सनातन की शक्ति


मायामयमिदमखिलं हित्वा

—- आदि शंकराचार्य

अखिल जगत् मायामय है, इस सत्य को आत्मसात करने में एक-जैसे लगने वाले तीन शब्द सहायक हैं — विद्या, विवेक और ज्ञान.

हमारे आध्यात्मिक वाङ्मय में इस मायामय जगत् को त्रिगुणात्मक कहा गया है — तमस, रजस और सत्व से परिपूर्ण. त्रिगुण के द्वारा बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति! चारों ओर फैल जाने के लिए महामाया ज्ञानियों को भी बलपूर्वक आकृष्ट कर लेती है और वे मोह से भर जाते हैं.

इन तीन गुणों में से रजोगुण से जगत् क्रियाशील होता है और संसार गति करता है.

तमोगुण को हम कालिमा की तरह देखकर उसकी निन्दा करते हैं. ‘तम’ शब्द अन्धकार के अर्थ में इसी से निकला है. जबकि तमस का भाव केवल inertia होना चाहिए. बहुत काम करते-करते जो श्रम हो जाता है उस थकन में हम विश्राम करना चाहते हैं. कभी-कभी तो आलस्य में देर तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं. मेरी समझ से यही तमोगुण है. तमस भी आनन्द लेने जैसी चीज़ है.

सत्व तीनों गुणों में श्रेष्ठ कहा गया है. क्योंकि यह सन्तुलन है. रजस और तमस के बीच का सन्तुलन. कब कितना काम करना है और कब कितना आराम करना है, इसका सन्तुलन ही निसर्ग में व्याप्त सत्व है.

त्रिगुण को जानने की कला ‘विद्या’ है. विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं माता सरस्वती.

इन तीनों गुणों को सत्वपूर्वक जीवन में उतारना विवेक से होता है. विवेक न हो तो असन्तुलन हो जाता है. विवेक के स्वामी हैं गणपति.

त्रिगुणातीत को जानना और त्रिगुण के परे जा पाना ज्ञान है. कहते हैं बुरे कर्म करने पर नरक मिलता है और सत्कर्म करने पर स्वर्ग. कर्म-गति भोग लेने पर हम नरक से मुक्त हो जाते हैं. किन्तु स्वर्ग भी तो छूट जाता है!

अत: ज्ञान में हम जान लेते हैं कि जिस प्रकार नरक दुष्कर्म का दण्ड है, स्वर्ग भी उसी प्रकार और कुछ नहीं, सत्कर्म का दण्ड है!

ज्ञान के देवता हैं मारुति श्री हनुमान्.

कलियुग में इन तीन की उपासना पर्याप्त है — कलौ काली विनायकौ पवनसुतञ्च.

(काली दश महाविद्याओं में प्रथम हैं. इन दस में एक महाविद्या हैं महासरस्वती.)

ये तीन देवी-देवता पंचतत्व के प्रति धनात्मक (positive, सकारात्मक, स्वीकारात्मक) दृष्टि से सक्रिय होते हैं.

धरती न केवल हमारा आधार है, अत्यन्त सहनशील व क्षमामयी अन्नपूर्णा भी है. भूदेवी है.

हमने भूमि को देवत्व प्रदान किया.

जल न केवल पिपासा शान्त करता, स्वच्छ बनाता, बल्कि अत्यन्त शक्तिशाली भी है. उसे शक्ति का अभिमान नहीं, गन्तव्य का ज्ञान है. कितनी रुकावटें आयें सबको पार करता हुआ सागर तक पहुँच ही जाता है. कभी नदी की धारा बनकर, कभी वर्षा की बूँद की तरह! गन्तव्य तक पहुँचने के लिए छोटे-बड़े सभी प्रयास अभिप्रेत हैं, ऐसी घोषणा करता हुआ.

हमने जल को देवत्व प्रदान किया.

वायु जीवन-श्वास है और अतुलनीय शक्ति भी. मारुति हनुमान व भीमसेन जैसे पुत्र पाने की क्षमता केवल वायु में है. झंझावात के विनाश में पवन की शक्ति का गर्व नहीं, जीव के कर्मफल का दृश्य है. बल की मदान्धता से विलग पुष्प की सुगन्ध के संवहन का सुकोमल कार्य करता हुआ वायु शक्ति में विनय की उपस्थिति की सूचना है.

हमने वायु को देवत्व प्रदान किया.

अग्नि चाहे कुंड में हो या फिर जठर में, सब तरह वह यज्ञ है. हमने उसे नाम दिया पावक! जो पवित्र करे!

हमने अग्नि को देवत्व प्रदान किया.

अपनी व्यस्तताओं से घिरे हम सुदूर आकाश को अपलक निहारते हैं. असंख्य तारकों से समृद्ध हुए सौन्दर्य से रोमांचित होते हैं. लगता है, हमारे मेलों की तरह वहाँ भी एक उत्सव है.

किन्तु आकाश नितान्त अकेला है!

जहाँ कुछ नहीं होता, कोई पदार्थ नहीं, वस्तु नहीं, व्यक्ति नहीं, पंचतत्वों में से अन्य चार तत्त्व भी नहीं, वहाँ भी आकाश होता है! अपने खालीपन के साथ! नितान्त अकेला!!

आकाश अकेलेपन की पराकाष्ठा है!!

प्रकाश की कोई किरण हमें आकाश के इस एकान्त से उपलब्ध होती है.

आकाश की इस एकान्त साधना से हमने समाधि प्राप्त की.

हमने आकाश को देवत्व प्रदान किया.

इस तरह हमने सबसे बड़ी ‘नर्त्तकी’ माया को समझा.

और उसे पलट दिया.

न र्त्त की ~ की र्त्त न !!

भजगोविन्दम्.

03-अक्तूबर-2023

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