सोशल मीडिया पर एक छोटी सी क्लिप चली थी जिसे lenticular आर्ट का नमूना कहा गया था. Lenticular यानी ऐसी सतह जो आगे-पीछे दोनों तरफ़ से convex हो — Bi-convex, जिसमें हल्का-सा एक गोल उभार हो. जैसे कि काली मसूर की साबुत दाल का एक दाना. इस तरह के lenticular काँच पर एक छोटी लड़की का चित्र बना हुआ था. बाएँ से दायीं ओर चलते हुए हम देखते हैं कि उस लड़की की उम्र बढ़ती जाती है और अन्तिम छोर पर पहुँचते तक वह एक बुढ़िया में तब्दील हो जाती है ! यदि हम दायें से देखना शुरू करेंगे तो एक बूढ़ी औरत का चित्र मिलेगा जो बायें चलते-चलते आख़िर में एक कम-उम्र लड़की के चित्र में बदल जाएगा. ऐसे चित्र और भी देखे गए हैं जिनमें एक आदमी हौले-हौले शेर में बदल जाता है, या एक औरत आदमी बन जाती है. इस तरह के आर्ट को optic illusion कहकर भी वर्णन किया गया है.
लेकिन उस दिन हमारे अपने ब्रह्मापुत्र मुनिवर नारदजी के साथ जो हुआ वह न जाने किसी तरह का कोई आर्ट था, या फिर कोई optical illusion! देवर्षि को स्वयं को बहुत बाद में समझ में आया कि हुआ क्या था, जब सब कुछ हो लिया था !
हुआ यूँ कि नारदजी सुर और तान से विभूषित अपनी वीणा बजाते-बजाते साम-गान करते हुए भगवान विष्णु के दर्शनार्थ श्वेतद्वीप पहुँचे. उस समय श्रीविष्णु लक्ष्मीजी के साथ विराजमान थे. उन्हें आया देखकर सर्वलक्षण-सम्पन्ना, सर्वभूषण-भूषिता, रूपवती नारियों में सर्वश्रेष्ठ भगवती लक्ष्मीजी अन्त:पुर में चली गयीं.
नारदजी ने पूछा, “हे पद्मनाभ भगवन् ! मैं कोई धूर्त्त या दुष्ट व्यक्ति तो हूँ नहीं. मैं तो इंद्रियों को, क्रोधादि को और सबसे बढ़कर माया को जीत लेने वाला तपस्वी हूँ. फिर माता लक्ष्मी मुझे आया देख इस तरह चली क्यों गयीं ?”
विष्णुजी ने कहा, “देवर्षि ! बात तो मात्र सामान्य शिष्टाचार की है कि दो मित्रों को बातचीत करने के लिए एकान्त दिया जाए. मगर चूँकि आपने माया की बात की है, तो बता दूँ कि माया उन लोगों के लिए भी अति दुर्जय है जो श्वास को जीत लेने वाले योगी हैं, सांख्य के ज्ञाता हैं, निराहार रहने वाले तपस्वी हैं, जितेन्द्रिय पुरुष हैं अथवा देव-जाति के हैं. स्वयं मैं, शिव और ब्रह्मा भी अजन्मा माया को जीत नहीं सके हैं. क्या आपको ऐसा बोलना उचित है कि ‘मैंने माया पर विजय प्राप्त कर ली है’ ?”
नारदजी को कुछ कहना नहीं पड़ा क्योंकि अभिमान की उस घड़ी में उनका अविश्वास और संशय उनके चेहरे और हाव-भाव से बोल रहा था.
यह देखकर विष्णुजी ने कहा, “नारदजी, छोड़िये इन बातों को. चलिये, कहीं घूमकर आते हैं.”
भगवान् विष्णु ने अपने वाहन विनतापुत्र गरुड़ को याद किया और गरुड़जी तुरन्त हाज़िर !
दोनों सवारियों को लेकर गरुड़जी उड़े और बहुत से विशाल वनों, दिव्य सरोवरों, नदियों, ग्राम-नगरों, पर्वत्तों, ऋषियों के आश्रमों, कमलों से सुवासित छोटे-बड़े तालाबों को पार करते हुए एक गहन-मनोहर वन में जा पहुँचे. वहाँ विष्णुजी ने नारदजी को एक अत्यंत रमणीय सरोवर दिखाया और मुस्कुराते हुए उनका हाथ पकड़कर उस सरोवर के किनारे ले गए.
सुंदर वन-प्रान्तर, सरोवर का स्वच्छ जल, अनेक कमलों की सुगंध, चहचहाती चिड़ियाँ, ढलती दोपहर. यात्रा की थकान ऊपर से.
भगवान् बोले, “मुनिश्रेष्ठ ! स्नान करना चाहेंगे ? थकान दूर हो जाएगी और आप एकदम फ़्रेश हो जाएंगे?”
नारदजी को आइडिया जंच गया. शिखा बाँध उतर गये सरोवर में.
तैरते-तैरते दूसरे किनारे पर पहुँचे तो एक अत्यन्त रूपवती स्त्री तालाब से निकलकर उस सुनसान जंगल में चारों ओर चकित-भीत नेत्रों से देख रही थी. नारदजी स्त्री-रूप में बदलने के बाद सब कुछ भूल चुके थे. उन्हें यह भी ध्यान नहीं आया कि विष्णुजी उनकी वीणा और मृगचर्म आदि लेकर सामने वाले किनारे से ग़ायब हो चुके हैं.
हो-न-हो, वह तालाब lenticular गुण-धर्म वाली कला का नमूना रहा होगा.
उस एकांत में वह अकेली मोहिनी बैठी सोच रही थी कि अब उसे क्या करना होगा. तभी सुसज्जित हाथियों से घिरा हुआ एक रथ वहाँ आ निकला. उस रथ में आभूषणों से सज्जित एक सुंदर युवक विराजमान था मानो शरीर धारण करके अनंग कामदेव स्वयं वहाँ बैठे हों.
रथ से उतरकर उस युवक ने स्त्री से पूछा, “पूर्णिमा के चन्द्र जैसे मुख वाली कल्याणि ! आप कौन हैं ? क्या आप किसी देवता, मनुष्य, गंधर्व अथवा नाग की पुत्री हैं? रूप और यौवन से सम्पन्न, दिव्य आभूषणों से मण्डित युवती होते हुए भी आप यहाँ इस सुनसान वन में अकेली क्यों हैं?”
उस कन्या ने उत्तर दिया, “मैं निश्चित रूप से नहीं कह सकती मैं किसकी कन्या हूँ, मेरे माता-पिता कौन हैं और इस सरोवर पर मुझे कौन लाया है. किन्तु, आप कौन हैं?”
उस युवक ने बताया, “मैं राजा तालध्वज हूँ.”
वह बोली, “राजन् ! यहाँ कोई मेरा रक्षक नहीं है, न पिता हैं, न माता, न बंधु-बान्धव, और न ही मेरा कोई ठौर-ठिकाना है. मेरा कल्याण कैसे होगा इसका निर्णय मुझे अपनी प्रजा जान आप ही कीजिये.”
राजा तालध्वज उस युवती के लावण्य पर आसक्त हो चुके थे. उन्होंने अपने सेवकों को एक आरामदेह पालकी की व्यवस्था करने का आदेश दिया और उस स्त्री को आश्वासन दिया कि वह उसके साथ विवाह करेंगे जिससे वह रानी बनकर सभी मनोवांछित सुख पा सकेगी.
इस प्रकार वे पति-पत्नी हुए और विभिन्न राजसी भोग, विलास, मधुपान और क्रीड़ाओं में जीवन व्यतीत करने लगे. उन्हें समय बीतने का बोध तक नहीं रहता था. नारदजी को अपने पहले के पुरुष-शरीर और मुनि-जन्म का कुछ भी स्मरण नहीं था. इसलिए वह इस स्त्री-शरीर से अनेक पुत्रों को जन्म देने वाले बने. समयानुसार उन सभी पुत्रों का विवाह भी हुआ. इस तरह राजा तालध्वज और उनकी पत्नी का एक बड़ा परिवार हो गया. कभी-कभार उनके पुत्र और वधुओं में मन-मुटाव हो जाया करता था. रानी का कुछ समय उस खिन्नता में बीत जाता था. पराक्रमी पुत्रों, उत्तम कुल की वधुओं और पौत्रों को देख-देखकर वह अक्सर अभिमान से भी भर जाया करती थी. संक्षेप में, नारदजी को केवल इतना अहसास था कि वह एक पतिव्रता राजमहिषी हैं जिसका उत्तम आचरण है, बड़ा परिवार है, राजा तालध्वज जैसा प्रतापी पति है और वह इस संसार की धन्य स्त्री हैं.
समय बीतते-न-बीतते दुर्दैव हुआ और दूर देश के एक आक्रान्ता के साथ राजा तालध्वज और उसके पुत्र-पौत्रों का तुमुल युद्ध हुआ. उस युद्ध में पुत्र-पौत्र सभी काम आ गए. राजा पराजित हुआ और किसी तरह जीवित रह गया. सन्तानों की मृत्यु का समाचार पाकर रानी विलाप करती हुई युद्धभूमि में जा पहुँची और पुत्र-पौत्रों को भूमि पर गिरा देख शोक-सागर में डूब गई.
उसी समय एक कांतिमान् वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरकर भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे और उस विषादग्रस्त स्त्री से कहने लगे, “लगता है पति-पुत्रादि से सम्पन्न गृहस्थी में अत्यधिक मोहवश आप विचार नहीं कर पा रहीं आप कौन हैं, ये किसके पुत्र हैं तथा ये कौन हैं. यह आपके लिए शोक छोड़कर परम आत्मगति पर विचार करने का अवसर है. मर्यादा की रक्षा हेतु अब आप परलोक गए पुत्रों के निमित्त तिलदान आदि कीजिये. धर्म्मशास्त्र का निर्णय है कि मृत नातेदारों के निमित्त तीर्थ में स्नान करना चाहिए.”
वृद्ध ब्राह्मण के सांत्वना देने वाले वचन सुनकर रानी उठी और उसी वृद्ध से उचित तीर्थ पर ले चलने की विनय की.
वह ब्राह्मण कृपापूर्वक शोकसंतप्त रानी को उसके पति सहित ‘पुंतीर्थ’ सरोवर पर ले गए और कहा, “देवी ! इस पवित्र सरोवर में स्नान कीजिए और निरर्थक शोक का त्याग करके पुत्रों की सद्गति के लिए आवश्यक (तिलांजलि आदि) क्रियाएँ पूरी कीजिए.”
सरोवर में स्नान करते ही वह स्त्री मूल स्वरूप को प्राप्त कर पुन: देवर्षि नारद बन गयी. मुनिवर ने देखा कि भगवान् विष्णु उनकी वीणा थामे अपने स्वाभाविक रूप में सरोवर के तट पर बैठे मुस्कुरा रहे हैं. भगवान् का दर्शन करते ही नारद मुनि को एक-एक बात का स्मरण हो आया.
उधर राजा तालध्वज इस आश्चर्य में पड़ गए कि मेरी पत्नी कहाँ चली गई और ये मुनिश्रेष्ठ कहाँ से आ गए ? पत्नी को पुकारते हुए राजा विलाप करने लगे.
श्रीभगवान् ने अब राजा को समझाया, “राजेन्द्र! क्यों विलाप करते हो ? तुम कौन और तुम्हारी वह भार्या कौन ? कैसा संयोग और कैसा वियोग ? उस सुंदर स्त्री के साथ जो भोग करना था वह आप कर चुके. उसके साथ संयोग का समय अब समाप्त हुआ. एक सरोवर के किनारे वह आपको मिली थी. तब आपको उसके माता-पिता कहाँ दिखाई पड़े थे? वह अवसर जैसे आया था वैसे ही चला गया.”
राजा को भी बात समझ में आई और नारदजी ने भी हाथ जोड़े, “हे देव ! महामाया की शक्ति को मैं जान गया. हम सभी अन्ततः उनके अधीन हैं.”
उस समय के सबसे बड़े और सबसे ज़्यादा टी.आर.पी. वाले न्यूज़ चैनल के स्वामी वेदव्यास नाम के महर्षि ने अपने प्राइम टाईम शो ‘देवी भागवत महापुराण’ में यह प्रकरण प्रकट किया था. न्यूज़ यानी इतिवृत्त>सूचना>विवरण>घटना का इतिहास>पुराना (इतिहास)>पुराण.
देवर्षि नारद क्या जान गये, क्या नहीं वह हम भले जानें न जानें, इतना ज़रूर जान गए हैं कि इस महाराष्ट्र सरकार के गठन की घटना को भारतीय लोकतन्त्र के पुराण (इतिहास) में सदा उल्लिखित किया जाएगा.
महाराष्ट्र में सरकार बनाने का यह पोलिटिकल थ्रिलर सिद्ध कर रहा है कि हमारे चुनाव निश्चय ही lenticular मिरर हैं. इसमें शिवसेना ने आदित्य ठाकरे की छवि को देखकर चलना शुरू किया और किनारा आते ही बाला साहब ठाकरे को देखना शुरु कर दिया. दूसरे छोर पर बी.जे.पी. अपने रथ पर सवार आयी और अजित पवार का हाथ कुछ उस अदा के साथ थाम लिया जो राजा तालध्वज ने नारद मुनि को पाणिग्रहण-योग्य स्त्री जानकर दिखायी थी. अन्य राजनैतिक दल दुर्दांत आक्रांताओं की तरह घात लगाए बैठे रहे कि किस बहाने और कब घमासान छेड़ सकें!
मतदाता अर्थात् हमें लेकर केवल इस बात पर अरण्य-रुदन किया जाता है कि हमारी पूछ पाँच साल में एक बार होती है जब ये नेता लोग पूँछ हिलाते हुए हमारे दर पर मत्था टेकने आते हैं! अब पता चल रहा है कि बच्चू वोटर! तुमसे दान लेकर चुनाव-सरोवर में स्नान इसलिए नहीं किया जाता कि प्रजातांत्रिक अनुष्ठान का आग्रह रखना है. इसलिए किया जाता है कि अपना रूप-स्वरूप सब बदला जा सके! जब अनुकूलता हो तो पूर्व-रूप ग्रहण कर अपनी-अपनी वीणा टंकारने की सुविधा भी उपलब्ध है जिससे ‘हिन्दुत्व’, ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘मुसलमान-मुसलमान’, ‘आधुनिक विकास’, ‘राष्ट्रप्रेम’ जैसे मन्त्र आदतन अलापे जा सकें! ‘नारायण’ इनमें से एक में भी न हों तो न सही!!
सबसे अधिक चिन्ता का विषय इन राजनेताओं के अहंकार का अश्लील खेल है जो ये सब पूरे आत्मविश्वास के साथ खेला करते हैं — होटल, रिज़ोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, प्रेस कोन्फ़्रेंस, आरोप-प्रत्यारोप, बयानबाज़ी. इस खेल से केवल इतना संदेश हम वोटर-भगवान् को दिया जाता है कि हम आपकी इलेक्शन-‘महामाया’ को जीत चुके हैं, अब आप चुप बैठिये और टी.वी. देखिये. हम वोटर यह तक पूछ नहीं पाते कि अगर प्रशासन ही शुरु नहीं करना है तो ये करोड़ों रुपये चुनाव में किस तुफ़ैल में बर्बाद किए थे ? करोड़ों ख़र्च कीजिये, मान लिया, मगर इस तरह बर्बाद करने का हक़ आपको किसने दिया ? जिस भगवान् (वोटर) की दहलीज़ पर माथा टेकने आये थे उसका कोई डर, कोई चिन्ता, परवाह, इज्ज़त वगैरह है या नहीं ?
हमारे यहाँ (आधुनिक) ‘पौराणिक’ आख्यान बहुत हैं कि चुनाव-सुधार — electoral reform होने चाहियें. एकाध उप-कथा भी मिल जाएगी — मतदान की उम्र घटाकर 21 से 18 वर्ष करने का किस्सा, चुनाव आयोग के अधिकार-क्षेत्र की कथा, ई.वी.एम. से मतदान-व्रत, अपराधी सिद्ध होने पर प्रत्याशी पर रोक की गाथा, चुनाव और परिणाम के दिन शराबबंदी-उपवास आदि-आदि. बस हो गए चुनाव-सुधार !
उसका क्या कि राजनैतिक दल प्रदेश को, नगर को, भाषा, जाति आदि को अपनी बपौती समझते हैं ? “हमने जो कह दिया महाराष्ट्र में वही चलेगा”. “मुंबई में वही चलेगा जो हम बोलेंगे”. “खबरदार जो तमिल के सिवा और कोई भाषा बोली तो”. “मुसलमानों के ज़्यादा से ज़्यादा एम.पी.-एम.एल.ए. होने चाहिएं” — या ऐसा ही कुछ और. प्रांत-नगर-भाषा किसी की निजी संपत्ति हैं क्या ? क़ानून से इजाज़त न होने पर भी अगर चुनाव की मण्डी में इन्हीं सिक्कों में व्यापार होता है तो क़ानून बेहद लचर है. राजनैतिक दलों को तो इस क़ानून की परवाह न करने का पूरा-पूरा अधिकार है, हम वोटरों के मन से भी इसका भय जाता रहे — इसकी इजाज़त कोई देगा क्या?
यह सवाल इसलिए उठता है कि चुनावों में न तो मसल पॉवर पर प्रभावी रोक लगी, न मनी पॉवर का इस्तेमाल थमा. राजनीति के अपराधीकरण का चुनाव-सुधार भी नहीं हुआ, न अपराधियों का राजनीतिकरण नहीं हो इसके लिए कुछ हुआ. चुने गए प्रत्याशियों को वापिस बुलाने का अधिकार भी अब तक वोटर को नहीं दिया गया है. यह सब तो हुआ नहीं, छोटी-मोटी उप-कथाओं का पुराण बखानने से क्या होगा? नि:सन्देह वही होगा जो महाराष्ट्र में हुआ है.
अब तो चुनाव-सुधारों की लिस्ट में यह भी जोड़ना ज़रूरी हुआ लगता है कि या तो मतदान करना आवश्यक किया जाए या कम से कम 85% मतदान होने पर ही उसे वैध मानने का नियम बने. महाराष्ट्र के अनुभव के बाद यह अत्यावश्यक हो गया है कि जिस परिवार का एक भी व्यक्ति राजनीतिक दल या चुनाव में आ जाता है उस परिवार के किसी अन्य सदस्य को किसी राजनीतिक पार्टी अथवा चुनाव में आने की पूरी मनाही हो. अनुभव, प्रतिभा आदि बहानेबाज़ी है ताकि ऐसा ही चलता रहे. भारतवर्ष में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. महत्वाकांक्षाओं को खुलकर खेलने की सुविधा प्राप्त होने से ही महाराष्ट्र में व्यापक राष्ट्रीय हित को क़ुर्बान किया जा सका है.
हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र के औसत ‘मराठी माणूस’ को निजी संपत्ति मानने की इस मानसिकता में से एन.सी.पी.-शिवसेना के कुछ ऐसे उद्गार निकले जिनकी पड़ताल ज़रूरी है. इस पूरी उठा-पटक में मौक़ा देखकर अनेक बार ऐसा कहा गया कि ‘यह महाराष्ट्र है. यह दिल्ली के आगे नहीं झुकता’. गोया ‘दिल्ली’ आज भी औरंगज़ेब वाला कोई अलग राष्ट्र है जिसकी टक्कर में छत्रपति शिवाजी का मराठा साम्राज्य कोई दूसरा ही राष्ट्र है. कहने वाले यह भूल गए कि उनसे इतर दलों के चुने हुए विधायक भी उतने ही ‘मराठी माणूस’ हैं जितने वे स्वयं. इतर पार्टी के विधायक कोई पाकिस्तान से आए हुए लोग नहीं हैं. लोगों के एन.सी.पी.-शिवसेना की ‘निजी संपत्ति’ हो जाने का गुमान इतना गाढ़ा हो गया कि ‘यह महाराष्ट्र है’ के व्यक्तियों की छाप कुछ इस तरह लगने लगी कि ये वे लोग हैं जिनपर विश्वास कर लेने में नुकसान-ही-नुकसान है. महाराष्ट्र की प्रतिभा का इससे बढ़कर अपमान और क्या होगा जो सदा भारतीय अस्मिता, धर्म-दर्शन, अध्यात्म, चिंतन, कला और साहित्य में अपने योगदान के कारण मूर्धन्य स्थान पर रही है.
दूसरी बात यह कही गई कि इन्हें कुछ वैसा ही करना है जैसा हिटलर को परास्त करने के लिए ब्रिटेन, अमेरिका, रूस आदि ने मिलकर किया था. उन्हें ध्यान नहीं रहा कि हिटलर मूलतः मार्क्सवादी था. उसका ‘नाज़ी’ — NAZI — शब्द जर्मन भाषा में लिखे गए शब्दों National Sozialist (हिटलर की पार्टी) से Na-zi लेकर बना था. ‘फ़ासिज़्म’ मुसोलिनी का दिया शब्द था जो इटालियन भाषा के ‘फ़ासिज़्मो’ से निकला. Fascio littorio यानी रोमन अथॉरिटी का प्रतीक-चिह्न लकड़ी के हत्थों का वह बण्डल जिससे कुल्हाड़ा बंधा होता था. अथॉरिटी की इस परम्परा में मार्क्सवादी सोशलिज़्म की ज़िद के साथ जातीय श्रेष्ठता का पुट मिलाने से दुनिया को जो मिला वह था हिटलर. चिंता की बात यह है कि ‘यह महाराष्ट्र है’ की जातीय श्रेष्ठता में प्रजा को लामबंद कर उसके निजी सम्पत्ति होने को मिलाकर यह ज़िद कि हमने जो कह दिया यहाँ वही चलेगा हिटलर का काफ़ी कुछ हमशक्ल ठहरता है.
शिवसेना-एन.सी.पी. के फ़ासिज़्म का ही प्रतिरूप होने के दो पुख्ता लक्षण और हैं. एक तो यह कि ये दोनों ही मिथ्या प्रचार में जितने कुशल ठहरते हैं उससे लगता है ये हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्ज़ के भी गुरु हैं. एक झूठ को उछालकर उसे इतनी बार और इतने तरीकों से कहने में इनका तोड़ नहीं कि आख़िर वही सच जैसा हो जाए ! अभी हम वोटरों को यह देखना बाक़ी है इनमें से कौन-कौन कितने झूठ कैसे-कैसे और कितनी बार गोयबल्ज़-स्ट्रीट पर सजाता है जिन्हें इनके लामबन्द वफ़ादार हाथों-हाथ लेने ही वाले हैं.
दूसरा यह कि शिवसेना को देवेन्द्र फड़नवीस से पहले ही दिन से एलर्जी इसलिए थी कि वह इनके मराठा-जातीय फ़ासिज़्म की देन न होकर विदर्भ से हैं. “यहाँ हमारा (महा)-राष्ट्रवाद ही चलेगा” के तहत मुख्यमन्त्री इनका न होकर विदर्भ से हो, यह इनकी किसी स्कीम में फ़िट नहीं बैठता था. एक बार जैसे-कैसे पाँच साल निकाल लिए, अब और नहीं. यह ज़्यादा पुरानी बात नहीं जब ऐसे ही फ़ासिज़्म ने बर्लिन की दीवार खड़ी की थी. और यह उतनी भी पुरानी बात नहीं कि महाराष्ट्र में इसी तरह के आचरण के कारण अलग विदर्भ राज्य की माँग उठती रही है.
जब महत्वाकांक्षा येन केन प्रकारेण पॉवर मुट्ठी में रखने की हो और वंश परम्परा में यही बन्द मुट्ठी विरासत बनती हो तो अथॉरिटी का प्रतीक-चिह्न fascio littorio — अर्थात् फ़ासिज़्म सर्वाधिक उपयोगी औज़ार है. इसके लिए परिवार-वाद ज़रूरी है. परिवार-वाद के लिए किसी न किसी ढब कट्टरता ही सुरक्षा का पिंजरा हो सकती है. जैसे कि कांग्रेस का कट्टर हिन्दू-विरोध !
यह चिंता तब दूनी हो जाती है जब इस तरह अक्सर हिटलर को याद करने के पीछे बी.जे.पी. और उसकी पीठ पीछे आर.एस.एस. का होना अगर कहीं ऐसे ही लामबंद किये लोगों में जातीय ‘श्रेष्ठता’ पर आधारित निकले तो ? आर.एस.एस. को अपने काडर के लामबन्द होने को यह हिटलरीय स्वरूप देना होता तो ऐसा बरसों पहले हो गया होता! मोदीजी चाहकर भी हिटलर नहीं बन सकते, क्योंकि ‘हिन्दू’ कोई एक जाति न होकर सर्व-समावेशी राष्ट्र है. नहीं हुआ तब भी विश्व के सबसे बड़े प्रजातन्त्र के वोटरों का अपनी शक्ति जल्द पा लेना ही श्रेयस्कर है.
मतदाता को यह शक्ति छीन कर लेनी पड़ेगी कि मालिक तो वही है, नियमों, प्रक्रियाओं, संविधान, लोकतन्त्र आदि के सरोवर में डुबकी लगाकर रूप-परिवर्त्तन करने वाले ये राजनेता नहीं. मतदाता जो चाहे वही होना चाहिए. चुनावों का बहिष्कार यह शक्ति हासिल करने का साधन नहीं हो सकता. एक ही उपाय है. जब तक सब चुनाव-सुधार वोटर को पूरी शक्ति प्रदान न कर दें, शत-प्रतिशत वोटर मैदान में उतरे, एक भी व्यक्ति घर पर बैठा न रहे और वोट डालकर किसी को न चुने — ई.वी.एम. पर केवल NOTA का बटन दबाये. याद रहे, एक वोटर भी भूले से किसी को वोट दे आया तो यह उपाय कुछ काम न आयेगा. इस काम के लिए वोटर-जागृति का काम हाथ में लेने वालों को इतनी सावधानी से काम करना होगा कि एक-एक उँगली केवल NOTA पर पड़े. दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए किसी के पास समय नहीं निकलेगा — प्रशांत किशोर के पास भी नहीं. इस अनुष्ठान में एक चूक से भी मंत्र-सिद्धि नहीं होती, यह बात जिस तरह राजनैतिक दल जानते हैं, वैसे ही हमें भी समझ रखनी होगी.
जब बरसों-बरस कोई चुना ही नहीं जाएगा तो देखते हैं सत्ताधीशों का पक्षपाती यह क़ानून क्या करता है. चुने जाकर ‘मेरा सी.एम.-तेरा सी.एम.’ आप नहीं खेलेंगे. आप चुने ही नहीं गए उस सूरत में आपकी शक्ल देखने का खेल हम खेलेंगे.
चुनाव-प्रक्रिया और परिणामों को lenticular आर्ट की माया बना दिया जाए, इस खिलवाड़ को अब और इजाज़त नहीं दी जा सकती.
24-11-2019
राजनीतिक दलों का हाल देखकर मतदाता अपने को ठगा महसूस कर रहा है इसमें बिल्कुल भी संशय नहीं है।महाराष्ट्र की स्थिति को लेकर लिखा गया यह लेख बहुत सटीक है, चैनलों को मसाला मिल गया है और सिरदर्द बढ़ाने में एक दूसरे को मात दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि विधायकों की पार्टियों को भी इनपर विश्वास नहीं है तभी तो इन्हें होटलों में बंद कर देते हैं, फिर भला हम ही इनपर क्यों विश्वास करें???
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