सुना है भारतीय सुप्रीम कोर्ट के ‘असहमति के लोकतन्त्र का सेफ़्टी वाल्व’ होने वाली बात को बी बी सी भी ले उड़ा है.
असहमति और सेफ़्टी वाल्व की भी ख़ूब कही! हमारे भारत में जब कोई किसी को सोशल मीडिया पर ‘वन्देमातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ भेजता है तो उसे घनघोर गँवार, पिछड़ी सोच वाले कट्टर की पदवी अता फ़रमाई जाती है.
‘वंदेमातरम्’ से असहमति सेफ़्टी वाल्व है या यह असहमति सेफ़्टी वाल्व को ही फोड़े डाल रही है?
हज़रत मुहम्मद कहा करते थे ‘मुझे पूरब से (तब अरबी-फ़ारसी में ‘हिंद‘ शब्द नहीं चला होगा) ठंडी हवाएं मिलती हैं’.
मलयज शीतलां!
इन ठंडी हवाओं से असहमति सेफ़्टी वाल्व है या ईश-निंदा है?
असहमति क्या है, इसे मैं ऐसे समझ पाया हूँ:
कथा इस प्रकार है कि किसी समय वाजश्रवा ऋषि के पुत्र वाजश्रवस उद्दालक मुनि ने विश्वजित यज्ञ करके अपना सम्पूर्ण धन और गौएं दान कर दीं. जिस समय ऋत्विजों द्वारा दक्षिणा में प्राप्त वे गौएं ले जाई जा रही थीं, तब उन्हें देखकर उद्दालक मुनि का पुत्र नचिकेता सोच में पड़ गया; क्योंकि वे गौएं अत्यधिक जर्जर हो चुकी थीं. वे न तो दूध देने योग्य थीं, न प्रजनन के लिए उपयुक्त थीं. उसने सोचा कि इस प्रकार की गौओं को दान करना दूसरों पर भार लादना है. इससे तो पाप ही लगेगा.
ऐसा विचार कर नचिकेता ने अपने पिता से कहा – ‘हे तात! इससे अच्छा तो था कि आप मुझे ही दान में दे देते.‘
बार-बार उसके ऐसा कहने पर पिता ने क्रोधित होकर कह दिया — ‘मैं तुझे मृत्यु को देता हूं.‘
पुत्र के इस असहमति-कथन से ‘कठोपनिषद्‘ का जन्म हुआ.
उपनिषद् अपनी जगह. बात निकलती है तो हमेशा दूर तलक जाती है.
पिता ने क्रोध में भरकर ऐसा धौल जमाया होगा कि गिरकर बेटा मर गया! मृत्यु को दे दिया गया.
अब से अस्सी-सौ साल पहले की बात है, या शायद उसके भी पहले की. राजस्थान के टोंक ज़िले के एक मौलवी साहब थे. अरबी-फ़ारसी पढ़ाते थे. बेहद चरित्रवान् और कठोर अनुशासन का पालन करने-कराने वाले. गुस्सैल भी एकदम परले दर्ज़े के. आस-पास के सब गाँवों के हिंदू हों कि मुसलमान उन्हें बहुत मानते थे. इज़्ज़त किये जाने योग्य लोग कैसे होते हैं, उसका साक्षात् रूप थे वह मौलवी साहब.
एक बार कुछ ऐसा हुआ कि अनेक बार सिखाने पर भी एक लड़के ने नहीं ही सीखकर दिया. क्रुद्ध ऋषि-तुल्य मौलवी साहब ने ऐसा धौल जमाया कि लड़का गिरा और सिर की चोट से पट से मर गया.
एक बार फिर ‘पिता‘ ने पुत्र को मृत्यु को दे दिया!
लड़के के माँ-बाप के होठों पर शिकायत का एक लफ़्ज़ नहीं. गाँव वालों की ज़ुबान पर जो हुआ उसके लिए कोई असहमति नहीं. मौलवी साहब उन क़दों में से थे जो असहमतियों से कहीं ऊँचे होते हैं. उनकी ख़ुद की नम आँखें किसी उपनिषद् से कम न थीं.
फिर आता है 1947. उस समय के ब्रिटिश प्रधान मंत्री ऐटली से पत्रकारों ने पूछा कि अभी 5 वर्ष पहले ही गाँधी का ‘भारत छोड़ो‘ फ़ेल हुआ है और आप 1948 में भारत को सत्ता हस्तांतरण का फ़ैसला ले रहे हैं. कारण?
ऐटली ने कहा, भारत की आज़ादी में गाँधी और कॉंग्रेस का रोल minimal है. (यह ‘minimal’ शब्द ऐटली का है.)
तो फिर?
ऐटली ने खुलासा किया कि हिटलर के साथ युद्ध में हमारी कमर टूट चुकी है. हिंदुस्तान पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए हम अपने सैनिक वहाँ रखने में असमर्थ हो चुके हैं. हमें हिंदुस्तान की ही फ़ौज से काम लेना होगा. मगर हिंदुस्तानियों की सेना में सुभाषचंद्र बोस ने कुछ ऐसी चिंगारी भर दी है कि वह अब हमारे भरोसे की नहीं रही.
इस अवसर पर अगर गाँधीजी कह देते कि नहीं चाहिये हमें आज़ादी. मगर बँटवारा किसी हाल में मंज़ूर नहीं — आज़ादी हमें तब भी मिलने ही वाली थी!
मगर नहीं. जवाहर लाल ने कहने नहीं दिया. जवाहर को प्रधानमंत्री बनने और ‘भाई‘ शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर का ‘प्रधान मंत्री‘ बनाने की जल्दी थी.
जवाहर-माऊंटबेटन की सिफ़ारिश पर 1948 की जगह उसके एक साल पहले 1947 में ‘इंशा अल्ला, भारत तेरे टुकड़े होंगे‘ गाते हुए देश का विभाजन यानी ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ हुआ.
कराची की अपनी प्रेस कांफ्रेंस में जिन्नाह ने कहा: “मुझे कल्पना नहीं थी कि अलग पाकिस्तान बनने का मेरा सपना कभी पूरा होगा.”
जवाहर ने अंगरेज़ों को वचन दिया कि सुभाषचंद्र को पकड़कर ‘युद्ध अपराधी‘ के तौर पर उनके हवाले कर दिया जायेगा!
कांग्रेस का पूरा इतिहास freedom struggle का नहीं, Partition Struggle का है. जो थोड़ा-बहुत नोटिस लिया जा सकता है सो गाँधीजी के कारण.
गांधीजी नि:संदेह एक महान् व्यक्ति थे. किन्तु 1947 के बाद से ही वह अवांछित पाये जाने लगे थे. उन्होंने कहा कांग्रेस को समेट दो. नहीं माना. उन्होंने कहा देश का झंडा तिरंगा मत बनाओ. बीच के सफ़ेद पर कांग्रेस के चरखे से संभ्रम पैदा होगा. नहीं माना. जिस किसी ने तिरंगा फहराने से इनकार किया वह यही चरखे वाला तिरंगा था!
गांधी जी कभी कुछ कहना चाहते तो जवाहर से दो-टूक जवाब मिलता — मुझे मेरा काम करने दीजिये!
या तो जवाहर से गांधी जी की कोई नस दबती थी, या फिर वह जानते थे कि जवाहर ठीक आदमी नहीं है. इसे प्रधानमंत्री न बनाकर पटेल को बनने दिया तो वह अंग्रेजों वाली जाने कौन-कौन सी असहमतियाँ उठाकर आज़ाद हिंदुस्तान का जीना हराम कर देगा. लिहाज़ा उन्होंने पटेल के पक्ष में हुए कांग्रेस कार्यकारिणी के फैसले के बावजूद पटेल से अपना नाम वापिस लेने को कह दिया.
और वीर जवाहर प्रधानमंत्री हुए!
इन ‘पिताजी’ पर सबको बहुत भरोसा था. जो वह कहें सो सच! उन्होंने कहा था बँटवारा मेरी लाश पर होगा. दस लाख या शायद ज़्यादा लाशें बिछ गयीं. देश टूट गया. बँटवारा हो गया. मगर पिताजी की लाश इन लाशों में ढूँढे न मिली! 30 जनवरी, 1948 तक नहीं मिली.
अब यह तो ज़रूरी नहीं कि हर वक्त पिता लोग ही पुत्र को मृत्यु को देते चले जाएंगे.
इस बार एक पुत्र ने पिता को मृत्यु को दे डाला! पिता को मिथ्या कथन के पाप से बचा लिया.
यम-गांधी-संवाद से निकला ‘धर्मनिरपेक्षोपनिषद्‘. टंकलेखन: जवाहर लाल नेहरू.
प्रधानमंत्री मोदीजी ऐसा कहने पर मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे. फिर भी वह मेरे अनादर का लक्ष्य नहीं होंगे. क्योंकि मैंने उनसे क्षमा माँगी ही नहीं है. यों भी, वह देशहित को पूर्णतः समर्पित हैं. उनका काम मुझे दी जाने वाली क्षमा से कहीं अधिक बड़ा है.
जवाहर को हिंदुओं के जीने-मरने से तो कुछ लेना देना था नहीं — साफ़ कह दिया I am Hindu by accident of birth . इतने मुसलमान मारे गये, इस कलंक को ढाँपने के लिए इन्होंने धर्म निरपेक्षता नाम का कंबल बुना. धर्मनिरपेक्षता कोई राजनैतिक सिद्धांत नहीं था. अपनी guilt को पूरने के लिए कांग्रेस द्वारा आचरित act of compensation था.
हम किसानों का देश हैं. हमें नहीं तो किसे मालूम होना चाहिये कि मूल फ़सल के लिए घातक फ़ालतू पौधे (weeds) लाख चिल्लाते रहें कि हम गेहूँ, मकई, बाजरा, ज्वार, चावल, गन्ना, शलजम, गाजर, मूली, टमाटर से असहमत हैं और असहमति लोकतंत्र का सेफ़्टी वाल्व है! फिर भी इन्हें उखाड़ फेंकना ही कृषि का वैज्ञानिक धर्म है.
तवे पर सिकती रोटी देखी है न? फूलती है और एक बारीक पपड़ी बना देती है. यही पपड़ी है ‘असहमति‘ — दूसरा विचार. इसे घी से चुपड़ा जाता है. मूल सहित यह दूसरा विचार पूरी रोटी को स्वादिष्ट और पोषक बना देता है.
वेद से असहमति हुई तो उपनिषद् आये. उपनिषदों से भी आगे चले तो धम्म ने मार्ग दिखाया. और भी आगे पश्चिम में Judaism में जो नया विचार आया उससे हमें जीसस मिले. यीशु धर्म में मूर्त्ति का इस्तेमाल कर शोषण होने लगा और असहमति की ज़रूरत लगी तो इस्लाम आया. ईसाइयत के मुकाबले इस्लाम कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी क़दम था जिसे कठमुल्ले बर्बाद करने पर तुले हुए हैं.
ये कुछ वे असहमतियाँ हैं जिन्होंने मूल को सदा समृद्ध किया और पूरी मानवता का सेफ़्टी वाल्व बनीं.
हमारी असहमतियों की विकास-गाथा बहुत भोंडी और पिटने योग्य है.
नेहरू के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले शख़्स का नाम था लोहिया. नेहरू क्या कहता था या करता था और लोहिया को क्या कष्ट था, ये दो बातें आज तक किसी को नहीं मालूम.
मुझे मालूम हैं.
दो बातें.
एक – नेहरू की अंतिम यात्रा पर अशोक वाजपेयी (news reader) द्वारा रो-रोकर रेडियो पर रनिंग कमेंट्री किये जाने तक हम हिंदुस्तानी पूरे-पूरे नेहरू-भक्त रहे. प्रधानमंत्री वीर जवाहर का बाल भी बाँका न हुआ.
दूसरी बात – सुविधानुसार बीच-बीच में हम ही थे जो आज़ाद हिंदुस्तान की रेंग निकली नेहरुयाई गाड़ी से उतरे बिना ‘लोहिया-लोहिया‘ भी गुहार लेते थे. नेहरू को तो हिंदुस्तान से कुछ लेना-देना था नहीं. (हमें भी दरअसल है नहीं.) नेहरू ‘आधुनिक‘ था. लोहिया को हिंदुस्तान से लेना-देना था सो नेहरू की गोद में बैठे-बैठे लोहिया को भज लेने में हम लोग ‘हिंदुस्तानी सरोकार’ के साथ बस सेल्फ़ी खींच लिया करते थे.
लोहिया को नेहरू के ख़िलाफ़ कष्ट क्या था, नहीं मालूम. असहमति क्या थी, नहीं जानते.
फिर आगे कभी हम समझदारों में से एक और निकला– जे.पी., जिसने उन दिनों भारतीय सेना को विद्रोह के लिए आमंत्रण दिया.
बस हम ‘जेपी-जेपी-जेपी‘ भजने लगे.
जे.पी. को कष्ट क्या था नहीं मालूम. असहमति क्या होती है, नहीं जानते.
हमें यह ज़रूर मालूम है कि कहने वाले कहते हैं इमर्जन्सी में जो कष्ट था, वह आज भी है. इमरजेंसी क्या बुरी थी?
मुर्दा ढोने वालों का कंधा थकने पर वे जैसे कंधा बदलते हैं वैसे हम भी असहमति की शेख़ी बघारते आये हैं. कंधा बदलते आये हैं. नेहरू-लोहिया-इंदिरा-जेपी-मनमोहनसिंह-अण्णा हजारे हमारे कंधों के नाम हैं.
असहमतिकारों को आख़िर कष्ट क्या है? कभी तो हिंदुस्तान की अरथी मरघट तक पहुंचा लेने का हौसला रखें.
अब हम असहमत या सहमत होने के फेर में मोदी-मोदी जप रहे हैं. बस इतना कहने की ईमानदारी नहीं बरत रहे कि हे मोदी! हम इमरजेंसी में और मनमोहन के टाईम में बहुत ख़ुश थे. तू वैसा-वैसा ही कर जैसा-जैसा इंदिरा और मनमोहन किया करते थे!
अगर जवाहरलाल, इंदिरा और मनमोहन सिंह से हमारी असहमति सिर्फ़ शौकिया थी तो यह समय शौक छाँटने का नहीं है.
नदिया किनारे हेराय आयी कंगना!
सच की सूई हेराने के बाद भूसे के ढेर में ढूंढेंगे तो रद्दी अख़बार के सिवा और क्या निकलेगा?
करना-धरना तो हमें कुछ है नहीं सो चलो कंधा ही बदलें!
अब हमारा फ़ैशन ही गला-फाड़ असहमति का हो गया है – बिना कुछ जाने, सोचे, समझे — तो रद्दी अखबार का ढेर और बी बी सी भी क्या करे!
असहमति का विचार केवल वह होता है जो मूल को पोषण और समृद्धि दे पाये. फिर वह चाहे कितना ही अलग अथवा क्रांतिकारी विचार क्यों न हो.
जो ऐसा करने में असमर्थ होने के कारण मूल के विनाश को ‘असहमति’ की संज्ञा देते हों उन फ़ालतू पौधों को खुरपी-दराती से उखाड़ कर वे नष्ट कर दिये जायें इसके लिए तैयार रहना चाहिये.
09-10-2018