राम


दीपावली पर लक्ष्मी-पूजन करते हुए एक विचार मेरे माथे पर तिलक कर गया.

          जिन श्रीराम की बदौलत मैं दीपावली मना रहा हूँ, उनकी व्याख्या करनी हो तो कैसे करूँ?

            विचार को उलटा-पलटा, तराशा, जाँचा-परखा तो पाया, श्रीराम अव्याख्येय हैं !

          ‘कैसे’ या ‘क्यों’ — यह जानने के लिए ऋग्वेद से शुरु करना होगा.

          ‘नासदीय सूक्त’ ने कहा है – ‘सृष्टि से पहले कुछ नहीं था, सत भी नहीं’. (सत यानी जो है, जो हो सकता है, वह भी नहीं था!) – नासदासीन नो सदासीत तदानीम् नासीद…..किमासीद गहनम् गभीरम् !!

          हमारी  कल्पना से बाहर है कि ‘कुछ नहीं था’ से क्या अभिप्राय है. ‘कुछ नहीं’ से हम अधिक-से-अधिक यह सोच पाते हैं कि और कुछ नहीं था, न कोई ग्रह-उपग्रह, न नक्षत्र, और न कोई सौरमण्डल, न उसकी कोई पृथ्वी, न पृथ्वी के प्राणी, मनुष्य, वृक्ष-वनस्पतियाँ, कुछ भी नहीं!

          बस एक खाली-खाली शून्याकाश था.

          तब किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर?

          वास्तव में मात्र इतना नहीं!

          कुछ नहीं का मतलब कुछ नहीं! खाली-खाली शून्याकाश भी नहीं. कोई शून्य भी नहीं था.

          हमारी कल्पना से बाहर है कि शून्य भी नहीं तो क्या?

          तथापि बात यही है कि कुछ था ही नहीं. कुछ नहीं का मतलब कुछ भी नहीं.

          वैदिक ऋषि ने ही नहीं, आधुनिक ऋषि आइन्स्टाईन जैसे वैज्ञानिक ने भी कहा है – यह सृष्टि कहाँ से और कैसे शुरु होती है, कहाँ और कैसे पूरी होती है, यह हमारी कल्पना से बाहर है!

          ‘कुछ नहीं’ के शून्य को कहा गया ब्रह्म. आइन्स्टाईन ने, न्यूटन ने भी, इसे कहा  — इंटेलिजेंस (intelligence) — मनस्-शक्ति? — जो अदृश्य रहकर ग्रह-नक्षत्रों को चलाती है. यद्यपि आत्म-तत्त्व मनस्-शक्ति को भी नियन्त्रित-परिचालित कर रहे ब्रह्म की तरह देखा गया है.

          वेदों के समास-रूप का व्यास-रूप, अर्थात् उनकी व्याख्या हैं हमारे पुराण. पुराणों ने , प्रमुख रूप से ‘श्रीमत् भागवत पुराण’ ने सृष्टि की उत्पत्ति, अर्थात् ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ होने की प्रक्रिया बतायी है.

          इस ब्रह्म (इंटेलिजेंस) ने कभी यह विचार किया – ‘एकोहम् बहुस्याम् !’ —  मैं एक हूँ, अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ !! तैत्तिरीय उपनिषद् ने इस उक्ति का अर्थ किया है,  वह एक तत्त्व बहुत तरह से स्वयं को व्यक्त करता है.

          बहुत हो जाने की इच्छा से इस इंटेलिजेंस (ब्रह्म) ने अपनी स्वयं की माया से अपने स्वयं के स्वरूप में  इन तीन का होना ‘स्वीकार’ किया – काल, कर्म और स्वभाव. त्रिगुणातीत ब्रह्म के ‘न होने’ से ‘होने’ में बदलते ही सत्व, रज और तम– ये तीन गुण भी हो गए. ‘काल’ का काम हुआ इन तीन गुणों में क्षोभ उत्पन्न करना, अर्थात् उन्हें सक्रिय करना. ‘कर्म’ ने इन गुणों के महत्व को जन्म देना आरम्भ किया. पंच तत्त्व  — आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी त्रिगुण के ‘महत्व’ का ही परिचय हैं. ‘स्वभाव’ का काम है इन तीन गुणों में काल-क्रम में उत्पन्न हुए क्षोभ को भौतिक रूप से ‘हो जाने’ में रूपान्तरण देना.

          इस प्रक्रिया में उत्पन्न हुआ महत्तत्त्व, अर्थात् सृष्टि-क्रम में अहंकार की उत्पत्ति. अहंकार से सोलह पदार्थों की उत्पत्ति हुई – पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच ‘तन्मात्र’. पंचभूतों का आदिरूप हैं तन्मात्र. कहने का तात्पर्य है आकाश महाभूत को लें तो उसका तन्मात्र है शब्द. आकाश शब्द से उत्पन्न हुआ, क्योंकि आकाश का गुण है शब्द. फिर शब्द और स्पर्श इन दो तन्मात्राओं से वायु की उत्पत्ति हुई. शब्द और स्पर्श दोनों ही वायु के गुण हैं. तीन तन्मात्राएं – शब्द, स्पर्श और रूप से अग्नि की उत्पत्ति हुई. ये तीनों अग्नि के गुण हैं. शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्र से जल नामक महाभूत उत्पन्न हुआ. स्पष्ट है कि शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चारों गुण जल का चरित्र हैं. पाँचवाँ महाभूत है पृथ्वी जिसके पाँच गुण (उत्पन्न करने वाले तन्मात्र) हैं  — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध!!

          यह सब अव्याख्येय की यथासम्भव सम्भाव्य व्याख्या है.

          श्रीराम के लिए कहा गया है – रम्यतेनेन इति! इस सम्पूर्ण अव्याख्येय के कण-कण में जो रम रहा है सो ‘राम’ !

          कण-कण में रम रहे इन श्रीराम की सबसे सरल, सहज-गम्य और सबकी जानी-मानी व्याख्या है – अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश के सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र दाशरथि राम! भगवान् विष्णु के सातवें अवतार श्रीराम. भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के भ्राता श्रीराम. आद्याशक्ति श्रीसीता के पति श्रीराम. वह श्रीराम जिनके विभिन्न नाम उच्चारण करते ही पूरी रामकथा ध्यान में आ जाती है – अवधेश, रघुपति, राघव, रघुराज, रघुवीर, रघुनाथ, रघुनन्दन, रघुनायक, रघुकुलमणि, रघुवर, खरारि, ताड़कारि, रावणारि, दशकण्ठारि, लंकारि, दशरथसुत, दाशरथ, कमलेन्द्र, कौशल्यानन्दन, सीतापति, सीतानाथ, सीतारमण, सीतावल्लभ, सियावर, रामचन्द्र, रामभद्र श्रीराम ! मर्यादापुरुषोत्तम  कहे गए श्रीराम. शील, शक्ति और सौन्दर्य की पराकाष्ठा श्रीराम, ‘कन्दर्प अगणित’ श्रीराम. समाजवाद और लोकतन्त्र का सर्वोच्च व परिपूर्ण आदर्श ‘राम-राज्य’ स्थापित करने वाले श्रीराम ! ‘राम-राज्य’ अर्थात् लोकमंगल का चरमोत्कर्ष श्रीराम !!

          ‘आदर्श’ का अर्थ है दर्पण.  दर्पण में हम स्वयं को निहारते हैं. मेकअप करते हैं. कहीं कोई दाग-धब्बा, झाईं हो, कोई बदसूरती हो, उसे संवारते हैं. राम-राज्य वह दर्पण है जिसमें झाँककर प्रजातांत्रिक व्यवस्था लोक-प्रशासन में अपनी किसी भी ‘बदसूरती’ को सुधार सकती है.

एक अन्य प्रसंग में मैंने ‘रामायण’ की चर्चा ट्रेजेडी की तरह की थी. आदिकवि वाल्मीकि की ‘रामायण’ का पहला ही श्लोक – “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः; यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्” – इस महाकाव्य का एक ट्रेजेडी होना संकेतित करता है.  क्रौंच पक्षी के प्रेम-मग्न जोड़े में से एक को व्याध के बाण ने मार दिया है. दूसरा अश्रुपूरित है. कविवर सुमित्रानंदन पन्त को आदर देते हुए स्मरण करना होगा कि नि:सन्देह वियोगी  ही पहला कवि हो सकता था और जीवन की आह से निकला हुआ गान है ‘रामायण’. “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान !!”

किसी की दुःख-गाथा सुनकर जो हम कह उठते हैं कि “उसकी ‘राम-कहानी’ सुनकर आँख पसीज गई” –  लोक-व्यवहार में प्रचलित यह कथन भी निश्चय ही ‘रामायण’ के एक ट्रेजेडी होने की पुष्टि करता है.

आख्यानों में और साहित्य में ग्रीक ट्रेजेडी या फिर शेक्सपियर की ट्रेजेडी को श्रेष्ठ माना गया है. ये वास्तव में हैं भी अद्भुत. शेक्सपियर की चार ट्रेजेडी प्रमुख हैं — मैकबेथ, हेमलेट, ऑथेलो और किंग लीयर. चारों नाटकों में ये चारों चरित्र महानायक हैं. ये सभी शक्ति, वीरता व गुणों से सम्पन्न हैं. सब तरह से पूर्णता को स्पर्श करते इन महानायकों में कोई एक चारित्रिक कमी है जिसके कारण उनका भरा-पूरा जीवन दु:खान्त में समाप्त होता है. इस दोष को विद्वानों ने ‘ट्रेजिक फ़्ला’ अथवा ‘फ़ेटल फ़्ला’ (Fatal Flaw) कहा है. मैकबेथ अत्यधिक महत्वाकांक्षी है तो ऑथेलो सहज विश्वासी तथा तुरत-ईर्ष्यालु है. किंग लीयर अहंकारी है तो हेमलेट अपने वहम का शिकार होकर ज़रूरी कामों को टालता चला जाता है. बस यह एक दोष इन महानायकों के जीवन की इति जिस तरह ट्रेजेडी में करता है वह शेक्सपियर की कलम से अत्यन्त मर्म्मस्पर्शी होकर निकला है.

  नायक में ट्रेजिक फ़्ला की मौजूदगी पाश्चात्य जीवन-दृष्टि की परिचायक है. इससे भिन्न ‘रामायण’ के महानायक श्रीराम सर्वत: आदर्श-सम्पन्न व्यक्तित्त्व हैं. एक ट्रेजेडी की तरह विश्व की सभी ट्रेजेडियों में ‘रामायण’ इसलिए बीस है कि यहाँ ट्रेजिक फ़्ला की आवश्यकता ही नहीं है. जीवन की हर ट्रेजेडी के लिए नायक का एक सामान्य मनुष्य होना पर्याप्त है! ‘रामायण’ को मूल रूप में पढ़ने के बाद कौन न कहेगा कि श्रीराम के जीवन की एक-एक व्यथा सामान्य मनुष्य की ही कथा है? राम साक्षी हैं कि समय का व्याध जाने कैसे-कैसे तीर हम मनुष्यों पर छोड़ता चला आ रहा है !

          राम-कथा की बात हो तो गिनना मुश्किल है कि संसार की कितनी भाषाओं में कितने कवियों ने अपने-अपने अंदाज़ में रामायण लिखी है. कवि तुलसीदास का तो नाम ही हो गया ‘रामबोला’.

          कवियों का अनोखा साधन है छंद. ‘राम’ एक छंद का भी नाम है. एक अन्य छंद है ‘रामगीती’.

          कवि और काव्य ही क्यों, संगीतज्ञ भी कहाँ पीछे हैं? उन्हें राग  ‘रामकली’ उपलब्ध है, जिसे कुछ लोग ‘रामक्री’, ‘रामकरी’ या ‘रामकिरी’ भी कहते है. इसी तरह एक रागिनी है ‘रामटोड़ी’ या ‘रामतोड़ी’.  और तो और, राग हिण्डोल का एक पुत्र है राग ‘रामश्री’ ! एक प्रकार की वीणा वह वाद्य है जिसका नाम है ‘रामवीणा’.

          जीवन के भूगोल में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ राम न हों.

          मर्यादा पुरुषोत्तम यदि जीवन का उच्चतम स्तर है तो इसी जीवन में एक निम्नतम गर्त्त भी है. वे वारांगनाएं जिन्हें वेश्या, रण्डी, कुलटा, पतुरिया – जाने क्या-क्या कहकर लांछित किया जाता है. जिनके कुल, पिता, माता आदि का कुछ पता नहीं. उनके लिए नाम है – ‘रामजनी’ ! ऐसो को उदार जग माहीं, सिवा श्रीराम के, जो इन पतिताओं को भी अपना नाम दे दे, अशरण की शरण बन जाए?

          किसी भी असहाय, निराश्रित, बेबस व्यक्ति के लिए वैसे भी ‘रामजन’ संज्ञा हमारी भाषा में विद्यमान है.

           इन श्रीराम को लेकर दैनिक उल्लेख में आने वाले जाने कितने ही मुहावरे बन गए. कोई साधु-संन्यासी, विरक्त हो जाए तो उसे कहेंगे ‘रामशरण हो गया’. यों, ‘राम-शरण होना’ परलोकगमन के लिए भी प्रयोग होता है. श्मशान-यात्रा के समय ‘राम नाम सत्य है’ का उच्चार होता है.

          कोई बात ज्ञात न हो तो उसका मुहावरा है – ‘राम जाने’ ! अभिवादन के लिए तो हम ‘राम-राम’ कहते ही हैं. किसी से भेंट हो जाए तब भी कहते हैं – ‘उनसे राम-राम हो गई’. किसी को सन्देश भेजने के लिए ‘हमारी राम-राम कहना’ सहज अभिव्यक्ति है. किसी से पिण्ड छुड़ा लिया हो तब हम कहते हैं ‘राम-राम करके पीछा छूटा’! अपनी बात का विश्वास जमाने के लिए ‘रामकसम’ भी है.

          कुछ आनन्द-दायक हो तो उसके लिए हमारे पास शब्द है – रामक ! – “क्या रामक (रमणीक) दृश्य है” !! ‘राम्या’ का अर्थ है सुन्दर-मधुर रात्रि.

          लक्ष्मी, सीता, राधा, रुक्मिणी सभी ‘रामा’ कहलाती हैं.  किसी सुन्दरी स्त्री को यों भी ‘रामा’ कहना पर्याप्त होता है. ‘रामिल’ का अर्थ है कामदेव, या सुंदर पति.

          युद्ध में ‘रामचंगी’ नाम की एक तोप हुआ करती थी. कवि पद्माकर ने इसका उल्लेख किया है – “चलै रामचंगी धरा में धमकै”. धनुष को तो नाम ही मिल गया ‘रामायुध’.

          किसी बड़ी सेना को वानर-सेना की तर्ज़ पर ‘रामदल’ कहा जाने लगा.

          और ‘रामदूत’ कहते ही हनुमान् जी का ध्यान हो आता है. ‘रामसखा’ कहें तो सुग्रीव.

          इन प्रसंगों से अथवा अन्यथा शरीर में हो आये रोमांच को ‘रामांकुर’ कहा जाता है.

          युद्ध में अचूक रामबाण चिकित्सा  के क्षेत्र में ‘रामबाण औषधि’ हो गया.

          राम केवल रघुकुल के राम ही नहीं हैं. विष्णु के छठे अवतार परशुराम भी ‘राम’ हैं और भगवान् कृष्ण के दाऊ बलराम भी ‘राम’ हैं. इसलिए ‘रामजननी’ के तीन अर्थ हो गए – रामचन्द्र की माता कौशल्या, परशुराम की माता रेणुका, और बलराम की माता रोहिणी.

          कन्याओं के एक आभूषण का नाम है ‘रामझोल’ – यानी पाजेब. झूलना अथवा नथनी को भी ‘रामझोल’ कह देते हैं. उधर आकाश के आभूषण इंद्रधनुष को ‘रामधनुष’  कह दिया जाता है. इसी आकाश के सौंदर्य चन्द्रदेव को नाम मिला है ‘रामरतन’.

          रामानंदी साधुओं के माथे की सज्जा तीन खड़ी लकीरों वाले ऊर्ध्वपुंड्र तिलक को कहते हैं –‘रामफटाका’ ! तिलक करने की एक पीली मिट्टी है ‘रामरज’.

          ‘रामनामी’ एक चादर भी है और गले का एक स्वर्णिम हार भी है.

          ‘रामतारक’ कहें तो इसका अर्थ होता है वह मंत्र जो काशी में देह छोड़ने का पुण्य प्रदान करे. “ॐ रां रामाय नम:” ‘रामतारक’ मन्त्र है.

          वनवास के दौरान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मणजी और ‘रामतरुणी’ अर्थात् माता सीता के साथ वन-वन विचरते थे. घूमने-फिरने के लिए ‘रामति’ और ‘रामना’ शब्द यहीं से ध्वनि लेकर ‘रमण’ के अर्थ में प्रचलित हो गए जिनका उपयोग यदा-कदा ब्रजभाषा के कवियों ने किया – “एक समय कहुं रामति माहीं” और “एक समय रामन हितै कीन्हों कहूँ पयान”.

          हम भी यदि अपने वनों, खेतों, ग्रामों में रामना करें तो हमें क्या मिलेगा?

          कभी हम पहुंचेंगे ‘रामक्षेत्र’ नामक तीर्थ में, तो कभी पुराण-वर्णित ‘रामखण्ड’ में. पुराणों में एक और तीर्थ का उल्लेख है – ‘रामसर’. कभी हमें कन्नौज के पास ‘रामगंगा’ मिलेगी तो कभी ‘मेघदूत’ में उल्लिखित नागपुर के निकट स्थित ‘रामगिरि’ मिलेगा. इस स्थान को आजकल ‘रामटेक’ (रामतीर्थ) भी कहते हैं जहाँ श्रीरामचन्द्र का प्राचीन मन्दिर है. ‘रामशिला’ कहें तो यह गया तीर्थ की एक पहाड़ी का नाम है. इस पहाड़ी को भी तीर्थ माना जाता है. ‘रामपुर’ नामक नगर तो है ही, स्वर्ग अथवा वैकुंठ को भी ‘रामपुर’ कहकर आदर दिया जाता है.  साकेत धाम को ‘रामधाम’ कहते हैं, क्योंकि यहाँ स्वयं ईश्वर राम-रूप में नित्य विराजमान है.

          जहाँ सब किसी को भोजन मिले, जैसे गुरुद्वारों में लंगर की परम्परा है, उस ‘रामरसोई’ का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध ‘राम’ के नाम से है.

          बथुआ नाम का जो साग है, उसका एक नाम है ‘राम’. तेजपात को भी ‘राम’ कहते है. पाकर वृक्ष के फल का नाम है ‘रामअंजीर’. एक धान है ‘रामकजरा’. इसी प्रकार एक और धान है ‘रामबिलास’. ‘रामभोग’ एक चावल भी है और आम का एक प्रकार भी. एक स्वादिष्ट केले को‘रामकेला’ कहते हैं, और मिथिला व बंगाल में होने वाले एक उत्कृष्ट आम को भी ‘रामकेला’ कहकर हाथों-हाथ लिया जाता है. उड़द की पीठी से बनने वाला एक विशिष्ट पकवान है ‘रामचक्रा’. एक अम्लपर्णी बेल है ‘रामचना’. अजवायन के लिए एक शब्द है ‘रामजमानी’. दारचीनी को कहा गया ‘रामप्रिय’. नमक तो है ही ‘रामरस’. साँभर नमक हो तो ‘रामलवण’.

          पूर्वी भारत की छोटी नदियों के किनारे स्वादिष्ट फल देने वाली जामुन का नाम है ‘रामजामुन’. सामान्य जौ से कुछ बड़े  दानों वाली एक जौ है ‘रामजौ’. अखरोट है ‘रामठ’ और हींग है ‘रामठी’. एक चिकनी तुरई को ‘रामतुरई’ या ‘रामातोरी’ कहा जाता है. लौकी, घीया या दूधी का नाम है ‘रामननुआ’. एक प्रकार का तिल भी है ‘रामतिल’. तुलसी भी है ‘रामातुलसी’. इसी का एक अन्य प्रकार है ‘कृष्णातुलसी’.  एक अन्य तुलसी है ‘रामदूती’. ‘रामदाना’ नाम की एक चौलाई है जो फलाहार में काम आती है. ‘रामफल’ और ‘सीताफल’ नामक शरीफा किसको नहीं मालूम? ‘रामरसडाली’ एक ईख का नाम है. ‘रामेषु’ भी एक अन्य ईख है.       

          वनस्पतियों की चर्चा हो रही है तो ‘रामकपास’ को याद करना होगा जो एक प्रकार का नरमा है. ‘रामकाँटा’ है बबूल, और ‘रामबबूल’ भी कीकर है.    ‘रामकाण्ड’ एक तरह की बेंत या कंडा है. एक जाति का बाँस है ‘रामबाँस’. नील जैसा रंग बनाने की वनस्पति है ‘रामपात’. ‘रामसंडा’ रस्सी बनाने की घास का नाम है.  ‘रामसेनुर’ और ‘रामी’ कास के अलग-अलग प्रकार हैं.

          इसी कुदरत में मछरंगा नाम का जलपक्षी भी है जो मछली पकड़कर खाता है. उसे नाम दिया है ‘रामचिड़िया’  

          ‘रामसुंदर’ नाव का एक प्रकार है जो रामजाने कितनों की रोज़ी-रोटी है.

          जब हम न्यायपूर्वक किन्हीं वस्तुओं को समान भाग में बाँटते है तो उसे कहते हैं ‘रामबंटाई’.  

          विषयों की इस रामबाँट में जीवन के जो प्रान्तर रामति (भ्रमण) से रह गए हैं, वहाँ भी राम ही हैं.

यह सब किसी कवि, लेखक, बुद्धिजीवी, चिन्तक, मुनि, प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति ने नहीं किया. यह किया लोक-जीवन ने! वह लोक जिसे मार्क्स ने ‘प्रोलितेरियेत’ कहा है.

          राम का प्रसंग हो और हनुमान् के बिना पूरा हो जाए ऐसा सम्भव नहीं है.

          लंका जाने के लिए रामसेतु का निर्माण हो रहा था और नल-नील की देख-रेख में ‘राम’ लिख-लिख कर वानर-यूथ पत्थरों को समुद्र पर रखता जा रहा था. सब पत्थर तैर जाते थे और सेतु का निर्माण प्रगति पर था.

          श्रीराम यह सब देख रहे थे. उन्हें लगा, मैं भी कुछ हाथ बंटा दूँ. उन्होंने एक शिला उठाई और पानी पर छोड़ दी.

          यह क्या? वह शिला डूब गयी !  

          रघुवर ने एक पत्थर और उठाया और समुद्र पर टिका दिया.

          यह भी डूब गया.

          तीसरा, चौथा, पाँचवाँ पत्थर – श्रीराम रखते जाते थे, और पत्थर डूबते जाते थे !

          श्रीराम ने लज्जित भाव से इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, कोई देख तो नहीं रहा? दूसरे देखेंगे तो मेरा उपहास होगा कि स्वयं नारायण पत्थर तैराने में असमर्थ हैं !!

          सभी सैनिक पुल बनाने के काम में तल्लीन थे और कोई यह अनहोनी घटना देख नहीं रहा था कि वानर-ऋक्ष जो शिलाखंड समुद्र पर रख रहे थे वे तो तैर रहे थे, किन्तु रघुनाथ का रखा हर पत्थर डूब रहा था.

          तभी श्रीराम की दृष्टि हनुमान् पर गई जो न केवल सब देख रहे थे, बल्कि मंद-मंद मुसकुरा भी रहे थे.

          श्रीरघुनाथ ने हनुमान् जी से कहा, “तुमने जो देखा, वह किसी से कहना नहीं. मेरी कीर्त्ति के लिए अच्छा नहीं होगा.”

          पवनपुत्र ने हँसते हुए कहा, “प्रभुवर, यह बात तो मैं हर किसी को बताऊँगा”.

          श्रीराम ने प्रश्नवाचक दृष्टि से हनुमान् की ओर देखा तो उन्होंने स्पष्ट किया, “हे जगन्नाथ, यह सत्य हर किसी को जान रखना उचित है कि जिसे श्रीराम ने छोड़ा उसे डूबा ही जानिये.”

ऐसे भगवान् राम की व्याख्या का ध्यान करते-करते अचानक लगने लगा जैसे अखिल सृष्टि राधा-राधा हो गई है और श्रीराम श्रीकृष्ण-रूप में चहुं ओर प्रेम बिखरा रहे हैं.  मैं स्वयं ब्रज की गोपी जैसा हो गया. मैं जो चली जल जमुना भरन तो नन्द का छोरा वहाँ भी था. रम्यतेनेन इति! स्वभावत: कान्हा ने  मुझे छेड़ दिया. फिर क्या था? जब श्रीकृष्ण ने ही छू लिया तो बात पूरी हो गयी !! अब क्या भर लाऊँ मैं जमुना से मटकी !!

          क्या व्याख्या करूँ?

          श्रीराम अव्याख्येय हैं !!

         मुझे पूरी तरह इतमीनान हो गया, श्रीराम से पहले कुछ नहीं था !!! क्योंकि लोक-जीवन (प्रोलितेरियेत) के बिना आज भी कुछ नहीं है !!!

          जय श्रीराम ।

          दीपावली

          12-नवम्बर-2023

Musings on War


Many a throat are hoarse with cries of WW3 as the Middle-East is aflamed!

A very dear friend of mine has forwarded Sahir Ludhianvi’s famous couplet which reads like this —

जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है,

जंग क्या मसअलों का हल देगी!

One is prompted to instantly wonder if this couplet was scribed in 7th century itself with the advent of Islam?

Sahir Ludhianvi was well known for his Marxist-leftist sensibilities and could possibly never subscribe to the opium-like dogmatic religion!

That apart, could we ever imagine the dark clouds of war having a silver lining?

Have we ever visualised the insides of a soldier’s mind in battle-field encountered with stark death?

That man is looking into the eyes of Death while that angel is looking into his, simultaneously glancing into his enemy’s!! The man this side or on that side is at the edge of darkness!!

In that fluttering butterfly-moment an aesthetic ray of Love for Life sears through darkness! The soldier in war is suddenly filled with love for life. The  Life which he had so far taken for granted was to extinguish in a now-moment!! Either his life or his enemy’s!!

We humans had developed aesthetics in various fields of our enterprises  — art, poetry, sculpture, architecture, food, textiles. In fact we endeavoured aesthetics everywhere as long as we were alive. As if to dispel our fear of Death.

People meet that dreaded angel named death in various ways – in withering away after living through old age, in a loathed disease as in pandemic, in violence of a sudden accident, in killing as a surge of anger, in desperation of a suicide, and so on. Nothing is aesthetic in any of these. They could push people to crave for life. Yet, craving is not Love in the sense of the spirit. It is more a by-product of fear than Love.

Can we negate that when in war we adore Life as never before?

Love Life — yours as well as any other’s — and war turns futile!!

Lived differently, WAR is the aesthetics of Death!!!

सनातन की शक्ति


मायामयमिदमखिलं हित्वा

—- आदि शंकराचार्य

अखिल जगत् मायामय है, इस सत्य को आत्मसात करने में एक-जैसे लगने वाले तीन शब्द सहायक हैं — विद्या, विवेक और ज्ञान.

हमारे आध्यात्मिक वाङ्मय में इस मायामय जगत् को त्रिगुणात्मक कहा गया है — तमस, रजस और सत्व से परिपूर्ण. त्रिगुण के द्वारा बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति! चारों ओर फैल जाने के लिए महामाया ज्ञानियों को भी बलपूर्वक आकृष्ट कर लेती है और वे मोह से भर जाते हैं.

इन तीन गुणों में से रजोगुण से जगत् क्रियाशील होता है और संसार गति करता है.

तमोगुण को हम कालिमा की तरह देखकर उसकी निन्दा करते हैं. ‘तम’ शब्द अन्धकार के अर्थ में इसी से निकला है. जबकि तमस का भाव केवल inertia होना चाहिए. बहुत काम करते-करते जो श्रम हो जाता है उस थकन में हम विश्राम करना चाहते हैं. कभी-कभी तो आलस्य में देर तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं. मेरी समझ से यही तमोगुण है. तमस भी आनन्द लेने जैसी चीज़ है.

सत्व तीनों गुणों में श्रेष्ठ कहा गया है. क्योंकि यह सन्तुलन है. रजस और तमस के बीच का सन्तुलन. कब कितना काम करना है और कब कितना आराम करना है, इसका सन्तुलन ही निसर्ग में व्याप्त सत्व है.

त्रिगुण को जानने की कला ‘विद्या’ है. विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं माता सरस्वती.

इन तीनों गुणों को सत्वपूर्वक जीवन में उतारना विवेक से होता है. विवेक न हो तो असन्तुलन हो जाता है. विवेक के स्वामी हैं गणपति.

त्रिगुणातीत को जानना और त्रिगुण के परे जा पाना ज्ञान है. कहते हैं बुरे कर्म करने पर नरक मिलता है और सत्कर्म करने पर स्वर्ग. कर्म-गति भोग लेने पर हम नरक से मुक्त हो जाते हैं. किन्तु स्वर्ग भी तो छूट जाता है!

अत: ज्ञान में हम जान लेते हैं कि जिस प्रकार नरक दुष्कर्म का दण्ड है, स्वर्ग भी उसी प्रकार और कुछ नहीं, सत्कर्म का दण्ड है!

ज्ञान के देवता हैं मारुति श्री हनुमान्.

कलियुग में इन तीन की उपासना पर्याप्त है — कलौ काली विनायकौ पवनसुतञ्च.

(काली दश महाविद्याओं में प्रथम हैं. इन दस में एक महाविद्या हैं महासरस्वती.)

ये तीन देवी-देवता पंचतत्व के प्रति धनात्मक (positive, सकारात्मक, स्वीकारात्मक) दृष्टि से सक्रिय होते हैं.

धरती न केवल हमारा आधार है, अत्यन्त सहनशील व क्षमामयी अन्नपूर्णा भी है. भूदेवी है.

हमने भूमि को देवत्व प्रदान किया.

जल न केवल पिपासा शान्त करता, स्वच्छ बनाता, बल्कि अत्यन्त शक्तिशाली भी है. उसे शक्ति का अभिमान नहीं, गन्तव्य का ज्ञान है. कितनी रुकावटें आयें सबको पार करता हुआ सागर तक पहुँच ही जाता है. कभी नदी की धारा बनकर, कभी वर्षा की बूँद की तरह! गन्तव्य तक पहुँचने के लिए छोटे-बड़े सभी प्रयास अभिप्रेत हैं, ऐसी घोषणा करता हुआ.

हमने जल को देवत्व प्रदान किया.

वायु जीवन-श्वास है और अतुलनीय शक्ति भी. मारुति हनुमान व भीमसेन जैसे पुत्र पाने की क्षमता केवल वायु में है. झंझावात के विनाश में पवन की शक्ति का गर्व नहीं, जीव के कर्मफल का दृश्य है. बल की मदान्धता से विलग पुष्प की सुगन्ध के संवहन का सुकोमल कार्य करता हुआ वायु शक्ति में विनय की उपस्थिति की सूचना है.

हमने वायु को देवत्व प्रदान किया.

अग्नि चाहे कुंड में हो या फिर जठर में, सब तरह वह यज्ञ है. हमने उसे नाम दिया पावक! जो पवित्र करे!

हमने अग्नि को देवत्व प्रदान किया.

अपनी व्यस्तताओं से घिरे हम सुदूर आकाश को अपलक निहारते हैं. असंख्य तारकों से समृद्ध हुए सौन्दर्य से रोमांचित होते हैं. लगता है, हमारे मेलों की तरह वहाँ भी एक उत्सव है.

किन्तु आकाश नितान्त अकेला है!

जहाँ कुछ नहीं होता, कोई पदार्थ नहीं, वस्तु नहीं, व्यक्ति नहीं, पंचतत्वों में से अन्य चार तत्त्व भी नहीं, वहाँ भी आकाश होता है! अपने खालीपन के साथ! नितान्त अकेला!!

आकाश अकेलेपन की पराकाष्ठा है!!

प्रकाश की कोई किरण हमें आकाश के इस एकान्त से उपलब्ध होती है.

आकाश की इस एकान्त साधना से हमने समाधि प्राप्त की.

हमने आकाश को देवत्व प्रदान किया.

इस तरह हमने सबसे बड़ी ‘नर्त्तकी’ माया को समझा.

और उसे पलट दिया.

न र्त्त की ~ की र्त्त न !!

भजगोविन्दम्.

03-अक्तूबर-2023

द केरल स्टोरी


यदि ऐसा वे लोग कर रहे होते जो राजनीति में हैं तो समझ में आता था. उन्होंने हमेशा यही किया है. वे लोग कर रहे होते जो कट्टर मज़हबी हैं, तब भी समझ में आता था. मज़हबी यानी अफ़ीम का घोल पिये लोगों ने भी हमेशा यही किया है. नुक्कड़ की दूकान का पंसारी ऐसा कर रहा होता तब भी मालूम था, तौलने में वह हमेशा से डंडी मारता आया है.

       मगर अचरज है कि अब ऐसा कर रहे हैं बुद्धिजीवी और उनका मीडिया!! जिस तरह ठेलों पर हमारी रुचि के अनुकूल बिकती विविधता उपलब्ध रहती थी — मूँगफली, अमरूद, खजूर, गुड़, बर्त्तन, खिलौने, बाल सँवारने की कंघी, वैसे ही अब मीडिया-क्लिप सुलभ्य हैं — जो पसन्द में फ़िट हो उसे उठाओ और ठेलो!

              पहले उसने ‘मुस्’ कहा, फिर ‘तक़’ कहा, फिर ‘बिल’ कहा।

              इस  तरह ज़ालिम ने  मुस्तक़बिल  के टुकड़े  कर  दिये!

       लगता है मीडिया के ज़ालिम टुकड़-कर्त्ता कमोबेश हम सभी हैं. यह घड़ी वह है जब जिस किसी का जिस भी रूप में मीडिया से कोई रिश्ता रहा है, उसे शर्मिन्दा होकर रह जाना चाहिये!

       फ़िलहाल यह ठेलम-ठेल चल रही है ‘दि केरला स्टोरी’ नाम की फ़िल्म को लेकर. इनमें कुछ ही प्रतिक्रियायें हैं जो फ़िल्म देखने के बाद दी गई हैं. अन्य सब सुनी-सुनाई बातों का शोर है. अचरज इसलिए है कि हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया-कर्मी शोर पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, मुद्दे पर नहीं. जबकि बुद्धिजीवी होने का औचित्य मुद्दे पर बात करने में निहित है, शोर के समर्थन अथवा विरोध पर उतरने में नहीं.

       हमारे बीच ऐसे बहुत लोग हैं जो मानकर चल रहे हैं कि ‘द केरला स्टोरी’ मुसलमानों और इस्लाम के ख़िलाफ़ है. उन्हें भय है इससे मुसलमानों को देश में शान्ति भंग करने के लिए कारण मिलता है. अनेक मुस्लिम नेताओं के बयान इस भय की पुष्टि भी कर रहे हैं.

       यह भय और इसकी पुष्टि इस बात का प्रमाण है कि इन सभी लोगों की अवधारणाएं शोर-शराबे पर आधारित हैं, मुद्दे पर नहीं.

       ठीक से देखा जाए तो ये सभी लोग एक स्वर से केवल इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं. ये लोग कृपया बतायें क़ुरान-ए-मजीद की कौन सी आयतें ऐसी हैं जो इस बात को मुसलमानों पर फ़र्ज बता रही हैं कि लड़कियों को केवल बच्चा पैदा करने की मशीन समझो, उन्हें सेक्स-स्लेव बनाओ और लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद उन्हें मार डालो? स्पष्ट है कि ऐसी घटनाओं को सब मुसलमानों और इस्लाम पर इसलिए थोपा जा रहा है कि ऐसा करने वाले आतंकी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ के गुर्गे वे हैं जो मुसलमान हैं! इनके हथकंडों को बयाँ करना आतंकवाद के प्रति सजग करता है या इस्लाम के ख़िलाफ भड़काता है?

       हमारे बुद्धिजीवियों के भय का एक अन्य कारण भी समझना होगा. उन्हें अहसास है कि ऐसी अनेक आयतें क़ुरान में मिल जाएंगी जो काफ़िरों की हत्या, उन्हें लूटने और लूट का माल आपस में बाँट लेने से सम्बन्धित हैं. इस्लाम को फैलाने के आदेश के रूप में हैं. यहाँ ये लोग, विशेषत: मुस्लिम नेता यह नहीं बताते कि क़ुरान के ऐसे तमाम सन्दर्भ केवल सामयिक हैं, देश-काल के परे नहीं हैं. वे एक विशेष कालखंड की ऐतिहासिक आवश्यकता के लिए थे. मैं ख़ुद क़ुरान के विभिन्न संस्करणों से गुज़रा हूँ जो स्वयं मुसलमानों– मुस्लिम स्कॉलरों के द्वारा की गई व्याख्यायें हैं और हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में हैं. मूल अरबी-फ़ारसी भाषाओं का मुझे कोई ज्ञान नहीं है. मुझे लगा, क़ुरान का मुख्य स्वर अल्लाह के प्रति समर्पण और अध्यात्म है, न कि आतंकवादी आचरण. कहना न होगा, ‘द केरला स्टोरी’ का प्रदर्शन आतंकी हथकंडों को बेपर्दा करता है. जबकि इसका विरोध स्पष्ट रूप से इस्लाम पर बदनामी का स्थायी ठप्पा लगाने की साज़िश जैसा सिद्ध होता है. अब कृपया कोई यह तर्क देने की चेष्टा न करे कि अनूदित क़ुरान में पढ़ी गई जानकारी ग़लत है!!

       हमारे मीडियाकर्मियों और बुद्धिजीवियों की पूरी ‘समझदारी’ यह बता रही है कि वे सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे बुद्धिजीवियों का हश्र देखकर सहमे हुए हैं. डरे हुए लोगों से यह उम्मीद रखना इनसे नाइंसाफी होगी कि ये किसी भी तरह इस प्रकार की असामाजिकता को बेनक़ाब करने वाले पब्लिक मीडिया (सिनेमा अथवा सोशल मीडिया) को सही और सार्थक सन्दर्भ में देखना चाहेंगे.

       ‘द केरला स्टोरी’ देखे बिना इससे अधिक कुछ कहना ग़लत होगा. यों भी यह टिप्पणी इस फ़िल्म पर नहीं है. उन ‘समझदारियों’ पर है जिनकी तटस्थता के चलते राष्ट्र-ध्वज से अशोक चक्र हटाने की हिंसा पर चुप रहा जा सकता है. इस बार किसी मन्दिर का स्थापत्य नहीं नष्ट हुआ है, किसी मूर्त्ति का शिल्प नहीं खंडित हुआ है कि जिसे ‘मज़हबी बुखार’ कहकर अनदेखा किया जा सकता हो. यह सीधे-सीधे राष्ट्रीय अस्मिता का नकार है!

       फ़िल्म को तो जब देखना हो पायेगा तब होगा. सोच रहा हूँ क्या वैसे ही देखना सम्भव होगा जैसे ‘सम्पूर्ण रामायण’ या जेम्स बांड फ़िल्में देखी थीं? निस्सन्देह वैसी एक-मनस्कता मुद्दे के प्रति पूर्वाग्रह-मुक्त रह पाने के सामर्थ्य से ही सम्भव हो पायेगी. आख़िर जेम्स बांड फ़िल्मों ने भी सामाजिक मुद्दे उठाये थे — समूचे विश्व पर अधिनायकवादी सत्ता, आतंकवाद, जल-समस्या, परमाणु चोरी, मीडिया का दुरुपयोग, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, हथियारों की होड़ आदि. जिस केन्द्र-बिन्दु के इर्द-गिर्द ये फ़िल्में घूमी हैं वह है Special Executive for Counter-intelligence, Terrorism, Revenge and Extortion. इन शब्दों का प्रथमाक्षर लेकर बनता है SPECTRE — इन फ़िल्मों का विलेन! वास्तविक समाज में Spectre कहीं है ऐसा नहीं है. तथापि ऐसा भी नहीं है कि बांड फ़िल्मों में उठाये गये मुद्दे समाज में कहीं नहीं हैं. जबकि ISIS तो वास्तव में है भी! उसके लिए जी-जान से कुछ भी कर गुज़रने वाले इस्लाम को कलंकित कर रहे (या इस्लाम पर चल रहे?) मुसलमान भी हैं. केरल की सरकार और हाईकोर्ट भी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘लव जिहाद’ एक सत्य है!

       इसलिए सावधान! केवल मुद्दे पर ही नज़र रहे!

       और रामायण?

       ‘रामायण’ के मुद्दे मैं कुछ अलग ही तरह से देखता हूँ. इन मुद्दों से हमारे बुद्धिजीवी किस तरह इन्कार करते हैं उनकी उस अदा से रू-ब-रू होना दिलचस्प होगा.

       यह सर्व-विदित है कि ‘रामायण’ विभिन्न आदर्श प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है — आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, पत्नी, भाई, परिवार, आदर्श मित्र, सेवक, राज्य, आदर्श शासन आदि. ‘रामायण’ के नायक श्रीराम स्वयं शील-शक्ति-सौन्दर्य जैसे तीनों आदर्शों का समन्वय हैं और इनकी पराकाष्ठा भी हैं.

       ‘आदर्श’ शब्द का अर्थ है ‘दर्पण’. इसका उपयोग सभी लोग घर की सजावट से लेकर स्वयं को निहार कर नार्सिसस — आत्ममुग्ध हो जाने तक विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं. किन्तु दर्पण का सर्वाधिक उपयोग सँवरने के लिए होता है. चेहरे पर दाग-धब्बे हों, कोई बदसूरती हो, तो मेक-अप करके उस असुन्दरता को ढाँपने-छिपाने-सुधारने में दर्पण सहायक होता है.

       रचनाधर्मिता के सामाजिक सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि साहित्य में अनुस्यूत बृहत्तर आदर्श (दर्पण) मानव-समाज में उपस्थित अनेकविध असुन्दरताओं की ओर संकेत करते हैं — आतंक, ग़ैर-आनुपातिक महत्त्वाकांक्षा, षड्यन्त्र, युद्ध और हिंसा आदि! कालजयी रचना ‘रामायण’ की ओर निरन्तर बढ़ता आकर्षण इस बात की सूचना है कि मानव-समुदाय अपनी बदसूरतियों से निरन्तर लड़ते रहने को अभिशप्त है.  असंख्य लोगों ने विविध भाषाओं में रामकथा कही है. इसे सेल्युलॉयड पर भी तरह-तरह से उतारा गया है. मूल कथ्य को हानि पहुँचाये बिना हर बार सम-सामयिक सन्दर्भ भी दिये गए हैं.

       ऐसे में ‘द केरला स्टोरी’ को इस लड़ाई के मात्र एक अध्याय की तरह देखा जाना चाहिए. लड़की को बच्चों की हेड़ पैदा करने की मशीन की तरह इस्तेमाल करके उसे मार देना और पैशाचिक आतंक फैलाना आधुनिक समाज की बहुत बड़ी बदसूरती है. इसके प्रति हर सामाजिक को सजग करना प्रत्येक बुद्धिजीवी की ज़िम्मेदारी है.

       ‘रामायण’ का दूसरा मुद्दा है ट्रेजेडी. आख्यानों में और साहित्य में ग्रीक ट्रेजेडी या फिर शेक्सपियर की ट्रेजेडी को श्रेष्ठ माना गया है. ये वास्तव में हैं भी अद्भुत. शेक्सपियर की चार ट्रेजेडी प्रमुख हैं — मैकबेथ, हेमलेट, ऑथेलो और किंग लीयर. चारों नाटकों में ये चार महानायक हैं. ये सभी शक्ति, वीरता व गुणों से सम्पन्न हैं. सब तरह से पूर्णता को स्पर्श करते इन महानायकों में कोई एक चारित्रिक कमी है जिसके कारण उनका भरा-पूरा जीवन दु:खान्त में समाप्त होता है. इस दोष को विद्वानों ने Tragic Flaw अथवा Fatal Flaw कहा है. मैकबेथ अत्यधिक महत्वाकांक्षी है तो ऑथेलो सहज विश्वासी तथा तुरत-ईर्ष्यालु है. किंग लीयर अहंकारी है तो हेमलेट अपने वहम का शिकार होकर ज़रूरी कामों को टालता चला जाता है. बस यह एक दोष इन महानायकों के जीवन की इति जिस तरह ट्रेजेडी में करता है वह शेक्सपियर की कलम से अत्यन्त मर्म्मस्पर्शी होकर निकला है.

       Tragic Flaw की मौजूदगी पाश्चात्य जीवन-दृष्टि की परिचायक है. इससे भिन्न ‘रामायण’ के महानायक राम सर्वत: आदर्श-सम्पन्न व्यक्तित्त्व हैं. एक ट्रेजेडी की तरह विश्व की सभी ट्रेजेडियों में ‘रामायण’ इसलिए बीस है कि यहाँ Tragic Flaw की आवश्यकता ही नहीं है. जीवन की हर ट्रेजेडी के लिए नायक का एक सामान्य मनुष्य होना पर्याप्त है! ‘रामायण’ को मूल रूप में पढ़ने के बाद कौन न कहेगा कि श्रीराम के जीवन की एक-एक व्यथा सामान्य मनुष्य की ही कथा है?

       प्रसंगवश कहता चलूँ, जिस तरह मैं भाषा के अज्ञानवश क़ुरान शरीफ़ को मूल रूप में नहीं पढ़ पाया वैसे ही अपने मुसलमान भाइयों के हर काम को आगे बढ़ाने को तत्पर हमारे बुद्धिजीवियों ने ‘रामायण’ को मूल रूप में अवश्य नहीं पढ़ पाया होगा. मूल में इस साहित्यिक कृति को पढ़ पाने से एक-मनस्कता प्राप्त होती है. एकाग्रता आती है. मुद्दे पर टिके रहना सम्भव हो पाता है.

       इतना ही नहीं कि नायक में सामान्य मनुष्यता पर्याप्त है, ‘रामायण’ का खलनायक भी ध्यान देने योग्य है. वह किसी भी तरह डेविल अथवा शैतान (Satan) नहीं है. तथापि प्रति-नारायण (Anti-Christ) है. नारायण विरोधी है, फिर भी उन्हीं का प्रतिरूप है, अभिन्न अंग है.

       यदि हमें स्मरण हो, जब ब्रह्मा के चारों मानस-पुत्र सनकादि मुनि (सनक, सन, सनत्कुमार और सनन्दन) बैकुंठ में प्रवेश कर नारायण से मिलना चाहते थे तो जय-विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया. तब कुपित मुनियों ने उन्हें बैकुंठ से पतित हो भूलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला. यह कुछ अलग क़िस्म का Paradise Lost था. क्षमायाचना करने पर उन्हें हर जन्म में नारायण के हाथों मुक्ति पाकर ड्यूटी पर लौटने का वरदान भी मिल गया. इस तरह जय को संसार में तीन बार हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल का, तथा विजय को हिरण्यकशिपु, कुंभकर्ण और कंस का जन्म ग्रहण करना हुआ.

       श्राप क्या होता है और कैसे काम करता है, उसके विश्लेषण का यहाँ अवकाश नहीं है. किन्तु इतना तय है कि रावण का होना बताता है आगे जो होगा वह उस पर निर्भर करता है आपने अभी क्या किया है. ‘कर्म’ का यह सिद्धान्त पूरे भारतीय चिन्तन का सार है. अधिक विस्तार में न जाकर इतना कहना पर्याप्त होगा कि न्यूटन का Third Law Of Motion ही Law of Karma है —  Every action has its equal and opposite reaction! इस वैज्ञानिकता पर आधारित देश को नष्ट करने के लिए यदि कोई व्यक्ति या समुदाय देश की बेटियों को इसलिए सीरिया ले जाने की साज़िश रचता है कि वे हिन्द के ख़िलाफ़ और अधिक ग़ाज़ी पैदा करने की मशीन बनेंगी तो यही एक कारण काफ़ी है कि ‘द केरला स्टोरी’ के विरोध का मुँह बन्द कर दिया जाए.

       हम मनुष्यों के जीवन-नाट्य में रावण ऐसा खलनायक हुआ जो प्रोलितेरीयेत को संगठित कर स्वर्णपुरी के पूँजीवाद को नष्ट करने का माध्यम बना. प्रोलितेरीयेत को आधार बनाकर मार्क्स ने जो संवेदनशील राजनैतिक दर्शन देना चाहा था उसे हमारे यहाँ के बुद्धिजीवियों ने नष्ट कर दिया. अपने प्रमाद में ये ‘प्रोलितेरीयेत’ का अर्थ शब्दकोश में तलाशते रहे. इनको पक्का था कि शोषित समाजों के ‘सर्वहारा’ या रूसी बोल्शेविक ही प्रोलितेरीयेत हैं. भारत का जनसामान्य या वनवासी तो ‘हिन्दू’ है. वह प्रोलितेरीयेत कैसे हो सकता है?

       यहाँ हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे, भारतीय जनसामान्य हिन्दू? क्यों? मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख — इन सबका क्या हुआ? बुद्धिजीवी हैं, इसलिए वे यह समझने की ज़हमत नहीं करेंगे कि यहाँ उनके उस दौर का सन्दर्भ है जब उन्होंने पूरे ही भारतीय जनसामान्य को प्रोलितेरीयेत मानने से इनकार करना शुरु किया था. जब उन्होंने समूचे भारतीय इतिहास को मार्क्स के ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री’ तक सीमित करना शुरु किया था. जबकि मार्क्स के इन नोट्स का इरादा कुछ और था. इस पर अलग से फिर कभी लिखूँगा. यहाँ मुद्दा यह है कि इस शब्दकोशीय रवैये के चलते इन सभी का ‘कनेक्ट’ भारतीय प्रोलितेरीयेत से कट गया. वे ज़मीनी हक़ीक़तों को जानने से वंचित रह गये. परिणामस्वरूप ‘प्रगतिशील’ कहलाकर भी अब वे क़ुरान शरीफ़ की समसामयिक व्याख्या पर बात नहीं कर सकते. कहने को मज़हब के विरुद्ध हैं, मगर केरल का सत्य सामने आते ही उसे  ISIS वाले मज़हबी अस्तित्व पर हमला बताने लगते हैं. तब इनका पूरा सरोकार मज़हब से हो जाता है. उसी साँस में प्रोलितेरीयेत के प्रति संवेदन-शून्य भी हो जाते हैं.

       क़ुरान की समसामयिक व्याख्या की बात होगी तो आप पायेंगे, ऐसा करना अनुचित है इसलिए सम्भव नहीं है.  कारण जानने के लिए पहले वेद और पुराण का उदाहरण समझना होगा. जब वेदोक्त सत्य को समझना कठिन लगने लगा तो महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने उस सत्य को सरलता से समझाने के लिए भगवान् की लीलाओं का आश्रय लिया. इस तरह उन्होंने अठारह पुराणों की रचना की और ‘वेद-व्यास’ कहलाये. इसी तरह जब क़ुरान में व्यक्त ‘हक़’ (सत्य) को समझना मुश्किल लगने लगा तब हदीस लिखी गईं. हदीसों में क़ुरान की बातों को हज़रत मोहम्मद के जीवन के प्रसंगों से समझाया गया है कि किसी स्थिति-विशेष में नबी ने क्या किया था. जब क़ुरान समझ में न आये तो हदीस पढ़कर नबी के उदाहरण से समझ लेना चाहिए. संसार का हर मुसलमान जो भी कुछ करता है नबी के इन उदाहरणों से आदेश लेकर करता है. यही प्रेरणा मोमिनों के ‘उम्मा’ का आधार है. क़ुरान की किसी आयत की नबी के आदेश से अलग व्याख्या करना गुस्ताख़ी है. गुस्ताख़-ए-नबी की एक ही सज़ा है — सर तन से जुदा!

       आप यदि इस्लामिक साहित्य गहरे उतरकर सहानुभूतिपूर्वक पढ़ेंगे तो पायेंगे कि यूपी में अतीक अहमद, मुख़्तार अंसारी आदि जो कर रहे थे वह इस्लाम के विरुद्ध नहीं था. यदि वे कहें वे उनके मज़हब का पालन कर रहे थे तो एक स्तर पर वे ग़लत नहीं कह रहे होंगे. इसी स्तर पर कह सकते हैं कि उनके खिलाफ़ की गई कार्यवाही कितनी भी संविधान के अन्तर्गत हो, थी वह ‘मुसलमानों'(?) के खिलाफ़! याद कीजिये यह बात ओवेसी जैसे मुस्लिम नेताओं ने कही भी थी. यूपी सरकार की रक्षा केवल यह तथ्य करता है कि कोई कार्यवाही मुसलमानों के विरुद्ध हो जाने के लिए नहीं, अपराध पर क़ानून लागू करने के लिए थी. इसी स्तर पर आप यह भी पायेंगे कि दुनिया भर के देशों के संविधानों और इस्लाम के मज़हबी आदेशों के बीच मेल बिठाना मुश्किल होता है. वास्तव में बुद्धिजीवियों को इस तालमेल का रास्ता बनाने के लिए काम करना है. मगर वे अपनी ज़िम्मेदारी से बचकर चलते हैं और कहना चाहते हैं –‘हमें क्या?’

       संविधान के प्रावधानों और इस्लाम के आदेशों में तालमेल का रास्ता बन सकता है तो ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों से. ज़रा सोचिए, कितने ही मुसलमान हैं जो ISIS जैसे संगठनों के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहते हैं मगर कुछ कह नहीं पाते, ऐसी फ़िल्में इन लोगों की भी आवाज़ बनती हैं और उन्हें साहस देती हैं. बुद्धिजीवी यहाँ कूदकर कहेंगे कितने ही मौलवियों ने ISIS के खिलाफ़ बोला तो है. और क्या चाहिये? बेहतर है, ये बुद्धिजीवी चुप ही रहें. मुद्दा मौलवियों का नहीं उन मुसलमानों का है जो भारतीय प्रोलितेरीयेत का हिस्सा हैं.

       बुद्धिजीवियों से अपेक्षित है कि वे निडर होकर हम सब को समझायें क़ुरान को लेकर ईमानदारी से बात करना सम्भव नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी’ मत बनाओ. जहाँ मुसलमानों की बात हो वहाँ इस तरह सच कहना  उचित नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी मत दिखाओ. जहाँ दीन का सवाल हो वहाँ आधुनिक अर्थ-घटन ख़तरनाक है. इस्लामी दुनिया को समझकर चलें तो ये सभी सच्ची बातें हैं. पहले इस इस सच को कहने से बचना, फिर ‘द केरला स्टोरी’ पर रोक लगाने की बात करना डरपोकपन है, बुद्धिजीविता नहीं. सच कहना दरअसल क़ुरान का ही सम्मान करना है. क़ुरान का पूरा ज़ोर ‘हक़’ (सत्य) पर है.

       ये बुद्धिजीवी ‘रामायण’ का मुद्दा आत्मसात किये होते तो ‘द केरला स्टोरी’ इन्हें भी भारतीय प्रोलितेरीयेत का रक्षण कर रही फ़िल्म जान पड़ी होती. मगर इनका एजेण्डा कुछ अलग है.

       इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में इन बुद्धिजीवियों और इनके एजेण्डा को परिभाषित करने हेतु भी ‘रामायण’ की ओर देखा जाना चाहिए. राष्ट्र के तिरंगे से सम्राट् अशोक के धम्मचक्र को हटाकर वहाँ कलमा लिख दिये जाने के बाद इन की चुप्पी के कारण ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है.

       ‘रामायण’ का वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें राम युद्ध करते हुए रावण के दसों सिर और बीसों भुजायें काट डालते हैं, किन्तु वे फिर उग आती हैं. बार-बार ऐसा होता है. रावण के मारे जाने की कुंजी न जाने क्या है! तब विभीषण श्रीराम को सुझाते हैं कि रावण की नाभि में अमृत-कुण्ड है. नाभि पर प्रहार करने से रावण नष्ट हो जाएगा.

       ‘रामायण’ का नाम आते ही सबसे पहले वाल्मीकि-रामायण का ध्यान हो आता है क्योंकि राम-कथा का मूलभूत ग्रन्थ वही है. किन्तु यह प्रसंग वाल्मीकि-रामायण में न होकर ‘अध्यात्म रामायण’ में है.

       हमारे बुद्धिजीवियों की मनोवांछा के सम्मान में ‘अध्यात्म रामायण’ का विभीषण द्वारा बोला गया श्लोक तिरंगे पर वहाँ लिख दिया जाना चाहिये जहाँ अशोकचक्र हटाकर कलमा लिखा गया था! हिन्द पर ग़ाज़ी बनकर टूट पड़ने को तैयार ISIS के समूहों को ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ का रहस्य बतलाना बुद्धिजीवियों को आसान हो जायेगा — “इस देश की हस्ती मिटाने के लिए उस विचार पर प्रहार कीजिये जिसके अनुसार देश की बेटियाँ आद्या पराशक्ति देवी हैं. उसके बाद कोई ‘द केरला स्टोरी’ कहने का साहस नहीं करेगा! इस प्रहार के लिए लव-जेहाद एकदम कारगर अस्त्र है.”

       हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे कि देश के 80 प्रतिशत मुसलमान शान्तिप्रिय हैं. सबको दोष नहीं दिया जा सकता. ‘द केरला स्टोरी’ से 20 प्रतिशत के कारण सभी मुसलमानों की छवि ख़राब होती है.

       हमारे यहाँ ही क्यों, दुनिया में सभी जगह 80% लोग हमेशा शान्तिप्रिय होते हैं. विनाशलीला तो 20 प्रतिशत मूलतत्त्व (रेडिकल) ही मचाते हैं. नाज़ी जर्मनी को ही देख लीजिए. 80% जर्मन शान्तिप्रिय ही थे. तब भी हिटलरवादी प्रतिशत 6 करोड़ हत्यायें करने में सफल रहा. ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! रूस में भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी शेष 20% लोगों की बदौलत दो करोड़ से अधिक लोग मारे गये! ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! दूसरे विश्वयुद्ध के समय जापान के भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी जापानियों ने लगभग सवा करोड़ हत्यायें कीं. 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के समय अमेरिका में भी ढाई लाख अरब शान्ति से रह रहे थे. केवल 19 जिहादी थे जो 9/11 के दिन पूरे अमेरिका को घुटनों पर ले आये थे. वहाँ के ढाई लाख शान्तिप्रिय अरब किस काम के थे? किसी काम के नहीं!

       80% शान्तिप्रिय के भरोसे प्रोलितेरीयेत को अब और मुग़ालते में नहीं रखा जा सकता. 1947 में विभाजन तथा करोड़ों हत्याओं के समय भी ‘शान्तिप्रिय’ लोगों का प्रतिशत लगभग यही था मगर वे भी नबी के आदेश और उम्मा से बाहर नहीं थे. इनके लिए देश ‘भारतमाता’ नहीं ज़मीन का टुकड़ा है. अब और चाहिए! केवल यहाँ का नहीं, विश्व-भर का अनुभव सबके सामने है.

       हमारे ये शान्तिप्रिय बुद्धिजीवी सब बुद्धिजीवियों का 80% होते भी तब भी यह सच इन्हें जान लेना चाहिये कि हृदय से विचार और बुद्धि से प्रेम करना नष्ट हो जाने के मार्ग पर पहला चरण है. प्रोलितेरीयेत को शब्दकोश में धकेलने के दिन से ये उसी मार्ग के मुसाफ़िर हैं. इस तथ्य का प्रमाण यह है कि ये अब केवल ‘पुरस्कृत’ कृतियाँ दे पाते हैं.

       एक व्यक्ति बुक-स्टोर पर गया और काऊंटर पर खड़ी लड़की से बोला — “मुझे कोई पढ़ने योग्य पुस्तक दीजिए.”

       काऊंटर-गर्ल ने किताबों का ढेर लगा दिया — “इसे नोबेल पुरस्कार मिला है, यह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित है, इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है, इसने राज्य अकादमी पुरस्कार पाया था, इस पुस्तक को भाषा-पुरस्कार से नवाज़ा गया है, इसे गाँधी पुरस्कार, इसे मन्त्री पुरस्कार, इसे नुक्कड पुरस्कार, इसे पनवाड़ी पुरस्कार, इसे…इसे…इसे…..”

       उस व्यक्ति ने हाथ आगे बढ़ाया और पुस्तकों के पूरे ढेर को एक ओर सरकाते हुए कहा — “मैंने कोई पढ़ने योग्य पुस्तक माँगी है.”

       ये बुद्धिजीवी, ये साहित्यकार-कवि, ये मीडिया-कर्मी किस काम के हैं?

       उत्तर प्रत्यक्ष है.

       तब क्या ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फ़िल्म बनाना और पूरे देश को दिखाना ज़रूरी नहीं हो जाता?

       मगर हमारे बुद्धिजीवी मानेंगे नहीं. इसलिए उनके इरादों को ऑथेंटिक बनाने के लिए ‘अध्यात्म रामायण’ से विभीषण-कथन का मूल श्लोक प्रस्तुत है —

              नाभिदेशेSमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्…….

       मैं ‘द केरला स्टोरी’ देखने के इन्तज़ार में हूँ. एक-मनस्क होकर देखूँगा. मुद्दे से नहीं भटकूँगा. यह वादा है.

13-05-2023

पत्थर का रहस्य


जो लोग हमारे प्रति शत्रु-भाव रखते हैं उन्हें ठीक से जानेंगे नहीं तो उनसे निपटेंगे कैसे?

इसलिए इसे पढ़ने के बाद यदि आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ कहें तो मुझे आपत्ति नहीं होगी.

यस सर, हिन्दू होकर भी मैं उनकी आसमानी क़िताब आपको पढ़वाना चाह रहा हूँ. तब भी आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ न कहें तो हज़ारों बार सूरज भले उग लिया, मगर आप सो रहे हैं.

रामनवमी की शोभा-यात्राओं पर पत्थरबाज़ी हिन्दू नव-वर्ष पर हुई पत्थरबाज़ी की ही कड़ी है.

पूर्व-नियोजित.

करौली, राजस्थान की यह पत्थर-हिंसा अगस्त 2020 में बंगालुरु, कर्णाटक की अगली कड़ी थी.

पूर्व-नियोजित.

इसके पहले की कड़ी थी 2020 में ही फ़रवरी में दिल्ली में पत्थर-वर्षा.

पूर्व-नियोजित.

ये पत्थर 1990 में कश्मीर के रलीव (मुसलमान बनो), चलीव (छोड़कर भाग जाओ) या गलीव (मारे जाओ) की ही शृंखला में थे.

पूर्व-नियोजित.

1990 का कश्मीर सत्रहवीं शताब्दी में गुरु तेग़बहादुर को जलते तवे पर बैठाने और उनका सिर काटकर चाँदनी चौक में लटकाने के ‘गलीव’ की निरन्तरता में था.

प्रशासनिक स्तर पर नियोजित.

अठारहवीं शताब्दी का नादिरशाही क़त्लेआम अल्लाह के फ़रमान के मुताबिक था.

पूरी तरह नियोजित.

लगभग ढाई-तीन वर्ष पहले मैंने इस पत्थरबाज़ी पर कुछ निवेदन किया था. उस निवेदन के कुछ अंश यह ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’  यहाँ दोहरा रहा है.

पत्थरबाज़ी को अभी तक हम अपने न्यूज़ चैनलों पर देख-देख कर ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ से आगे और कुछ नहीं समझ रहे. कश्मीर में बरसों-बरस चली पत्थरबाज़ी को कैसे और क्यों हिन्द के हर शहर में लाया गया, बोरियों में भर-भरकर पत्थर क्यों इकट्ठे किए गए, क्यों गाड़ियों-ऑटोरिक्शाओं में ढोये गए और कैसे पूरी प्लानिंग की गई इसकी गंभीरता हम तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम इस्लाम में ‘रज्म’ (रजम) का महत्व नहीं जानेंगे.

अपनी बेशुमार ‘उम्मतों’ में उलझे हुए हिन्द को इतमीनान से मुग़ालता है कि पत्थर और इस्लाम-कनेक्शन जैसा कुछ होता नहीं. चाहे तस्लीम रहमानी हो, चाहे महमूद पराचा, चाहे असदुद्दीन ओवेसी, या फिर शोएब जमई, इन सबके बयानों और गतिविधियों को हम रजम, हिज्राह, शिर्क-अल-अक़बर, दारुल इस्लाम आदि परिभाषाओं को जाने बिना समझ नहीं पाएंगे. मुग़ालते में ही रहेंगे. ये कनवर्टेड हिन्दू लीडरान इन्हीं शब्दों को घिस-घिस कर अपनी ‘वर्क-फ़ोर्स’ को काम में लगाते हैं. जैसे पहले कश्मीर में और अब हिन्द के बड़े हिस्से में लगाया.

जब तक आप इस तरह की पूरी शब्दावली को ठीक-ठीक नहीं जानेंगे, आप यही समझते रह जाएंगे कि कहने वाला अपने मज़हब की आयत के उद्धरण दे रहा होगा. कुछ उस तरह जैसे किसी से गीता का कोई उद्धरण सुना और समझे बिना भी उसे धार्मिक उल्लेख समझ लिया. मज़हब की आयतें ये शब्द नहीं हैं, आयतों की व्याख्या क्यों और कैसे करें उसकी चाबी इस शब्दावली में छिपी है.

‘रजम’ का सीधा-सा मतलब है पत्थर मारना. हज के दौरान शैतान को सात पत्थर मारना भी यही है. ‘हुदूद’ की सज़ाओं के लिए भी शरीयत में ‘रजम’ बताया गया है. ‘हुदूद’ को अपने-अपने प्रान्तवाद-भाषावाद में उलझे हम हिन्द के ‘उम्मती’ इस तरह समझें कि जिसने लक्ष्मण-रेखा पार कर दी, हद से आगे चला गया वह ‘हदूद’ की सज़ाओं का हकदार हो गया. उसे ‘रजीम’ करना ही पड़ेगा. ‘रजीम’ यानी जिसे पत्थरों से मारा जाए. ‘रजीम’ के लिए ‘रजूम’ हो जाना – यानी पत्थरबाज़ बन जाना — मोमिनों पर फर्ज़ है.

समझें — पत्थरबाज़ी मुसलमानों का धार्मिक मान्यता प्राप्त ‘फर्ज़’ है!

हिन्द के हिंदुओं से बढ़कर ‘रजीम’ (पत्थर मारने योग्य) और कौन होगा जो अल्लाह के बराबर बहुत-से देवी-देवता लाकर, ईश्वर की मूर्त्ति बनाकर, और भी बहुत सी मूर्त्तियाँ – जैसे बुद्ध आदि की मूर्त्ति बनाकर हद पार कर गए हैं?

यह ‘शिर्क-अल-अक़बर’ है – बहुत बड़ा कुफ़्र. हिन्दू तो अल्लाह के सिवा दूसरे की भी कसम खा लेते हैं, जैसे ‘राम-कसम’. यह थोड़ा छोटा कुफ़्र है – ‘शिर्क-अल-असग़र’.

इसलिए हिंदुओं के ऊपर पत्थरबाज़ी मुसलमानों पर मज़हब का बताया फर्ज़ है. क़ुरान-ए-मजीद की क़सम!

जो बात ये मुसलिम नेता असलीयत सामने आ जाने से बचने के लिए बोलेंगे नहीं, मगर जिस कारण इन्होंने हमेशा मुसलमानों को ‘रजूम’ अर्थात् पत्थरबाज़ हो जाने को सबाब और फर्ज़ कहकर उकसाया है, उसका आधार है ‘हिज्राह’.

‘हिज्राह’ यानी अपनी जगह से दूसरी जगह जाना. हज़रत मुहम्मद जब मक्का से मदीना गये थे तो वह ‘हिजरत’ थी.

‘हिज्राह’ को मस्जिदों और मदरसों में जिस तरह समझाया जाता है उसे देखते लगता है यह पत्थरबाज़ी तो कुछ भी नहीं!

एक मुसलिम देश से जाकर दूसरे मुसलिम देश में पनाह लेने को सऊदी अरब जैसे देश अथवा अन्य मुस्लिम देश बढ़ावा नहीं देते. उनके मज़हब के आदेश से उन्हें मालूम है मुसलमानों को ग़ैर-मुसलिम देशों में जाकर बसना चाहिए. इसके लिए ये देश बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. इस्लामिक देश यही पैसा उजड़कर आए इन मुसलमानों के कल्याण के लिए ख़र्च नहीं करते. उन्हें ग़ैर-इस्लामिक देशों में बसाना इसलिए ज़रूरी समझते हैं कि वे वहाँ रहकर उन देशों का इस्लामीकरण करें. अगर वे देश सीधे-सीधे नहीं मानते तो उन्हें भी उजाड़ें.

क्योंकि इनके मुताबिक़ इस्लाम ने दुनिया को एकदम साफ़-साफ़ बाँट रखा है. और यह बँटवारा अल्लाह का हुक्म है.

अल्लाह की बनाई इस ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ के लोग इस्लाम पर ईमान लाते हैं ‘दारुल-इस्लाम’ कहलाता है. सभी घोषित इस्लामी देश ‘दारुल-इस्लाम’ (दार-अल्-इस्लाम) हैं.

कुछ जगहें ऐसी हो सकती हैं जहां सब तो मुसलमान नहीं हो गए, मगर ऐसे देशों के पड़ोस में जो ‘दारुल-इस्लाम’ है उसके साथ अगर उनका यह समझौता हो गया है कि हम ‘अपने मुसलमानों का’ पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे तो वे देश ‘दारुल-सुलह’ या ‘दारुल-अहद’ हुए. अर्थ हुआ ‘संधि-प्रदेश’. ऐसे ‘दारुल-अहद’ देशों के ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया हमेशा जारी रहती है.

मगर जो देश जब तक पूरी तरह इस्लामी नहीं बन जाते उन्हें ‘दारुल-हर्ब’ कहा जाता है. ‘दारुल-हर्ब’ – यानी युद्ध क्षेत्र. 1947 में पाकिस्तान बना तो वह था ‘दारुल-इस्लाम’. भारत जो रह गया वह हुआ ‘दारुल-हर्ब’. अतः टुकड़े-टुकड़े गैंग का एक और इंशा अल्ला नारा है – “भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”.

‘दारुल-हर्ब’ में जिहाद हमेशा जारी रहता है. हिन्द है तो जब तक ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ करके ईंट से ईंट न बजा दी जाए, तब तक जिहाद होता रहेगा. बचना है तो इस्लाम क़बूल कर लो.

हमारे ये कन्वर्टेड हिन्दू पूरे मन से जो भी कुछ कहते-करते हैं वह बेमतलब नहीं है.

यदि आप इनकी किसी बात पर भरोसा कर लेना चाहें तो जैसे इनका खाना-पीना ‘हलाल-सर्टिफ़ाइड’ है, वैसे ही इनकी भरोसे-जैसी बात ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ होती है.

‘तक़ीया’ जानते हैं न? वह भी मोमिनों का मज़हब-सम्मत फ़र्ज़ है. सीधा-सीधा शब्दकोषीय अर्थ है — जो बात कहने का मन न हो उसे भी तात्कालिक लाभ के लिए झूठ-मूठ कह दो! जबकि ये तो पूरे मन से, पूरी ईमानदारी से ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ बात कहते हैं. ये जानते हैं, आप ‘तक़ीया’ के बारे में न जानने से चुप लगा जाएंगे. और ये आगे बढ़ लेंगे.

अगर आप इतनी-सी इस बात को पत्थर खा-खाकर हज़ारों साल में भी नहीं समझे तो आप धर्मनिरपेक्ष नियम के अनुसार इस्लाम की इज्ज़त नहीं करते.

आप ‘रजीम’ हैं. पत्थरों से मारे जाते रहना आपकी नियति है और पत्थर मारना ‘रजूमियों’ का मज़हबी फर्ज़ है.

जय श्रीराम.

12-04-2022

एक केमिकल लोचा


[इस लेख में संकलित अनेक विचार व कथन मेरे अन्य लेखों में भी हैं. आवश्यकतानुसार यहाँ पुन: लिखे गए हैं.]

अमेरिका के न्यूरोसाइंटिस्ट सैमुएल हैरिस ने अभी कोई सात साल पहले एक किताब लिखी थी  —  ‘वेकिंग अप’. सैम एक पॉडकास्टर भी हैं, मीडिया के आदमी हैं. तर्क, धर्म, नैतिकता, आतंकवाद से लेकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तक सब उनके लेखन व शोध के विषय हैं. ‘वेकिंग अप’ के पहले ही अध्याय में सैम ने एक्सटेसी नामक ड्रग (methylenedioxy-N-methylamphetamine) का अपना अनुभव बताया है कि कैसे उस रसायन ने उनके दिमाग़ में एक केमिकल लोचा किया. इस अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य-जीवन को ड्रग से नहीं, धर्म-अध्यात्म के केमिकल लोचे से – बौद्ध-चिन्तन पर उनका ज़ोर है, बहुत बेहतर बनाया जा सकता है. ड्रग के प्रभाव में वह अपने निकट बैठे मित्र के लिए अचानक अपार प्रेम से भर गए. इतना कि वह उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर सकते थे. उनके सामने उस मित्र की प्रसन्नता ही सब कुछ हो गई जो उस समय उनके प्रेम का लक्ष्य था. सैम का कहना है कि उस क्षण जो भी उनके दरवाज़े से प्रवेश करता वही इस अपार प्रेम का हिस्सा बन जाता. सैम ने इस अनुभूति को नैतिक परिप्रेक्ष्य में और उसके परे जाकर वर्णन किया है.

सैम हैरिस के अनुभव से यह भी पता चला कि जो भी कुछ दिमाग़ में केमिकल लोचा कर सके उसी के प्रति सजगता अनिवार्य है. फिर वह चाहे ड्रग हो, कोई अन्य नशा हो, धर्म हो, या फिर कोई मान्यता, आस्था, विश्वास या विचार. आचार्य मार्क्स ने तो धर्म को अफ़ीम कहा ही था. 

मुट्ठी भर-भर रात-दिन विचार उलीचने वाला मीडिया दिमाग़ी केमिकल लोचा करने में आज धर्म से बढ़कर ताक़तवर नशा है. इसलिए मेरा यह निवेदन अपने मीडिया-मित्रों से विशेष रूप से है. क्योंकि विचार को अब विज्ञान किसी तरह का धुआँ या गुबार न मानकर एक जीवित सत्ता  — एक  living entity मानता है. इस विषय में अनुसंधान करने वालों ने पाया कि विचार रेंगते हुए एक से दूसरे दिमाग़ में प्रवेश करते हैं.

उदाहरण के लिए मिट्टी के किसी खिलौने या गुल्लक वगैरह की कल्पना कीजिये, जिसे बहुत समय से किसी ऊँची जगह, किसी आले में या किसी अलमारी के ऊपर रखकर छोड़ दिया गया हो. फिर वह एक दिन अचानक हमारे हाथ से गिरकर टूट जाता है. उसमें से निकलकर अनेक कीड़े रेंगते हुए चलते हैं और आस-पास रखी वस्तुओं, फ़र्नीचर आदि में जा छुपते हैं.

इन शोधकर्त्ताओं ने किसी मरते हुए व्यक्ति का उदाहरण देते हुए कहा है कि उस व्यक्ति के विचार भी टूट गए मिट्टी के खिलौने में से निकलकर रेंग आते हैं और आस-पास खड़े लोगों में प्रवेश कर जाते हैं. विचार रह गए, यद्यपि मिट्टी का शरीर गया मिट्टी में. बाइबिल कहती है – डस्ट अनटु डस्ट! किन्तु मुझे लगता है किसी व्यक्ति की हत्या शायद इसलिए नहीं बुरी कहलाती कि वह कोई अधार्मिक कुकृत्य है, बल्कि इसलिए बुरी है कि वह एक विचारहीन हिंसा है.

अच्छे या बुरे विचार कभी मरते नहीं. हमेशा बने रहकर दिमाग़ों में केमिकल लोचा करते रहते हैं.

हो न हो अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस  का भी सम्बन्ध ऐसे ही केमिकल लोचे से है. मीडिया से भी पहले सबसे बड़े लोचा-कर्त्ता धर्म और उसके ईश्वर के बारे में मेरा सोचना कुछ ऐसा है कि मनुष्यों का ईश्वर केवल इसलिए मनुष्यों जैसा है क्योंकि अगर चींटियों का कोई ईश्वर है तो वह चींटियों जैसा होगा, मच्छरों का मच्छर जैसा और बकरियों का बकरी जैसा. वह निराकार परमात्मा जब स्वयं को मनुष्य के रूप में प्रकट करता है तो वह शरीर के गुण-सूत्र – chromosome – से स्वयं को बचाकर नहीं करता. एक्स (X) और वाई (Y) दोनों क्रोमोज़ोम का नियंता यही ईश्वर (प्रकृति) है. यह उसका ख़ुद का निर्णय है कि मनुष्य शरीर में XX क्रोमोज़ोम प्रधान होंगे तो वह मनुष्य-शरीर ‘स्त्री’ कहलाएगा. और जब XY के जोड़ीदार यानी pairing क्रोमोसोम की प्रधानता रहेगी तो मनुष्य-शरीर ‘पुरुष’ होगा. यों दोनों तरह के शरीरों में दोनों तरह के क्रोमोज़ोम मौजूद रहते ही हैं. यह विज्ञान-सम्मत सत्य है. पुरुष-शरीर के Y गुणसूत्र को पूर्ण होने के लिए X की आवश्यकता है जबकि स्त्री XX के साथ अपने आप में पूर्ण है. विज्ञान भी female species को अधिक मज़बूत (stronger) कहता है.

XX और XY क्रोमोज़ोम के सन्दर्भ में ध्यान देना होगा कि पश्चिम का मनोविकास इस पृष्ठभूमि में हुआ है कि हव्वा को आदम की डेढ़ पसली से बनाया गया था. इसलिए जिस तरह पुरुष मूलतः ईश्वर (की सेवा) के लिए है वैसे ही स्त्री (पुरुष की अधीनता) के लिए है. ये संदर्भ बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट में उपलब्ध हैं. स्वर्ग से आदम के पतन की भी वजह स्त्री को ठहराया गया. निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन….(मिर्ज़ा ग़ालिब). पश्चिमी मन पूरी तरह इस ‘आदिम पाप’ – archetypal sin – की छाया में पला-पनपा है तथा एक बुनियादी अपराध-बोध में क़ैद है.

आज से दो-एक दशक पूर्व तक हम east meets west की बात करते ज़रूर थे, और यह भूगोल की बात नहीं थी, मगर सच्चाई यह है कि आज पूरब कहीं है नहीं. विचार के भूगोल में पश्चिम में भी पश्चिम है और पूरब में भी पश्चिम है. इस तरह हमारा यह archetypal sin दुनिया भर के दिमाग़ों में केमिकल लोचा कर रहा है जिसे हम ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ कह रहे हैं ताकि हम अपने आदिम पाप-बोध को थोड़ा-बहुत पूर सकें.

इस केमिकल लोचे का सम्बन्ध सीधे-सीधे original sin के archetype से बन गए हमारे मनोवैज्ञानिक ढाँचे से है. महिला को समानता और आज़ादी भी देगा तो पुरुष देगा! मीडिया को यह सोचना और स्थापित करना है कि डेढ़ पसली तो क्या, स्त्री को कुछ भी देने वाला पुरुष है कौन?

यहाँ फिर दोहरा दूँ कि यह निवेदन समाज का वैचारिक नेतृत्त्व करने वाले मीडिया के प्रति है. मीडिया से इतर समाज में, विभिन्न देशों में नीतियाँ बनाने वाली सरकारों में अपराध-बोध को पूरने से ही सही, स्त्री के पक्ष में जो हुआ है शुभ हुआ है. नोबेल पुरस्कार पाने वाले लेखक वी.एस. नॉयपाल को याद करें तो उनके अनुसार संसार में ये तीन हैं जो वास्तव में शोषित और दलित हैं – भारत के दलित, संसार भर की स्त्रियाँ और स्वयं भारत देश!  

बाइबिल के बाद अब हम भारत के पुराणों को देखते हैं. किसी धार्मिक विवेचन के लिए अथवा कम या ज़्यादा अच्छा-बुरा कहने के लिए नहीं. विचार-संस्कार के archetype जो केमिकल लोचा करते हैं उनकी पृष्ठभूमि में. यों देखा जाए तो कोई विचार यदि विज्ञान-सम्मत होने से श्रेष्ठतर है और उसकी श्रेष्ठता को केवल इसलिए स्वीकार करने से बचा जाए कि वह मूलत: भारतीय मूल का है, उचित नहीं है. मीडिया में तो बिलकुल नहीं.

पुराणों में संदर्भ है कि एक बार नारायण ध्यान लगाकर बैठ गए. ब्रह्मा सहित अन्य देवताओं ने जिज्ञासा व्यक्त की कि भगवान् पद्मनाथ तो स्वयं सबका ‘कारण’-तत्त्व हैं, सब उन्हीं का ध्यान करते हैं. उनसे ऊपर तो कोई है नहीं. तब नारायण किसका ध्यान कर रहे हैं ? नारायण ने स्पष्ट किया कि महामाया जगदम्बिका की शक्ति के बिना मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता. मैं उन्हीं का ध्यान कर रहा हूँ.

इस कारण नारायण स्वयं वही हैं जो आदिशक्ति जगदम्बिका हैं. और आद्याशक्ति देवी वही हैं जो नारायण हैं ! इस शक्ति के बिना शिव केवल ‘शव’ हैं. जब मनुष्य घोषणा करता है – ‘अनल हक़’ —  ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तो वह XY pairing वाले पुरुष-शरीर तक सीमित घोषणा नहीं है. ‘मैं ही सत्य हूँ, ब्रह्म हूँ’ का यह उद्घोष XX क्रोमोज़ोम-प्रधान शरीर वाली मानुषी के लिए भी स्वतः सिद्ध है.

इतना ही नहीं, यह XY और XX भी माया हैं. सृष्टि-चक्र चलता रहे इसलिए हो रही लीला. एक फूल दूसरे फूल पर नया फूल खिलाने के लिए जैसे पराग फेंकने का खेल करता हो. हमसे वही भूल हो रही है जो सन्नाटे पर नहीं शब्द पर, शून्याकाश पर नहीं, पदार्थ पर ध्यान देने में होती है. हम स्त्री देख रहे हैं, पुरुष देख रहे हैं जबकि हमारी क्षमता XX की लीला और XY की माया को देख पाने की है. पुरुष के रिश्ते से हमें XY के pairing क्रोमोज़ोम में फ़िज़िक्स की लीला को देखना है और स्त्री की दिशा से XX क्रोमोज़ोम में केमिस्ट्री की माया को देखना है. पुरुष को श्रेष्ठ कहकर हम मिथ्या सम्भाषण कर रहे हैं. स्त्री को पुरुष के समान बताकर हम उसे उसकी श्रेष्ठता से गिरा रहे हैं. जीवन-चक्र का संचालन करने में यदि XY की pairing ‘बल’ है और घृत की तरह है तो XX क्रोमोज़ोम संचालित जीवन का ‘माधुर्य’ है और मधु की तरह है. घृत और मधु को समान भाग में मिलाने से कोब्रा के विष से भी भयंकर विष बन जाता है. पश्चिमी सोच के मूल अपराध बोध से ऐसा दिमाग़ी केमिकल लोचा हुआ कि समानता के फेर में अधिकांश गृहस्थियाँ विषाक्तता का दंश झेल रही हैं. हर नया फूल (सन्तान) वैसा बनता है जैसी माँ होती है. छत्रपति शिवाजी को माता जीजाबाई ने बनाया. यह मातृत्त्व और कुछ नहीं क्रोमोज़ोम का लोचा है और इस तरह जीवन-शैली का आधारभूत तत्त्व है. विचार का सही केमिकल लोचा लाने से स्त्री-शक्ति को प्राप्त अवसर जस के तस रह जाते हैं, कहीं चले नहीं जाते.

प्रचार-माध्यमों में होती हमारी बात एक नारेबाज़ी, एक औपचारिकता होकर रह जाती है. क्रोमोज़ोम न नारा है, न औपचारिकता. मीडियाकर्मी भी यदि मीडिया के केमिकल लोचे का शिकार होकर बात करेंगे तो समाज में उनकी विशिष्ट हैसियत का क्या होगा?            

मगर लीला और माया को देख पाने मात्र से हिंसा नहीं मिट जाती. जैसे आत्मा अमर है कहने से गर्दन अमर नहीं हो जाती. गर्दन आत्मा नहीं है इसलिए तलवार से कटती रही है. उसी तरह नारायण और उनकी लीला के बावजूद भारत में सब ठीक था या सब अच्छा-अच्छा है, ऐसा कहना अपने आप को छलने जैसा होगा.  धीरे-धीरे पूरब फिर आँख ज़रूर खोल रहा है क्योंकि यह archetype विज्ञान-सम्मत अधिक और धर्म-सम्मत कम है. ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग यहाँ ‘मज़हब’ के अर्थ में हुआ है, गुण-धर्म के अर्थ में नहीं.

मीडिया को इन मौलिक पाप-पुण्य वाली धारणाओं से होने वाले केमिकल लोचे से स्वयं को बचाते हुए देखना यह है कि शिक्षित सभ्य समाज में धन और सत्ता के बल पर चल रहे छद्म को कैसे पहचानें. शोषक-वर्ग के ये विशेष लक्षण पुरुषों के behaviour में अधिक दिखाई देते हैं. अब समानता का दौर है इसलिए आप इन लक्षणों को स्त्रियों में भी देख सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर, धनवान अथवा सत्ताधीश व्यक्ति (पुरुष हो या स्त्री) दूसरों के कल्याण-कार्यों के लिए काम कम करेगा, उनमें रुचि ही नहीं लेगा, दिखावा ज़्यादा करेगा. वह हमेशा दूसरों को एक ख़ास ‘टाईप’ की परिभाषा से आँकेगा. आपसे बात करेगा तो आपसे बराबरी पर आँख मिलाकर बात करने में अपनी हेठी समझेगा. अपने बारे में उसे हमेशा यही लगेगा कि जो भी कुछ वह चाहे उसे वह मिलना उसका जन्मजात अधिकार है. दूसरा कोई भी सामने हो तो वह सवाल किये बिना उसकी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए है. क्योंकि व्यवहार के जो नियम दूसरों के लिए हैं, वे उसपर लागू नहीं होते. गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर ही रखा रहता है और पलटवार के अंदाज़ में जवाब देने में ही उसकी श्रेष्ठता है! क़ानून कोई सा भी हो उसे तोड़ने में उसकी शान है! उसे तो कोई हाथ तक नहीं लगा सकता. वह क़ानून के ऊपर की सत्ता है. उसके ग़ैरक़ानूनी व्यवहार और धंधों में उसे उसी जैसे दूसरे लोगों का साथ और समर्थन भी मिल जाता है.

पैसे और सत्ता वालों के बच्चे बचपन से ही ये सब लक्षण अपने माँ-बाप से सीखते रहते हैं. सत्ता बहुत लुभावनी होती है और बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती है. हिन्दू शास्त्रों ने तो सत्ता के जाल के फैलने को बताया ही इन शब्दों में है : “बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति”! इसीलिये पॉवर आदत डालने वाली चीज़ है. ज़्यादातर यह आदत नशों की होती है.

सबसे ख़ास बात तो यह है कि सत्ता की स्थिति में आने को प्रयत्नशील व्यक्ति हर तरह की सामाजिक हैसियत का इस्तेमाल करके सत्ता में पहुँचता है और पहुँचते ही भूल जाता है कि अब उसे समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार करना उचित है. इस प्रक्रिया में उसने अगर कभी किसी का अहसान लिया होता है तो उसकी खिसियाहट मिटाने के लिए वह दुर्व्यवहार को नॉर्मल मानता है. कभी अहसान का बदला चुकाने के लिए अहसानकर्त्ता को उसकी ज़रूरत भी पड़ सकती है. ऐसे में उसे ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं जो वह नहीं करना चाहता!

इस सब लक्षणों से पुरुष का ध्यान आता है या स्त्री का, कहना मुश्किल है. 

जिस किसी ने अपने को किसी भी पॉवर की हैसियत में माना – पैसा, अधिकार और अफ़सरी, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार की हैसियत, कलाकार का दर्ज़ा, चर्च-मस्जिद-मन्दिर का मठाधीश, आध्यात्मिक गुरु या बाबा, अत्यन्त रूपवती स्त्री — समझ लीजिये कि उसके हाथों अन्याय होने ही वाला है! हमें महिला दिवस, दीन-दुःखी दिवस, मज़दूर दिवस, ग़रीब दिवस, कृषक दिवस, पर्यावरण दिवस, हिन्दी दिवस की, और वह दिन दूर नहीं जब इन्सान-दिवस की ज़रूरत पड़ने ही वाली है. ध्यान दें तो ये सब युग-युगान्तर से  रेंगते चले आये अविचार का केमिकल लोचा हैं.

मीडिया पर ख़ुद यह समझकर औरों को, स्त्री और पुरुष सबको समझाने का दायित्व है कि दूसरों को अपनी सम्पत्ति समझना बन्द करो!  

08-03-2021

विचित्र किन्तु सत्य !


चलिये, मैं आपको एक अलग ही दुनिया में लिये चलता हूँ.

आकाशवाणी और दूरदर्शन के अधिकारियों ने मिलकर व्हाट्सऐप पर एक ग्रुप बनाया जिसमें लगभग दो सौ सेवा-युक्त और सेवा-मुक्त अधिकारी शामिल हुए – अनेक महानिदेशक, अवर महानिदेशक, उप-महानिदेशक, केंद्र निदेशक व अन्य अधिकारी. इनमें अनेक इंजीनियर भी थे. इस ग्रुप में अपने अनुभव, विचार और अपने बारे में बताते हुए परिचित-अपरिचित साथियों के बीच एक दिलचस्प आदान-प्रदान होता रहा. ऐसे अवसर का एक क़तरा यहाँ प्रस्तुत है जिसमें आपको संस्मरण की तरलता मौजूद मिलेगी.   

यह दुनिया इतनी भी अलग नहीं थी कि आकाशवाणी की दुनिया न हो. बल्कि कहना चाहिए यह एकान्ततः आकाशवाणी की ही दुनिया थी. जब अलग-अलग लोग व्हाट्सऐप पर अपना सब तरह का इतिहास कह ही रहे हैं – अच्छा भी, बुरा भी, तब मुझे लगा यह भी इसलिए कह लिया जाए कि यह सब इसी आकाशवाणी में सचमुच हुआ था!

इसमें से जो आपको कहने जैसा लगे, उतना ही सुनियेगा, बाक़ी छोड़ दीजिएगा.

जब-तब मैं आकाशवाणी के अपने अनेक गुरुओं का ज़िक्र करता रहा हूँ –  श्री डी.के. सेनगुप्ता, श्री गिजुभाई व्यास, श्री के. के. नय्यर और अन्य अनेक. किन्तु मेरे पहले और आख़िरी गुरु थे आकाशवाणी, जलंधर के असिस्टेंट प्रोड्यूसर (बाद में प्रोड्यूसर) स्वर्गीय श्री विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक’. मेरे पिता.

बचपन से ही उन्हें कभी रूपक, कभी संगीत रूपक या संगीत-ऑपेरा, कभी नाटक-झलकी तो कभी गीत लिखते देखता था. किराये के मकान के आँगन में खुरदरी खाट बिछाकर, उसपर लोहे का ट्रंक टिकाकर, ट्रंक पर काग़ज़ रख लेते थे और लिखा करते थे. आर्थिक संघर्ष करते परिवार के पास टेबिल-कुर्सी की सुविधा नहीं थी. उन काग़ज़ों को समेटने और सलीके से रखने में कुछ-न-कुछ मेरे भीतर भी सेंध लगाता रहा होगा.

पिताजी की बदौलत मैं आकाशवाणी के उन दिनों से परिचित था जब ‘द इंडियन लिसनर’ या ‘सारंग’ नामक पत्रिकाओं में विभिन्न केन्द्रों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों का विवरण प्रकाशित होता था और छापे गए एक भी कार्यक्रम के प्रसारित न होने पर, जिसे आकाशवाणी की अंदरूनी भाषा में ‘डेविएशन’ — deviation कहते थे, सम्बन्धित व्यक्ति को नौकरी से निकाल दिया जाता था. ये वे दिन थे जब नाटकों के लिए ड्रामा-वॉयस और इफेक्ट्स्मैन के पद होना विभाग का ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था. ड्रामा भी लाइव प्रसारित होते थे. ‘केवल आलेख’ के रूप में आमंत्रित वार्त्ताओं को लाइव पढ़ने के लिए प्रोड्यूसर को रात को भी दोबारा ऑफ़िस जाना होता था.

रेडियो के श्रोताओं को सब कुछ चकाचक देने का काम चुनौती-भरा था जिसकी अपनी अलग ही थ्रिल थी. रेडियो का दबदबा था. इसके लिए इतना कहना कि तब इलेक्ट्रोनिक मीडिया में रेडियो अकेला ही था, कोई प्रतियोगिता या चुनौती नहीं थी, उस समय की बेहद अनुशासनपूर्ण और अद्भुत कार्य-संस्कृति का तिरस्कार ही कहा जाएगा.

मुझे इसका भी अहसास बराबर हासिल होता रहा कि एक कवि, रचनाकार या सृजनशील व्यक्ति को यथोचित सम्मान न देना कैसा महापाप है. दफ़्तरी व्यवस्थाओं का हिस्सा हो जाने के बाद भी इस अहसास को अपने अन्दर जीवित रखने में मैं सफल रहा. 

अपने स्वाभिमान, स्पष्टवादिता, निर्भीकता, क्रोध एवं अतिशय भावुक हृदय के लिए जाने जाते बटुकजी को अनदेखा करना लगभग असम्भव था.

जलंधर (तब ‘जालन्धर’) में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई आयोजन था (आकाशवाणी का नहीं था) जिसका उद्घाटन तब के उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवनराम ने किया था और संचालन बटुकजी कर रहे थे. अपने उद्घाटन-भाषण में कहीं श्री जगजीवनराम कह बैठे कि हिन्दी किसी की भी मातृभाषा नहीं है. फिर क्या था, बटुकजी अपने संचालन-वक्तव्य में वहीं बाबू जगजीवनराम से भिड़ गए. उप-प्रधानमंत्री का तो ख़ैर क्या बिगड़ना था, कांट्रैक्ट-याफ़्ता असिस्टेंट प्रोड्यूसर की नौकरी पर ज़रूर बन आयी थी. बहुत दिनों तक बावेला मचा रहा था.

कांट्रेक्ट-याफ़्ता का मतलब था, उन दिनों जाने-माने लेखक, संगीतकार आदि नियमित नौकरी में न होकर एक निर्धारित मासिक शुल्क का अनुबंध स्वीकार करते थे और आकाशवाणी के लिए काम किया करते थे. एक तरह से यह नौकरी थी भी — रोज़ी-रोटी का जुगाड़, और नौकरी नहीं भी थी.     

हमारे घर में आने-जाने वालों में कुछ नाम याद आते हैं – बनारसीदास चतुर्वेदी, उपेन्द्र्नाथ ‘अश्क’, पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, जयनाथ ‘नलिन’, मधुर शास्त्री, श्यामाचरण श्रीवास्तव…. 

याद आता है नुक्कड़ के राशनवाले का उधार, माँ का बहुत-सा वक़्त आटा गूँधने में निकलना, घर की हवा का ऐसा होना कि जिसमें कविता, साहित्य, दर्शन-चिन्तन पर होती चर्चाएं होली के रंग और गुलाल के गुबार-सी उड़ा करें. रंग भी ऐसा कि कितना भी मल-मल कर नहाओ, न छूटे! जिसे दुनियावी समझ कहते हैं – practical prudence – कभी खिड़की के काँच पर दो हथेलियों को टिकाकर मिचमिची आँखों से हमारे घर के अन्दर झाँकने आयी भी होगी तो ज़रूर लौटते पाँवों से आयी होगी.      

शिक्षा-दीक्षा में जब मैं एम.ए. तक पहुँचा तो हम बाप-बेटा रोज़ सुबह एक-सवा घंटे की सैर को जाते थे. उस एक घण्टे में किसी दिन कबीर, किसी रोज़ तुलसी, कभी मोहन राकेश तो कभी ‘कामायनी’ पर पिताजी का भाषण चला करता था. शायद वह जानते थे कि गुरु से शिष्य में सरस्वती के अत्यल्पांश का भी ट्रांसफ़र एक निरन्तर प्रक्रिया से गुज़रे बिना नहीं हुआ करता.

इन सब के बीच इस दिल को फ़ुरसत के वे रात-दिन ढूँढने की फ़ुर्सत न हुई. अन्ततः अपुन तसव्वुरे-जानाँ किये बिना ही साठ के हुए!

इसलिए यह दुनिया यही दुनिया भी है, अलग भी है!

मेरे इन गुरु का, पिताजी का अंतिम ज्ञानोपदेश था – “मैंने तुम्हें बड़ी मेहनत से तैयार किया है. इसलिए कभी ऐसा न हो कि तुम संसार को आश्चर्यचकित करना भूल जाओ.”

जैसाकि संसार का हर गुरु करता है, सब सिखा देता है, मगर एक सबक, सबसे क़ीमती पाठ इसलिए छोड़ देता है कि अपने आप ढूँढो. वही मेरे साथ पिताजी ने भी किया. उस एक सबक को हासिल करने के बाद आप गुरु का प्रतिबिम्ब तो होते हैं, प्रतिच्छाया नहीं रह जाते. आप अचानक आप हो जाते हैं. अपने पिता-गुरु का Projection, न कि shadow!

मेरे इन गुरुजी ने यह नहीं बताया कि लोगों को चकित कैसे करना होगा!

मैंने बहुत-सी किताबें पढ़ देखीं. मगर हमेशा कोई-न-कोई ऐसा मिल गया, जो ज़्यादा पढ़े हुए हो. कहानी लिखने की कोशिश की तो देखा हमारे बीच पहले से ही कहीं बेहतर कहानी-लेखक हैं. कविता में उतरा तो पाया कि यह अपना मैदान नहीं है. सोचा कि चलो संस्कृति का अध्ययन कर देखता हूँ तो ऐसे भी अनेक अध्येता दिख गए जो मुझ से बढ़कर कहीं गहरे में उतरे थे. हारकर शरीर को तगड़ा करने के लिए वर्जिश करना और च्यवनप्राश चाटना शुरु किया कि पहलवान को देखकर तो अवश्य लोग चकित होंगे. मगर दूरदर्शन ने दारासिंह की फ़िल्में दिखा दीं!

पिता-गुरु की अवज्ञा हुई जा रही थी!!      

तभी दैव ने कुछ ऐसा किया कि मेरे ट्रांसफ़र होने शुरु हो गए. पहले दो-एक तबादलों में ही ज्ञानोदय हो गया कि नये-नये लोगों के बीच ढलना होगा. तब कुछ भिन्न समझना हुआ. पुरानी लीक पर चलने की आसानी न रही. हर बार बहुत कुछ शुरु से शुरु करना पड़ा.

और मन्त्र मिल गया!

Be an ever evolving personality! ऐसा व्यक्ति बन जाने की आदत हो गई जो निरन्तर ‘ग्रो’ कर रहा हो!!  फिर-फिर मिलने पर लोग पुराने को ढूँढें, मगर उन्हें हर बार एक नया ही अजनबी मिले. किसी को पहले से अच्छा, किसी को पहले से बहुत बुरा! वे हैरान क्योंकर न होंगे!

इस तरह उमड़ता-घुमड़ता, ऐंठता-इठलाता जब तक मैं 1987 में केंद्र-निदेशक होकर जोधपुर पहुँचा, कुछ ऐसा हो गया कि साथी और मातहत मित्र मुझे ‘विचित्र किन्तु सत्य’ कहने लगे.

क्योंकि जब यह हुआ मैं जोधपुर में था.

आकाशवाणी के दिल्ली-स्थित महानिदेशालय से आने वाले डाक के लिफ़ाफ़े में एक दिन एक आदेश-पत्र निकला जिसके अनुसार तीन महीने की किसी ट्रेनिंग पर मुझे हॉलैण्ड जाना था.

मैंने ‘नहीं जाऊँगा’  लिखकर भेज दिया. भाषा यह नहीं थी. मेरे लिखे का भाव अवश्य था.

इसके बाद किसी कार्यवश जब जोधपुर से दिल्ली जाना हुआ तो दो व्यक्ति मुझपर बहुत ख़फ़ा थे. एक, स्टाफ़-ट्रेनिंग के निदेशक श्री एस.के. शर्मा नाम के अधिकारी, और दूसरे उप-महानदेशक श्री सी.आर. रामास्वामी. शर्माजी कड़क लेकिन मोम जैसे हृदय वाले, अनुशासन के पक्के और न्यायप्रिय अधिकारी थे. मुझे तभी मालूम हुआ कि विदेश की ये ट्रेनिंग स्टाफ़-ट्रेनिंग के रेकमेण्डेशन पर ही तय होती हैं. अपनी की गई व्यवस्था के पूरा न होने पर शर्मा साहब की नाराज़गी के पीछे से मेरे प्रति उनका स्नेह भी झाँक रहा था.

कुछ ऐसा ही मामला श्री रामास्वामी के साथ था. हर बार मिलने पर ‘आज मुझे क्या सिखाओगे’ कहकर मुझे झेंपने को विवश कर देने वाले श्री रामास्वामी को शिकायत थी कि ‘हम यंग लोगों को मौक़ा देते हैं और वे हमारी अपेक्षा पर खरा नहीं उतरते’.

मेरा निवेदन था, यंग मैं अकेला थोड़े हूँ. जिसे चाहिए, मौक़ा उसे दीजिए.

“तुम समझते हो तुम्हें ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत नहीं है?”

ट्रेनिंग की तो शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरत मुझे ही है. मगर हॉलैण्ड से नहीं, आपसे. मेरी जो बीस-बाईस वर्ष की नौकरी और है, उसमें आप मुझे रोज़ घंटा-दो घंटा ट्रेनिंग दीजिये, मुझे मंज़ूर होगा. 

“यह तुम्हारी ड्यूटी थी”.

सर, ड्यूटी होती तो ज़रूर जाता. आज गया, कल लौट आया. तीन महीने तक किसी और देश की धूल फाँकने के लिए जाना मुझे नहीं रुचता. कभी-कभार मैं उनकी एक-आध किताब पढ़ लेता हूँ, उनकी कोई फ़िल्म देख लेता हूँ, रेडियो सुन लेता हूँ तो जान जाता हूँ वे किस तरह सोच रहे हैं. दिन-दिन मेरा विश्वास गहरा होता जाता है, उनकी भाषा हमारे राष्ट्र का सत्यानाश कर रही है और उनकी ट्रेनिंग आकाशवाणी का बंटाढार करने में लगी है. अभी तक मैं साऊथ इंडिया को जानता नहीं हूँ, नॉर्थ-ईस्ट के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है, और तीन महीने बाद लौटकर आऊँ तो तीन साल तक क़मीज़ का कॉलर सीधा न करूँ – यू सी, व्हेन आइ वाज़ इन नीदरलैंड्ज़…..सर, यह मेरे मूल्यों में बैठ नहीं रहा.

फिर मुझे याद आए बचपन के वे दिन जब देसी घी कुछ मंहगा लगने लगा तो माँ ने टिन का एक पुराना डिब्बा धो-पोंछ कर साफ़ किया था और बहुत छुप-छुपाकर एक सेर वनस्पति घी लायी थी. कोई देख लेता तो कुल की प्रतिष्ठा धूल में जा मिलती कि ये लोग घी नहीं, ‘डालडा’ खाते हैं! विदेश की ट्रेनिंग मेरे लिए घी छोड़ डालडा खाने जैसी थी. मैं जिस टाइप का व्यक्ति हूँ, हॉलैण्ड हो आया तब कॉलर अकड़ाना तो जाने दीजिये, मुँह और छिपाता फिरूँगा.

अपनी ऐसी ही फाकामस्ती के चलते अभी पिछले दिनों मैंने अपनी लिखी – लिखी क्या, घसीटी — तमाम कविताएं कम्प्यूटर से डिलीट कर दीं. मुझे लगा अब कविता वहाँ उतर आयी है जहाँ से केवल झूठ बोला जा सकता है. कभी कुछ कहना-लिखना होता है तो गद्य का सहारा लेता हूँ. मेरे देखे गद्य भाषा का जाट है. यहाँ ‘जाट’ जाति-सूचक शब्द न होकर इस अर्थ में है कि जो सीधी, खड़ी और खरी कह सके.

अनेक शुभचिन्तक जब-तब इन सब लेखों को पुस्तक-रूप में प्रकाशित करवाने का भी सुझाव देते रहते हैं. फिलहाल इससे भी बच रहा हूँ. एक किताब आ गई और ख़ुदा-न-ख्वास्ता एकाध पुरस्कार का जुगाड़ हो गया तब तो मैं कहीं का न रहूँगा.    

उस वक़्त सर मुझे डाँट लगा रहे थे, इधर मैं सामान्यत: सहमा-सकुचाया, अपने में सिमटा रहने वाला प्राणी, सिर पर आ बनी तो बहुत कुछ कह गया. श्री रामास्वामी का स्नेह और अपनापन भी मैं देख पा रहा था. उन्होंने सब सुना, आँखों की पुतलियाँ कुछ ऐसे घुमायीं मानो ‘incorrigible’ की स्पेलिंग जाँच रहे हों, ‘ओ के’ कहकर उन्होंने हाथ आगे किया, और मैं चला आया.

घर पर भी लगभग ऐसी ही स्थिति रही. सब को लग रहा था मैंने परिवार को मिलते गौरव से उन्हें वंचित कर दिया है. जब पिताजी गुस्सा कर रहे हों तो किसी और के बोलने की ज़रूरत नहीं होती थी. उनके कहे हुए में सब अपने आप आ जाते थे.

जोधपुर लौटते-लौटते मुझे एक सत्य कन्फ़र्म हो गया. हम धनिक हो सकते हैं, समृद्ध हो सकते हैं, बड़े हो सकते हैं. फिर भी हम आधे-अधूरे मनुष्य रह जाते हैं. केवल इसलिए कि हम हमारे प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखने वाले अपने बड़ों की महत्त्वाकांक्षाओं के क़ैदी होते हैं. पुत्र भरत के लिए राज्य माँगकर कभी माता कैकेयी ने यही किया होगा. शायद हमारे बड़े-बूढ़े प्रचलित सामाजिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में अपनी किसी महत्त्वाकांक्षा की हद तक हमारा हित देखते हैं.

निश्चित ही जिन समाजों में वर्त्तमान पीढ़ी इन महत्त्वाकांक्षाओं को अपने अन्दर स्वयं पालने में समर्थ हो जाती है वहाँ बुज़ुर्गों की इज्ज़त होना समाप्त होने लगता है और वृद्धाश्रम खुलने लगते हैं.

साल-दो साल भी न गुज़रें होंगे कि इस बार बी.बी.सी. जाने का आदेश आ गया. सो भी छह महीने के लिए!

‘नहीं जाऊंगा’ – (रिपीट).

अबके ज़्यादा मारा-मारी नहीं हुई. मेरे माथे पर लिखा – ‘हम नहीं सुधरेंगे’ सहज पढ़ लिया गया.

कोई माने-न-माने, मेरा मन सदा से यह कहता रहा था कि भारतीय प्रतिभा बेहतर है. हमारे रंग-ढंग, रहन-सहन, खान-पान, सोच-समझ अधिक सहज हैं.

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि विदेश जाने, विभिन्न लोगों से मिलने, उन्हें जानने, दुनिया घूमने-देखने से मेरा विरोध नहीं है. मीडिया-कर्म के लिए विदेशी ट्रेनिंग के प्रति सजग रहने का अवश्य पक्षधर हूँ. 

ऐसे ही एक बार पी वी नरसिंहराव की नई अर्थनीति पर आकाशवाणी भवन, नयी दिल्ली में चल रही एक बैठक में महानिदेशक महोदय बता रहे थे कि प्रधानमन्त्री इस दिशा में आकाशवाणी के प्रयत्नों से नाख़ुश हैं. भरी मीटिंग में उचित अवसर देखकर मेरे मुँह से निकल गया, ऐसा क्यों होता है कि हम दूर-दराज से दिल्ली आते हैं और हमेशा एक अपराध-बोध लेकर लौटते हैं? (तब मैं जोधपुर से नहीं, भुज, कच्छ से गया था).

श्री सी. आर. रामास्वामी  ने मुझ से कहा, “यू कम विद मी” और मुझे अपने साथ अपने कक्ष में ले गए. शायद उन्हें भय था, यह अभी और गड़बड़ करेगा!

उनके कमरे में मैंने उनसे कहा, मैं इस बात पर दृढ़ हूँ कि भुज, कोहिमा, जगदलपुर दिल्ली को बतायें, क्या करना है, दिल्ली इन्हें नहीं बतायेगी. भारतवर्ष या अफ़्रीकी देश अमेरिका को बतायें, क्या करना चाहिए, अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र क्योंकर हमें बताये क्या करना है?

हमारे एक साथी स्व. श्री अभय पाढ़ी ने एक बार कहा था, दिल्ली की पोस्टिंग के बाद हर शेर बेकार हो जाता है! एक मज़ाक़ में कही लगने वाली यह बात दरअसल बहुत गहरी है. 

हमारे यहाँ की एक-से-एक बढ़कर प्रतिभायें अपनी बात खुलकर कहती हैं. उनकी प्रतिभा को न देखना बहुत भद्दी बात होगी. मगर यह और भी भद्दी बात होगी कि विदेश-यात्रा के चक्कर में हम यह न देख पायें हम किस तरह अपने यहाँ की प्रतिभाओं का कचरा किये डाल रहे हैं!   

बात विदेश-यात्रा की नहीं है. उसे इतराने जैसा मान लेने की है. हमारी प्राथमिकताओं की है. शीघ्र ही अन्तरिक्ष में भी छुट्टी मनाने का प्रबन्ध होने जा रहा है. तब विदेश-यात्रा ऐसी लगेगी जैसे साइकिल से बग़ल के गाँव जाना. मगर कोरोना-कार्टून में भूखा बच्चा पिता से इतना ही पूछ रहा होगा – बाबा, रोटी ग्रीन ज़ोन में आती है या रेड ज़ोन में?

यह सब कितना विचित्र है, मुझे मालूम नहीं. सत्य है, बस इतना मालूम है.

और जब यही मैं आकाशवाणी, अहमदाबाद में केन्द्र निदेशक था, अचानक एक दिन उर्दू के बड़े शायर सरशार साहब ने मेरे कमरे में प्रवेश किया. पाँवों की एक चप्पल इधर उछाली, दूसरी उधर जो दरवाज़े के किनारे रखे सोफ़े के नीचे घुस गई.

मैं कुर्सी से उठा, उन्हें प्रणाम किया, हाथ पकड़कर बड़े सोफ़े पर आराम से बैठाना चाहा मगर वह धम्म से बैठ गए. उनके पास मैं ख़ुद बैठ गया. उर्दू के कार्यक्रम अधिकारी सादिक़ भाई – श्री सादिक़ नूर पठान और सहायक केन्द्र निदेशक श्री तुषार शुक्ला को बुलवाया, (या वे दोनों श्री सरशार के साथ ही आये थे, याद नहीं).

सरशार साहब बहुत परेशान थे, एकदम बदहवास. उन्हें पानी पिलवाया. कुछ चाय-नाश्ता मँगवाया और उनका हाथ थाम कर पूछा, सब ख़ैरियत?

सरशार साहब पूरे फ़क़ीर आदमी, बुज़ुर्ग और ऊँचे पाये के शायर. उन्हें कष्ट में देखकर हम सब भी परेशान हो गए.

श्री सरशार को अपने घर सहारनपुर जाना था और बड़े संकोच से उन्होंने बताया कि वह किस आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहे थे. इतने भी पैसे उनके पास नहीं थे कि वह सहारनपुर का टिकट ख़रीद सकें!

ऐसा आर्थिक अभाव हमेशा से लगभग हर सच्चे कवि का सहोदर रहता आया है. हमारे होने की धन्यता इसी में है कि ऐसी स्थिति में कोई कवि या कलाकार आकाशवाणी की ओर देखे तो उसकी एक आँख में भरोसा हो, दूसरी में अपनापन!

तुषारजी और सादिक़ भाई ने मिलकर जितने सम्भव थे उतने प्रस्ताव और अनुबन्ध तैयार किये जो किसी कवि को प्रसारण के शुल्क का भुगतान करने के लिए आवश्यक औपचारिकताएं होती हैं. मेरी प्रशासनिक व्यवस्था में मुझे कुछ कहना नहीं पड़ता था. मेरी टीम का हर सदस्य जानता था, मेरे रहते उन्हें किस परिस्थिति में क्या करना है.

प्रशासनिक अधिकारी को बुलाकर बता दिया गया कि इन सब अनुबन्धों की कुल रक़म का कैश में भुगतान करें, या किसी को बैंक भेजकर बेयरर चेक से कैश मँगवाएं. यद्यपि नियम यह था कि क्रॉस किये चेक से ही भुगतान किया जाता था.

सादिक़ भाई तमाम रेकार्डिंग पूरी करने के लिए सरशार साहब को स्टूडियो में ले गए. उतनी देर में मैंने श्री नन्दन मेहता को फ़ोन किया. ज़िंदगी में पहली बार.

श्री नन्दन मेहता अहमदाबाद में तबला के अच्छे कलाकार थे. संगीत की क्लासेस भी चलाते थे. अच्छे समृद्ध व्यक्ति थे. अचानक मेरा अनपेक्षित फ़ोन गया तो वह हैरान-परेशान! बोले, “दीक्षितजी, आप फ़ोन पर? क्या हुआ?”

“हुआ कुछ नहीं. बस, इस विजय दीक्षित को आज आपसे पाँच हज़ार रुपये की ज़रूरत है, सो भी नक़द, अभी और इसी वक़्त! मैं परवेज़ को आपके पास भेज रहा हूँ. वह बतला देगा क्यों चाहिएं.”

मैं कभी किसी को फ़ोन नहीं करता था. इस तरह रुपये माँग लूँगा, यह तो सपने में भी कोई सोच न पाये! अहमदाबाद में भूकम्प के कुछ झटके लाने के लिए यह एक फ़ोन काफ़ी था.

परवेज़ वहाँ का प्यारा-सा, सबका मददगार, मधुर स्वभाव वाला सीनियर क्लर्क था और श्री नन्दन मेहता उसे अच्छे से पहचानते थे, उसपर भरोसा रखते थे. उसे बुलाकर पूरी बात समझायी और कहा, ऑफ़िस की गाड़ी ले जाओ और नन्दनजी से रुपये ले आओ. सरशार साहब स्टुडियो से आयें तो अपने हाथों से उन्हें देना. इस कार्य का पूरा पुण्य और फ़क़ीर का आशीर्वाद तुम्हें मिलना चाहिए.

अब तक पूरे ऑफ़िस को मालूम हो चुका था, शायर का क्या मूल्य है.

इधर सरशार साहब लौटे, उधर बैंक से उनका पैसा भी आ गया. अभी उन्होंने पानी भी पूरा नहीं पी पाया था कि नन्दनजी के यहाँ से परवेज़ भी आ गया और उसने रुपये सरशार साहब के हाथों में रख दिए. वे क्षण हम सभी को एक साथ रोमांचित कर रहे थे.

नीयत में शिद्दत हो तो पूरी कायनात भी सौ तरह से मदद करने की साज़िश रच लेती है. तभी अचानक गुरुजी उधर आ निकले. यों तो वह सामान्य गृहस्थ थे, आध्यात्मिक व्यक्ति होने के नाते मैं उन्हें ‘गुरुजी’ कहता था. एक नास्तिक से बदलकर मन्त्र-जाप में इन्हीं गुरुजी ने मुझे प्रेरित किया था. (मेरे इस ‘पूजा-पाठ’ के चर्चे दिल्ली तक हो गए थे, जिसे मैं ‘महादेव को धोखा देना’ कहा करता था. वह किस्सा अलग से कभी.)

उठकर मैंने गुरुजी के चरण-स्पर्श किए और सरशार साहब से उनका परिचय करवाया. गुरुजी भी मगन होकर एक शायर के साथ हो रही आकाशवाणी के लोगों की बात सुनते रहे, उसमें शरीक़ होते रहे. बातों-बातों में जब उन्हें पूरी बात जानने को मिली, गुरुजी ने अचानक अपने कुर्त्ते की जेब में हाथ डाला और जो दो-चार हज़ार रुपये निकले, सब सरशार साहब के हाथों पर रख दिये.

पूरा आकाशवाणी परिसर उन चार-छह घंटों के लिए एक काव्यात्मक और आध्यात्मिक स्वप्निलता में डूबा रहा. हम सब उन क्षणों में भावना के उस मानसरोवर में डुबकी लिये हुए तीर्थ-यात्री थे जहाँ का मूल निवासी कला और साहित्य से सम्बन्धित मीडिया को सदा होना चाहिए.   

श्री सरशार अपनी सारी उदासी, सारा अकेलापन आकाशवाणी के उस छोटे-से डस्टबिन में डालकर चलने को हुए, तो उन्हें उनकी एक ही चप्पल मिली. मैं पास ही खड़ा था. झुककर मैंने सोफ़े के नीचे हाथ डाला, दूसरी चप्पल निकाली और अपने हाथों से कवि के पाँव में पहना दी. सादिक़ भाई ‘अरे, अरे’ कर रहे थे. गुरुजी अपने शिष्य के प्रति गर्व से भर रहे थे.

श्री सरशार ने अपनी जेब से उनका निजी सुलेमानी पत्थर निकाला और मुझे थमा दिया. उनका हाथ मेरे सिर पर था.

वह सुलेमानी पत्थर मेरे पूजा-स्थल पर रखा हुआ है. मेरे गणेशजी दिन में कई बार उसमें से निकलते फ़क़ीर के आशीष-स्पन्दन मुझ तक पहुँचाया करते हैं.

जून 2020

करबद्ध क्रोध


यदि मैं कहूँ कि मुझ से कभी कोई ग़लती नहीं हुई, मैंने कभी कोई भूल नहीं की, मैं कभी नहीं लड़खड़ाया, अपने जीवन में, अपनी नौकरी में हमेशा केवल ठीक ही निर्णय किये, तो इन सब बातों का केवल एक अर्थ निकलता है – कि मैं झूठ बोल रहा हूँ.

आज की दुनिया के समझदारों के बीच झूठ-झाठ बोलकर कोई कितने दिन टिका रह सकता है, सो सब को मालूम है.

फिर भी आकाशवाणी की दुनिया में एक असत्य का सामना वहाँ काम करने वाले हम सब करते आ रहे हैं – बल्कि कहें कि उस एक ‘असत्य’ को हम सब अपने-अपने खीसे में संभालते आ रहे हैं. सो भी स्वेच्छा से! इस असत्य की पड़ताल में गुरुओं का आशीर्वाद मेरे बहुत काम आया. गुरुओं ने दिया तो बहुत, किन्तु मुझ में इतना ही समा पाया. वही यहाँ प्रस्तुत है.

पिछले दिनों एक वकील साहब की हथेली और बाँह पर एक गिलहरी को प्यार और इतमीनान से खेलते हुए देखा था, कुछ फ़ोटो में. वास्तव में ब्रॉडकास्ट का पूरा-का-पूरा कारोबार संवेदन के संवाद पर चलता है – गिलहरी हो या ग़ज़ल. दोनों अपनी त्वरा में इतने स्मार्ट हैं कि उनके आचरण में किंचित् भी छन्द-भंग उनके कम्यूनिकेशन को तुरन्त पटरी से उतार देता है. सहजता का व्याकरण है ही कुछ ऐसा कि असावधानी या उपेक्षा की नहीं कि गिलहरी और ग़ज़ल, दोनों हमसे छिटक जायेंगी. उन्हें समझने से इनकार उनका नहीं, हमारा छन्द-भंग है.

‘असत्य’ ही छन्द-भंग है, छन्द-भंग का कारण है.

जब रेडियो ब्रॉडकास्ट का सिलसिला शुरुआती दौर में था और लोकप्रिय हो रहा था उस समय शॉर्टवेव और मीडियम वेव वह तकनीक थी जो हमारे प्रसारण का आधार थी. उस तकनीक को इस बात की ज़रूरत थी कि हम श्रेष्ठ मंच-नाटकों, जाने-माने उपन्यासों आदि का रेडियो नाट्य-रूपान्तरण करें और उन्हें लोगों तक पहुँचाएं. किसी उपन्यास को किताब में पढ़ने का जो सुख है, वह उसे नाट्य-रूप में सुनने पर भी उतना ही मिले. क्योंकि इस रूप में उस रचना का मज़ा ही कुछ और है.

‘लोगों तक पहुँचाएं’ से अभिप्राय इस ‘कुछ और ही’ आनन्द को अनुभव करने-करवाने से था. यह अर्थ नहीं था कि ये रचना-धर्मी कृतियाँ लोगों तक पहुँची नहीं थीं. वे प्रसारण-माध्यम के बिना भी उन पाठकों के बीच थीं जिनके बीच उन्हें होना चाहिए था. जो पढ़ नहीं सकते थे, वे उन दिनों रेडियो-सेट भी नहीं ख़रीद सकते थे. इन रचनाओं की ज़रूरत मीडियम वेव-शॉर्टवेव तकनीक को अपनी धन्यता हासिल करने के लिए थी. मूलतः तकनीकी माध्यमों को श्रेष्ठ सृजन-धर्मी रचनाओं की ज़रूरत थी. उपन्यास-कहानियों की, नाटकों की, विचार-वार्त्ताओं की, परिचर्चाओं, सूचनाओं, समाचारों की, जन-सामान्य को नयी-से-नयी जानकारियों में शिक्षित करने में जो सहायक हों ऐसे आलेखों की ज़रूरत थी. शिक्षण के अतिरिक्त मनोरंजन के लिए श्रेष्ठ गीतों और सुमधुर संगीत की ज़रूरत थी.

यह प्रश्न सब तरह से बेमानी था कि इस सब को जन-जन तक पहुँचाने का काम प्रसारण-कर्मियों के सामने कोई ‘चुनौती’ है. चुनौती नहीं, वह सृजन-धर्म के गौरव का सम्मान सुरक्षित रखते हुए एक और सृजन-कर्म था!  

जब हम संवेदन और सृजन के सामने सवाल उठाते हैं, उन्हें तकनीक की ‘चुनौती’ नाम के भूखे शेर से मल्ल-युद्ध करने में डालते हैं तो यह पड़ताल ज़रूरी हो जाती है कि छन्द-भंग कहाँ हो रहा है.

विज्ञान की उपलब्धियों से आतंकित होकर उसके प्रति अतिरिक्त आग्रह रखने के कारण आधुनिक मन और बुद्धि किसी भी नयी तकनीक के आते ही चिन्तित हो उठते हैं कि अब रचनात्मकता के सामने चुनौती आ खड़ी हुई है. चुनौती यह कि उसे स्वयं को अब इस नई तकनीक के अनुकूल कैसे ढालना होगा. सृजन-कर्म को अब अपने अन्दर कुछ ऐसे परिवर्त्तन लाने होंगे जिनके चलते वह ‘लोगों तक पहुँचने’ के नवीनतम प्लेटफ़ॉर्म के अनुकूल बन जाये. मीडियम वेव-शॉर्ट वेव से लेकर एफ़ एम तकनीक और फिर डिजिटल माध्यम आदि तकनीक के निरन्तर परिवर्त्तित-विकसित स्वरूप को लेकर रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों के सामने ‘चुनौती’ बताकर ऐसे प्रश्न उठाए जाते हैं. इन प्रश्नों को बेमानी कहना आज ग़ैर-वैज्ञानिक ठहराकर कहने वाले को शर्मिन्दा होने की स्थिति में ला दिया जाता है.   

इस चिन्ता को गोबर के उपलों की तरह रेडियो-प्रसारण की दीवार पर सर्वाधिक चिपकाया गया है. विशेषत: एफ़ एम तकनीक आने के बाद से. उपला तो लिजबिजा ही रहा, दीवार ज़रूर सूख गयी. जबकि सत्य यह है कि ऐसी चिन्ता न केवल मिथ्या है, अपितु प्रोग्राम-संरचना के आधार-रूप में जो उदात्त सृजन-शक्ति सक्रिय रहती है उससे अपरिचय की भी द्योतक है.

यही वह झूठ है जिसके कारण रेडियो के तमाम कार्यक्रम रचनाकारों को, प्रोग्राम केडर के सभी लोगों को उनके मूल चरित्र से ही बेदख़ल हो जाना पड़ा. छंद-भंग ऐसा हुआ कि पूरा-का-पूरा मामला हमेशा के लिए बेसुरा हो गया लगता है.

ऐसी मिथ्या चिन्ता को सृजन-शक्ति से तो अपरिचय है ही, इस एक सत्य से आँख चुराये रखने का भी हठ है कि विज्ञान के अपने अंधविश्वास होते हैं. इस सोच को विज्ञान को अंधविश्वासी मानने से इनकार है. विज्ञान तो अन्धविश्वास को दूर करने वाला माना जाता है. यह विचारणीय है कि समाज में प्रचलित अन्य किसी भी कोटि के अंधविश्वास किन्हीं अनुभवों पर आधारित होने से शायद उतने ख़तरनाक न भी हों, जितने अवांछित परिणाम लाने वाले विज्ञान के अंधविश्वास हो सकते हैं, क्योंकि वे तथ्यों से निकले होते हैं. विज्ञान तथ्य-परक है. 

विज्ञान और तकनीक को लेकर एक बहुत बड़ा अन्ध-विश्वास यह है कि वह एक क्रान्ति है. वह परम्परा-भंजक है. जबकि सत्य इसके एकदम विपरीत है. सच तो यह है कि विज्ञान की एक परम्परा होती है. एक लंबी परम्परा के बिना विज्ञान चल ही नहीं सकता. हर नया वैज्ञानिक दरअसल अपने से पहले वाले वैज्ञानिक के कन्धों पर पाँव टिकाकर खड़ा होता है. वैज्ञानिक का काम इतना चुनौती भरा है कि आगे बढ़ने के लिए उसे पहले की कोई खोज चाहिये, चाहे वह अकस्मात जान लिया गया कोई प्राकृतिक रहस्य ही हो. ध्यान से देखें तो आर्किमिडीज़, पायथागोरस, गैलीलियो, न्यूटन से लेकर आइन्स्टाइन तक विज्ञान के हर क्षेत्र की एक परम्परा है. बीच की एक भी कड़ी निकाल दीजिये, सब ताश के पत्तों से बनी मीनार की तरह भरभरा कर ढह जाएंगे.

विज्ञान एक परम्परा है, पारम्परिक शृंखला है. तकनीक इस परम्परा की घिसावट में से निकला बुरादा है.

इसका यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान निन्दनीय अथवा त्याज्य है. विज्ञान और उसपर आधारित तकनीक उपयोगी हैं. चाँद पर जाना हो और कोई कहे मैं तो अपनी घोड़ा-बग्घी या बैलगाड़ी में ही जाऊँगा तो नहीं चलेगा. यहाँ विज्ञान और उसका बनाया यान ही उपयोगी है. यों, बग्घी और बैलगाड़ी भी आख़िर किसी तकनीक से काम करते थे, करते हैं.

बग्घी से ध्यान आया, सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में, अमेरिका में भी, ‘स्टेजकोच’ या ‘स्टेजवैगन’ नाम की बग्घियाँ चला करती थीं. ये आम तौर पर चार घोड़ों से चलती थीं और लम्बे सफ़र में काम में लायी जातीं थीं. इन में पैसा देकर (टिकट?) यात्रा की जाती थी. बीच-बीच में ‘स्टेज-स्टेशन’ भी हुआ करते थे जहाँ रुककर ‘कोच’ के घोड़े बदलकर ताज़ादम घोड़े जोते जाते थे.

जब स्टीम इंजन वाली गाड़ी आयी तो ‘स्टैंडर्ड गेज’ की जो रेल-पटरियाँ बिछायी गयीं वे ‘स्टेजकोच’ के दोनों तरफ़ वाले पहियों की दूरी पर थीं! इस परम्परा को निभाने के बाद ज़रूरत के अनुसार ब्रॉड-गेज, मीटर-गेज या नैरो-गेज की पटरी बिछाना कहाँ मुश्किल था?

दुनिया भर में ट्रेन का आज तक चला आ रहा रेलवे गेज ‘स्टेजकोच’ की परम्परा में है! ‘वैगन’ और ‘कोच’ जैसी संज्ञायें तो ख़ैर इस परम्परा की हैं ही.

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जेम्ज़ वाट ने जो स्टीम इंजन बनाया था वह टॉमस न्यूकमेन नाम के इंजीनियर द्वारा पहले बनाये गए स्टीम इंजन की परम्परा में था.

यह विज्ञान का अपना अंधविश्वास है कि वह परम्परा-भंजक है. दरअसल विज्ञान एक परम्परा है.

सृजन-क्रिया के लिए ऐसा कहना सही नहीं है. तात्कालिक दृष्टि से – प्रथम दृष्ट्या ऐसा लग सकता है कि रचना-संसार में भी परम्परा होती है. कृष्ण-काव्य की परम्परा है. राम-काव्य में वाल्मीकि की ‘रामायण’ से लेकर मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ तक एक परम्परा है.

किन्तु मेरे देखते रचना की प्रक्रिया प्रथम-दृष्ट्या तथ्य को चीरकर गहरे उतरती है. राम-काव्य की परम्परा में से तुलसी को हटा देने से आकाश का एक जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र अवश्य लुप्त हो जाता है, मगर राम-काव्य की परम्परा विज्ञान की माफ़िक भरभरा कर ढह नहीं जाती.

इसे यों समझना होगा. दैनन्दिन सूर्योदय प्रकृति की एक परम्परा है. खगोल-विज्ञान ने बता दिया है कि — विज्ञान के महत्त्व से इनकार नहीं है, उसे सिर पर बैठा देने पर पुनर्विचार किया जा रहा है — सूर्य रोज़-ब-रोज़ बुझता जा रहा है. करोड़ों वर्षों में यह कभी पूरा बुझ जायेगा. इसलिए नित्य का सूर्योदय सदा एक बदले हुए, एक नये सूर्य का उदय है. कल का सूरज आज नहीं उगा, आज का कल नहीं उगेगा. कहाँ है परम्परा? ठीक ऐसे ही रचना के संसार में प्रत्येक कवि, लेखक और सृजन-कर्त्ता का सूरज परम्परा में नहीं, अपनी स्वतन्त्र सत्ता में नया ही उगता है.

रेडियो-प्रसारण को केवल प्रोपेगेण्डा-प्रसारण मान लेना और ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ से आगे न देखना, इसे केवल रेवेन्यू-कमाई का साधन मान लेना जो कर सकता था उसने किया. सर्जनात्मक प्रतिभा की पहचान गँवा देने से ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ को ‘गनपत दारू ला’ में बदल दिया. प्रोग्राम केडर के हम लोगों का क्रोध इस पर सदा करबद्ध ही रहा. मेरे कवित्त पढ़ो तो लगे क्रोध है. यह सावधानी ज़रूर रखता हूँ कि सत्ता को बस जुड़े हुए दो हाथ नज़र आयें!

सांस्कृतिक आत्महत्या की टेक लिये हुए मन और सृजन की हाराकीरी पर उतारू बुद्धि को छत से कूद जाना हर बार एक चुनौती जैसा लगता रहेगा.

रचना-कर्म की अन्तश्चेतना और विज्ञान की बाह्य-दृष्टि में अन्दर-बाहर का यह जो अन्तर है, वह भी विज्ञान को अन्धविश्वास में धकेलने का काम करता है.  

एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिये जो रात के अँधेरे में चला जा रहा है. रास्ते के रोड़ों-रुकावटों से टकराते-जूझते धीरे-धीरे उसका आगे बढ़ना ही उसकी विकास-यात्रा है. लेकिन विज्ञान की दुनिया में इसे विकास कहना इसलिए अंधविश्वास है कि यात्रा को मंज़िल नहीं माना जा सकता. आख़िर आँख बन्द करके विश्वास कर लेने को ही अन्धविश्वास कहते हैं.

इसी भूल के चलते विज्ञान के निष्कर्ष कुछ वर्षों के भीतर बदल जाते हैं. अँधेरे की इसी यात्रा को न्यूटन ने विशाल सागर के किनारे कंकड़ बीनना कहा था. थॉमस एडिसन ने भी स्वीकार किया था कि हम एक प्रतिशत का दस लाखवाँ हिस्सा भी नहीं जानते हैं.

अँधेरे में चल रहा व्यक्ति अपनी टॉर्च की रोशनी डालता है और सामने सड़क के गहरे गड्ढे का तथ्य उसके हाथ लग जाता है. टॉर्च ने निस्सन्देह गड्ढे से बचने में उसकी मदद की. थोड़ा आगे जाने पर टॉर्च की बीम ने जो दिखाया उससे तथ्य बदल गया. अब गड्ढा नहीं, एक बड़ी चट्टान रास्ते की रुकावट है. टॉर्च की मदद से वह चट्टान से टकराने और चोट खाने से भी बच गया. उसके आगे की यात्रा कभी रास्ते पर भरे पानी की सूचना लाती है तो कभी ऐसे ख़तरनाक मोड़ की जहाँ से गहरी खाई में गिरने का भय था.

हर क़दम परिवर्तित स्थिति और तदनुसार नये निष्कर्ष में ले जाने का ही काम करता है. यह विज्ञान और तकनीक की नियति है. 

मगर यदि आसमान में अचानक बिजली चमक जाए तो सामने के पत्थर, खड्डे, पानी, मोड़ और खाई एकबारगी दिखलाई पड़ जाते हैं!

जब यात्रा न तो टॉर्च की मदद से, न आकाश में चमक कर ग़ायब हो जाने वाली बिजली में बल्कि चमचमाते सूर्य के प्रकाश में होती है तो सब कुछ साफ़-साफ़ देखकर निष्कर्ष दिये जाते हैं. इन निष्कर्षों पर पहुँचने का नाम है रचनाशीलता, सर्जन-प्रक्रिया, सृजन-कर्म, और प्रसारण की भाषा में कहें तो प्रोग्राम-धर्म!

यह ‘प्रोग्राम-धर्म’ कैसे काम करता है और क्या कर दिखलाता है, विज्ञान के अंधविश्वासों से प्रभावित व्यक्तियों ने ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ में इसकी प्रभाविता को देखा और उसे रेवेन्यू-कमाई से जोड़ने में देर नहीं लगायी. विज्ञान नियम-नियंत्रित है. इसलिए प्रोग्राम की ‘स्वतन्त्र सत्ता’ को इस तरह नियन्त्रित करके ही बदलती तकनीक को चुनौती की तरह पेश किया जा सकता था. स्वतन्त्रता विज्ञान-बुद्धि को भयभीत करती है! जर्मनी के मनोविश्लेषक एरिक फ़्राम ने तो ‘The Fear of Freedom’ नाम की किताब ही लिख डाली थी!

जो ये महानुभाव नहीं देख पाये, जिसे देखने के लिए परम्परा के पार जा सकने की क्षमता का वरदान चाहिये, जो वरदान केवल सृजन-कर्म अर्थात् प्रोग्राम-धर्म को उपलब्ध है, उसे देखना ज़रा गहरी बात है. उस गहराई तक जाने के लिए वैज्ञानिक तर्क-बुद्धि नहीं, आर्टिस्ट-मिजाज़ काम लगेगा.

आपको याद होगा, ‘रामायण’ के लिए कहा जाता है, महर्षि वाल्मीकि ने उसे राम के जन्म लेने से पहले ही लिख दिया था. सदियों से यह कथन चला आता है. तर्क-बुद्धि ने इस बात को मोड़ देकर इसे ‘नियतिवाद’ बता दिया कि सब कुछ पूर्व-निर्धारित होना भाग्यवाद है. मेरी समझ से वह कोई रेडियो का आदमी रहा होगा जिसने राम-जन्म के पहले ‘रामायण’ का लिखा जाना बताया.

क्योंकि सब कुछ स्क्रिप्टेड है!

वाल्मीकि जैसा कवि कुछ लिख दे तो ब्रह्म को भी आकर उसे निभाना होता है. अब आप कल्पना कीजिये, राम को ब्रह्म होते हुए भी राज-पाट छोड़ना पड़ रहा है, वन जाना पड़ रहा है, सीता के चुरा लिए जाने पर, या लक्ष्मण को मूर्च्छा आने पर रोना पड़ रहा है. राम ब्रह्म हैं भी, नहीं भी हैं, बस मनुष्य हैं. इधर रामलीला में जिस मनुष्य को राम की भूमिका निभानी है, वह भी जानता है, वह राम नहीं, पड़ोस वाला रामचन्द्र गुप्ता है. यदि वह अपने को सचमुच राम समझ बैठे तो सीता के चुराये जाने पर उसे हार्ट अटैक आ जाएगा और खेल वहीं रुक जाएगा. वह राम है भी, वह राम नहीं भी है!

रेडियो में लोहा सिंह बने रामेश्वर कश्यप लोहा सिंह भी थे और रामेश्वर कश्यप भी थे. रमई काका बहरे बाबा थे भी, नहीं भी थे, जानकी दास भारद्वाज ठुणिया राम भी थे, और जो वह थे वह भी थे. ‘काके दी अम्मा’ का रोल करती हुई सुखजिन्दर कौर काके की अम्मा भी थी, सुखजिन्दर भी थी!

सब कुछ एक Psycho-Drama है और था! सृजन-कर्म यह साइको-ड्रामा क्रियेट करके श्रोता को पॉज़िटिव पब्लिसिटी के पॉइंट बता रहा है — रक्त-दान करना है, दहेज़ नहीं माँगना है, सद्भाव बनाकर रखना है, फिजूलख़र्ची नहीं करनी है, वगैरह-वगैरह. हमारे सामाजिक इसी तरह समझते आये हैं कि उनकी परिस्थितियाँ भी और कुछ नहीं, साइको-ड्रामा हैं और उन सब के बीच अपनी भूमिका निभा ले जाना उनके अपने हाथ में है. 

यह काम प्रोग्राम-धर्म का है, किसी तकनीक का नहीं. किसी ऑफ़िस ऑर्डर या संसद् में बने क़ानून का भी नहीं. चुनौती अगर कोई है तो तकनीक के सामने है कि प्रोग्राम-धर्म को नये प्लैटफ़ॉर्म पर कैसे ले जाना है.

क्योंकि कल आपकी टॉर्च की बीम किसी अन्य निष्कर्ष पर पड़ने ही वाली है. प्रोग्राम धर्म को उससे क्या?

कविवर बिहारी की नायिका एड़ियाँ ऊँची करके पंजों के बल उचकी है, दोनों बाँहें ऊपर को उठी हुई हैं क्योंकि वह दही की हाँडी छींके पर रख रही है. या शायद उतार रही है. छींके को छुए हुए वह बहुत नीकी, बेहद ख़ूबसूरत लग रही है. कवि का दोहा है –

अहे दहेंड़ी जिनि धरै, जिनि तू लेइ उतारि

नीके  ह्वै  छींके छुवै, ऐसे ही  रहि  नारि।

“हे सखि! तू न तो दही हाँडी को छींके पर रख, न उसे उतार. छींके को छुए हुए तू सुन्दर दिखती है, इसलिए हे नार! बस ऐसे ही रह जा.”

इस ‘ऐसे ही रहि नारि’ में आपने कैमरे की ‘क्लिक’ सुनी? सृजन धर्म को कैमरे की दरकार कहाँ है? उलटे, कैमरे की तकनीक को फ़ोटो खींचने के लिए ऐसे या अन्य दृश्यों की ज़रूरत रहेगी.

इसका यह भी अर्थ नहीं कि सर्जनशीलता के सामने कोई चुनौती नहीं है. वस्तुतः वह स्वयं अपने सामने एक चुनौती है. मिसाल के तौर पर, आज जो महागाथा (एपिक) लिखी जायेगी, वह न तो ‘महाभारत’ जैसी होगी, न ‘इलियड’  या ‘ईडिपस’ जैसी. शायद आज का कोई एपिक ‘वार एंड पीस’ की तरह लिखा जा सकेगा. सवाल यह भी है कि महागाथा के लिए आज अवसर है भी या नहीं है? गाथा पुरातन या ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित नहीं होगी तो क्या केवल फ़ेन्टेसी होगी? इस तरह के अनेक प्रश्न हैं जो सृजनात्मकता के सामने चुनौती हैं. इनका उत्तर उचित समय पर रचना-धर्म के अन्दर से आयेगा.

दुनिया और जीवन बेहद रंगीन हैं. तरह-तरह के रंग हैं! मगर सपने सभी केवल ब्लैक एण्ड व्हाईट में आते हैं. ऐसा सोचना भी कि तकनीक अपने किसी भी परिवर्त्तन के बाद रचना-प्रक्रिया के सामने कभी चुनौती बनकर आ पायेगी, एक सपना है, बदलते निष्कर्षों का कोई ब्लैक एण्ड व्हाईट सपना! यह कल्पना बहुरंगी जीवन की सर्जनात्मक जिजीविषा के सामने चुनौती बनकर कभी आ नहीं पायेगी.

रचना-कर्म ने ऐसी ब्लैक एण्ड व्हाईट ना-इंसाफ़ी के सामने जाने किस गफ़लत में उँगलियों को मुट्ठी में बाँधकर, बाँहें ऊपर उठाकर कभी विरोध नहीं किया! भिंची मुट्ठियों वाले कर-बद्ध क्रोध की तासीर कुछ अलग है!

2 दिसम्बर, 2020      

एक भूमिका


उस दिन बैठे-ठाले, बस यूँ ही पलकों से टीवी खुरच रहा था. टीवी में न्यूज़ चैनल उस सावन जैसे हैं जिसके आते ही व्यर्थ-निरर्थक सोच के बादल उमठना शुरु हो जाते हैं. शाहीनबाग़ के बाद दिल्ली की एक और घेराबन्दी चल रही थी. इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक की जाट-लैण्ड का किसान समुदाय ‘कृषिक्षेत्रे शासनक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः’ हुआ आन्दोलन कर रहा था. मुझे लग रहा था हम हिन्दुस्तानियों को अभी तक एक संविधान के अधीन एक राष्ट्र की तरह उपक्रम करने की आदत नहीं पड़ी है. दुनिया भर में हमारे मुसलिम भाइयों की तो एक ‘उम्मत’ होती है – नबी की उम्मत, मगर हम हिन्दुस्तानियों की ‘उम्मत-ए-हिन्द’ के अब तक पते नहीं हैं. प्रान्त, जाति, भाषा, व्यवसाय, राजनीति आदि की इतनी उम्मतें हैं कि हम अपने-अपने गुट को उम्मत का दर्जा देकर जब-तब सिर-फुटव्वल में मशगूल रहते हैं.

टीवी के बादलों में बिजली तो क्या कड़कती, बग़ल में रखा फ़ोन गरजने लगा.

बादलों को हथेली से एक तरफ़ सरकाया और रिमोट रखकर फ़ोन उठाया. देखा तो मित्रवर महेन्द्र मोदीजी!

आकाशवाणी में जब नौकरीशुदा थे, रिटायर नहीं हुए थे, तब इस महावृक्ष ने चिन्तन-दर्शन-कर्मण के जाने कितने बीज हम लोगों के जीवन के भू-विस्तार में छितराये. वे बीज अलग-अलग परतों में दबे-ढँके सोये रहते हैं.

महेन्द्र जी ने बताया ‘रेडियोनामा’ सीरीज़ की चौथी पुस्तक “ले बाबुल घर आपनो” उन्होंने लिखकर पूरी कर ली है और उसकी ‘प्रस्तावना’ मुझे लिखनी है.

महेन्द्र मोदी जी की बात और पांडुलिपि पढ़ने का अवसर मिला तो उसने जो रिमझिम कर दी उन छींटों से कुछ बीजों की नींद टूटी और मन की परतें फोड़कर चंद कोंपलें उचक आयीं. उन सब को समेटा और ‘बरबादियों का जश्न’ शीर्षक की गाँठ से बाँधकर महेन्द्र जी के हवाले कर दिया.

वे मुट्ठी-भर विचार उस पुस्तक की ‘प्रस्तावना’ बन गए जो यहाँ दे रहा हूँ.

मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे कवि के सामने मेरे जैसे अकिंचन ज़रूर क़तरा हैं. मगर भले ही बढ़ रही उम्र के चलते हाथ में जुंबिश कम होती जाती हो, लिखने-पढ़ने का रसिया होने से ऐसे किसी अवसर के साग़र-ओ-मीना सामने आते ही मेरी आँखों को याद आ जाता है उनमें अभी दम बाक़ी है.

जब मैंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि पढ़नी शुरु की तो मित्र-धर्म पीछे छूट गया. ज्यों-ज्यों आगे पढ़ता गया मुझे स्पष्ट होता गया कि मैं एक मित्र की पाण्डुलिपि पढ़कर कोई अहसान नहीं कर रहा था, बल्कि एक ज़ोरदार सत्यकथा पढ़ रहा था! ऐसी कथा जिसकी घटनाएं, वास्तविक पात्र और पेंचदार परिस्थितियाँ पाठक के ऊपर कई स्तरों पर काम करने जा रही हैं. जो लोग रेडियो को – आकाशवाणी – को अन्दर से जानते हैं, उनपर एक ख़ास तरह से; जो सामान्य पाठक हैं उनपर दूसरी तरह से; और जो केवल एक ऐसे जीवन-चरित्र में कुतूहलवश दिलचस्पी रखते हैं जो अपनी आवाज़, रेडियो के माध्यम और फ़ोटोग्राफ़ी से प्रसिद्ध हो गया हो, उनपर अलग तरह से.

यहाँ ‘जीवन-चरित्र’ कहना शायद भ्रामक होगा. व्यक्ति को जानने और उसके माध्यम से जीवन को समझने के मुख्य रूप से तीन साधन हैं – जीवन-चरित्र, आत्मकथा और संस्मरण/डायरी. ‘जीवन-चरित्र’ उसे कहेंगे जब किसी का जीवन-वृत्त कोई दूसरा व्यक्ति लिखे. ‘आत्मकथा’ में अपने जीवन की गाथा व्यक्ति स्वयं कहता-लिखता है. जब जीवन में आये व्यक्तियों, घटे हुए प्रसंगों, यात्राओं, मुलाक़ातों आदि के बारे में विशेष प्रसंग चुनकर लिखा जाता है तो उसे ‘संस्मरण’ कह दिया जाता है. इन्हें बहुधा ‘डायरी के पन्ने’ भी कहा गया है. 

आत्मकथ्य का यों भी एक-स्तरीय हो पाना मुमकिन नहीं है. व्यक्ति भले एक हो, जीवन की बल खाती-इठलाती-बदलती परिस्थितियाँ कितने ही वातायन खोलती चलती हैं. जैसे कि एक ही मकान के अनेक खिड़की, दरवाज़े, रोशनदान! अलग-अलग कमरों की अलग-अलग दीवारें, छतें और फ़र्श!! 

‘रेडियोनामा’ की पहली तीन पुस्तकों और अब इस चौथी कड़ी में लेखक श्री महेन्द्र मोदी ने आत्मकथा के पुष्प और यथा-प्रसंग संस्मरण के मोती पिरोकर माला सजायी है. इस सीरीज़ में ‘आत्मकथा’ की सुवास और ‘संस्मरण’ की छटा दोनों एक साथ विद्यमान हैं.

‘रसीदी टिकट’ शीर्षक से पंजाबी की वरिष्ठ लेखिका अमृता प्रीतम की आत्मकथा बहुचर्चित हुई थी. बाद के संस्करणों में अमृताजी ने उसे काट-छांट कर बहुत कम कर दिया था और इसका कारण बताते हुए कहा था  – “कई घटनाएं जब घट रही होती हैं, अभी-अभी के ज़ख्मों-सी, तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर आती है… लेकिन वक़्त पाकर अहसास होता है कि ये बातें, लम्बे समय के लिए साहित्य को कुछ दे नहीं पायेंगी… ये वक़्ती आँधियाँ होती हैं…”

वक़्ती यानी सामयिक, तात्कालिक.

यों देखें तो हर क्षण ‘वक़्ती’ है. वक़्त के गुज़रने का अर्थ ही है क्षण का सरक जाना. उस फिसलते क्षण में व्यक्ति जब दूरगामी परिणामों पर असर डालने वाले निर्णय लेकर आचरण करता है तो उसका वक़्ती आचरण समय की थाती बन जाता है, हवाओं पर छप जाता है.

दरअसल महेन्द्र मोदी जी अपनी कथा तो कह ही रहे हैं, जीवन की भी बात कर रहे हैं. जब लेखक व्यक्ति की तरह नहीं यायावर की तरह जीवन-प्रान्तर में घूम रहा हो और अपने आप से फ़ासला रखकर शाब्दिक फ़ोटोग्राफ़ी कर रहा हो तो उसके पास व्यक्तिगत आग्रहों के लिए फ़ुर्सत ही कहाँ होती है? ऐसा करते हुए मोदीजी ने लगातार ‘फ़्लैश बैक’ और ‘फ़्लैश फ़ारवर्ड’ का भरपूर इस्तेमाल किया है. आग्रह-युक्त और उसी क्षण में आश्चर्यजनक ढंग से आग्रह-मुक्त वर्णन होने के कारण पाठक को यह परेशानी नहीं होने पाती कि वर्त्तमान से अचानक बीस बरस आगे या दस वर्ष पहले की बात कैसे होने लगी. सब कुछ हवाओं पर छपता चल रहा है. कभी इस झोंके पर, कभी उस झकोरे पर.

जो और जैसे व्यक्ति लेखक को मिले, जो परिस्थितियाँ बनी-बिगड़ीं, जिसने जैसा किया, उन हालात में जो कुछ हुआ, जो ‘लै बाबुल घर आफ्नो’ में, पहले के भागों में भी पढ़ने को मिलता है, वैसा क्योंकर हुआ होगा, उसे समझने के लिए लेखक महेन्द्र मोदी को व्यक्ति महेन्द्र मोदी की तरह समझना, और उसके बाद यायावर की तरह देखना सहायक होगा.

सोचते-सोचते मुझे एक कहानी याद हो आयी. कहानी हमारा सबसे बड़ा गुरु है. जो सबक हम उपदेश में सुनकर ऊब जाते हैं और भूलने को तत्पर होते हैं, कहानी वही शिक्षा हमें सहज दे जाती है. हमेशा के लिए. 

एक किसान का बेटा कृषि विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर गाँव लौटा. फ़सल की आगामी बुवाई में पिता का हाथ बँटाते हुए ग्रेजुएट बेटे ने कहा, “बापू, हम लोग इतनी मेहनत करते हैं. लेकिन कभी बेवक़्त बारिश तो कभी आँधी और कभी लगातार चिलचिलाती धूप! अक्सर हमारी मेहनत बेकार चली जाती है.”

पिता ने लम्बी साँस भरते हुए कहा, “अब जैसी परमात्मा की मर्ज़ी बेटा.”

बेटे ने कहा, “अगर एक साल, सिर्फ़ एक साल आपका यह परमात्मा मेरे काम में दख़ल न दे तो मैं इसी खेत में चमत्कार कर सकता हूँ. वरना इतनी पढ़ाई का फ़ायदा ही क्या?”

परमात्मा लड़के की बात सुन रहा था. उसकी इच्छा जानकर वहाँ प्रकट हो गया.

लड़के ने पूछा, “सर, इतना मेकअप करके, इस नौटंकी वाले कॉस्टयूम में आप कौन? और आप अचानक कहाँ से प्रकट हो गये?”

“मैं परमात्मा हूँ और तुम्हारी बात सुनकर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आया हूँ. बोलो पुत्र, क्या चाहते हो?”

लड़के को देखकर साफ़ पता चल रहा था कि वह अपनी हैरानी कम, अविश्वास अधिक छुपाने की कोशिश कर रहा था. फिर भी, एटीकेट-वश बोला, “ऐसा ही है सर, तो एक वर्ष के लिए मुझे अपने आँधी-पानी-ताप-धूप वगैरह से मुक्त कर दीजिये. मैं शानदार फ़सल उगाकर पूरे ज़माने को दिखाना चाहता हूँ.”

‘तथास्तु’ कहकर परमात्मा अन्तर्धान हो गया.

अब तो लड़का लग गया जी-तोड़ मेहनत करने में. पूरी तरह नियन्त्रित तापमान, ज़रूरत जितने नपे-तुले पानी की सिंचाई, उचित प्रकाश, अनुकूल छाया आदि का बंदोबस्त करके लड़के ने फ़सल उगाई. समय पाते उसके खेत की फसलें बढ़ चलीं. अगल-बग़ल के खेतों में फसलें अगर चार फ़ीट की तो उसके खेत में आठ फ़ीट ऊँची. दूसरों के यहाँ बालियाँ बालिश्त भर की तो उसके खेत में दो-दो फ़ीट लंबी. पूरा गाँव तारीफ़ के बोलों और ईर्ष्या भरी निगाहों से देखता हुआ ग्रेजुएट लड़के के कृषि-ज्ञान से प्रभावित हुआ घूमे.

फ़सल कटाई का समय आया तो परमात्मा फिर प्रकट हो गया. लड़के की प्रशंसा करते हुए बोला, “वाक़ई, तुमने कमाल कर दिखाया है. ज़रा बालियों का दाना भी देखें.”

लड़का मुट्ठी-भर बालियाँ काट लाया. छील कर देखा तो दाना एक नहीं. दूसरे कोने से और बालियाँ लाया. उनमें भी एक भी दाना नहीं. और लाया तो वे भी छूँछी!

लड़का सिर पकड़ कर बैठ गया.

ईश्वर बोला, “पुत्र, ये फ़सलें आँधी-पानी, धूप-बादल और हवाओं से जितना संघर्ष करती हैं, इनमें दाना उससे आता है. तुमने इनका संघर्ष छीनकर इन्हें दाने से वंचित कर दिया.”                             

इस पुस्तक के लेखक ने जितना संघर्ष झेला, ईर्ष्या, उपेक्षा, षड्यंत्र का सामना किया, चुनौतियों में छलांग लगायी, अधिकारों से वंचित हुआ उसी सब से महेन्द्र मोदी एक ऐसे व्यक्ति बने जिसमें हर परिस्थिति का सामना करने की कूव्वत हो, डट जाने का संकल्प हो, बात निभाने का माद्दा हो और जब उचित लगे तब टाल जाने का बड़प्पन भी हो. आवाज़ और प्रतिभा तो कुदरत की दी हुई है ही.

‘ले बाबुल घर आफ्नो’ ऐसे ही ‘दाना-दार’ इनसान की कहानी उसकी अपनी ज़ुबानी है. 

आम तौर पर मीडिया का काम इतने तक माना जाता है कि किसी विषय या समस्या के विभिन्न पहलू आम श्रोता के सामने लाने के बाद निष्कर्ष अथवा परिणाम पर पहुँचना श्रोता पर ही छोड़ दे. ऐसा आदर्श स्थापित है कि प्रो-एक्टिव होकर समस्या को हल की ओर ले जाना मीडिया का दायित्व नहीं होना चाहिए.  

मगर मोदीजी इस पुस्तक में सामाजिक समस्याओं पर कार्यक्रम करते हुए उन्हें किसी सार्थक निष्कर्ष तक ले जाने की कोशिश करते दिखेंगे. यहाँ तक कि ड्रग्स जैसे नशे की बुराई की जड़ तक जाते हुए जान का ख़तरा तक मोल लेते दिखाई देंगे. क्योंकि समाज को समस्या से निजात दिलाना उन्हें अपने काम को पूरा करने जैसा लगा. वर्ना काम अधूरा. 

इससे पहले कि ऐसा करना किसी को अति-उत्साह जैसा लगने लगे इस विषय पर और विचार करना उपयुक्त होगा.

आम तौर पर हम सभी में एक वृत्ति, एक मनोविज्ञान सक्रिय रहता है. बड़ी संख्या में समाज के लोगों को परेशान करने वाली कोई समस्या हमारे सामने आती है तो हम किनारे खड़े रहकर ईश्वर की तरह तमाशबीन हो जाना पसंद करते हैं. हम भूल जाते हैं कि जब तक मंसूर की मानिंद ‘अन-अल-हक़’ का अनुभूति-जन्य सत्य हमारा स्पर्श न कर ले, हम ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहने के हक़दार नहीं हो जाते. तब तक हम ईश्वर नहीं, मनुष्य हैं, और मनुष्य का काम तमाशा देखना नहीं है. वह तमाशे की पुतली हो जाने को अभिशप्त है. 

उदाहरण के लिए एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जो ऑफ़िस  जाने के लिए घर से निकलता है, थोड़ी हड़बड़ी में है, शायद थोड़ा लेट हो गया है, मगर बस स्टॉप के रास्ते में दो आदमियों को मारामारी करते देखता है. ऑफ़िस के लिए हो रही देरी भूलकर वह उन दोनों का झगड़ा देखने के लिए वहीं रुक जाता है. थोड़ी देर में वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो जाती है जिनके लिए वहाँ चल रही मार-धाड़ एक तमाशा है. लड़ने वाले दोनों व्यक्ति भी इतने लोगों को जमा हो गया देखकर हीरो हो जाने के लिए विरोधी को परास्त करने में पूरी ताक़त लगाने लगते हैं. हिंसा की मंशा और ज़ोर पकड़ लेती है.  

यह एक काल्पनिक दृश्य भले हो, किन्तु ऐसा वास्तव में होता हुआ हम में से हर किसी ने कभी-न-कभी अवश्य देखा होगा. यहाँ विचार करने की बात यह है कि वहाँ इकट्ठा हो गई भीड़ में से किसी के भी लिए वहाँ हो रही हिंसा ऐसा मामला नहीं थी जिसे सुलझाया जाए. उलटे, उस भीड़ के हर व्यक्ति में झलकती उत्सुकता उस आग में और ईंधन डालने का काम कर रही थी. क्या हमने कभी सोचा है कि अन्य भी सभी समस्याओं में हमारी तटस्थता इसी तरह हमारे जाने-अनजाने उस समस्या को और बढ़ाने का कारण बनती चली जाती है? यह हमारी शराफ़त या निर्लिप्तता का नहीं, सामाजिक समस्याओं को गहराने में हमारे योगदान का प्रमाण है.

तमाशे का हिस्सा हो जाने का अर्थ यह कैसे हो गया कि यदि मार-पीट हो रही है तो उसमें शामिल हो जाएं? यह क्यों नहीं कि हिंसा की अग्नि को बुझाने वाले बन जाएं? अन्याय या शोषण है तो उस स्थिति में कूद जाने का यह अर्थ क्यों नहीं हो जाता कि वैसी मनोवृत्ति को अर्थहीन बनाने में जुट जाएं? ऐसा न हुआ तो एक मीडिया-कर्मी और एक माफ़िया-डॉन के बीच का फ़र्क कैसे तय होगा? बुद्धिजीवी और जगत्गति न ब्यापने वाले मूढ़ में क्या अन्तर रह जाएगा? क्या हम बुद्धिजीवियों की इस क़दर मानसिक कण्डीशनिंग हो चुकी है?

कम-से-कम यह मुझे सिर झटक कर टालने जैसी बात नहीं लगती.

यदि हमारे मित्र, इस पुस्तक के लेखक श्री महेंद्र मोदी स्वभाव-वश अपने आचरण से यह बता रहे हैं कि प्रो-एक्टिव होकर समस्याओं को सुलझाना हर व्यक्ति का नहीं तो कम-से-कम बुद्धिजीवियों और मीडिया का उत्तरदायित्व अवश्य है तो इसे अति-उत्साह नहीं, ग्रहण करने योग्य चरित्र कहना सम्यक् होगा.

इस तरह लेखक से एक काम और हो गया है. वह भी शायद अनजाने में, सहज रूप से.

ज़रा पुराने रेडियो सेट को याद कीजिये. ट्रांज़िस्टर-युग से भी पहले वाले रेडियो को, जिसमें वाल्व होते थे और कमरे की छत के पास इस दीवार से उस दीवार तक एरियल लगाना पड़ता था. मुझे अपने बचपन की याद हो आयी जब हमारे घर का ऐसा ही रेडियो सेट बिगड़ गया था. घर का बड़ा बेटा होने के नाते उसे ठीक करवाकर लाना मेरा काम था. यों भी, वह रेडियो जिस टेबिल पर रखा रहता था मैं वहीं बैठकर स्कूल की पढ़ाई, होमवर्क आदि किया करता था. जिन घरों में तब रेडियो था, वहाँ रेडियो सुनना एक आदत बन जाती थी. मुझे भी रेडियो चलाकर पढ़ाई करने की आदत हो गयी थी. इसलिए उस रेडियो के आकाश का पुनः वाणीमय हो जाना घर भर में सबसे ज़्यादा मेरी ज़रूरत थी. रेडियो की ख़ामोशी मेरे लिए ऐसी हो गई मानो स्कूल से मेरा नाम कट गया हो!

लिहाज़ा मैं रेडियो सेट उठाकर विक्रेता के पास ले गया. उसके टेकनीशियन ने यह देखने के लिए क्या गड़बड़ है उसे पीछे से खोला. बाहर से तो हम रेडियो को बड़े चाव से झाड़-पोंछ कर चमकाकर रखते थे. मगर अन्दर का नज़ारा कुछ और ही था. अन्दर देखा तो धूल और जालों ने अपनी पूरी दुनिया बसा रखी थी. कौन सा तार कहाँ से किधर जा रहा है, समझना मुश्किल था. काँच के वाल्व माया की मीनारों जैसे लग रहे थे. वहाँ तो जैसे एक तिलिस्मी प्रपंच रचा हुआ था!

कुछ इसी तरह का हाल आकाशवाणी का भी कहा जा सकता है. एक आम श्रोता तो धुली-पुंछी आवाज़ें, सधे हुए कार्यक्रम और गुनगुनाता संगीत ही सुनता है. अन्दर कितनी धूल होगी, कहाँ-कहाँ कितने जाले लगे होंगे, किस महानुभाव के तार किस अफ़सर से जुड़ते होंगे और क्यों, उसे क्या मालूम! वह नहीं जानता कितने तरह के कर्मचारी होंगे, उनमें से कितने लोग कार्यक्रम तैयार करते होंगे, कितने प्रशासन चलाते होंगे और कितने महज़ क्लर्की करते होंगे. किसी श्रोता को जानकर करना भी क्या है कि इस विभाग में लोगों की भरतियाँ कैसे होती हैं, जब तक कि उसकी ख़ुद की दिलचस्पी आकाशवाणी का कलाकार हो जाने की न हो जाती हो. इंजीनियर वर्ग की पहली पसन्द नौकरी के लिए चुने जाने के बाद रेलवे अथवा डाक-तार-टेलीफ़ोन विभाग में नियुक्ति की होती थी. आकाशवाणी तो तीसरे नम्बर पर आती थी. यांत्रिक जगत् में कैरियर को प्राथमिकता मिलना स्वाभाविक था.     

घटनाचक्र को उकेरते हुए श्री महेन्द्र मोदी ने भीतर के जाल-जंजाल की भी झलक दे दी है. इतनी साफ़गोई से इन बातों को कोई ‘दाना-दार’ व्यक्ति ही कह सकता था.

मेरा स्वयं का भी मानना यही है कि आकाशवाणी, जो कि कला-साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित होने के कारण निस्संदेह देश की सर्वश्रेष्ठ संस्था थी, उस दिन से पतन की फिसलती ढलान पर आ गयी जिस दिन से व्यक्तियों (कर्मचारियों-अधिकारियों) के चयन में प्रमाद होना आरम्भ हुआ. शिक्षा एवं सूचना-प्रसारण कोरा व्यवसाय नहीं, उससे बहुत आगे की चीज़ हैं. इन क्षेत्रों में प्रवेश केवल नौकरी के लिए नहीं, समाज के नैतिक नेतृत्त्व के लिए हो, इसका तर्क नहीं होता. केवल औचित्य होता है. जब आकाशवाणी मात्र एक नौकरी हो गई तो पदोन्नतियाँ भी वरिष्ठता-सूची के क्रमांक से होंगी. गोया स्कूली बच्चों के रोल नम्बर से उनकी हाज़िरी लगायी जा रही हो! मुझे नहीं लगता ‘रघुवंश’, ‘शाकुंतलम्’ या ‘मेघदूत’ लिखना कालिदास की ‘नौकरी’ थी. या फिर ‘ओथेलो’, ‘हैमलेट’ या ‘किंग लीयर’ लिखने की ‘हैसियत’ शेक्स्पीयर में इसलिए बन गयी थी कि उनका रोल नम्बर आ गया था.

आप किसी को भी केन्द्र निदेशक-महानिदेशक कुछ भी बनाइये, किसी भी केडर से व्यक्ति का चुनाव कीजिये, मगर यह ज़रूर देख लीजिये कि वह जगदीशचन्द्र माथुर या हरिश्चंद्र खन्ना है या नहीं! अनमने भाव से ‘कैरियर प्रथम’ वाले इंजीनियरों का मूल्य उनकी प्रतिभा और शिक्षा  के परिमाण में अवश्य आँका जाए, किन्तु आकाशवाणी जैसे संस्थान के केंद्र पर विभागाध्यक्ष? केंद्र-संचालक? आकाशवाणी का महानिदेशक?  

ऐसी स्थिति के लिए मैंने अपने एक अन्य लेख में जो उदाहरण दिया है, मुझे लगता है उसे यहाँ भी दोहरा देना चाहिए.

रद्दीवाला याद है आपको? घर-घर से पुराने अख़बार की रद्दी व अन्य बेकार सामान उठाने वाला कबाड़ी? अब तो वह डिजिटल काँटा लाने लगा है, मगर कभी वह तराज़ू और बाट लेकर चलता था. एक पलड़े में एक किलो का बाट रखता और दूसरे में उतने अख़बार रखकर तौलता. फिर उन्हें बाट वाले पलड़े में रखकर दो किलो बना लेता था. फिर दो किलो तौलकर चार किलो बना लेता था. दोनों पलड़े के आठ किलो उठाना मुश्किल लगता तो हौले से एक किलो वाला लोहे का ओरिजिनल बाट निकालकर एक तरफ़ सरका देता था.

और चल पड़ता था रद्दी से रद्दी तुलने का सिलसिला!

हमारी प्रिय आकाशवाणी में भी भरती और प्रमोशन जब रद्दी से रद्दी तौलकर होने लगे तो जो हो सकता था वही हुआ!

श्री महेन्द्र मोदी ने कितना भी क्षुब्ध होकर इस स्थिति पर सवाल उठाया हो, उनकी यह बात हर किसी के द्वारा ध्यान दिये जाने की दरकार रखती है.

जिन लोगों ने एकहार्ट टॉल की पुस्तक ‘द पॉवर ऑफ़ नाओ’ पढ़ी है, वे जानते हैं यथार्थ क्या है और भ्रम क्या. टॉल ने ‘ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या’ की पहेली को बहुत सरल करके समझा दिया है कि सत्य क्या, मिथ्या क्या है.

आधी रात के बाद कभी अचानक नींद उचट जाए तो हम पाते हैं कि घोर नि:स्तब्धता छायी हुई है. घुप्प चुप्पी! यदि अचानक निकट के हाईवे पर कोई वाहन गुज़र जाए या कोई कुत्ता भौंक दे तो उसकी आवाज़ ज़रूर सन्नाटे की ख़ामोश लहरों पर तैरती हुई हम तक आ जाती है. लगातार पसरे सन्नाटे के विस्तृत आकाश में यह एक ध्वनि बादल के टुकड़े की तरह प्रकट हुई और फिर उसी मौन में बिखर कर लुप्त हो गयी. वाहन की या भौंकने की आवाज़ ने आकर बताया कि यह आवाज़ जिसमें तैरी वह अनन्त मौन इस आवाज़ के आने के पहले भी था और लुप्त हो जाने के बाद भी है. ठीक से देखें तो आवाज़ ने प्रकट होकर हमें सन्नाटे के लगातार होने का अहसास कराया! यदि ये शब्द प्रकट न होते तो हमारे लिए अप्रकट मौन का होना एक शब्द-हीनता मात्र होता.  

इसी तरह जब हम अपने लिए कोई नया मकान या फ़्लैट देखने जाते हैं तो हमारा सामना पूरी तरह ख़ाली पड़े कमरों से होता है. हमारा सामान और फ़र्नीचर उस ख़ाली को, उस अवकाश, उस आकाश को उस दिन भरेगा जब हम इस फ़्लैट को ख़रीद कर उसमें रहने आ जायेंगे. फ़र्नीचर वहाँ होकर यह बतायेगा कि हमारी टेबिल और कुर्सी, पलंग और अलमारी उसमें हैं जो सब तरफ़ पसरा आकाश —  अवकाश, शून्य, ख़ालीपन – है!

शब्द अथवा मेज़ का होना और कुछ नहीं मौन और शून्याकाश के परिचय-सूत्र हैं. जो आते-जाते हैं, हटते हैं, विलीन होते हैं वे फ़र्नीचर या शब्द हैं. शून्य और मौन तो वहीं रहते हैं. अब यह हमारी मानसिक कण्डीशनिंग का आलम है कि हमारा ध्यान सदा लय हो जाने वाली मेज़-कुर्सी-अलमारी या ध्वनि पर केन्द्रित रहता है. वस्तुतः जो ख़ालीपन अथवा सन्नाटा है उस पर तब केन्द्रित होना शुरु होता है जब फ़र्नीचर या शब्द से हमारा रिश्ता बनता है.

यह भी अवश्य हमारी मानसिक कण्डीशनिंग ही कही जाएगी कि हम इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं के घात-प्रतिघात और उनके लब्ध पर केन्द्रित होने को चुन लेंगे – अमुक व्यक्ति ऐसा निकला, ऐसी-ऐसी नीति ने वैसा-वैसा परिणाम ला दिया, किसी-किसी शहर की ‘कल्चर’ ऐसी है, आदि आदि. फिर हो सकता है हम यह भी कहें कि हमें तो मालूम नहीं, महेंद्र मोदी ने अपनी किताब में  ऐसा बताया है.

जबकि हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए उस जीवन पर जो लेखक के इर्द-गिर्द पसरा रहा है. स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बनकर मौजूद रहा है. अन्ततः लेखक का जीवन, किसी भी व्यक्ति का जीवन अनन्त आकाश की तरह है. घटनाओं का उपलब्ध अथवा हाथ में आये परिणाम पसरे हुए सन्नाटे में उगे शब्द की तरह हैं, कमरे के ख़ालीपन में दिखे फ़र्नीचर की तरह हैं. निष्पत्तियों के रिश्ते से वास्तव में हमें देखना तो जीवन के विस्तार को है!

निष्पत्तियों का – व्यक्तियों की कमज़ोरियों, झूठ, कपट, लोभ, भ्रष्टाचार, पक्षपात आदि को कहने का अर्थ है यह बताना कि उनका कोई स्थायी महत्त्व नहीं है, वरना लेखक उन्हें कहता ही क्यों? ‘लै बाबुल घर आपनो’ कहकर उसने इस ‘प्रकट’ अस्थायित्व को जीवन की सच्चाइयों के आधारभूत (अप्रकट) कैनवस पर चित्र की तरह उकेर दिया है.

इस किताब का पढ़ना इस पर निर्भर रहेगा कि हमारा ध्यान किस पर केन्द्रित है – घटनाओं और उनकी परिणति पर, अथवा उस सत्य पर जिसके आकाश में ये ‘प्रकट’ जुगनू टिमटिमाये हैं.      

जो पाठक सदा से, बहुत पहले से रेडियो सुनते आये हैं वे इस बात की साक्षी देंगे कि फ़िल्मी गीतों में यदि कोई शायर वेदान्त को उतार पाया तो वह थे साहिर लुधियानवी. संसार की हर शै को इक धुन्ध से आना है और इक धुन्ध में जाना है कहने वाले इस कवि ने अपने एक गीत में यह भी कहा था कि बरबादियों का सोग मनाना फ़िजूल था, बरबादियों का जश्न मनाता चला गया! 

इस पुस्तक के सब हासिलों, हर उपलब्धि, विभिन्न निष्कर्षों को लेखक ने अनन्त में लय हो जाने वाली बरबादियों की तरह देखा है जिनका सोग मनाना फ़िजूल है. इसलिए लेखक जीवन के सिरजनहार से कहता मालूम होता है — ले बाबुल, अपना घर संभाल. तू जाने तेरा काम जाने. मैंने तो तेरे आँगन में जैसा जंचा, खेल लिया.

श्री महेन्द्र मोदी का यह लेखन बरबादियों का जश्न है. आप न भी चाहें तब भी यह पुस्तक आपको हाथ पकड़कर इस जश्न में शामिल होने के लिए खींच लायेगी.

जनवरी, 2021                                             

ध्रुवीकरण


बीजेपी ने ध्रुवीकरण की हद्द कर दी!

कुछ लोगों का ऐसा कहना है.

बीजेपी के साथ इसे जोड़ना यह स्थापित करने में काम आएगा कि ‘ध्रुवीकरण’ ऐसी गाली है जिसे मोदीजी को दी जाने वाली गालियों के अम्बार में मुट्ठी-भर और डालने के लिए बचाकर रख लिया जाए.

‘ध्रुवीकरण’ गाली इसलिए है कि यह समाज में मौजूद अच्छे-ख़ासे अनेकानेक मतभेदों का कुछ ऐसा पनीर जैसा बना देता है जिससे लोग आसानी से ‘हम’ बनाम ‘वो’ करने-कहने में सक्षम हो जाते हैं! तब इन विभिन्न मत-वादों के लिए चिल्ला-चिल्लाकर कहना पड़ता है कि इनकी मौजूदगी बहुत नॉर्मल-सी बात होनी चाहिए थी, ‘हम-वो’ से दूध फाड़कर पनीर क्यों?

कोई-कोई ध्रुवीकरण के लाभ भी बताता है. सो यों कि किसी एक राजनैतिक दृष्टि का चयन आसान हो जाने से लोकतन्त्र में लोगों की राजनैतिक हिस्सेदारी बढ़ती है और राजनैतिक पार्टियाँ मज़बूत बनती हैं.

इस तरह मुँह में कई-कई ज़ुबान रखने वाले लोग ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करना और निशान बीजेपी के गाल पर लगा देना अपने लिए आसान बना लेते हैं.

बीजेपी की बीजेपी जाने, हमें क्या मतलब? हमें सरोकार है अपने देश और उसके लोगों से. ईमानदारी से ‘राष्ट्र प्रथम’ हो जाये तो ठीक क्या और ग़लत क्या अपने आप हमें मालूम होता चलता है. जो ठीक के पक्ष में होते हैं, ‘ठीक’ ऑटोमेटिकली उनके पाले में चला जाता है, और ‘ग़लत’ ग़लत वालों के पाले में. कसौटी हमेशा यह रहती है कि ‘राष्ट्र प्रथम’ है या नहीं, या फिर मेरे सुने-सुनाये मत-वाद के लिए सोच-समझ के बिना हो रही मेरी बयानबाज़ी महत्त्वपूर्ण है! इस कसौटी को कोई भी कभी भी आज़मा देखे. ‘स्वयं’ से बाहर आए बिना ‘कसौटी’ की स्वीकृति नहीं होती, नहीं हो सकती.

देखा जाए तो ध्रुवीकरण कब और कहाँ नहीं रहा? ‘कम्यूनिज़्म’ और ‘लोकतन्त्र’ दो ध्रुव नहीं थे? या फिर ‘उदारवाद’ और ‘रूढ़िवाद’? ‘समाजवाद’ और ‘पूँजीवाद’ को क्या कहेंगे? या छोड़िए, सीधे-सीधे कहते हैं – ‘ग़रीब’ और ‘अमीर’? ये दो ध्रुव नहीं हैं? मार्क्सवादी शब्दों में ‘सर्वहारा’ और ‘बूर्जुआ’ दो ध्रुव नहीं तो और क्या थे? या ‘मालिक’ और ‘मज़दूर’? और, आज तक जो ‘औद्योगीकरण’ बनाम ‘कृषि-कृषि’ खेला गया, क्या वह ध्रुवीकरण नहीं था? और भारत जिस ‘साम्राज्यवाद’ से जूझते हुए ‘राष्ट्रवाद’ में से गुज़रकर आज़ाद हुआ सो? जिसे ‘तीसरी दुनिया’ कहकर ‘अमेरिकी-सोवियत ब्लॉक’ के मुक़ाबिल खड़ा करने की कोशिश हुई उसे ध्रुवीकरण कहेंगे या नहीं? अस्सी-सौ साल पहले लड़े गए विश्वयुद्धों में ‘मित्र-राष्ट्र’ बनाम ‘धुरी-राष्ट्र’ दो ध्रुव नहीं थे? फिर उसके बाद ‘नाटो’ बनाम ‘सोवियत’?

सच कहें तो मानव-सभ्यता सदा इतने सब ध्रुवों में से गुज़री है तब जाकर किसी या किन्हीं परिणामों पर पहुँची है. 

तब हिन्दू-मुसलमान के ध्रुवीकरण से क्या?

क्षमा कीजिये, ऐसा कोई ध्रुवीकरण है ही नहीं! होता तो किसी परिणाम पर पहुँचने की सोची जा सकती थी! 1947 में मज़हब को एक ध्रुव बताकर ज़बर्दस्ती भारत का जो विभाजन किया गया वह परिणाम पर नहीं, दुष्परिणाम पर पहुँचने जैसा था!! ‘दार-अल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) के हासिल को ‘परिणाम पर पहुँचना’ मानने वाले कौन लोग हैं?

अब तक मैं भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ वाला एक बौड़म हुआ करता था. मगर लगातार कई महीनों तक चलने वाले दिल्ली  के शाहीनबाग़ वाले कब्ज़े ने बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखा दिया है. यह कब्ज़ा न तो कोई आंदोलन था, न जन-आंदोलन, न प्रदर्शन, न विरोध-प्रदर्शन और न कोई संवैधानिक अधिकार. यह भदेस क़िस्म की मुसलमानी इस्लामिक ताक़त का दिखावा मात्र था, जिसकी न ज़रूरत थी, न औचित्य. यह निरर्थक हड़बोंग अराजक और ग़ैर-संवैधानिक थी जिसने expose कर दिया ‘ऐसे वाले’ मुसलमान हमेशा ग़लत क्यों होते हैं.

यदि किसी की अन्तड़ियाँ कुलबुलाने लगी हों कि यह तो मुस्लिम-विरोधी बात होने लगी, वह आगे पढ़ना बन्द करने को स्वतंत्र है. उसे फिर कभी मित्र-भाव से न देखा जा सकेगा. इसके लिए मैं स्वतन्त्र हूँ. मित्र-भाव के लोप का कारण मुसलमानों का पक्ष या विरोध नहीं बल्कि ऐसे लोगों के दिलो-दिमाग़ में ‘राष्ट्र प्रथम’ की कसौटी का न होना है. मुसलमानों को लेकर तो अभी पूरी-पूरी और खुली बात करना बाक़ी है. राष्ट्र-द्रोही जो बोलते हैं, उनके बोलने का क्या?

या तो जो हैं ना-फ़हम वो बोलते हैं इन दिनों,

या जिन्हें ख़ामोश रहने की सज़ा मालूम है.

तय कैसे होगा इन लोगों में राष्ट्र-भाव है या नहीं? तय करने के लिए रॉकेट-साइंस की कहाँ ज़रूरत है?

देश के लिए जब सही दिशा में काम होता हो तब भी रोड़े अटकाते चले जाना और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के साथ खड़े होने के लिए सौ तरह के जस्टीफ़िकेशन दिये चले जाना क्या इंगित करता है?

कभी सिराजुद्दौला को अंग्रेज़ों से पिटवाकर ख़ुद बंगाल का नवाब बन जाने वाला मीर जाफ़र हुआ था. उसके पहले पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए पिटे हुए मुहम्मद गौरी को न्योतने वाला जयचंद भी हुआ था. उसके भी पहले आम्भीक (आम्भी) — राजा पुरुवास (पोरस) के विरुद्ध सिकंदर की मदद करने वाला — हो ही चुका था. इन सबके पहले विभीषण की भी कथा हम सब जानते हैं जिसे स्वयं राम-भक्तों ने ‘घर का भेदी’ कहा था. इन सभी के पास देश-द्रोह के लिए अपने-अपने justification मौजूद थे. इन्हें किसी और ने नहीं, मार्क्सी इतिहासकारों ने अपने इतिहास-पोथों में ‘देशद्रोही’ की संज्ञा दी थी. ऐसा कैसे कि इन सबके जस्टीफ़िकेशन तब तो ग़लत थे, मगर आज के मार्क्सवादी एक्टिविस्ट रणबाँकुरों की ज़ुबान से उच्चरित होते ही वही सारे देश-विरोधी तर्क सही हो जाते हैं? उन्हें किसी से देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं रहती?

तीन तलाक़ से लेकर CAA-NRC तक के तमाम मुसलमानी भड़कावे पर आधारित शाहीनबाग़ का अनाप-शनाप समर्थन इस बात की सूचना दे रहा है या नहीं कि ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव इन लोगों में है ही नहीं? राष्ट्र-भाव की बात करने में हिन्दूपन कहाँ से घुस गया? आपके कहे अनुसार, अगर घुस ही गया तो क्या आप स्वयं नहीं कह रहे राष्ट्र हिंदुओं का है इसलिए वे चिंता कर रहे हैं?

क्या तीन तलाक़ की कुप्रथा समाप्त होना मुसलमान-विरोधी है? क्या कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय राष्ट्र-हित नहीं है? तब धारा 370 पर समुचित निर्णय मुसलमान-विरोधी कैसे है? क्या अयोध्या का न्याय राम-मंदिर के मसले को राजनैतिक मुद्दा बनाये रखने की वृत्ति पर प्रहार नहीं है? क्या नागरिकता संशोधन मुसलमानों की नागरिकता छीन लेने के लिए है या अन्याय के शिकार लोगों को नागरिकता देने के लिए है? जिन्हें किसी भी अन्य देश में नागरिकता नहीं मिल सकती उनके लिए है? नागरिकता रजिस्टर (NRC) जब भी आयेगा — आना भी चाहिए — हिन्दू हो या मुसलमान हर घुसपैठिए को निकाल बाहर करेगा या सिर्फ़ मुसलमानों को? इस पर झूठ किस राजनीतिक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए बोला जा रहा है? वर्त्तमान CAA केवल दिसंबर 2014 तक सीमित है, तब उसके लिए यह झूठ क्यों कि आगे आने वाले NRC में इससे हिन्दू को फ़ायदा दिया जाएगा, मुसलमान को नहीं? गृहमंत्री ने लोकसभा में कहा  chronology समझिये, पहले CAA तभी NRC. इस बयान का बहाना लेकर शाहीनबाग़! सच समझे-जाने बिना? जब एक सांसद ने CAA और NCR एक साथ लाने पर आपत्ति की थी तब गृहमंत्री ने समझाया था CAA से जब तक देश के उचित नागरिक तय नहीं हो जाते तब तक नागरिकता रजिस्टर कैसे आ सकता है? दोनों एक साथ हैं ही नहीं. पहले नागरिकता संशोधन फिर नागरिकता रजिस्टर! यह है chronology. इसे समझिये. इस बात में बतंगड़ कहाँ है कि नानी-दादियाँ घर से निकाल बाहर कीं?

और, शाहीनबाग़ की दादी-नानियों ने क्या सुना? कि जब फूफी के मूँछ निकलेगी तब ये काफ़िर मोदी वगैरह ज़बर्दस्ती करेंगे किअब फूफी को चचा कहो! दादी तो दादी, पोते-पोती-नाती-नातिन ने भी यही माना और एसिड-पत्थर-पेट्रोल से इस्लाम सुरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया!

चलिए, राष्ट्र-भाव की इस ‘हाँ’-‘ना’ के ‘ध्रुवीकरण’ के साथ किसी परिणाम पर पहुँचने की कोशिश करते हैं.

शाहीनबाग़ में महीनों तक भारत सरकार ने कोई पुलिस एक्शन नहीं किया.

क्यों?

16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का इतिहास भूलने वाले देशवासी इतिहास दोहराने को अभिशप्त हुए और उस दिन के बिम्ब के रूप में उन्हें शाहीनबाग़ उपलब्ध हुआ. ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा हड़ताल के रूप में हुई थी. यह घोषणा मुस्लिम लीग काउंसिल ने पाकिस्तान बनने के समर्थन में ऐसी ही raw मुस्लिम ताक़त का परिचय देने के लिए की थी. इसकी वजह से देश-भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे जो उस दिन तक के सबसे भयानक दंगे कहे जाते हैं.

शाहीनबाग़ का कब्ज़ा शुरू होते ही मुस्लिम नेताओं-प्रवक्ताओं की 1946 वाली छटपटाहट साफ़ दिखायी पड़ रही थी. कैसे भी पुलिस एक्शन हो जाए और पूरे देश में जगह-जगह दंगे हो जाएं, इस मन्नत पर ‘आमीन’ पूरी शिद्दत के साथ मुसलमानों की ज़रूरत था. पुलिस एक्शन न होने से मुसलमानों की यह हाजत पूरे देश में पूरी न होकर दिल्ली तक सिमटकर रह गई.

दिल्ली भी इसलिए क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दिल्ली में मौजूद थे. संसार भर में हिंदुस्तान पर लानत भिजवाने का ज़बर्दस्त मौक़ा मुसलमानों के हाथ में था. लिहाज़ा, दिल्ली में खुलकर दिखा दिया गया कि इस्लामीकरण के लिए जारी जिहाद वाली ज़मीन ‘दार-उल-हर्ब’ — Land of War — की शक्ल कैसी होती है. शाहीनबाग़ में जिस जिहादी आतंकवाद ने आँख खोली उसकी शुरुआत जामिया मिलिया के तथाकथित ‘छात्र आंदोलन’ से और अमानतुल्ला खाँ के तीन तलाक़, धारा 370 वगैरह पर ‘हमारी ख़ामोशी को हमारी कमजोरी समझा’ वाले भाषण से हो चुकी थी.

इसके बाद से घट रही हर घटना ने इस सच पर रोशनी डाली है कि वास्तव में मुसलमान चाहते क्या हैं. यह चाहत पुन: चुपचाप अन्दर ही अन्दर सक्रिय रह सके इसके लिए देशद्रोहियों सहित हर मुसलमान नेता-प्रवक्ता-मौलवी बढ़-बढ़कर अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और जाने कौन-कौन से ‘हिन्दू’ नाम गिनवा रहा है ताकि हमेशा की तरह ‘तुम भी दोषी-हम बाद में दोषी’ की चौपड़ बिछायी जा सके और फिर सब वैसे ही चलने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं. मुसलमानों के मन में हिन्द केवल जिहाद-ज़मीन ‘दार-अल-हर्ब’ है, मानो यह सत्य उजागर हुआ ही नहीं!

जब तक “Fuck Hinduism” कहा जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. “सब बुत उठवाये जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्ला का” गाया जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. सरेआम “Free Kashmir” के पोस्टर लहराये जाते रहे, कोई दंगा नहीं भड़का. “मोदी और शाह को कुत्ते की मौत मारेंगे” घोषित करते जाने से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत का चिकन-नैक् काट दो” वाले भाषण से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत में हर जगह सड़कें ब्लॉक कर दो ताकि यह अंदर ही अंदर आर्थिक रूप से ख़त्म हो जाये” के प्लान से कोई दंगा नहीं भड़का. “हर जगह शाहीनबाग़ बना दो” के भाषणों से कोई दंगा नहीं भड़का. “हिन्दू तेरी क़ब्र खुदेगी” के गान से कोई दंगा नहीं भड़का. “सभी मुसलमान अपनी ख़ातूनों और बच्चों सहित घर से बाहर निकलकर जाम लगा दो”  के आह्वान से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो फिर देखो” से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 करोड़ 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे” से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह” से भी दंगा नहीं भड़का.

जैसे ही कपिल शर्मा ने कहा, हर जगह शाहीनबाग़ नहीं बनने देंगे, तीन दिन में जगह खाली करो — कि दिल्ली में सीरिया उतार लाये! हिन्दू-मुसलमान बराबर के गुनहगार कैसे हो गए? ‘देश के ग़द्दारों को’ ही तो कहा, ‘मुसलमानों को’ तो नहीं कहा. ओवेसी ने कैसे कह दिया “मुझे मारो गोली”? ख़ुद ही ख़ुद को ग़द्दार कह रहा है और हत्याएं हो रही हैं उनकी जो ग़द्दार हैं नहीं. “पत्थरबाज़ कपड़ों से पहचाने जाते हैं”, इतना ही तो कहा, “मुसलमानों के कपड़ों से” तो नहीं कहा. उसी ओवैसी ने कैसे कह दिया “मेरे कपड़े आपके कपड़ों से ख़राब हैं क्या”? ख़ुद ही कह रहा है पत्थरबाज़ मुसलमानी कपड़ों में हैं, और मारे जा रहे हैं वे मुसलमान जो मुसलमानी कपड़े ही नहीं पहनते!

मुसलमान पादते रहें और हिन्दू चुपचाप सूँघते रहें, कोई दंगा नहीं होता. हिन्दू को डकार भी आ गई तो दंगा भड़क जाता है. मुसलमानों के पास दंगा तैयार ही रहता है. तैयारी भी रहती है. 

ग़द्दारों के लिए ‘गोली मारो’ नहीं तो ‘आरती उतारो’ कहा जाएगा? देश के कुछ नागरिकों की दादी-नानियाँ ग़लत-सलत कुछ भी मानकर सड़क रोके बैठी रहें, और कोई अन्य नागरिक ‘अब और सहन नहीं’ भी न कहे? जबकि सिर्फ़ कहा, किया कुछ नहीं. मुसलमान कहते नहीं, बहुत ज़्यादा कर रहे होते हैं. जितना कहते भी हैं, वह ‘तक़ीया’ (कपट, झूठ) के इस्लामी प्रावधान के अधीन कहते हैं ताकि पकड़े जाने पर ख़ुद को बचा सकें!

हिंदुस्तान की ऐसी क्या लाचारी है कि ऐसे मुसलमानों का अनाप-शनाप कुछ भी सहन करता चला जाए? अब भेद खुल रहा है कि आज तक दिल्ली की सरकारें ऐसे मुसलमानों की बदौलत इस्लामाबाद् से चलती आई हैं. अब नहीं चल रही तो तकलीफ़ हो रही है — पाकिस्तान से ज़्यादा यहाँ के मुसलमानों को.

आपका इस्लाम भले कहता है हर काफ़िर को मुसलमान बनाओ, जो न बने उसे मार दो. लेकिन कौन भला आदमी आप जैसा मुसलमान बनना चाहेगा? तब आप क्या करेंगे? वही करेंगे न अंकित शर्मा को जिस तरह 400 बार चाकू से गोदने का काम किया? फिर उसकी अंतड़ियाँ खींचकर बाहर निकाल लीं. इससे तो हमें कारगिल युद्ध के शहीद कैप्टेन कालिया की याद हो आती है. ऐसी ही वहशियाना हरकत तब भी हुई थी और आँखें बाहर निकाल ली गईं थीं. या लांस नायक हेमराज और लांस नायक सुधाकर सिंह का ध्यान आ जाता है जिनके सिर पाकिस्तानी काट कर ले गए थे. आपको तो मौक़ा मिलने भर की देर है, मेरे जिस्म में भी चाकू छेद-छेदकर तृप्ति हासिल की जाएगी, एक-एक उँगली काटी जाएगी, आँखें फोड़ कर उँगली घुसाकर सॉकेट से बाहर खींची जाएंगी, पेट चीरकर आँतें मुट्ठी में भींचकर बाहर घसीटी जाएंगी, दोनों किड्नी चीरी जाएंगी. आप लोग ईद मुबारक कहकर अल्लाहो अक़बर इसीलिए चिल्लाते हैं क्या? हम कैसे मान लें हर बक़रीद पर आप निरीह बकरे को धीरे-धीरे काटते हुए, उसे torture करते-करते रक्त बहने और शिकार के छटपटाने का मज़ा लेने की प्रैक्टिस नहीं करते?

क्योंकि आप हर तरह से एक ही बात स्थापित करने और हमें समझाने में लगे हैं –  कि हम ‘जंग रहेगी-जंग रहेगी’ वाले ‘दार-उल-हर्ब’ ( Land of Jehadi War) में रह रहे हैं, जिसे आप ‘दार-उल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) बनाने के लिए कुछ भी करेंगे, करते रहेंगे, कभी भी किसी भी हालत में रुकेंगे नहीं. इससे यह सत्य (हक़?) उजागर हो गया है कि पाकिस्तानियों और इस तरह के हिन्दुस्तानी मुसलमानों में कोई फ़र्क नहीं है. दोनों में कैप्टेन कालिया और अंकित शर्मा को हलाल करने का मज़ा लेना बिलकुल एक जैसा है!

दिल्ली के एक हिस्से के लिए कितने गैलन एसिड, कितने टन पत्थर, कितने पेट्रोल-बम, कितनी गुलेलें, कितनी बोतलें, कितनी थैलियाँ, चुपचाप चलती कितनी प्लानिंग और ‘इस्लाम’ में कितनी गहरी आस्था!

इस्लाम के विश्वासियों के लिए कुछ होता होगा ‘दारुल-इस्लाम’. हमें क्या मतलब? देख तो लिया ‘दारुल-इस्लाम’ पाकिस्तान! वक़्त आ गया है जब इस पाकिस्तान को पूरी तरह तबाहो-बर्बाद कर दिया जाए. इसके साथ बांग्लादेश को भी रहना मुश्किल हो गया था, जो कि ख़ुद दारुल-इस्लाम है! जिन्नाह की इस्लामी महत्वाकांक्षा की औक़ात पश्चिम पंजाब जितने टुकड़े से ज़्यादा की नहीं थी. सिंध, बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान का स्वतन्त्र सार्वभौम देश हो जाना ही ठीक है. रहेंगे ये भी बांग्लादेश की तरह दारुल-इस्लाम ही. ऐसा कर देने से मुसलमानों के मज़हबी विश्वास पर चोट पहुंचाने का काम होगा नहीं, मगर ये हिन्दी मुसलमान घायल ज़रूर हो जाएंगे, क्योंकि इनके मन में ‘कुछ-कुछ’ चलता रहता है. पाकिस्तान इनकी लंबी प्लानिंग का हिस्सा जो था!

हर वह काम होना चाहिए जिससे कट्टर जिहादी इस्लाम का हौसला पस्त होता हो. यह अब ज़रूरी हो गया है. हर वह काम भी होना चाहिए जिससे हिंदुस्तान के दिल्ली-दंगाई मुसलमानों पर लगाम कसे. ये मुसलमान इस योग्य सिद्ध नहीं हुए हैं कि आगे इनकी और ज़्यादा परवाह की जाये. ‘रजम’ (पत्थरबाज़ी) को भी मज़हबी रस्म तक महदूद कर देना अब लाज़िम है. सिर्फ़ और सिर्फ़ हज के दौरान शैतान के लिए मक्का में ‘रजूम’ (पत्थरबाज़) होने की कोई मनाही नहीं. रवायत है, ठीक है. मगर इज़राइल के सैनिकों के बाद कश्मीर में, फिर हिन्द के अलग-अलग शहरों में, और अंततः दिल्ली-दंगे में इस कदर पत्थरबाज़ी! ऐसी हरकत के लिए देखते ही गोली मारने का अधिकार पुलिस और सेना को दे देना चाहिए.

क़ुरान और इस्लाम की हर शिक्षा की मनमानी व्याख्या करने वाले मुसलमान इसके लिए भी कहेंगे, इज़राइली सैनिकों की तरह भारत के सैनिक और पुलिसवाले भी ‘शैतान’ का ही रूप हैं. इसलिए टीवी चैनलों पर मुस्लिम प्रवक्ता चाहे जितनी ‘च्च्-च्च्’ करें, मन ही मन वे आश्वस्त हैं कि अंकित शर्मा को बर्बर होकर मारने से इस्लाम की सिद्धि हुई है.

शैतान की यह फ़ितरत है कि वह हर शैतानी किस्म के काम के लिए प्रेरित भी करता है और उसी साँस में यह भी कहता है वह अल्लाह का ही काम कर रहा है!

यह जो आए दिन ‘हिन्दू-आतंकवाद’ या ‘भगवा-आतंकवाद’ का हौआ लहराया-फहराया जाने लगा है, उसपर भी स्पष्ट होना ज़रूरी है.

दूसरे-दूसरे देशों में जाकर हिन्दू कोई हरकत नहीं करते. इस्लामाबाद से चलने वाली दिल्ली-सरकारों की बेरुख़ी के चलते अपने देश में छोटा-मोटा अपराध कर लेते हैं, मगर वह है अपराध ही, जिसके खिलाफ़ देश का क़ानून हरकत में आ जाता है. वह आतंकवाद नहीं है. आतंकवाद पर तो मुसलमानों का कॉपीराइट है. लगाके तक़रीबन हज़ार साल से, या शायद इससे भी ज़्यादा, इन लोगों ने आतंकी होने के लिए बहुत मेहनत की है. इनके मुक़ाबले हिन्दू क्या खाकर आतंकवादी होगा?

यह सब सभ्यता और संस्कृति के सरताज देश भारत में इस्लाम के नाम पर किया गया!

लिहाज़ा, ध्रुवीकरण कोई है तो ‘सभ्यता’ और इनके वाले ‘इस्लाम’ के बीच है!!

ग़नीमत है कि भारत में संतुलित बुद्धि वाले मुसलमानों की कमी नहीं है. ये मुसलमान खुलकर पाकी-वृत्ति वाले मुस्लिमों पर सवाल उठाते हैं. इस्लाम को उसके सही स्वरूप में समझते-समझाते हैं. सबके साथ मिलकर देश की विकास-यात्रा के बटोही हैं. बात-बिना बात जिन्नाह अथवा ओवैसी की तरह ‘मुसलमान-चालीसा’ का पाठ नहीं करते रहते.

इन सही केटेगरी के मुसलमानों की रीढ़ तब मज़बूत होगी जब कुछ मिथक तोड़े जाएंगे. जयचंदी भारतीय, उनमें भी विशेषतः हिन्दू, इन मिथकों को अपनी गुल्लक में इसलिए बचाकर रखते हैं कि यह उनकी आदत है. उन्हें पक्का है यह गुल्लक उस दिन काम आएगी जिस दिन आर.एस.एस. और बीजेपी की ‘बेवकूफ़ियों’ के कारण भारत का इस्लामीकरण पूरा हो जाएगा. तब सबसे पहले लपक कर ये लोग कलमा पढ़ेंगे. ‘ईद मुबारक’ कहने के बाद मुहर्रम की भी तैयारी इनकी अभी से है.

कभी-कभार कुछ बातें तब अधिक साफ़ होती हैं जब उन्हें समझाने के लिए थोड़ी अश्लीलता का हल्का-सा तड़का लगाया जाता है. इन जयचंदों की ‘आदत’ के संज्ञान के लिए यह तड़का उपयोगी रहेगा.

हुआ यूँ कि एक सीधा-सादा आदमी बार में अपने स्टूल पर चुपचाप बैठा बीयर के सिप ले रहा था. अभी वहाँ आये उसे ज़्यादा समय नहीं हुआ था.

तभी हॉलीवुड की काऊबॉय मूवीज़ के अंदाज़ में बार के दरवाज़े के स्प्रिंगदार कपाट खुलते हैं. एक हट्टा-कट्टा, लम्बा-चौड़ा हैटधारी प्रवेश करता है, चारों ओर नज़र घुमाकर बार के वातावरण का जायज़ा लेता है और सधे हुए क़दमों से चलकर बीयर चुसक रहे सज्जन के पास आता है. पाँव की ठोकर से एक स्टूल सरकाता है, फिर इधर-उधर देखता है और बीयर वाले इंसान की बग़ल में बैठ जाता है.

अपना ड्रिंक ऑर्डर करने के बाद आगंतुक ने जेब से सिगार निकाला, सामने का हिस्सा दाँतों से काट कर थूका और गिलास का इंतज़ार करते हुए लाइटर को उँगलियों में घुमाने लगा. बारटेंडर जब उसका ड्रिंक रख गया तो उसने दो-एक सिप लिये और संतोष का भाव जतलाया. थोड़ी देर में सिगार पीने की तलब हुई, सो उसने सिगार को बीयर-प्रेमी के पिछवाड़े में डाला, निकाला, सुलगाया और पीने लगा.

यही सिलसिला थोड़ी देर चला. हर बार हैटधारी ने सिगार को बग़लवाले के पिछवाड़े में डालने के बाद सुलगाया.

इसी तरह दो-चार सिगार पीकर उसने अपना बिल चुकाया और चला गया.

दूसरे दिन भी इसी तरह हुआ. आज तो सिगार कुतरने का कटर भी उसके पास था. दाँत से काटना नहीं पड़ेगा.

तीसरे और उसके अगले दिन फिर ड्रिंक और सिगार के दौर इसी मानिंद चले.

इसके बाद काफ़ी दिन बीत गये. वह हैटधारी दिखाई नहीं दिया.

कुछ साल बाद अचानक बार का स्प्रिंगदार दरवाज़ा खुला और उसी हैटवाले ने प्रवेश किया. स्टूल सरकाया और बीयर वाले सज्जन के पास बैठ गया. ड्रिंक आया, उसने चुस्कियाँ लेना शुरु किया, मगर सिगार के कहीं पते नहीं थे.

हैटवाले का दूसरा ड्रिंक भी आ लिया, फिर भी उसने सिगार नहीं निकाला. तीसरे ड्रिंक पर भी जब सिगार नहीं निकला तो बीयरवाले से रहा नहीं गया. उसने पूछ ही लिया, “जनाब, आज आप सिगार नहीं पी रहे?”

जवाब मिला, “यस डीयर, अब देश आज़ाद है. सरकार भी जन-हित की योजनायें चलाती है. मैंने सिगार पीना छोड़ दिया है.”

“यह तो आपने बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी”, बीयरप्रेमी बोला.

“क्यों क्या हुआ? धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है”.

बीयर वाले ने कहा, “सो तो ठीक है”, और अपने पिछवाड़े की तरफ़ इशारा करते हुए बताया,  “मगर मुझे जो आदत लग गई है, उसका क्या?”

इन ‘प्रोग्रेसिवों’ की आदत समझ लेने से पहला मिथक अपने आप टूट जाता है.

धर्म-अध्यात्म-ईश्वर-समाधि-जागृति आदि ऐसे मामले हैं जो आधे-अधूरे रह नहीं पाते. या तो ये बिलकुल नहीं होते – लाख कोशिश कर लो. या जब होते हैं तो पूरे ही होते हैं. सूर्य चमकता है तो पूरा ही चमकता है, मगर भूमण्डल का ऐसा भाग उस समय भी रहता है जहाँ सूरज नहीं चमकता. सूर्य के बावजूद उसे अँधेरा ही मंज़ूर है. मुसलमानों की ज़मीन ‘दारुल-इस्लाम’ का दम भरने वाले जिहादी इस्लाम के रसियाओं का कुछ ऐसा ही आलम है.

क़ुरान-ए-मजीद में अल्लाह के जो 99 नाम आए हैं, जिन्हें हदीस में संकलित किया गया है, वे सब ‘विष्णुसहस्रनाम’ में उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं. ये ‘उम्मत-ए-हिन्द’ शीर्षक लेख में देखे जा सकते हैं. सूरज-चाँद सभी तरह की रोशनी जिन्हें पूरी-पूरी उपलब्ध थी, उन हज़रत मुहम्मद ने बर्बर और सब तरह निगेटिव जातियों को उतना ही दिखाया जितना वे अपने अंदर समो सकती थीं, जितनी उनकी क्षमता थी — एक मोबाइल फ़ोन में एस.एम.एस. जितना. जो ‘आदत’ वाले हिन्दू नहीं हैं वे समझ सकेंगे उनके पास पहले से 70 एम.एम. की स्क्रीन पर अध्यात्म उपलब्ध है. वे जब क़ुरान पढ़ेंगे तो 70 एम.एम. के समूचे कैनवस के इशारे वहाँ भी देख पाना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा.

वहाबी-सलाफ़ी इस्लाम वाले ये कट्टरपंथी जिहादी मुसलमान 70 एम.एम. को निरंतर मोबाइल के एसएमएस तक सीमित रखने के लिए जो तलवार भाँज रहे हैं और अभी तक उतने ही निगेटिव बने रहने को इस्लाम समझ रहे हैं, वे नबी और उनके माध्यम से उपलब्ध ईश्वर के फ़रमान के घोर अपमान में मुब्तिला हैं. ख़ुद कुफ़्र करके ये आतंकवादी मुसलमान दूसरों को आँख दिखाने की हिमाक़त करते हैं. ये लोग भारत में अरब का रेगिस्तान उतार लाना चाहते हैं और भूल जाते हैं जितना ज़रूरी था उतना रेगिस्तान अल्लाह ने हिन्द को पहले से दे रखा है. इनकी हरकतें यहाँ irrelevant हैं. दिल्ली-दंगा यहाँ इस्लाम के लिहाज़ से भी कोई अर्थ नहीं रखता और ग़ज़वा-ए-हिन्द की आपकी योजनाओं को केवल बेनक़ाब करता है. ग़ज़वा के लिए मुहम्मद साहब के व्यक्तित्व जितनी औक़ात चाहिये. उतनी औक़ात की सोचना भी मत. आप चिन्दीचोर फ़सादी हैं, ग़ाज़ी नहीं.

‘आदत’ वाले जयचंद स्वयं को ‘लेफ़्ट-लिबरल’ कहने में शान समझते हैं. वे मानते हैं वे ‘रेशनलिस्ट’ हैं, प्रोग्रेसिव हैं, मार्क्सवाद से प्रेरित हैं. हिंदुस्तान को बरजते हैं, ‘ख़बरदार जो इतिहास का ‘पुनर्लेखन किया”! उस समय भूल जाते हैं मार्क्स ने इतिहास के पुनर्लेखन को ‘पहला मैदान-ए-जंग’ कहा था! बेचारे करें भी क्या? इतिहास की कचरा-किताबों में ख़ूब ढोलकी बजा चुके हैं, मुसलमानों ने भारत को यह दिया, वह दिया. sms मानो 70 mm को सिनेमा दिखाने ले जा रहा है!

जिन दिनों मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर चढ़ाई करना शुरु किया था, भले मुसलमान आक्रमण करने नहीं आते थे. बाबर और नादिरशाह-टाईप लोग आते थे. इनके पास ख़ून-ख़राबे से ज़्यादा देने को कुछ होता नहीं था. यह हिन्द के हवा-पानी का असर था जो अनेक आक्रांताओं को लगा यहाँ बसा भी जा सकता है. धीरे-धीरे हिन्द ने मुसलमानों को अवसर दिया, आओ, खुसरो हो जाओ, आओ जायसी, रहीम, रसखान, ग़ालिब हो जाओ, दारा शिकोह हो जाओ, बड़े ग़ुलाम अली खाँ, बिस्मिल्लाह खाँ हो जाओ. अन्तहीन सूची है. जो भी दिया, हिन्द ने दिया जिसे निभाने वालों ने निभाया भी. भारत ने कभी किसी से कुछ लिया नहीं. भारत अवसर न देता तो रह जाते सब के सब तैमूर और चंगेज़! निभाने की नीयत नहीं हो तो दिल्ली में दिखा दिया न अपने मूल स्वरूप में ये लोग क्या हैं!

कहते हैं सरिश्त (प्रकृति, स्वभाव) बदलती नहीं, श्मशान तक साथ जाती है.

बुरी सरिश्त न बदली जगह बदलने से,

चमन में आ के भी काँटा गुलाब हो न सका!

नाम लेते हैं लाल क़िले और ताजमहल का!

चलिये, ताज को देखते हैं.

याद करें, अभिनेत्री श्रीदेवी का शव जब अग्नि-संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो मेकअप से शव की ख़ूबसूरती कुछ ऐसी कर दी गई थी जैसे ताजमहल! मगर था तो मृत शरीर ही!  

ताज क्या है? है तो वह सजावट किये हुए एक क़ब्रगाह ही! एक ऐसा मुर्दाघाट, जो न सिर्फ़ ग़रीबों की मुहब्बत का मज़ाक उड़ाता है, बल्कि जिन कारीगरों ने बनाया उनके हाथ कटवा दिये जाने की मुसलमानी दास्तान भी कहता है! इसे इनसानों के प्रति ग़ैर-इंसानी नफ़रत का म्यूज़ियम कहने के बजाय मुहब्बत की यादगार कहना प्रेम जैसे काव्यात्मक भाव पर कलंक लगाने जैसा है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ को भी यह काल के गाल पर ठहरा हुआ आँसू ही लगा था. ‘काल’ का अर्थ समय ही नहीं, मृत्यु भी है.

मुहब्बत का वास्तविक स्मारक कोई है तो रामेश्वरम का पुल है, जिसे बनाने में देश के वनवासी नागरिकों का अभिनंदन भी हुआ था और बनाने वालों के हाथ भी नहीं कटवाये गये थे. प्रिय पत्नी के प्रति श्रीराम के उत्कट प्रेम के सात्विक स्मारक के रूप में रामेश्वरम को याद किया जाना चाहिए या क़ब्रगाह को?

यह तो वही बात हुई, असदुद्दीन ओवेसी औरंगज़ेब को ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ कहकर बखानता है. आज़ाद हिंदुस्तान में औरंगज़ेब को लेकर गुरु गोबिन्द सिंह और छत्रपति शिवाजी के अनुभवों को तरजीह दी जाएगी या ओवेसी के जिहादी नज़रिये को?

और ये कहते हैं इतिहास का पुनर्लेखन मत करो! राष्ट्रप्रेम का सर्टिफ़िकेट मत बाँटो!!

“आदत” !!!  

ऐसी ‘आदत’ या तो लोभवश डाली जाती है, या भयवश. 1947 के बाद से जिहादी मुसलमान का भय इन लोगों के मन में जो इतना गहरा बैठ गया है, उसका तिलिस्म छिपा है क़ुरान में लिखी हर बात को मक्खी पर मक्खी मारकर समझने-समझाने की बेईमानी में. इसलिए, अगर कहा है जिहाद मुसलमानों पर फर्ज़ है तो उनकी व्यर्थ मार-काट को चुपचाप मान लो, क्योंकि यह उनका ‘धर्म’ है. कोई नहीं पूछेगा क्यों झूठ बोलते हो? अपने ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार करने के लिए किया जाने वाला संघर्ष जिहाद है, निरर्थक मारामारी नहीं. क़ुरान में कहा गया सब तारीफ़ अल्लाह के लिए है, अल्लाह पर ईमान लाना फर्ज़ है. कोई नहीं पूछेगा ‘अल्लाह’ अरबी भाषा का शब्द है. और सब अनुवाद किया, ‘अल्लाह’ का अनुवाद क्यों नहीं किया? अल्लाह का अर्थ किसी भाषा में God है तो किसी में ‘नारायण’. जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, ज़बरदस्ती ही करनी है तो उनपर करो. यानी नास्तिकों पर. God या नारायण को मान रहे लोग तो अल्लाह पर ईमान लाये हुए ही हैं. ना भाई, इस्लाम में तो क़ुरान का कोमा-फुलस्टौप भी छेड़ना मौत को बुलावा देना है. ‘भय’ कहेगा, यह उनका धर्म है, वे जो कहें चुपचाप मान लो. क़ुरान में किन्हीं परिस्थितियों में झूठ बोल देना जायज़ है, कभी तो यह फर्ज़ भी है. इस झूठ का नाम है ‘तक़ीया’. ‘किन्हीं परिस्थितियों में’ को बड़े आराम से छिटक दिया और अपने अर्थ वाला जिहाद कर-करके पूरे देश को दारुल-इस्लाम बनाने के लिए तक़ीया, बस तक़ीया, सिर्फ़ तक़ीया!!

शाहीनबाग़ के कब्ज़े के बाद से हर मुल्ला, प्रवक्ता, मुस्लिम नेता अपने ढब का इस्लाम सिर्फ़ ‘तक़ीया’ से धकेलने में लगा है. लाचार बने कसमसाते रहो क्योंकि यह उनका धर्म है. क्या तक़ीया वाले ये मुसलमान विश्वास-योग्य हैं?

“आज़ादी-आज़ादी” चिल्लाकर हम ग़रीबी, बेरोज़गारी से आज़ादी माँग रहे हैं – तक़ीया.

हमने जिन्नाहवाली आज़ादी नहीं कहा, ‘जीनेवाली आज़ादी’ कहा – तक़ीया.

अच्छा हुआ, शरजील इमाम का पता चल गया, हम हैरान थे हमारे बीच कौन ग़द्दार है – तक़ीया.

कपिल मिश्रा के कारण दंगा भड़का – तक़ीया.

जो भी गुनहगार है उसे सज़ा दो – तक़ीया.

बहस में हमें हरा दो, दिल्ली को मत हारने दो – तक़ीया.

अभी नहीं बोले तो तुम्हारे जनाज़े उठेंगे – तक़ीया.

और, जो ये दम भरते हैं ‘मुसलमान अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं झुकता’, तब क्या हुआ था जब अली-बन्धु बीमार पड़े गाँधीजी के पाँव चूम रहे थे – मुहावरे में नहीं, सचमुच झुककर चूम रहे थे? क्योंकि तब उन्हें गाँधीजी को किसी भी तरह खिलाफ़त आंदोलन के पक्ष में लाना था! – तक़ीया! ‘अल्लाह के सिवा नहीं झुकते’ कहना भी ‘तक़ीया’, और पाँव चूमना भी ‘तक़ीया’, क्योंकि जैसे ही उल्लू सीधा हो गया अली-बंधुओं का बयान था – गिरे-से-गिरा मुसलमान भी गाँधी से अच्छा है! मतलब होगा तो पाँव चूमेंगे, नहीं तो आपको अंकित शर्मा बनाएंगे!

1947 में हमने भारत में रहना चुना था, पाकिस्तान नहीं! –तक़ीया.

1946 के विशेष चुनाव में पाकिस्तान बने या न बने इस पर 75% से अधिक मुसलमानों ने पार्टीशन के पक्ष में वोट दिया  था, मगर विभाजन के बाद गये केवल 2% ही! अब समझ में आया इनकी पाकी वृत्ति का पेंच? ये इसलिए यहाँ रुके थे कि अब इस हिस्से को भी ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने के लिए काम करना है! शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे तक इस लक्ष्य का काफ़ी रास्ता पार कर लिया है. रहा-सहा अगले दस-बीस वर्ष में पूरा करने का विश्वास है.  

धर्मनिरपेक्षता है कि कहती है, यह उनका धर्म है!

वह आदमी मिठाई की दूकान के सामने खड़ा भरे-भरे थाल ताक रहा था. थोड़ी देर तक कुछ बोला नहीं तो हलवाई ने पूछा, “क्या चाहिए?”

उसने कहा, “वह बर्फ़ी क्या भाव है?”

हलवाई – “साढ़े छ्ह सौ रुपये किलो”.

वह – “एक किलो तौल दो”.

हलवाई ने तौल दी. “और कुछ?”

वह – “वह इमरती क्या भाव?”

हलवाई – “छ्ह सौ की एक किलो”.

वह – “इमरती भी एक किलो तौल दो. एक किलो बालूशाही, एक किलो घेवर, एक किलो कलाकंद, एक-एक किलो लड्डू और पेड़ा. और एक डिब्बा यह काला गुलाबजामुन.”

हलवाई ने बड़ी तत्परता से सब तौल दिया. ऐसा गाहक कभी-कभार ही आता है.

वह – “अब इन सबको एक बड़ी कढ़ाही में डालकर अच्छे से मिक्स कर दो.”

हलवाई ने अचकचाकर ग्राहक की तरफ़ देखा.

वह – “सोच क्या रहे हो? सबको मिक्स कर दो. एकदम आटे की माफ़िक गूँध दो.”  

हलवाई हैरान-परेशान तो हुआ, मगर क्या करता? ग्राहक तो भगवान् होता है. गूँध दिया.

वह – “अब इस मिक्स्चर में से एक पुड़िया में चवन्नी की मिठाई मेरे लिए बाँध दो.”

वह आदमी जानता था वह मिठाई ख़रीदने में अक्षम है.

‘आदत’ वालों की अक्षमता के चलते चवन्नी की पुड़िया का नाम है धर्म-निरपेक्षता!

काश! ‘धर्म-निरपेक्षता’ यथार्थ में सबके लिए समान रूप से लागू हो सकने वाला सामाजिक-राजनैतिक सिद्धान्त होता! कौन सी मजबूरी है जो कोई बोलता नहीं, दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यकों को जैसे ही आप धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित करते हैं, आप धर्म-निरपेक्ष न रहकर धर्म-सापेक्ष हो जाते हैं. बहुसंख्यक भी धर्म के ही आधार पर नहीं हैं क्या? कहाँ है धर्म-निरपेक्षता? यह चवन्नी की पुड़िया नहीं तो और क्या है?

इसलिए, जैसे ही कोई कहे, ‘मैं मुसलमान हूँ’, उससे कहा जाए, ‘हमें तो हिन्दुस्तानी नज़र आते हो. 1947 में अंतिम रूप से तय हो चुका है, मुसलमान कहाँ रहेंगे, और हिन्दुस्तानी कहाँ – उनका धर्म कुछ भी हो. मुसलमान हो तो वहीं रहो जहाँ के लिए तय हो चुका है.’ या, ‘मुसलमान हो तो अपने घर में हो. हम पर क्या अहसान है?’

मुसलमानों के औसाफ़ (गुण) बहुत सुने, मगर वे सब सद्गुण हैं कहाँ?

सुनते रहे हैं आप के औसाफ़ सबसे हम,

मिलने का आप से कभी मौक़ा नहीं मिला.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का होना, अल्पसंख्यक के रूप में अतिरिक्त सुविधा-सहायता उपलब्ध होना, देवबंद में दारुल-उलूम का इस्लामी दर्शन पर विचार और अध्ययन करने से बढ़कर सामाजिक-राष्ट्रीय क्षेत्र में मुसलमानों की भूमिका और उसके स्वरूप पर नियंत्रण करना, सामान्य संपत्ति क़ानून से अलग वक़्फ़ बोर्ड का होना, मुसलमान के रूप में राजनीतिक पार्टियों का होना और क़ुरान के मुताबिक राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश करना – सब के सब धर्म-निरपेक्षता के विपरीत और ग़ैर-संवैधानिक नहीं हैं तो क्या हैं? भारतीय संसद् और संविधान हर तरह से भारत को ‘इस्लामी’ राष्ट्र बनाने के हर इंतज़ाम को समर्थन देते जान पड़ते हैं?     

मालूम नहीं यह कौन सी गंगा-जमनी तहज़ीब है कि जिसमें गंगा भी हिन्द की, जमना भी हिन्द की, मगर पाकिस्तान बना नहीं कि गंगा-जमना दोनों ग़ायब और आब-ए-ज़मज़म हाज़िर! पीछे बचे दारुल-हर्ब हिन्द में फिर वही ‘गंगा-जमनी तहज़ीब’ का नारा!!  — तक़ीया? बेशक़ तक़ीया!

कहते हैं हिंदुस्तान हमारा देश है, हमें इससे मुहब्बत है. आप तो मुसलमान हैं, और हिंदुस्तान ‘दारुल-इस्लाम’ है नहीं. फिर भी मुहब्बत है? – तक़ीया!

दिल्ली में दंगा नहीं होता तो क्या होता?

जिस तेज़ी से मुसलमान अपनी जनसंख्या बढ़ाते हैं उसका भी रहस्य अब रहस्य नहीं रहा. कश्मीर में जो इन्होंने कहा था, “हमें कश्मीर चाहिए, हिंदुओं के बिना, मगर हिंदुओं की औरतों के साथ”, तो वह कोई बलात्कारी घोषणा-मात्र नहीं थी. औरत इनके लिए और ज़्यादा मुसलमान पैदा करने की मशीन है, इसलिए कहा था. जितनी तेज़ी से इनकी संख्या बढ़ेगी, चाहे घुसपैठिए और रोहिङ्ग्या लाकर बढ़ानी पड़े, भारत उतनी जल्दी दारुल-इस्लाम बन सकेगा. हार्वर्ड के एक अध्ययन ने तो घोषित कर भी दिया है, आने वाले 20 वर्ष में (2040 तक) भारत में हिन्दू और मुसलमान बराबर की संख्या में हो जाएंगे. तब इस्लामी सरकार बनाने और भारत को इस्लामी देश घोषित करने की माँग ज़ोरों से उठेगी, और पूरी भी होगी.

अध्ययन, अफ़वाह, प्रचार, fake news आदि एक तरफ़. इन्हें छोड़कर सिर्फ़ इतना देखें कब-कब क्या-क्या होता रहा है तब भी इन जिहादी मुसलमानों के लिए कहा जा सकता है — तक़ीया पर आधारित राजनीतिक लक्ष्य, क़ुरान पर आधारित आध्यात्मिक उद्देश्य नहीं!!

1947 से 2020 तक संख्या बढ़ाने की  दिशा में मुसलमानों की प्रगति उनके लिए संतोषकारक है. शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे ने यह भी रेखांकित कर दिया है कि इस्लामी सन्तोष के साथ और क्या-क्या आता है.   

धर्म-निरपेक्षता की चवन्नी की पुड़िया के चलते यह भुला दिया जा रहा है कि हिन्द की पहचान क़ुरान कभी नहीं बन सकती, वेद-पुराण-गीता-रामायण ही रहेंगे. ज़मज़म यहाँ नहीं बह सकती. यहाँ गंगा ही बहेगी. मक्का यहाँ नहीं आ सकता. यहाँ इक्यावन शक्ति-पीठ और बारह ज्योतिर्लिंग ही रहेंगे. यहाँ मुहर्रम नहीं होगी, कुम्भ का मेला ही लगेगा.  

शक्ति-पीठ से याद आया, इक्यावन नहीं, भारत में अब पैंतालीस शक्ति-पीठ हैं. एक पाकिस्तान (बलूचिस्तान) में चला गया – हिंगलाज में ‘हिंगुलादेवी’. पाँच बांग्लादेश में गए – श्रीशैल, अपर्णा, यशोरेश्वरी, चट्टल भवानी, और जयंती.

दो बातें.

मुसलमान 1947 से पहले भी और आज भी हज के लिए जाते हैं तो उन्हें वीज़ा लेना होता था और लेना होता है. 1947 से पहले हिंदुओं को इन छहों शक्तिपीठ की यात्रा के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता था. पार्टीशन के कारण आज वीज़ा लगता है.

दूसरी बात यह कि दारुल-इस्लाम बनकर भी पाकिस्तान की पहचान मक्का या इस्लाम न होकर हिंगलाज माता ही रहीं. या कराची, सिंध के पंचमुखी हनुमान्! यक़ीन न हो तो पूछ देखिए वहाँ के लोगों से. बांग्लादेश की भी पहचान ये पाँच शक्तिपीठ और आर्य भाषा परिवार की बाँगला भाषा हैं.

जैसे अफ़गानिस्तान की पहचान बामीयान की बौद्ध मूर्त्तियाँ हुआ करती थीं. तालिबानी तोपों के धुएँ में धुंधलाने के बावजूद अब भी हैं. मूर्त्ति तोप से उड़ सकती है, पहचान नहीं. 

भारत इस्लामी राष्ट्र हो भी गया तो आप कुछ हासिल करेंगे या कुछ गँवाएंगे?

तमाम ग्रन्थों, साहित्य, संगीत, नृत्य, मन्दिरों, मूर्त्तियों – के साथ जो होगा, नहीं दीखता? बामीयान के बाद भी?

और जीती-जागती औरतों के साथ जो होगा? नहीं दीखता? कश्मीर के बाद भी?

कला, शिल्प, रचनाधर्मिता का दम भरने वाले लेफ़्ट-लिबरलों को मंज़ूर है?

चवन्नी की पुड़िया ‘आदत’ को तरजीह देगी, सबको दीखता है.     

इस्लाम 124000 पैग़म्बरों का होना मानता है. हज़रत मुहम्मद आख़िरी थे. इसलिए क़ुरान आख़िरी ‘वचन’ हुआ. मुसलमान भी स्वीकार करते हैं पहला वचन वेद है, और आख़िरी क़ुरान. (बशर्त्ते वेद-सम्बन्धी कथन इनका ‘तक़ीया’ न हो.)

मगर कुदरत तो मुल्ला की नहीं अल्लाह की है. अध्यात्म के 70 mm इस भारत देश में उसने लगभग 600 वर्ष पूर्व गुरु नानक की परम्परा में दस पैग़ंबर और भेज दिए. गुरु गोबिन्दसिंह अब आख़िरी पैग़ंबर हो गए और आख़िरी वचन अब क़ुरान नहीं रहा, श्री गुरुग्रंथ साहब हो गया. अलबत्ता, पहला वचन अब भी वेद ही है और क़ुरान की महत्ता भी कुछ कम नहीं हो गई. मगर आख़िरी वचन ज़रूर श्रीगुरुग्रन्थ साहब हो गया!

हम देख सकते हैं कितने मिथकों के सिर पर पाँव रखकर इन जिहादी मुसलमानों का एजेंडा आगे बढ़ता है. ‘आदत’ वाले प्रोग्रेसिव’ लिबरल इनकी इस तीर्थयात्रा में इनके जूतों पर गुलाबजल छिड़कते हैं. सच्ची बात के लिए इन लोगों पर नहीं, संतुलित विचार वाले मुसलमानों पर भरोसा किया जाना चाहिए. मुसलमानों पर इतनी सब बातें कहने की ज़रूरत इन संतुलित मुसलमानों की तरफ़ देखकर नहीं पड़ती रही है.

सच पूछें तो, यह भी इन्हीं अच्छे मुसलमानों का काम है कि तीन तलाक़ समाप्त करने, कश्मीर समस्या हल करने और ‘CAA से हिंदुस्तान के किसी मुसलमान की नागरिकता नहीं जा रही’ जैसी बातों पर वे टीवी तक महदूद न रहें. अपने जैसे और मुसलमानों को इकट्ठा करें और शाहीनबाग़ की दादी-नानियों के सामने मोर्चा जमायें. वहाँ सच बात रखें, इन ग़लत क़िस्म के जिहादियों को बेनक़ाब करें और कपिल मिश्रा जैसों का सड़क पर आना ग़ैर-ज़रूरी है, यह साबित करें.

क्या ये भारत में मुसलमानों की मेनस्ट्रीम बनना पसंद करेंगे, ताकि मुसलमान पर उल्टे-सीधे सवाल उठना बंद हो? ताकि ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करते रहने की ज़रूरत न रहे?

ये अच्छे लोग हैं. इनसे भी यह सवाल करना बनता है कि यदि पूरा हिंदुस्तान पूरी तरह इस्लामी राष्ट्र हो जाए, सब केवल क़ुरान पढ़ें, नमाज़ अदा करें, देव-वाणी संस्कृत और तमिल को भुलाकर अल्लाह की ज़ुबान अरबी का अभ्यास करें तो इन अच्छे मुसलमानों का क्या बिगड़ेगा? कुछ बिगड़ेगा भी नहीं, और ये ऐसा हो जाने के लिए काम भी नहीं करते. ये वे मुसलमान हैं जो इस्लाम के आध्यात्मिक पक्ष से उसे धर्म की श्रेणी में लाते हैं, न कि ज़बान की तलवार चमकाने वालों की तरह रक्त-रंजित राजनीतिक आकांक्षा को अध्यात्म कहते हैं. 

हिन्द के असली मुसलमान हम हैं, वो नहीं, क्या ये ऐसा स्थापित करने में सफल होंगे?

क्या ये कह सकेंगे ? –-

मुझे दिल की ख़ता पर ‘यास’ शरमाना नहीं आता,

पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता.

हिन्द में कोई ध्रुवीकरण है तो दरअसल अच्छे और बुरे मुसलमानों के इस ‘हम’ और ‘वो’ के बीच है.   

यदि अच्छे मुसलमान इस्लामी मेनस्ट्रीम नहीं बन पाते और मुसलमानों के बीच का यह ध्रुवीकरण ढह जाता है तो सदा के लिए बात पूरी हो जाएगी. तय हो जाएगा जैसे अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद कुछ नहीं होता, आतंकवाद आतंकवाद होता है, वैसे ही अच्छा मुसलमान और बुरा मुसलमान भी कुछ नहीं होता. मुसलमान मुसलमान होता है.

केवल हिंदुओं में हिन्दू नहीं होता. उनमें ‘आदत’ वाले भी होते हैं.

ऐसा स्पष्ट हो जाने के बाद भारत को जो फ़ैसला करना होगा, बेहतर है अभी से कर रखे.

तथास्तु!

05-03-2020