. इनके तिलिस्म के शिकार, शिक्षा से दूर, अल्लाह के नहीं मुल्ला के इस्लाम पर ईमान लाने वाले मुसलमान हाथ में पत्थर उठा भी लेते हैं.

बहुत लोगों को एक बात पर हैरानी होती होगी. ये मुसलिम नेता और प्रवक्ता इतनी वफ़ादारी से अपने मज़हब के लिए ज़ोर देकर कैसे बोल लेते हैं कि हिन्द का मुसलमान वास्तव में बहुत परेशान जान पड़ता है?

दरअसल ये क़ुरान-ए-पाक और इस्लाम की बहुत सी शब्दावली और सिद्धांतों-अवधारणाओं से हमारे-आपके अपरिचय का लाभ उठाकर साफ़-साफ़ झूठ बोल रहे होते हैं. जिस तरह पत्थरबाज़ी इस्लाम की एक धार्मिक गतिविधि है – रज्म, उसी तरह एक अन्य इस्लामिक सिद्धान्त है – ‘तक़ीया’. यों तो ‘तक़ीया’ का सामान्य सा अर्थ है — दुराव, छिपाव. अपने प्राण बचाने के लिए बोला गया झूठ ‘तक़ीया’ है. सुन्नियों से अपने प्राण बचाने के शिया मुसलमान ‘तक़ीया’ को अमल में लाते थे. काफ़िरों और ग़ैर-मुस्लिमों के बीच सच का दुराव करते हुए, झूठ को घुमावदार ढंग से सच की तरह कह डालना इस्लाम में जायज़ है. इस्लाम में धैर्य, साहस और आत्मोत्सर्ग जैसे जो आदर्श कहे गए हैं, ‘तक़ीया’ को उनसे भी ऊपर रखा गया है, ख़ास तौर से तब जब कि मोमिनों के सामने दीन के लिए एक बड़ा मक़सद मौजूद हो. भारत में इनके सामने ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ अथवा एक बार और पार्टीशन की माँग या पूरे भारत का इस्लामीकरण आदि इतने बड़े मक़सद उपस्थित हैं कि ये कभी भी सच बोलने के फेर में न पड़कर हमेशा ‘तक़ीया’ से काम लिया करते हैं. यह मानसिक-वाचिक ‘तक़ीया’ उस समय स्थूल शारीरिक स्वरूप में लागू किया जाता है जब जिहाद को समर्पित मुसलमान के लिए मुँह पर नक़ाब लगाकर पत्थरबाज़ी, आगज़नी या अन्य हिंसा करना अनुकूल रहता है. ऐसे नक़ाबपोश जिहादी जब छात्रों के बीच जाकर सक्रिय होते हैं तब उस राजनैतिक दल को बदनाम करने में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं जो सत्तारूढ़ होता है. इस्लाम-समर्थित इस ‘रजम’ (पत्थरबाज़ी) अथवा ‘तक़ीया’ (झूठ) से ये कोई पाप नहीं कर रहे होते, बल्कि इनकी समझ में स्वयं को पक्का मुसलमान सिद्ध कर रहे होते हैं.  

नागरिकता संशोधन के बहाने ‘रज्म’ की पत्थरबाज़ी से हिन्द को ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने की दिशा में जो क़दम बढ़ाया गया है उसे, और इनके लगातार चलते ‘तक़ीया’ को देखते हुए अब समय आ गया है कि इन सब तथ्यों को लेकर इन मुसलमानों की आँख में आँख डालकर देखा जाए, इनसे बेखौफ़ सवाल किया जाए. इन्हें बेधड़क दण्डित किया जाए और इनकी परवाह करना छोड़ दिया जाए. पाकिस्तानी मानसिकता के ये लोग ‘हिन्दू-राष्ट्र’-‘हिन्दू-राष्ट्र’ क्यों चिल्लाते हैं, अब यह समझ में आ जाना चाहिए. यह वक़्त है कि पूरा ध्यान उन मुसलमानों पर लगाया जाए जो राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े हुए हैं. सौभाग्य से हिन्द के कुल मुसलमानों का दो तिहाई राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ा हुआ है. सब औरंगज़ेब नहीं, दारा शिकोह भी हैं और इस बार वे सुरक्षित रहने चाहिएं, उनका सिर कटना नहीं चाहिए. ये ही सबको यह बताकर मदद कर सकते हैं कि रज्म, शिर्क, हिज्राह, तक़ीया आदि इस्लामी अवधारणाओं का देश को अस्थिर बनाने के लिए राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है. दीन के इस राजनैतिक इस्तेमाल को बेनक़ाब करना हर हिन्दुस्तानी का फ़र्ज़ है. 

इन शैतानों को सबसे बड़ी मदद मिलती है हिन्द में उम्मतों के अंबार से जो कि राजनीति चलाने का भी आधार है. जिसे हम ‘अनेकता में एकता’ कहते आ रहे हैं वह दरअसल इन उम्मतों के ढेर का आधार सिद्ध हुई है – अनेकता विभिन्न अस्मिताओं की अलग-अलग ललक में बदलती चली गई है और एकता मजबूरी में बोला गया एक नारा लगने लगी है.

क्या हुआ उस एक उम्मत-ए-हिन्द का जिसे हम राष्ट्र-भारती, भारत माता, जननी जन्मभूमि जैसे सम्बोधन देते आये हैं और जिसके लिए ‘वन्देमातरम्’ उच्चारते आये हैं? यदि यह ‘हिन्दुत्व’ है और इससे देश बच जाता  है – दारुल-हर्ब – युद्ध-क्षेत्र — कहलाने से, या रजम से – पत्थरबाज़ी से, तब भी यह इस्लाम-विरोधी नहीं है. ‘विष्णुसहस्रनाम’ के उपरिकथित उदाहरण से स्पष्ट है हिन्दुत्व इस्लाम को आग़ोश में लेकर ही चलता है.

यह हिन्दुत्व ‘उम्मत-ए-हिन्द’ है.  

25-12-2019  

मौलाना गाँधी


चौंक गए ?

मत चौंकिए.

यह शीर्षक मेरा दिया हुआ नहीं है, कांग्रेसियों का है. मैं इन शब्दों को प्रयोग करने वाला (शायद) तीसरा व्यक्ति हूँ. मुझ से पहले दो बड़े कांग्रेसी नेता यह नेक काम कर गये हैं.

सन् 1942 में महात्मा गाँधी ने वर्धा में ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ की स्थापना की. डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पंडित जवाहरलाल नेहरु, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, आचार्य काकासाहेब कालेलकर, श्री बाला साहेब खेर, डॉ. ताराचंद, डॉ. जाफ़र हसन, प्रो. नजीब अशरफ नदवी, श्री श्रीमन्नारायण, पंडित सुन्दरलाल, पंडित सुदर्शन, श्री सीताराम सेक्सरिया, श्री अमृतलाल नानावटी, श्री वेदप्रकाश नायर जैसे अग्रगण्य कांग्रेसी नेताओं ने इस ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ के माध्यम से गाँधीजी के ‘उसूलों’ के प्रचार के लिए योगदान दिया.

इनमें श्री श्रीमन्नारायण (जिनका पूरा नाम श्रीमन्नारायण अग्रवाल था, और जो श्री जमनालाल बजाज के दामाद थे) इस सभा के संस्थापकों में थे और वर्धा के ही बजाज कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे. (सब कुछ अपने परिवार का है — यह कांग्रेस के डी.एन.ए. में है!) अपने अंतिम दिनों में श्रीमन्नारायणजी गुजरात के राज्यपाल भी रहे. यही श्री श्रीमन्नारायण 1946 में हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा के प्रधानमन्त्री बने.

1946 में प्रकाशित ‘विशाल भारत’ का एप्रिल अंक और 19 मई, 1946 का ‘देशदूत’ यदि किसी ग्रंथालय-संग्रहालय में देखने को मिल जाए तो हम पायेंगे कि इन दोनों में श्री श्रीमन्नारायण का एक लेख प्रकाशित हुआ था. शीर्षक था “मौलाना गाँधी”. इस लेख में श्रीमन्नारायणजी ने गाँधीजी के ‘उसूलों’ को स्थापित करते हुए कहा था कि हिन्दी जैसी भाषा के स्थान पर हमें हिन्दुस्तानी का इस्तेमाल करना चाहिए. इस ‘उसूल’ के चलते हिन्दू नाम के पहले भले ‘श्री’ कहें, मगर अन्य धर्मों के लोगों का लिहाज़ रखते हुए ‘जनाब’ कहना चाहिए. ‘हिन्दी पत्र-पत्रिका’ मगर ‘उर्दू रिसाले’, ‘शब्द’ के बजाय ‘लफ़्ज़’, ‘संस्कृति’ के बजाय ‘तहज़ीब’, ‘साहित्य’ को ‘अदब’, ‘कविता’ को ‘नज़्म’, ‘विद्वान्’ को ‘माहिर’ आदि कहना राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता के अनुकूल रहेगा.

उन दिनों रेडियो के लिए ‘आकाशवाणी’ शब्द प्रचलित नहीं हुआ था अतः ब्रिटिश हुकूमत होते हुए भी गाँधीजी के ‘उसूल’ के मुताबिक उसे ‘ऑल इंडिया रेडियो’ कहकर बोला जाता था. अतः वहाँ भी ‘हिदुस्तानी’ का प्रचलन हुआ. श्री अहमद शाह ‘पतरस’ बुखारी के रेडियो का डाइरेक्टर जनरल होने से और आसानी हो गई. यह ध्यान रखा जाने लगा कि किसी हिन्दू के लिए ‘स्वागत’ बोलें तो मुसलमान-ईसाई आदि के लिए ‘इस्तक़बाल’ कहा जाए. हिन्दू के बारे में बताना हो तो ‘सुरगबास हो गए’ और अन्य के लिए ‘इंतक़ाल फ़रमा गए’ अनाऊंस किया जाए. यह भी तय कर दिया गया कि जिस तरह अंग्रेज़ी भाषा की संस्कृति-धर्म ‘ईसाइयत’ है वैसे ही ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा की धर्म-संस्कृति ‘इस्लाम’ निर्धारित कर दी जाए. इसलिए ऑल इंडिया रेडियो पर गॉड का अनुवाद हमेशा ‘ख़ुदा’, रिलीजन का ‘मज़हब’, फ़्राईडे का ‘जुम्मा’, ‘प्रे’ (pray) का ‘दुआ’ और ‘हिज़ एक्सेलैन्सी’ का ‘हुज़ूर वायसराय’ बोलकर प्रसारण किया जाने लगा. यह तो तब था जबकि अभी गाँधीजी ने हमको ‘बिना खड्ग-बिना ढाल’ वाली आज़ादी नहीं ले दी थी.

और इस तरह गाँधीजी के ‘उसूलों’ ने शुद्ध भारतीय भाषा उर्दू को एक धर्म दे दिया. बैठे-ठाले उसे मुसलमानों की भाषा बना दिया !

इसलिए अपने लेख में श्री श्रीमन्नारायण अग्रवालजी ने बताया कि ‘मौलाना’ शब्द ‘महात्मा’ के ही अर्थ में है, इसलिए हमें अब से ‘महात्मा गाँधी’ को ‘मौलाना गाँधी’ कहना चाहिए ताकि ‘हिन्दुस्तानी’ ज़ुबान को बढ़ावा मिल सके !

एक अन्य कांग्रेसी नेता थे पण्डित रविशंकर शुक्ल, श्री विद्याचरण शुक्ल के पिता, जो उस समय के ‘सेंट्रल प्रोविंस’ और स्वातंत्र्योत्तर मध्य प्रदेश के पहले मुख्य मंत्री बने. रविशंकर शुक्लजी निष्ठावान् हिन्दी-सेवी थे और हिन्दी को बढ़ावा देने वालों में गिने जाते थे. आप गांधीजी का विरोध तो नहीं करते थे, मगर हिन्दी के मामले में स्पष्टोक्ति कर दिया करते थे. शुक्लजी मानते थे कि भाषा और साहित्य की परम्पराएं हमें वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और तुलसी से मिली हैं; अशोक, समुद्रगुप्त, अकबर और बाजीराव से नहीं. इसलिए न तो गाँधीजी हिन्दी के भाग्य का निर्णय कर सकते, न कांग्रेसी यह बता सकते कि इस लिपि में लिखो और ऐसी भाषा में बोलो.

यह पूरा प्रकरण इतिहास-वृक्ष का वह पत्ता है जिसे जान-बूझकर सूख जाने दिया गया क्योंकि यह हवा के हर झोंके के साथ सरसरा रहा था कि गाँधीजी के नेतृत्त्व में कांग्रेस बेतरह देश को गुमराह करने में लगी है. ये सब कांग्रेसी कर क्या रहे थे ? एक ओर गाँधीजी स्वयं ‘हरिजन’ की बात करते हुए डॉ. भीमराव अंबेडकर को आगे बढ़ा रहे थे, (जिन्होंने आगे चलकर बी.बी.सी. के अपने इंटरव्यू में कह दिया कि गाँधीजी ‘महात्मा’ कहलाने लायक व्यक्ति नहीं थे !), दूसरी ओर डॉ. सम्पूर्णान्द (जो गोविंदवल्लभ पंत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे) किताब लिख रहे थे — ‘ब्राह्मण, सावधान’ ! एक ओर गाँधीजी ‘यूनाइटेड प्रोविंस’ (आज का यू.पी.) में ‘हिन्दी’ और ‘गाय’ की रक्षा करने की बात करने वाली कांग्रेसी सरकार बनवा रहे थे (जिससे जिन्नाह व अन्य मुसलमान और ‘असुरक्षित’ हो गए — “मुझे इस देश में डर लगता है” का मनोविज्ञान तभी से काम कर रहा है), दूसरी तरफ़ वही गाँधीजी वर्धा की ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ के माध्यम से हिन्दी की लुटिया डुबो रहे थे !

लिहाज़ा, पण्डित रविशंकर शुक्ल ने एक किताब लिखी — “हिन्दी वालो, सावधान”. उन्होंने इसकी भूमिका में स्वीकार किया कि शीर्षक की प्रेरणा उन्हें डॉ. संपूर्णानन्द की पुस्तक “ब्राह्मण, सावधान” से मिली है ! ‘हिन्दी वालो, सावधान’ में शुक्लजी ने एक पूरा प्रकरण रखा — “हिन्दुस्तानी की बला” — हिन्दुस्तानी अर्थात् गाँधीजी के ‘उसूलों’ वाली भाषा ! इस प्रकरण के तीन चेप्टर भी दिलचस्प हैं — हिन्दुस्तानी आंदोलन का एकतरफ़ा स्वरूप, हिन्दुस्तानी वालों की कारगुज़ारी, और हिन्दुस्तानी वालों के हथकण्डे !!!

‘हिंदुस्तानीवाले’ ‘हिंदीवाले’ — यानी अख़बारवाले, रद्दीवाले, दूधवाले, सब्ज़ीवाले, कपड़े इस्तरी करने वाले, बोझा ढोने वाले, वगैरह- वगैरह — समाज का अलग ही वर्ग — ऐसे ही हिंदी’वाले’ !!

वाह री कांग्रेस ! और वाह वाह हमारे राष्ट्रपिता !!

आँख पूरी-पूरी खोलने के लिए यह देखना-जानना शायद मददगार हो कि श्री श्रीमन्नारायण के लेख ‘मौलाना गाँधी’ को पं. रविशंकर शुक्ल ने क्या जवाब दिया. उन्होंने इसके उत्तर में एक सुदीर्घ लेख लिखा जो लगभग सौ पृष्ठ की एक लघु पुस्तिका बन गया. इस पुस्तिका को शुक्लजी ने भी शीर्षक दिया — ‘मौलाना गाँधी’ !

इस तरह मैं शायद “मौलाना गाँधी” — इन शब्दों को प्रयोग करने वाला तीसरा व्यक्ति रहा होऊँ !

श्रीमन्नारायणजी ने अपने लेख ‘मौलाना गाँधी’ में चिंता व्यक्त की — “उर्दू अख़बार और रिसाले यह कहकर गाँधीजी को दोष देते रहते हैं कि वह हिन्दुस्तानी की ओट में उर्दू का नाश कर हिन्दी का प्रचार करना चाहते हैं.”

पं. रविशंकर शुक्ल ने अपनी पुस्तिका ‘मौलाना गाँधी’ में इस चिंता का निवारण यों किया — “गाँधीजी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन छोड़ते हुए अपने मुँह से कहा है कि ‘सम्मेलन छोड़कर हिन्दी की और सेवा हो सकेगी’. ठीक भी है. सम्मेलन में रहते तो सेवा प्रत्यक्ष थी. ‘और सेवा’ करनी हो तो ओट से ही हो सकती है. ‘हिन्दुस्तानी’ ही तो वह ‘ओट’ है जिससे चाहे हिन्दी का नाश कर दो — (रेडियो की तरह), चाहे उर्दू का”.

गाँधीजी हिन्दू और मुसलमान को एक करने के नाम पर कैसे साफ़-साफ़ बाँट रहे थे उसकी झलक श्री श्रीमन्नारायण के ‘मौलाना गाँधी’ में इस तरह मिलती है — “अभी तक तो गाँधीजी क़ौमी ज़बान को ‘हिन्दी’ नाम से पुकारते रहे. लेकिन जब उन्होंने देखा कि ‘हिन्दी’ और ‘उर्दू’ धीरे-धीरे दो अलग-अलग धारायें हो रही हैं तो उन्हें मिलाने के लिए ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ की नींव डाली गई”.

शुक्लजी के ‘मौलाना गाँधी’ में इसके जवाब में लिखा है — “जब गाँधीजी ने ‘क़ौमी ज़बान’ को ‘हिन्दी’ नाम से पुकारना शुरू किया था, उस समय क्या ‘उर्दू’ भाषा और उस भाषा के इस नाम ‘उर्दू’ का अस्तित्त्व था या नहीं ? या उस समय हिन्दी और उर्दू एक ही चीज़ थीं? और गाँधीजी वाली हिन्दी वही थी जो उर्दू थी ? हिन्दी और उर्दू की धारायें कब से ‘धीरे-धीरे’ अलग होना शुरु हुईं ? आज की ‘अलग-अलग धारा’ हिन्दी और उर्दू की तुलना में क्या तुलसी का ‘मानस’ और ग़ालिब का ‘दीवान’ एक-दूसरे के अधिक निकट हैं जो आज हिन्दुस्तानी की ज़रूरत आन पड़ी ? अब क्या देवनागरी और फ़ारसी लिपियाँ भी ‘धीरे-धीरे’ दो अलग धारायें होना शुरु हो गई हैं या जब गाँधीजी ने ‘क़ौमी ज़बान’ को ‘हिन्दी’ कहना शुरु किया था उस समय सब हिंदियाँ देवनागरी में ही लिखी जातीं थीं? फिर, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा तो गाँधीजी के ही हाथ में थी. तभी उन्होंने वहीं से ‘दोनों लिपियाँ’ का प्रचार शुरु क्यों नहीं किया ? 1946 तक क्यों रुके रहे ? ‘हिन्दुस्तानी’ का प्रस्ताव तो 1925 में ही पास हो गया था. तब से 1946 तक क्यों गाँधीजी ‘राष्ट्र-लिपि देवनागरी’ के प्रचार में बराबर सहयोग देते रहे ? या फिर क्या वह देवनागरी को फ़ारसी लिपि का पर्याय मानने की भूल करते रहे थे?”

कहना न होगा कि गाँधीजी के ‘उसूल’ वर्धा की ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ की बदौलत पूरे-पूरे लागू हो गए होते तो आज तमिलनाडु को दो भाषाओं और दो लिपियों का विरोध करना पड़ रहा होता – हिन्दी का भी और उर्दू का भी! क्योंकि उन्हें तीन भाषाएं — तमिल, अंग्रेज़ी, और ‘हिन्दुस्तानी’ तथा चार लिपियाँ — अंग्रेज़ी की रोमन, तमिल, और ‘हिंदुस्तानी’ की ‘दो लिपियाँ’ — देवनागरी और उर्दू-लिपि सीखनी पड़तीं !

‘हिन्दुस्तानी’ भाषा और गाँधीजी के परम भक्त डॉ. ताराचंद ‘रेडियो कमेटी’ के सदस्य थे. सम्बन्धित बैठक में उन्होंने हिन्दी में और उर्दू में भी ख़बरें प्रसारित करने का विरोध यह कहकर किया कि इससे ‘हिन्दुस्तानी’ का एक्सपेरिमेंट सफल नहीं होगा. शुक्लजी पूछते हैं कि क्या यह हिन्दी और उर्दू दोनों को एक साथ हलाल करना नहीं हुआ ? मगर दूसरे ‘हिन्दुस्तानी’-स्टार और गाँधी-वादी पं. सुंदरलाल ने यहाँ तक कह डाला कि इस तरह हिन्दी और उर्दू में ख़बरों की मांग ‘टू नेशन थ्योरी विद ए वेंजिएन्स’ है !

उर्दू को उर्दू की और हिन्दी को हिन्दी की तरह सम्मान देने की हिमायत करते हुए शुक्लजी ने याद दिलाया है कि ‘मैं बड़ा होता हूँ तो अपनी शक्तियों से’. गाँधीजी के ‘उसूलों’ वाली ‘हिन्दुस्तानी’ और उसे लिखी जाने वाली दोनों लिपियों की स्वीकृति (देवनागरी और फ़ारसी) से भारतवर्ष का जो होगा उसकी ओर भी उन्होंने ध्यान आकर्षित किया है.

“हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया कि शब्द का अशुद्ध उच्चारण करने से पाप होता है. मन्त्र का अशुद्ध उच्चारण करने से उसका फल नहीं होता. और उन्होंने हमें एक ऐसी लिपि भी दी जिसमें दस हज़ार वर्ष पुराने उच्चारण सुरक्षित हैं. आज भी हम अपने एक शब्द का उच्चारण वैसा कर सकते हैं जैसा हमारे पूर्वज करते थे. ‘हिन्दुस्तानी’ और उसकी उर्दू-लिपि के कारण अब हमें सीखना होगा — साहित्या, वरत, रामायन, गनेश, बरहमन, सभापती, आचारिया नरेंदर देओ. अगर किसी को संदेह हो तो सुन ले रेडियो के हिन्दुस्तानी माहिरों का उच्चारण !”

बात यहाँ तक नहीं रुकी. गाँधीजी ने इस नियम को स्वीकृति दी कि ‘हिन्दुस्तानी’ अपनाने में उर्दू-बहुल क्षेत्रों पर यह बाध्यता नहीं होगी कि वे दोनों लिपियों का सिद्धान्त अपनाएं. वे नहीं चाहेंगे तो उन्हें देवनागरी सीखनी नहीं पड़ेगी. मगर हिन्दी-बहुल इलाक़ों में नागरी और उर्दू दोनों लिपियाँ सीखना ज़रूरी होगा. इसी तरह उर्दू-बहुल क्षेत्रों में उनका ‘मतरूकवाद’ भी मंज़ूर होगा — यानी उनके हिन्दी-अज्ञान और हिन्दी न सीखने की उनकी दृढ़-प्रतिज्ञा का भी सम्मान रखा जाएगा.

ये उर्दू-बहुल क्षेत्र थे कौन से, यह जानना बहुत ज़रूरी है. ये थे पंजाब, सिंध और सीमा-प्रान्त !

मतलब साफ़ है. ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा पाकिस्तान बनाये जाने की रिहर्सल सिद्ध हुई. और बापू कह रहे थे पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा ! यह लाश 30 जनवरी, 1948 तक कहीं नज़र नहीं आई जबकि पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 को ही वजूद में आ चुका था — लाखों लोगों के रक्त की बाढ़ में तैरते पनीर के टुकड़े की तरह !!

भाषा केवल एक उदाहरण है जिसमें ‘महात्मा’ के स्थान पर ‘मौलाना गाँधी’ कहने की इस पुरज़ोर सिफ़ारिश के बाद गाँधीजी की और पड़ताल करना कुछ और भी सरल हो जाता है.

1915 में गाँधीजी दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटे तो सर ए. ओ. ह्यूम, दादाभाई नौरोजी और दिनशा वाचा द्वारा स्थापित कांग्रेस अङ्गरेज़ों और भारतीयों के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य को लेकर सक्रिय थी. इसमें दो तरह के मिजाज़ काम कर रहे थे. एक वे जो शांति के साथ अंग्रेज़ों से बात करने के विश्वासी थे ताकि उनके साथ मिलकर सरकार बनाई जा सके. इनमें गोपालकृष्ण गोखले और मोतीलाल नेहरू जैसे लोग थे. इन्हें कांग्रेस का ‘नरम दल’ कहा जाता था.

दूसरे वे लोग थे जो शुद्ध रूप से अंग्रेज़ों से मुक्त होकर अपनी सरकार बनाना चाहते थे. इनमें बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिनचन्द्र पाल प्रमुख थे जो ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से जाने जाते थे. इन्हें ‘गरम दल’ के ख़िताब से नवाज़ा गया था क्योंकि ये कहते थे ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा’.

गाँधीजी ने कांग्रेस की बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और शीघ्र ही उनके विचारों, अनुभवों व जानकारी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरु कर दिया. अब यह कल्पना करना हमारे लिए कठिन नहीं है कि यह प्रभाव नरम दल के लिए अधिक अनुकूल सिद्ध हुआ. गोखलेजी को गाँधीजी ने अपना राजनैतिक गुरु माना और आगे चलकर उनका अर्थव्यवस्था-सम्बन्धी ज्ञान गाँधीजी के बहुत काम आया. गरम दल धीरे-धीरे कांग्रेस से विदा हो गया. 1915 में ही गोखलेजी के देहान्त के बाद कांग्रेस पर मोतीलाल नेहरू और गाँधीजी का वर्चस्व स्थापित हो गया.

गाँधीजी के ये विचार और अनुभव क्या थे ?

अमेरिकी गृह युद्ध के बाद के विचारकों में एक प्रमुख नाम था हेनरी डेविड थोरो जिन्हें सँवारा था राल्फ़ इमर्सन नामक बड़े विचारक ने. थोरो चाहते थे कि वह जीवन के केवल बेहद ज़रूरी तथ्यों से सरोकार रखने वाला जीवन जीयें. ऐसा न हो कि मृत्यु की घड़ी में उन्हें आभास हो कि जीवन तो उन्होंने जीया ही नहीं. उनकी इस चिंता का समाधान दिया उन्हें इमर्सन ने. मेसाशुशेट के कोंकोर्ड में जंगलों की अपार शांति के बीच इमर्सन की जो संपत्ति थी वहाँ ‘वॉल्डन’ नामक तालाब के किनारे थोरो एक छोटी-सी कुटिया छाकर रहने लगे. यहाँ से उनका ‘सादा जीवन’-सिद्धान्त निकला.

कुछ समय बाद थोरो से सैम स्टेपल्स नाम का सरकारी अधिकारी टकरा गया जिसका काम था लोगों से टैक्स वसूलना. स्टेपल्स ने थोरो को बताया कि उन्होंने पिछले छः वर्ष से ‘चुनाव-टैक्स’ (प्रतिव्यक्ति कर) नहीं भरा है क्योंकि वह अपने स्थान से ग़ायब रहे हैं. वह टैक्स उन्हें अब देना पड़ेगा.

थोरो ने यह टैक्स देने से इनकार कर दिया. लिहाज़ा उन्हें एक रात के लिए हवालात में बन्द कर दिया गया. यहाँ से निकला थोरो का ‘सविनय अवज्ञा’-सिद्धान्त जिसके अनुसार व्यक्ति अपने तईं अन्याय करने वाली सरकार के नियम मानने से इनकार करने का हौसला दिखाये.

महान् रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय ने ‘सादा जीवन’ और ‘सविनय अवज्ञा’ के ये दोनों सिद्धान्त थोरो से ग्रहण किए. दक्षिण अफ़्रीका में अपने ‘तोल्स्तोय फ़ार्म’ पर रहते हुए गाँधीजी ने ये दोनों सिद्धान्त तोल्स्तोय से प्राप्त किए. गाँधीजी का ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सन्देश यहीं से आरम्भ हुआ.

भारत में इन सिद्धान्तों ने लोगों के मन पर गहरी छाप छोड़ी. थोरो की ‘सविनय अवज्ञा’ व्यक्तिगत स्तर पर थी जबकि एक कुशल वकील होने के नाते गाँधीजी यह जानते थे कि क़ानून की हद में रहकर ही सरकार से भिड़ा जाना चाहिए. इस तरह उन्होंने सरकार की तरफ़ मुँह करके ख़ुद को सुरक्षित कर लिया. बहुत सोच-समझकर ‘सविनय अवज्ञा’ को ‘जन-आन्दोलन’ बनाने की प्रेरणा उन्होंने मार्क्सवाद से ग्रहण कर ली और पीठ की तरफ़ से भी सुरक्षित हो लिये.

इस सब में गाँधीजी का अपना क्या था ? एक चतुर भ्रमर की भाँति विभिन्न पुष्पों से अपने काम का तत्त्व ग्रहण करने की कला उनकी अपनी थी ! इस तरह कुछ ऐसा हुआ कि ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बड़े-से-बड़ा जन-आन्दोलन गाँधीजी ने छेड़ा, महात्मा कहलाये, राष्ट्र-पिता बने, सरकार को चुनौती देने का साहस दिखाया, सब कुछ किया — मगर अपने को बचा-बचाकर किया. उनके ख़ासमख़ास मोतीलाल नेहरू — एक और कुशल वकील — यों भी सरकार के दुलारे थे ही — ‘क़ौम के ग़म में खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ’ ! किसी भगतसिंह या सुभाषचन्द्र बोस की तरह गाँधीजी ने अपने को कभी किसी बड़े संकट में नहीं डाला. अंग्रेजों की सुरक्षित जेल में उनकी ‘अवज्ञा’ को सुभीता था. क़ानूनन उन्हें आग़ाखाँ महल वगैरह में ऐसी जेल ही दी जा सकती थी. गाँधी और नेहरू अगर वीर सावरकर से ज़्यादा बड़े देशभक्त थे तो उन्हें क्यों नहीं सर आग़ाखाँ पैलेस की जगह कभी काला पानी मिला?

वकील किस तरह राजनीति को पथभ्रष्ट करते हैं, कर सकते हैं, गाँधीजी का सिद्ध किया वह आदर्श हमारे देश में आज अडिग परम्परा बनकर स्थापित हो चुका है !

‘गरम दल’ कांग्रेस से विदा हुआ तो गाँधीजी को कोई कष्ट नहीं हुआ. जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई तो गाँधीजी को बुरा नहीं लगा. ये क्रान्तिकारी देश का ‘ब्रिटिश’ क़ानून जो तोड़ रहे थे ! केशव बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेसी नेता के रूप में 1921 के असहयोग आन्दोलन में गिरफ़्तारी दी और 1925 में कांग्रेस छोड़कर ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना करने के बावजूद गाँधीजी के 1930 के नमक-आंदोलन में शामिल हुए, उनके कांग्रेस का त्याग कर देने पर भी गाँधीजी को तकलीफ़ नहीं हुई. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस से निकलने का फ़ैसला किया तो शायद बापू ख़ुश ही हुए होंगे. हाँ, दोनों विश्वयुद्धों में ‘सरकार’ को सहयोग देकर, ब्रिटिश फ़ौजों के लिए भर्ती करवाकर अपने ‘अहिंसा’ के ‘उसूल’ पर प्रश्नचिह्न लगवाकर भी राष्ट्रपिता को कुछ फ़र्क नहीं पड़ा. लेकिन जब मुहम्मद अली जिन्नाह कांग्रेस से अलग हुए गाँधीजी की रातों की नींद ख़राब हो गई. एक बार बकरा खा ही चुके थे जो रात भर पेट में मिमियाता रहा था, तब भी नींद ख़राब हुई थी.

मौलाना गाँधी के हिंदुई मुसलमानों से इस रिश्ते को भी भली भाँति खंगालना बनता है.

मुहम्मद अली जिन्नाह कांग्रेस के ‘नरम-दल’ का हिस्सा थे. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शिक्षा-जगत् से सर सैय्यद अहमद ख़ान की सरपरस्ती में पैदा हुई ‘मुस्लिम लीग’ में जिन्नाह को कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. उनकी ज़्यादा रुचि थी अपनी वक़ालत में और अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने की नरम-दल कांग्रेसी कोशिशों में. लीग द्वारा प्रचारित मुसलमानों के अलग निर्वाचन-क्षेत्र के भी वह पक्षधर नहीं थे.

पहले विश्वयुद्ध में इंग्लैंड की जीत के बाद जर्मनी का साथ देने वाले उस्मान ख़लीफ़ा वाले तुर्की के लिए मुश्किल पैदा हो गई थी. दुनिया भर के मुसलमानों की तरह हिंदुस्तान के मुस्लिमों को भी तुर्की की ‘खिलाफ़त’ को सुरक्षित रखने की चिंता हुई और भारत में खिलाफ़त-आन्दोलन शुरू हुआ. जिन्नाह ने इस आंदोलन में भी दिलचस्पी नहीं ली, हालांकि अब वह मुस्लिम लीग में आ चुके थे. उनका कहना था हमें भारतीय मुसलमानों पर ध्यान देना चाहिए, तुर्की की ‘खिलाफ़त’ से हमें क्या लेना-देना.

इधर मौलाना गाँधी के क़ानूनी मन में एक पत्थर फेंक कर दो चिड़ियों को एक साथ चौंका देने का विचार आया. भारत का खिलाफ़त-आन्दोलन एक तरफ़ अंग्रेज़ों पर दबाव बनाने का अच्छा मौक़ा हो सकता था, तो दूसरी ओर यही अवसर था कि लीग के मुक़ाबले में हिंदुई मुसलमानों का दिल जीत लिया जाए. मुसलमानों का भी नेता बन जाया जाए.

गाँधीजी ने खिलाफ़त-आन्दोलन को कांग्रेस के समर्थन की घोषणा कर दी. जल्दी ही जिन्नाह को भी गाँधीजी को यह मौक़ा बख़्शने की भूल का अहसास हो गया. इस तरह कांग्रेस का नरम दल छोड़ने वाले जिन्नाह मुसलमानों के ‘गरम-दल’ में तब्दील हो गए !

जिन्नाह और मौलाना गाँधी की उड़ती नींदों ने यहीं सात फेरे ले लिए !

वह दिन और आज का दिन, हिंदुस्तान का मुसलमान अपना नेता किसे कहे इसी संभ्रम में चकराया बैठा है.

मौलाना गाँधी तो मुसलमानों के नेता नहीं बन पाये, जिन्नाह की भी इकलौती मुस्लिम-लीडरी स्थापित नहीं हो सकी. जिन्नाह और दूसरे मुसलमानों से गाँधीजी की यह लालसा छिपी न रही कि देश को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवाते समय मुग़ल पकड़ से भी छुटकारा दिलाना है. वह दिल से चाहते थे कि स्वतन्त्र भारत मुसलमानों सहित एक आदर्श लोकतान्त्रिक राज्य बने — जो राम-राज्य हो ! उस समय तक यह स्पष्ट नहीं था कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में उन पाँच-सात सौ राजे-रजवाड़ों का क्या स्वरूप होगा जो तब ब्रिटिश राज के झंडे तले अनुस्यूत थे. गाँधीजी को डर था ऐसा न हो अंग्रेजों से छूटें और एक केंद्रीय सत्ता के रूप में फिर मुसलमानों की बादशाहत के चंगुल में आ जाएं और हिन्दू हमेशा की तरह बिखरा-बिखरा ही रह जाए !

गाँधीजी को अपने वकीली कौशल पर इतना भरोसा था कि जैसे वह अंग्रेज़ों के सामने क़ानूनन डटे रह सके, वैसे ही प्रार्थना सभा, ईश्वर-अल्ला तेरो नाम और हिन्दुस्तानी भाषा जैसी ‘उदारता’ से मुसलमानों को भी समझा लेंगे. ऐसा हो न सका. हिन्दी, देवनागरी, गाय, राम-राज्य जैसे गाँधी-उद्गारों के सामने जिन्नाह जैसे मोहभंग से गुज़रे मुस्लिम-नेता एक आम मुसलमान का यह अहसास ज़िन्दा रखने में कामयाब रहे कि हिन्द के बादशाह तो मुसलमान ही हैं. अगर नहीं तो अलग मुस्लिम देश ही एक रास्ता है ताकि हिन्दू लोग मुसलमानों को परेशान न कर सकें. वे कैसे कहते कि लोभ या भयवश धर्म-परिवर्त्तन कर लेने वाला हर आदमी शाही-खानदान का नहीं हो जाता ! मौलाना गाँधी की ऐसा कहने की हिम्मत न हुई क्योंकि मुसलमानों को लेकर साफ़-साफ़ कुछ कहने की अनुमति उनकी वकीली अक्ल देती नहीं थी.

किसी एक महानायक के होने से समाज को बहुत से लाभ रहते हैं. हम भारतीयों के स्वभाव में विशेष रूप से ऐसा है कि कोई करने वाला मिल जाए तो हम जी-जान से उसके पीछे हो लेते हैं. महाभारत-युग में हमने श्रीकृष्ण को ऐसे ही महानायक के रूप में देखा था. इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि श्रीकृष्ण के एक अवतारी पुरुष के रूप में स्थापित होने में उनके गुण जितने ज़िम्मेदार थे, जन-साधारण का जी-जान से अपने नायक के पीछे चल देने का गुण भी श्रेय का कम अधिकारी नहीं था. श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण बनाना ईश्वर का काम था या नहीं, मालूम नहीं, मगर भारतीय जन-जन का काम ज़रूर था. श्रीकृष्ण हों कि गाँधी, या फिर भले आज के मोदी, हम ‘We, the people’ को कभी न भूलें!

गाँधी की आँधी जो बीसवीं सदी में चली उसका हश्र यह हुआ कि हमारे मौलाना गाँधी हिन्दू और मुसलमान दोनों से मिले श्राप के कारण उस दिन कोलकाता (तब का कलकत्ता) में अनशन करते हुए खटिया पर पड़े थे जिस दिन उनका प्रिय जवाहरलाल अंग्रेज़ों से भी बढ़िया अङ्ग्रेज़ी में Tryst With Destiny वाला अपना भाषण दे रहा था और ‘बापू के बिना तिरंगा नहीं फहरेगा’ कहने की जिसके पास फ़ुरसत नहीं थी. परिणाम यह हुआ कि गाँधीजी इस देश को हमेशा के लिए एक नायक-विहीन समाज दे गए. नायक-विहीन समाज के सामने बहुत-से ख़तरे रहते हैं और आज का भारत उन्हीं ख़तरों के थपेड़ों में हाथ-पाँव मारता हुआ जैसे-तैसे तैर ले रहा है.

माँ-बाप के लाड़-प्यार से बिगड़े बच्चों को सबने देखा है. मगर राष्ट्र-पिता को जन-जन के लाड़-दुलार-विश्वास से बिगड़ते केवल बीसवीं सदी के भारत ने देखा है. सबने जिस बेतरह महात्माजी के हर आदेश को माना उसके नतीजे में जब कोई न माने तो अनशन की ज़बरदस्ती से मनवाने का हथियार इन बिगड़े हुए पिता के पास था. उन्हें भरोसा था कि मौलाना गाँधी होने में कोई अड़चन आएगी तो इस हथियार का इस्तेमाल कर लूँगा और देश का बँटवारा नहीं होने दूँगा. राष्ट्रपिता का वह हथियार अब बात-बिना बात के सत्याग्रहों और हड़तालों के रूप में हमारे सिरों के ऊपर मण्डराया करता है.

अफ़सोस कि गाँधीजी जीवनभर सत्य के प्रयोग करते रह गए और जिस दिन सत्य तक पहुँचे भी तो बहुत देर हो चुकी थी. जिन्नाह को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, उनका यह प्रस्ताव भी किसी काम न आया. अनेक इतिहासकारों ने इसे एक पराजित ‘बूढ़े फ़कीर’ की गाथा की तरह देखने की कोशिश की है. शायद इसीलिए 1960 का दशक आते-आते एक कहावत चल पड़ी थी — “मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी”.

1982-83 में कभी रिचर्ड एटनबोरो की फ़िल्म ‘गाँधी’ के आने के साथ ही गाँधी-गो लोगों ने फिर करवट ले ली और सब तरफ़ एक बार फिर ‘गाँधी-गाँधी’ होने लगा. यह आज तक पता नहीं चल पाया ये ‘गाँधी-गाँधी’ कर रहे लोग गाँधीजी से प्रभावित हैं या रिचर्ड एटनबोरो से ! कहावत के आसमान से गिरे तो एटनबोरो के खजूर में अटके!!

कुछ भी हो, आने वाले किसी भी युग में भारत की जब भी बात होगी गाँधीजी को छोड़ हो न सकेगी. सत्य के प्रयोग करते-करते सो जाने वाला यह बूढ़ा फ़कीर एक काम तो हम लोगों के लिए कर ही गया है. जिस तरह कुशल गृहिणियाँ जानती हैं कच्चे आम का मौसम हमेशा नहीं रहता. वे केरी के अचार से मर्त्तबान भर-भर कर रख लेती हैं ताकि आने वाले वक़्तों में काम आए. उसी तरह गाँधीजी ने भारत-राष्ट्र को लेकर शायद ही कोई चिंता हो जिस पर अपना चिन्तन मुखर न किया हो — स्वराज्य और अहिंसा से लेकर राष्ट्र, राम-राज्य, और पंचायत तक; जाति-व्यवस्था और धर्म से लेकर स्वच्छता, दलित, महिलाएं और प्रशासन तक. उन्हें लगता रहा सत्य के प्रयोगों का यह मौसम कभी-न-कभी तो बीतेगा. तब प्राप्त सत्य के मर्त्तबान काम आएंगे. वह सब किताबों में है पर एक भी बात किताबी नहीं है. ‘महात्मा’ से मौलाना’ के बीच का सफ़र गाँधीजी ने जितना सोचा था उतने से कहीं ज़्यादा लम्बा निकला — और अन्ततः निरर्थक भी. इसने ख़ुद गाँधीजी को अपने पाये सत्य को जी पाने का समय नहीं दिया. फिर भी वे सत्य हमारे लिए pre-cooked tinned food की तरह उपलब्ध हैं. बेईमान गाँधीवादी हमें उनका आस्वादन नहीं करने देंगे.

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और तकनीकी विज्ञानवाद के इस युग में एक बात तो तय है. हमारा साबिका अब सूक्ष्म से नहीं स्थूल से पड़ता है. बन्द टिन को खोलने में स्थूल ही काम आयेगा. यहाँ इस्लाम एक उदाहरण की तरह हमारे लिए सहायक सिद्ध हो सकता है. अरबिस्तान की बर्बर जातियों के मनों में कभी ‘अल्लाहो-अकबर’ की स्थूल हुंकार ने अध्यात्म जैसे सूक्ष्म का ताला खोल डाला था. गाँधीजी के उपलब्ध सत्य का बन्द डिब्बा खोलने और देश के काम में लाने के लिए एक ठोस किस्म का ‘राष्ट्रवाद’ अपनी पूरी कट्टरता के साथ एकमात्र सटीक औज़ार हो सकता है. आज बहुत लोग कहते हैं कि हमें किसी से देशभक्त होने का सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए. मगर सच यह है कि गाँधीजी निश्चित रूप से सही अर्थ में ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें किसी से राष्ट्र-भक्ति के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं. राष्ट्र-भावना की स्थूल तीव्रता के बिना महात्मा गाँधी 15 अगस्त, 1947 के पहले वाले मौलाना गाँधी होने पर ही रुक कर रह जाएंगे.

कोई क्योंकर भूले कि इन मौलाना गाँधी को दुलत्ती खाकर देश-विभाजन भी देखना पड़ा और स्वातंत्र्य के प्रथम ग्रास में अपने हाथों जवाहरलाल नामक मक्षिका-पात कर वह ग्रास निगलना भी पड़ा.

व्यक्ति-पूजा वाला यह ‘आँख-बन्द’ गाँधीवाद किस काम का?

केवल इस काम का कि सरकार का मतलब ‘गोरा साहब’ (जवाहरलाल) और गाँधी का अर्थ अवज्ञा! अब आज़ादी है तो ‘अविनय’-अवज्ञा — फ़्रीडम ऑफ़ एक्स्प्रेशन!!

गाँधीजी के मर्त्तबान में यह इस तरह नहीं मिलेगा!

हम राष्ट्र से जुड़कर चखें तो सही!!

गाँधीजी की क्या किसी की भी हत्या करने में नाथूराम गोडसे क़ानूनन उतना ही अपराधी होता. क़ानून ने उसे दण्डित भी किया. वह हर हाल में एक भावुक और कट्टर देशप्रेमी तो था ही. उसका अपराध हत्या का था, ‘महात्मा’ की ‘मौलाना’-असफलता को रिजेक्ट कर देने का नहीं. मौलाना गाँधी को नकार तो कांग्रेसियों ने ही दिया था!

अर्थहीन गाँधी-भक्तों की सुनने के पहले उन्हें ठोक-बजाकर परख लेना चाहिए. जो बहुत ‘गाँधी-गाँधी’ करे उसके गाल पर ज़न्नाटेदार थप्पड़ जड़ देना चाहिए. वह दूसरा गाल आगे करे तो समझ लीजिए गाँधीवादी है. पलटकर जवाब देने चले तो जान रखिए गोडसे-वादी है !

गाँधी-गाँधी सब करें, गाँधी बने न कोय.

थप्पड़ पड़े जो गाल पर, तुरत गोडसे होय.

अल्लाहो-अकबर !!!

11-12-2019