असहमति — Dissent


सुना है भारतीय सुप्रीम कोर्ट के असहमति के लोकतन्त्र का सेफ़्टी वाल्व होने वाली बात को बी बी सी भी ले उड़ा है.

असहमति और सेफ़्टी वाल्व की भी ख़ूब कही! हमारे भारत में जब कोई किसी को सोशल मीडिया पर वन्देमातरम् या भारत माता की जय भेजता है तो उसे घनघोर गँवार, पिछड़ी सोच वाले कट्टर की पदवी अता फ़रमाई जाती है.

वंदेमातरम् से असहमति सेफ़्टी वाल्व है या यह असहमति सेफ़्टी वाल्व को ही फोड़े डाल रही है?

हज़रत मुहम्मद कहा करते थे मुझे पूरब से (तब अरबी-फ़ारसी में हिंदशब्द नहीं चला होगा) ठंडी हवाएं मिलती हैं.

मलयज शीतलां!

इन ठंडी हवाओं से असहमति सेफ़्टी वाल्व है या ईश-निंदा है?

असहमति क्या है, इसे मैं ऐसे समझ पाया हूँ:

कथा इस प्रकार है कि किसी समय वाजश्रवा ऋषि के पुत्र वाजश्रवस उद्दालक मुनि ने विश्वजित यज्ञ करके अपना सम्पूर्ण धन और गौएं दान कर दीं. जिस समय ऋत्विजों द्वारा दक्षिणा में प्राप्त वे गौएं ले जाई जा रही थीं, तब उन्हें देखकर उद्दालक मुनि का पुत्र नचिकेता सोच में पड़ गया; क्योंकि वे गौएं अत्यधिक जर्जर हो चुकी थीं. वे न तो दूध देने योग्य थीं, न प्रजनन के लिए उपयुक्त थीं. उसने सोचा कि इस प्रकार की गौओं को दान करना दूसरों पर भार लादना है. इससे तो पाप ही लगेगा.

ऐसा विचार कर नचिकेता ने अपने पिता से कहा – हे तात! इससे अच्छा तो था कि आप मुझे ही दान में दे देते.

बार-बार उसके ऐसा कहने पर पिता ने क्रोधित होकर कह दिया — मैं तुझे मृत्यु को देता हूं.

पुत्र के इस असहमति-कथन से कठोपनिषद्का जन्म हुआ.

उपनिषद् अपनी जगह. बात निकलती है तो हमेशा दूर तलक जाती है.

पिता ने क्रोध में भरकर ऐसा धौल जमाया होगा कि गिरकर बेटा मर गया! मृत्यु को दे दिया गया.

अब से अस्सी-सौ साल पहले की बात है, या शायद उसके भी पहले की. राजस्थान के टोंक ज़िले के एक मौलवी साहब थे. अरबी-फ़ारसी पढ़ाते थे. बेहद चरित्रवान् और कठोर अनुशासन का पालन करने-कराने वाले. गुस्सैल भी एकदम परले दर्ज़े के. आस-पास के सब गाँवों के हिंदू हों कि मुसलमान उन्हें बहुत मानते थे. इज़्ज़त किये जाने योग्य लोग कैसे होते हैं, उसका साक्षात् रूप थे वह मौलवी साहब.

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि अनेक बार सिखाने पर भी एक लड़के ने नहीं ही सीखकर दिया. क्रुद्ध ऋषि-तुल्य मौलवी साहब ने ऐसा धौल जमाया कि लड़का गिरा और सिर की चोट से पट से मर गया.

एक बार फिर पिताने पुत्र को मृत्यु को दे दिया!

लड़के के माँ-बाप के होठों पर शिकायत का एक लफ़्ज़ नहीं. गाँव वालों की ज़ुबान पर जो हुआ उसके लिए कोई असहमति नहीं. मौलवी साहब उन क़दों में से थे जो असहमतियों से कहीं ऊँचे होते हैं. उनकी ख़ुद की नम आँखें किसी उपनिषद् से कम न थीं.

फिर आता है 1947. उस समय के ब्रिटिश प्रधान मंत्री ऐटली से पत्रकारों ने पूछा कि अभी 5 वर्ष पहले ही गाँधी का भारत छोड़ोफ़ेल हुआ है और आप 1948 में भारत को सत्ता हस्तांतरण का फ़ैसला ले रहे हैं. कारण?

ऐटली ने कहा, भारत की आज़ादी में गाँधी और कॉंग्रेस का रोल minimal है. (यह ‘minimal’ शब्द ऐटली का है.)

तो फिर?

ऐटली ने खुलासा किया कि हिटलर के साथ युद्ध में हमारी कमर टूट चुकी है. हिंदुस्तान पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए हम अपने सैनिक वहाँ रखने में असमर्थ हो चुके हैं. हमें हिंदुस्तान की ही फ़ौज से काम लेना होगा. मगर हिंदुस्तानियों की सेना में सुभाषचंद्र बोस ने कुछ ऐसी चिंगारी भर दी है कि वह अब हमारे भरोसे की नहीं रही.

इस अवसर पर अगर गाँधीजी कह देते कि नहीं चाहिये हमें आज़ादी. मगर बँटवारा किसी हाल में मंज़ूर नहींआज़ादी हमें तब भी मिलने ही वाली थी!

मगर नहीं. जवाहर लाल ने कहने नहीं दिया. जवाहर को प्रधानमंत्री बनने और भाईशेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर का प्रधान मंत्रीबनाने की जल्दी थी.

जवाहर-माऊंटबेटन की सिफ़ारिश पर 1948 की जगह उसके एक साल पहले 1947 में इंशा अल्ला, भारत तेरे टुकड़े होंगेगाते हुए देश का विभाजन यानी ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ हुआ.

कराची की अपनी प्रेस कांफ्रेंस में जिन्नाह ने कहा: “मुझे कल्पना नहीं थी कि अलग पाकिस्तान बनने का मेरा सपना कभी पूरा होगा.
जवाहर ने अंगरेज़ों को वचन दिया कि सुभाषचंद्र को पकड़कर युद्ध अपराधीके तौर पर उनके हवाले कर दिया जायेगा!
कांग्रेस का पूरा इतिहास freedom struggle का नहीं, Partition Struggle का है. जो थोड़ा-बहुत नोटिस लिया जा सकता है सो गाँधीजी के कारण.

गांधीजी नि:संदेह एक महान् व्यक्ति थे. किन्तु 1947 के बाद से ही वह अवांछित पाये जाने लगे थे. उन्होंने कहा कांग्रेस को समेट दो. नहीं माना. उन्होंने कहा देश का झंडा तिरंगा मत बनाओ. बीच के सफ़ेद पर कांग्रेस के चरखे से संभ्रम पैदा होगा. नहीं माना. जिस किसी ने तिरंगा फहराने से इनकार किया वह यही चरखे वाला तिरंगा था!

गांधी जी कभी कुछ कहना चाहते तो जवाहर से दो-टूक जवाब मिलता — मुझे मेरा काम करने दीजिये!

या तो जवाहर से गांधी जी की कोई नस दबती थी, या फिर वह जानते थे कि जवाहर ठीक आदमी नहीं है. इसे प्रधानमंत्री न बनाकर पटेल को बनने दिया तो वह अंग्रेजों वाली जाने कौन-कौन सी असहमतियाँ उठाकर आज़ाद हिंदुस्तान का जीना हराम कर देगा. लिहाज़ा उन्होंने पटेल के पक्ष में हुए कांग्रेस कार्यकारिणी के फैसले के बावजूद पटेल से अपना नाम वापिस लेने को कह दिया.

और वीर जवाहर प्रधानमंत्री हुए!

इन ‘पिताजी’ पर सबको बहुत भरोसा था. जो वह कहें सो सच! उन्होंने कहा था बँटवारा मेरी लाश पर होगा. दस लाख या शायद ज़्यादा लाशें बिछ गयीं. देश टूट गया. बँटवारा हो गया. मगर पिताजी की लाश इन लाशों में ढूँढे न मिली! 30 जनवरी, 1948 तक नहीं मिली.

अब यह तो ज़रूरी नहीं कि हर वक्त पिता लोग ही पुत्र को मृत्यु को देते चले जाएंगे.

इस बार एक पुत्र ने पिता को मृत्यु को दे डाला! पिता को मिथ्या कथन के पाप से बचा लिया.

यम-गांधी-संवाद से निकला धर्मनिरपेक्षोपनिषद्‘. टंकलेखन: जवाहर लाल नेहरू.

प्रधानमंत्री मोदीजी ऐसा कहने पर मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे. फिर भी वह मेरे अनादर का लक्ष्य नहीं होंगे. क्योंकि मैंने उनसे क्षमा माँगी ही नहीं है. यों भी, वह देशहित को पूर्णतः समर्पित हैं. उनका काम मुझे दी जाने वाली क्षमा से कहीं अधिक बड़ा है.

जवाहर को हिंदुओं के जीने-मरने से तो कुछ लेना देना था नहीं — साफ़ कह दिया I am Hindu by accident of birth . इतने मुसलमान मारे गये, इस कलंक को ढाँपने के लिए इन्होंने धर्म निरपेक्षता नाम का कंबल बुना. धर्मनिरपेक्षता कोई राजनैतिक सिद्धांत नहीं था. अपनी guilt को पूरने के लिए कांग्रेस द्वारा आचरित act of compensation था.

हम किसानों का देश हैं. हमें नहीं तो किसे मालूम होना चाहिये कि मूल फ़सल के लिए घातक फ़ालतू पौधे (weeds) लाख चिल्लाते रहें कि हम गेहूँ, मकई, बाजरा, ज्वार, चावल, गन्ना, शलजम, गाजर, मूली, टमाटर से असहमत हैं और असहमति लोकतंत्र का सेफ़्टी वाल्व है! फिर भी इन्हें उखाड़ फेंकना ही कृषि का वैज्ञानिक धर्म है.

तवे पर सिकती रोटी देखी है न? फूलती है और एक बारीक पपड़ी बना देती है. यही पपड़ी है असहमति‘ — दूसरा विचार. इसे घी से चुपड़ा जाता है. मूल सहित यह दूसरा विचार पूरी रोटी को स्वादिष्ट और पोषक बना देता है.

वेद से असहमति हुई तो उपनिषद् आये. उपनिषदों से भी आगे चले तो धम्म ने मार्ग दिखाया. और भी आगे पश्चिम में Judaism में जो नया विचार आया उससे हमें जीसस मिले. यीशु धर्म में मूर्त्ति का इस्तेमाल कर शोषण होने लगा और असहमति की ज़रूरत लगी तो इस्लाम आया. ईसाइयत के मुकाबले इस्लाम कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी क़दम था जिसे कठमुल्ले बर्बाद करने पर तुले हुए हैं.
ये कुछ वे असहमतियाँ हैं जिन्होंने मूल को सदा समृद्ध किया और पूरी मानवता का सेफ़्टी वाल्व बनीं.

हमारी असहमतियों की विकास-गाथा बहुत भोंडी और पिटने योग्य है.

नेहरू के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले शख़्स का नाम था लोहिया. नेहरू क्या कहता था या करता था और लोहिया को क्या कष्ट था, ये दो बातें आज तक किसी को नहीं मालूम.

मुझे मालूम हैं.

दो बातें.

एक – नेहरू की अंतिम यात्रा पर अशोक वाजपेयी (news reader) द्वारा रो-रोकर रेडियो पर रनिंग कमेंट्री किये जाने तक हम हिंदुस्तानी पूरे-पूरे नेहरू-भक्त रहे. प्रधानमंत्री वीर जवाहर का बाल भी बाँका न हुआ.

दूसरी बात – सुविधानुसार बीच-बीच में हम ही थे जो आज़ाद हिंदुस्तान की रेंग निकली नेहरुयाई गाड़ी से उतरे बिना लोहिया-लोहियाभी गुहार लेते थे. नेहरू को तो हिंदुस्तान से कुछ लेना-देना था नहीं. (हमें भी दरअसल है नहीं.) नेहरू आधुनिकथा. लोहिया को हिंदुस्तान से लेना-देना था सो नेहरू की गोद में बैठे-बैठे लोहिया को भज लेने में हम लोग हिंदुस्तानी सरोकार के साथ बस सेल्फ़ी खींच लिया करते थे.

लोहिया को नेहरू के ख़िलाफ़ कष्ट क्या था, नहीं मालूम. असहमति क्या थी, नहीं जानते.

फिर आगे कभी हम समझदारों में से एक और निकला– जे.पी., जिसने उन दिनों भारतीय सेना को विद्रोह के लिए आमंत्रण दिया.
बस हम जेपी-जेपी-जेपीभजने लगे.
जे.पी. को कष्ट क्या था नहीं मालूम. असहमति क्या होती है, नहीं जानते.

हमें यह ज़रूर मालूम है कि कहने वाले कहते हैं इमर्जन्सी में जो कष्ट था, वह आज भी है. इमरजेंसी क्या बुरी थी?

मुर्दा ढोने वालों का कंधा थकने पर वे जैसे कंधा बदलते हैं वैसे हम भी असहमति की शेख़ी बघारते आये हैं. कंधा बदलते आये हैं. नेहरू-लोहिया-इंदिरा-जेपी-मनमोहनसिंह-अण्णा हजारे हमारे कंधों के नाम हैं.
असहमतिकारों को आख़िर कष्ट क्या है? कभी तो हिंदुस्तान की अरथी मरघट तक पहुंचा लेने का हौसला रखें.
अब हम असहमत या सहमत होने के फेर में मोदी-मोदी जप रहे हैं. बस इतना कहने की ईमानदारी नहीं बरत रहे कि हे मोदी! हम इमरजेंसी में और मनमोहन के टाईम में बहुत ख़ुश थे. तू वैसा-वैसा ही कर जैसा-जैसा इंदिरा और मनमोहन किया करते थे!

अगर जवाहरलाल, इंदिरा और मनमोहन सिंह से हमारी असहमति सिर्फ़ शौकिया थी तो यह समय शौक छाँटने का नहीं है.
नदिया किनारे हेराय आयी कंगना!
सच की सूई हेराने के बाद भूसे के ढेर में ढूंढेंगे तो रद्दी अख़बार के सिवा और क्या निकलेगा?
करना-धरना तो हमें कुछ है नहीं सो चलो कंधा ही बदलें!
अब हमारा फ़ैशन ही गला-फाड़ असहमति का हो गया है – बिना कुछ जाने, सोचे, समझे — तो रद्दी अखबार का ढेर और बी बी सी भी क्या करे!

असहमति का विचार केवल वह होता है जो मूल को पोषण और समृद्धि दे पाये. फिर वह चाहे कितना ही अलग अथवा क्रांतिकारी विचार क्यों न हो.

जो ऐसा करने में असमर्थ होने के कारण मूल के विनाश को ‘असहमति’ की संज्ञा देते हों उन फ़ालतू पौधों को खुरपी-दराती से उखाड़ कर वे नष्ट कर दिये जायें  इसके लिए तैयार रहना चाहिये.

09-10-2018

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Food Moms cook


Indian kitchens are the perfect laboratory for health services.

We Indians, when asked what was worth eating, used to promptly tell: ‘पयं पक्वा घृतं पक्वा’ – that which was either cooked in milk or with butter oil (ghee). This penchant for milk and ghee has been so striking that there was a saying – “काम घी का, नाम बड़ी बहू का!”

The खूसट elders were so gourmandised with ghee as not to acknowledge any cooking merit in the daughter-in-law the senior, although happy with the food.

Yet, one thing was certain, confirmed with the burp after food.

They recollected what their mother used to cook for them!

Cooking is a great art of communication.

Nothing but a mother substantiates it.

Mothers, more so Indian mothers, know by each of their instincts what ingredients and spices were required for which food, and in what quantity. Mothers know they cook for their child, the most precious part of her existence that had come out of her. A mother is in unbroken communication with the broth, as if the dish itself whispered in her ears “now DO this!!”

What along with the greatest of spices she puts into the cooking stock is — all her love, every drop of it; all the care, every iota of it; and all the affection, every element of it!.

The flavours and aroma of whatever my mother ever cooked for us — the brothers and the sister, are still part of my being.

I am no great eater but at times I feel a compulsion to try my hand at THAT cooking and with the same art of communication with the solid food which my mother prepared.

I exactly copy what my mother used to give us to eat.

But alas! it still WAS not the same!!

Because I don’t know where from to gather all that love, care and affection which only a mother oozes.

Was that how our father more often missed our grandma’s cooking, and grandpa greatgrandma’s?

यदि हम सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् भोजन के तृप्तिपूर्वक ग्रहण का मूल्य न समझें तो भगवान् त्र्यंबक भी हमें रोग और मृत्यु से मोक्ष प्रदान कर अमृतत्व कैसे दे पायेंगे?

Jai Ma!

06-10-2018

Bhasha Ki Naak Par Rumaal


प्रभु जोशी निःसन्देह सर्जनात्मक प्रतिभा के धनी हैं. भारत सरकार के ‘स्वच्छता-अभियान’ पर रेडियो-चैनलों के ताबड़तोड़ विज्ञापनों पर खफ़ा होकर उन्हें लगा कि अब यह भाषा की नाक पर रूमाल रखने का समय है. पूरा ठीकरा जोशीजी ने ‘विविध भारती’ के सिर फोड़ा है. उन्हें लगा कि ‘हुज़ूर’ (सरकार) के कहते ही मीडिया के ‘कम-अक्ल कारिंदे’ विज्ञापन बनाते समय ‘सांस्कृतिक भद्रता’ को क्रूरता से कुचल डालते हैं और विज्ञापन की ‘अर्थ-ध्वनि’ शर्मिंदा कर जाती है.

‘विज्ञापनी-बुद्धि’ पर प्रभु जोशी का गुस्सा जायज़ है. मगर जैसे समय पर न्याय न देना न्याय से इनकार है, समय पर गुस्सा न करना भी एक लाचार किस्म की करुणा है.

रेडियो के एफ.एम. चैनलों की स्पर्धा में जब ‘सांस्कृतिक भद्रता’ को कपड़े उतारने को कहा जा रहा था ताकि ‘कमाई’ हो सके, गुस्से की घड़ी तो तब थी. नहीं क्या? अब दिखाई जा रही झुंझलाहट से तो लग रहा है कि देश को स्वच्छ रखने की पूरी सरकारी बात ही गुस्सा होने जैसी है.

यों भी एफ.एम. तकनीक पाश्चात्य symphony और उस तरह के संगीत के विस्तार की अनुकूलता में है जिसमें सैंकड़ों साज़ रहते हैं. मानो कोई तैर कर इंग्लिश चैनल पार कर रहा हो. भारतीय शास्त्रीय अथवा लोक-संगीत में एफ.एम. कहाँ चाहिये? यहाँ तो कुशल गोताखोर को गहरे में डुबकी लगानी होती है!
तैरने वाले को मेडल मिलता है. गोताखोर मोती लाता है.
सोचने जैसा है कि टेक्नोलोजी एक सांस्कृतिक मुद्दा भी है!

ख़ैर.

अब प्रभु, ऐसा लगता नहीं कि यह मसला आज का है. ऐसा भी नहीं लगता कि मसला सरकारी है. बात रेडियो-टी.वी. और विज्ञापनबाज़ी भर की नहीं है. रेडियो में अगर सिर्फ़ आकाशवाणी और टी.वी. में बस दूरदर्शन होता, सो भी सरकारी नियंत्रण में, तो मसला सरकारी हो सकता था. बात है मीडिया के उपयोग-सदुपयोग-दुरुपयोग की. मीडिया यानी माध्यम यानी अभिव्यक्ति. बात है अभिव्यक्ति की आज़ादी की.

अभिव्यक्ति की आज़ादी या अभिव्यक्ति की ज़िम्मेदारी? शायद Freedom of expression जैसा कुछ होता नहीं, जो भी है वह responsibility of expression होता है. इस संदर्भ में कोई कह रहा था कि आज यदि कबीर आ जाये तो क्या उस पर भी रोक लगाने की नौबत नहीं आ जाएगी? फिर संजय लीला भंसाली या श्याम बेनेगल को अभिव्यक्ति की आज़ादी क्यों न हो?

प्रश्न इस रूप में विचारणीय है ही नहीं.

सोचिए, अगर श्याम बेनेगल दाल-रोटी के लिए बिजली कंपनी में बिल-क्लर्क की नौकरी करते हों और अभिव्यक्ति के लिए फ़िल्म बनाते हों तो और बात होगी. कबीर दाल-रोटी के लिए कपड़ा बुनते थे, दोहे लिखकर दाँव पर नहीं लगाते थे. कबीर पर रोक कभी लग ही नहीं सकती. करोड़ों दाँव पर लगे हों तो कभी भी कॉम्प्रोमाइज़ की सिचुएशन आ सकती है (जिसे commitment कहते हैं, वह आज़ादी का इस नाम से कॉम्प्रोमाइज़ है), इसलिए freedom of expression या responsibility of expression का सवाल उठेगा ही उठेगा. मामला माध्यमों के इस्तेमाल का है और इसे चलताऊ, सतही या तात्कालिक प्रतिक्रिया की तरह handle करना अनुचित होगा.

जिन दिनों रेडियो में अनाप-शनाप एफ़ एम चैनलों पर काम चल रहा था, (और टी वी में उसके तमाम चैनलों पर), तब इनके समर्थन में बहुत बातें बनाई जाती थीं. किन्तु तीन तर्क विशेष रूप से दिये जाते थे. एक तो यह कि ढेरों छिपा टेलेंट सामने आयेगा. दूसरे, असंख्य लोगों को रोज़गार मिलेगा. तीसरे, रेवेन्यू लाकर माध्यमों को आर्थिक आत्मनिर्भरता दी जा सकेगी. यह सामने आया टेलेंट ही है जो ‘अब तक फंसी’ हुई जतलाकर साउण्ड इफ़ेक्ट भी देता है. टेलेंट न हुआ मूँगफली हो गई कि ठेले से उठाओ और दाने निकाल लो!

रही बात रोज़गार की, सो इसी देश ने सदियों तक शौच को एक जाति-विशेष के पेट भरने से जोड़े रखा. अब कम से कम शौच का धंधा पेट भरने के लिए वर्णाश्रम से तो बाहर आया!

इतना ही नहीं. एक pathologist काम करते हुए stool test (हिन्दी में लिखने में ‘टेस्ट’ हुआ जा रहा है!) के लिए स्लाइड तैयार कर रहा था और stool को काँच की स्लाइड पर पोत रहा था. पास खड़े देख रहे मित्र ने पूछा, “यह क्या कर रहे हो?” उसने बताया, “यार, हम इसी की तो रोटी खाते हैं”.

नाक पर रूमाल तो ठीक, पर जाने कितनों ही के पेट पर लात क्यों मार रहे हैं?

भाषा की नाक पर रूमाल उसी दिन आ गया था जब गुलाब को खाद का रक्त चूसने वाला ‘कैपिटलिस्ट’ कहकर महामना निरालाजी ने ‘अबे अशिष्ट’ को काव्य की भाषा में शामिल कर लिया था.

यह तो कुछ भी नहीं. आगे चलकर अज्ञेयजी के संपादकत्व में निकलने वाले साप्ताहिक ‘दिनमान’ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने जो लूप फ़िट कराने वाली औरत की “धागे निकलते हैं” की तकलीफ़ का खुलासा किया था, भाषा की नाक पर रूमाल तो तब भी था. ऐसा नहीं कि केवल विविध भारती के उद्घोषक ही नाक पर रूमाल थोपने के ज़िम्मेदार हैं.

और, रूमाल नहीं, भाषा की नाक पर उस दिन कपड़े का पूरा थान आ गिरा था जब हमने हिन्द पाकेट बुक्स का विज्ञापन देखा था – ‘हिन्दी में पहली बार – किसी उपन्यास की एक साथ पाँच लाख प्रतियाँ’.
वह महान ‘साहित्यिक’ रचना थी ‘झील के उस पार’, लेखक गुलशन नंदा. एकता कपूर के टी वी सीरियल इसका ही अगला कदम होने को थे!

मीडियाकर्मियों, विशेषतः बुद्धिजीवियों को कभी सूझा ही नहीं कि वे आनन्द बक्शी नहीं, जयशंकर प्रसाद या अज्ञेय हैं, वे गुलशन नंदा नहीं, इलाचन्द्र जोशी या वृन्दावन लाल वर्मा हैं! ज़रा सोचिए, भाषा, नाक, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, रचनाधर्मिता, रूमाल, कफ़न सब मीडिया के Mall में उस दिन एक साथ बिराजेंगे जब हिन्दी साहित्य के इतिहास में पंत-प्रसाद-निराला और आनंद बक्शी तथा राजेंद्र यादव और गुलशन नंदा एक साथ बखाने जाएंगे!

लूप से ध्यान में आया, हमारे देश की बहुत निंदा इस बात पर हुई थी कि नाक और रूमाल के रिश्ते के चलते इस देश को परिवार-नियोजन (नाक के इसी चक्कर में इसे परिवार-कल्याण कहना पड़ा) पर — नसबंदी, लूप, कंडोम पर — ‘खुलकर’ बात करने में साठ बरस लग गए! अब एक ‘नीच किस्म के आदमी’ ने शौचालय का मुद्दा उठा ही लिया है तो मणिशंकर अय्यर वाला छद्म-ब्राह्मणवाद भाषा बदलकर क्यों बोल रहा है? इसमें भी आगे और साठ साल? क्यों भई ?

संस्कार की चर्चा किए बिना बात पूरी नहीं होगी. एक वक्त था कि वी. शांताराम की फ़िल्म ‘स्त्री’ में पं. भरत व्यास का गीत था – ‘आज मधु वातास डोले’. इस गीत में दुष्यंत शकुंतला पर मोहित हुआ कह रहा है –“मैं कहूँ कुछ कान में तुम जानकर अनजान कर लो”. दुष्यंत ने शकुंतला के कान में ऐसा क्या कहा जिसे जानकर उसे अनजान करना है? हमारे बुद्धिजीवी, शिक्षक और संस्कार के ठेकेदार स्तर को यहाँ तक घसीट लाये हैं कि इसे समझने के लिए ‘मैनफोर्स’ कंडोम का विज्ञापन देखना पड़ेगा. अगर इस सुसंस्कृत गीत के बल पर कंडोम बेचने की कोशिश करेंगे तो एक भी नहीं बिकेगा! तब इसके लिए भी पं. नरेन्द्र शर्मा वाली विविध भारती ज़िम्मेदार?

दुष्यंत ने शकुंतला से इसी गीत में ‘चिर लजीली लाज का पट’ खोलने को भी कहा है!

कहाँ-कहाँ रूमाल रखेंगे?

विज्ञापन की तो हद यह है कि कोई भी कार छोरी की फोटू के बिना बिकती ही नहीं! जानते हैं क्यों?
आज औरत एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति बन रही है. परंपरावादी पुरुष मानसिकता को अपनी मुट्ठी ढीली होती दिख रही है. उसकी हरचंद कोशिश है कि अर्थ-शक्ति और आर्थिक निर्णय औरत के हाथ में न जायें. मीडिया, विज्ञापन, प्रचार-प्रसार को सम्मानजनक दुनिया घोषित करके औरत को यों ही अर्थोपार्जन में भटकाये रखो और ख़ुद इस तरह ‘इज्ज़त की रोटी’ खाते रहो!

यह है मीडिया का रूमाल जो भाषा की नाक पर रखा भले दिखाई पड़ता हो, दरअसल कटी नाक छिपा रहा है!

मीडिया को, और शिक्षा को, धंधा बनाने को किसने कहा था?

संस्कृति सिर्फ़ नाक पर रखा रूमाल नहीं, हाथ में उठाया जूता भी होनी चाहिए!

04-10-2018

Hitler, THE Marxist….


It is rather surprising that Leftism is left not to be studied in its relation to Hitler. Yet, the India’s leftists choose to question nationalism and brand it as ‘intolerance’?

It was a Soviet Swastika used by the Red Army on their flag in their early days which was adopted by Hitler. Marxists deliberately spread a lie that Hitler took it from ‘a Church’ so that his relation to Marxism could be obfuscated. It is an elementary Marxist trait to brush the inconvenient under the carpet. Ask any Indian communist about their relation to Naxalism. They promptly deny there was any.

The ‘gas chamber’ was in use in Stalin’s and Lenin’s Russia much before Hitler. He owes it to them.   

Though we are made to believe otherwise, Hitler in original was a staunch Socialist-Marxist. He had proclaimed: “I have learned a great deal from Marxism and do not hesitate to admit.”

The term ‘Nazi’ itself means “National Socialist’. It is derived from German ‘National Sozialist’. Thus the word ‘NaZi’ itself is a pro-Marxist term as far as Hitler was concerned.

The National Socialism when stretched to authoritarian ultra-nationalism is called ‘Fascism’, characterized by dictatorial power, forcible suppression of any opposition to socialism and strong regimentation of society and of the economy.

The term ‘Fascism’ came from Mussolini. The Italian term fascismo derived from Roman fascio littorio means ‘a bundle of rods tied to an axe’. This was an ancient Roman symbol of the authority of civil magistrate. Characteristic of Marxists, they brushed Fascism under the carpet in course of time and ensured it was placed on the ‘far right’ within the traditional left-right spectrum. Fascism as generally believed has nothing to do with the right-wing political activists. Just because Hitler went ahead on Marxist road much beyond Marx did not mean his fascism was anything opposite to Marxism. This again has been a fallacious propaganda by communists, while anything having a Marxist base and support when carefully examined should actually be fascist and Nazi in character.

Hitler once told Otto Wagener, his economic advisor, that problem with Communists was they had never even read Marx. He stated plainly and emphatically whole of his National Socialism was based on Marx.

‘Socialism’ is defined technically as public ownership of the means of production, and instead of doing what Stalin did to purge capitalists, Hitler being a staunch Marxist and constant opponent of capitalism, committed himself to simply confiscating their capital. Hitler declared the economy could easily be controlled simply by dispossessing the capitalist class of their ‘means of production’, i.e. their capital.

In a speech in Munich in August 1920, Hitler thundered: “If we are socialists we must definitely be anti-semites”, i.e. against Jews and Arabs.

He continued: “our opposite is Materialism and Mammonism (greedy pursuit of riches), which we seek to oppose. How, as a socialist, can you not be an anti-semites?”

Jews, as a race, for Hitler, were epitome of capitalism and his hatred for them was Marxist, not communal or religious.

What Hitler spoke was deliberately given a ‘right-wing’ slant after he lost the war.

Hitler had said: “We must find and travel the road from individualism to socialism without revolution. If individualism was to be destroyed, revolution was the most painful and difficult way to destroy capitalists”.

The expressions such as ‘without revolution’ served to bring in the rightist angle, while actually Hitler had opined “Marx and Lenin had the right goals in their minds, but they simply chose the wrong tactics”. He then furthered Marxism/communism in its strongest intent by waging his own ‘Sozialist’ war on capitalism.

Marxists unquestionably argue that Hitler was a Socialist, not a Marxist. The truth is Karl Marx himself had written: “The meaning of Peace is absence of opposition to Socialism.”

This simply meant war and end of peace on slightest hesitation towards ‘socialism’. A war upon those who opposed Socialism. That is what Hitler did.

If we go by what Marxists say, Marx could also seem to be a ‘Socialist’ rather than a Marxist!!

Leftists are so self-conscious against Hitler being known as a ‘leftist’ that they take every care to picture him as a diabolical right-wing Fascist. This is sheer sophistry because now we can say nothing could ever fortify Fascism more than Marxism through Hitler.

Hitler learnt his lessons in killing all those who stood for capitalism from Marxism as a solution to all society’s ills.

Marxism has killed more than 100 crore people till date. Hitler added another 11 crores to this score, people killed in war not counted. Story of Marxism completes with Hitler and all his slayings go into Marxist account.

Marxism progresses as Socialism-Marxism-Leninism-Communism-Nazism-Maoism-Progressivism-Naxalism-Rationalism, and so on.

Hitler’s nationalism was Marxism in its purest, not simply as propagated by modern-day Marxists in India and elsewhere. His ‘nationalism’ was meant to take ‘socialism’ directly to the people. This precisely meant Hitler wanted socialism to not just be about nationalizing industry, but nationalizing the PEOPLE themselves since socialism, for him, was the only solution to all of society’s ailments.

Had there been no Marx, there wouldn’t be a Hitler! He has established for eternity Marxism in its negativity to everything was nothing but a mental sickness!!

In Hitler, Nationalism rose from the left-wing. Today it seeks to rise as an alternate discourse from the right-wing. Right is the new Left, they say. Nationalism is unavoidable in global economy as on today and is likely to confront Marxism, as well as question validity of Semitic people. Not Jews this time, rather Arab-Islamic Terrorism. Marxism seems to be concentrating on the rise of neo-Nazism of a different kind by criticising right-wing (?) nationalism but actually being in cahoots with terrorism, (as in Kerala), and thus regressing to Hitler’s idea of ‘killings’ in a broader way.

Call them liberals or pseudo-liberals or leftists, they ought to backpedal on their remembering Hitler with reference to anyone talking nationalism. Knowingly or unknowingly they themselves tend to prove nothing less than a mental offspring of Hitler-the-Socialist-Marxist.

Nationalism was best examined by Gurudev Rabindranath Tagore in his book which is always misquoted by Marxists-Liberals-Rationalists. Nationalism was a highly westernised concept hence was termed unacceptable by Tagore.

Rabindranath’s thoughts on Nationalism came in or around 1917 when Hitler was nowhere on the scene. The First World War was on and Gurudev turned his attention to examine the cult of nationalism which was revolting to a mind filled with the idea of vasudhaiva kutumbakam. Tagore focused his penetrating insights into what he felt ‘was wrong with the western civilization’. Tagore, in his ‘Nationalism’ (1917), criticised not only the “organizing selfishness of Nationalism” in the West, but also the replication of this alien concept of nationalism in India by the westernised education. He observed that, “India never had a real sense of nationalism”. Therefore, India’s reverence for ‘God’ and the ideal of ‘humanity’ need not be replaced by the European concept of a limited ‘national identity’.

Hitler’s Nationalism was totally based upon Marxist thought. It was natural for him to use this western concept in his war upon capitalism. Nationalism as forwarded today in India looks like a fully legitimate propagation of Tagore’s thought and runs parallel to his thesis in contemporary scenario. Let us not forget Nationalism today is totally unavoidable, also defined by our constitution. Leftist thinkers have no legitimacy when they tattle against nationalism and reduce it to something worth rejecting.

What the Marxist Hitler did was definitely anti-human. What Marxist Indians end up in doing under any garb or any name could indeed be anti-national.

04-10-2018

Neo-Nazism-2


एक साल से ऊपर हो गया, मैं निरन्तर मार्क्सवाद का विश्लेषण करके यह pinpoint कर रहा हूँ कि हिटलर मार्क्सवाद का peak था. पूँजीवाद के ख़िलाफ़ वह किसी भी हद तक जा सकता था. मार्क्सवादियों ने जब देखा कि उसके होने का मकसद पूरा हो चुका है और वह अब हार की कगार पर है तो उसके राष्ट्रवाद व racism आदि को नाज़ीवाद जैसी परिभाषाओं में लपेटकर आगे के लिए रख लिया. इतिहास की पूरी तोड़-मरोड़ और एक ख़ास किस्म की बौद्धिक तार्किकता स्थापित करने का काम पूरा हुआ तो उनके हाथ लगा इस्लामी कट्टरवाद.
यहाँ यह साफ़ होना ज़रूरी है कि इस तरह की खुराफात से हिंदुस्तान के आम मुसलमानों का कोई संबंध नहीं है. आम मुसलमान मेरी-आपकी तरह मगन रहकर अपना काम करनेवाला और अपना और अपने परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहने वाला नागरिक है.
मार्क्सवाद ने पहले हिटलर के माध्यम से नाज़ीवादी नरसंहार किया. अब वह व्यस्त है कट्टर किस्म के वहाबी इस्लामी आतंकवाद के माध्यम से ‘नियो-नाज़ीवाद’ की स्थापना करने में ताकि हिटलर से बढ़कर कहीं अधिक नरसंहार किया जाये.
ज़ाहिर है कि इसे मानने के पहले कोई भी सबूत माँगेगा!
सबूत यह रहा. पूरे ध्यान से एक-एक शब्द पढ़ें:
“We are requesting Gulf countries and North Korea to help us since we at JNU and majority of Communist Kerala has always revered these two regions of the world and considered them our inspiration.
“By the Grace of Allah (SWAT) and Prophet Marx let us build a new Kerala over the one that Allah has washed now.
“A/c: 786786786786
“SBI JNU New Campus
“IFSC: SBI786786786”
यह उस पोस्टर से उल्लिखित है जो केरल के जल-प्लावन पर JNU के नाम से सोशल मीडिया पर चला.
ज़रूरी नहीं यह सही हो, दिये गए A/c आदि कुछ ऐसा ही बता रहे हैं.
मगर, सही होना न होना मायने नहीं रखता, ध्यान जाना चाहिए सोच और नीयत की उस दिशा पर जो इस उद्दंडता से साफ़ लकीर की तरह खिंच गई है.
ये बड़े आराम से कहेंगे : ‘थैंक गॉड’ , Allah has ‘washed’ Kerala.
भला ऐसा क्यों कहेंगे?
यह मैं उन दिनों की बता रहा हूँ जब मेरे श्वसुर दूसरे हार्ट अटैक से (लखनऊ में) अस्पताल में थे और ठीक होकर दो-एक दिन में discharge होने को थे. घर के लोग बारी-बारी अस्पताल में ड्यूटी लगा लेते थे. इत्तिफ़ाक से मैं भी वहाँ था और छोटे साले साहब के साथ अस्पताल से घर पहुंचा ही था कि बाहर हॉर्न बजा.
साले साहब ने खिड़की से झांका तो उसका दोस्त मोटरसाइकिल पर बैठे बैठे इतमीनान कर रहा था कि घर में कोई है या नहीं. अंदर आया तो उसने जानना चाहा — “अंकल हॉस्पिटल से आ गये क्या?”
“नहीं, अभी नहीं ”
मित्र राहत की सांस लेकर गले से पूरी हवा निकालते हुए बोला, “थैंक गॉड”.
“थैंक गॉड क्यों भाई?”
“दरअसल मैं अब तक उनका हाल पूछने नहीं जा सका था. अब आज जा सकूँगा.”
कोई अस्पताल में फँसा है और यह जनाब कह रहे हैं “थैंक गॉड “!
हमारी पूरी की पूरी आधुनिक सोच-सभ्यता इन मॉडर्न activist लोगों ने “थैंक गॉड “-सभ्यता बनाकर रख दी है.
फ़लां की मां मर गई. “थैंक गॉड “. उसकी टांग टूट गई. “थैंक गॉड “. वह मुसीबत में है और कोई मदद नहीं कर रहा. “थैंक गॉड “. वहाँ रेप हो गया. “थैंक गॉड “.
थैंक गॉड इसलिए कि अब हमें मौक़ा मिल गया!
मार्क्स को इनका नाजायज़ बाप इसलिए कहता हूँ कि ‘अब मिला मौक़ा ‘ का यह धंधा उसने mainstream सभ्यता का हिस्सा बनाया. ख़ुद एंजेल्स के यहां पड़ा रहता था. मुफ़्त की दारू गटकना. फ़्री की रोटी तोड़ना. करना कुछ नहीं. यहां तक कि उसकी Das Kapital भी एंजेल्स ने पूरी की.
जे एन यू के क्रांतिवीर 10साल में भी रिसर्च क्यों करें पूरी? मुफ़्त का scholarship ही तो मार्क्सवाद है. वजीफ़ा छूटा तो ‘कुछ-न-करने’ के साथ उनका जो कमिटमेंट है, वह छूट जाएगा!
इन्हें भी मालूम है, भारत के टुकड़े — इंशा अल्ला — होने होंगे तो अपने आप हो जाएंगे, इनके किये नहीं होंगे. इन्हें तो बस एक ही काम करना है– बकबक बकबक बकबक बकबक !
टांग टूट गई, उसने यह नहीं किया. बकबक बकबक. अमुक मुसीबत में पड़ा, इसने वह नहीं किया. बकबक बकबक. रेप हो गया, ‘गौरमेंट’ ने कुछ नहीं किया. बकबक बकबक. प्रधान मंत्री ने एक बयान तक नहीं दिया. बकबक बकबक.
आप इनसे पूछें, भाई, वह ग़रीबी में है, तुमने क्या किया?
जवाब मिलेगा, क्यों? ‘थैंक गॉड’ किसने कहा?
ये आपको केवल अपराध बोध देने की कोशिश करते हैं, ख़ुद कुछ नहीं करते.
किसी की सेवा-सहायता करना अच्छा है, पर कभी नहीं भी हो पायी तो मैं इनकी टी. वी. डिबेट का विषय कैसे बन गया!
इनके issue बनाने से न मैं अंधविश्वास छोड़ूंगा, न अपने देश, धर्म, जाति के ख़िलाफ़ जाऊंगा. मेरे पास इतनी आंतरिक शक्ति है कि विश्वास के क्षण में आंख बंद करके अंधा भी हो सकूं. मेरे अंधविश्वास का इनके जैसी बदनीयती से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है.
Rationalist, progressive, scientific outlook वाले तोते की गर्दन मरोड़ूंगा क्योंकि ‘थैंक गॉड’-राक्षस के मरने के बाद ही हिंदुस्तान उठ खड़ा हो सकेगा.
24-09-2018

The 3-Languages


KIND ATTENTION HRD/EDUCATION MINISTER, Government of India

The three-language formula for our education and teaching was devised in the Chief Ministers’ conference in 1961 and enunciated in the 1968 National Policy Resolution. The Union Education Ministry in consultation with the states formulated this formula of language learning. It provided that Hindi-speaking states would teach three languages, namely one of the local languages (mother tongue, viz. Maithili, Avadhi, Brajbhasha, Rajasthani), Hindi and English. The children in non-Hindi-speaking states were to be taught the local language (mother tongue), along with Hindi and English.

But alas! the way we have been running the affairs of the country from Delhi, that too under Nehruite Indian National Congress, Indian Education system was doomed to fail the three-language formula, only to blame the states, education being a state subject under the Constitution. Most of the states, except Puducherry, Tamil Nadu and Tripura, have implemented the Three-Language formula and three languages viz. Hindi, English and state’s official language are taught in the schools of these states. Hindi is not taught in the states of Tamil Nadu, Tripura and Puducherry. A few of the Education Boards in some states permit even foreign languages such as Spanish, French and German in place of Hindi. (I should stand corrected if there are some factual mistakes in my information on this).

Delhi/Congress have been pitiably deprived of a predisposition to ever introspect whether they had managed to teach Hindi as lingua franca or it was UP-MP-Bihar we were teaching. Why was it never propositioned from Delhi  under Congress that Hindi-speaking states should teach Hindi, English and a language from one of the non-Hindi-speaking states? As for Hindi we teach in each state including Hindi-speaking ones, literature from different state languages translated into Hindi should be taught. In principle, a poem from Hindi, an essay from Tamil, a short story from Kannada, a one-act play from Bengali, stories from Sanskrit, poetry from Urdu, essays from Sindhi, folklores from Ladakh and Kashmir, stories from Ramayana and Mahabharata – all translated into Hindi should constitute the Hindi syllabus, whichever the state may be. Teaching Hindi as link language ought to mean teaching India.

This should equally apply to English. Do we want to teach English language or intend to teach England, Europe and America in India? Content matter from each state language and every corner of country translated into English should be taught. What is the sense of teaching Keats, Wordsworth or Emerson in class 5th , 6th , or ninth and tenth instead of Akilan (Tamil), Vallathol (Malayalam), Tukaram or Gyaneshwar or Muktabai (Marathi), Kanchan Baruah (Assamese), Bulleshah and Nanak Singh (Punjabi), Ghalib or Iqbal (Urdu), Nazrul Islam and Rabindranath Tagore (Bengali) – all translated into English? Let us make our children learn the English language that had imbibed India, not some foreign lands. When we teach a language we don’t teach a mere language. We teach its literature which essentially belongs to people’s culture, thought, philosophy and lifestyle. Hindi and English we teach MUST belong to entire India, every corner of India.

By the way, what prevents us from teaching the same content in all the three languages? The same collection translated into Hindi, English and the state language being taught? It is likely to make learning languages and understanding matter for any child not only easier, but faster too!

Higher studies in English literature or Hindi or the regional language excepted of course; which are, even otherwise, not part of three-language formula, only a matter of choice and preference of the individual scholar.

24-09-2018

 

 

 

Neo-Nazism


न्यूयॉर्क टाइम्स के लेखक-संपादक जोसेफ़ होप  का एक लेख ख़ूब चला था “Who Is Modi?”

जिन लोगों की अंग्रेज़ी मुझ से भी ख़राब है उन्होंने अपनी गतिविधियाँ और तेज़ कर दी थीं क्योंकि इस लेख पर अमल (यानी भारत के हित (स्वार्थ?) के विपरीत आचरण) तो ये लोग पहले से कर ही रहे थे. जिनकी अङ्ग्रेज़ी मुझ से अच्छी है उन्होंने भी समझ लिया कि यह left handed compliment है, इसलिए compliment part को तो छोड़ो, बस इतना याद रखो और करो कि हमारे ही किसी हिन्दुस्तानी माणूस की तारीफ़ हो जाये, यह होना नहीं चाहिए! वरना हमें पढ़ा-लिखा कौन कहेगा? बाक़ी, मोदी को रोका जाये, जोसेफ़ होप का इतना कहा ठीक है. 

अब यह लेख हिन्दी में आया है तो होगा यह कि जिन्हें पहले समझ में नहीं आया था वे मोदी-विरोध के नाम से भारत के हितों पर प्रहार बढ़ा देंगे. जिनकी समझ में आया था (समझ में यह facility मौजूद रहती है – in-built है – कि जैसा हमें suit करेगा वैसा समझेंगे!) वे दुनिया को बचाने के लिए मोदी-विरोध बढ़ा देंगे – हिंदुस्तान का क्या है, यह तो हमेशा से ऐसा ही रहा है और ऐसा ही रहेगा. थोड़ा-बहुत इसे अंग्रेज़ संभाल गए, कुछ नेहरू और कांग्रेस ने संभाल दिया, और फिर मार्क्सवाद ने इसे rationalist activism दे दिया, तब जाकर कहीं यह देश बचा!

जोसेफ़ होप की दिक्कत यह है कि दुनिया के किसी भी पत्रकार की तरह इन्हें भी भ्रम है दुनिया के हर देश का नेता बेवकूफ़ है जो मोदी को आँखों में धूल झोंक लेने दे रहा है और अखिल ब्रह्मांड की समझदारी कहीं है तो सिर्फ़ जोसेफ़ होप के पास है!

इन महाशय की समझदारी का आलम तो यह है कि इनके मुताबिक़ अमेरिका जानता था हिटलर उसका दुश्मन है. फिर भी होप साहब का समझदार देश (जो अब मोदी के सामने बेवकूफ़ हो गया है!) पूरे विश्वयुद्ध के दौरान अपनी मित्र allied forces को axis forces के सामने मरने को छोड़े रहा. और जब लड़ाई में कूदा तो जितना हिटलर ने चार साल में नहीं किया उतना एक बार में हिरोशिमा और नागासाकी में कर दिया! इतने ग़ैरज़िम्मेदार अमेरिका से भी मोदी ज़्यादा ख़तरनाक है! भई वाह!

मोदी क्यों ख़तरनाक है – क्योंकि वह अपने देश भारत का हित (होप के शब्दों में ‘स्वार्थ’) देखता है! क्या ग़ज़ब का logic है!!

विश्व-शक्ति बनकर भारत पूरी दुनिया को आँख दिखाएगा – ऐसी बात केवल होप जैसा भयंकर विद्वान् ही कह सकता है! इस एक बात ने ही बता दिया कि होप उन लोगों में से है जो Abrahamic religions ( अर्थात् Christianity-Islam) के पीपे (tin-container) से कभी बाहर नहीं निकले जो जान पाते कि हिन्दुत्व पर चलने वाले हिंदुस्तान से तो विश्व-विजय के लिए निकला सिकंदर भी एक सबक लेकर वापसी यात्रा में अर्थी पर लेटा था – हाथ coffin से बाहर रहने चाहिएं ताकि दुनिया देखे, विश्व-विजय तो एक तरफ़, आदमी खाली हाथ जाता है. आँख दिखाना तो दूर!  

यह आपके पीपे की ही कृपा थी कि मार्क्स ने कह दिया religion is opium. मार्क्स को हिन्दुत्व का कुछ भी पता नहीं था. अब्राहमिक धर्म ही उसके लिए धर्म थे! यह भी आपका ही पीपा था कि नीत्शे  ने घोषित कर दिया – गॉड इज़ डेड! और जैसे ही मनुस्मृति उसके हाथ लगी, वह बोला, हमें धर्मों की कोई ज़रूरत नहीं है. मनुस्मृति वह वैज्ञानिक ग्रंथ है जो सिर्फ़ उसके बारे में बताता है जो आदमी नहीं करता,क़ुदरत करती है! यह ग्रन्थ ही काफ़ी है.

और जनाब होप साहब, आप जैसे विद्वान् को यह तो मालूम था कि हिटलर अमेरिका का दुश्मन है, मगर यह कैसे पता नहीं चला कि हिटलर कट्टर मार्क्सवादी था? मार्क्सवाद का जो peak हो सकता है, वह हिटलर था. उसका स्वस्तिक रूसी लाल सेना के पहले झंडे से आया, गैस चैंबर स्टालिन-लेनिन से मिले,राष्ट्रवाद इंग्लैंड का nationalism नहीं,पूंजीवाद के विरुद्ध हथियार था –  संसाधनों का ही नहीं, नागरिकों का भी राष्ट्रीयकरण कर दो! हिटलर का कहना था यह कैसे हो सकता है कि आप समाजवाद की बात करें और सेमेटिक जातियों (अरब-यहूदी) के mammonism — धनपरायणता —  के खिलाफ़ न हों? यहूदी उसके लिए शेक्सपियर के ‘मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’ के पात्र शायलॉक का रूप थे! पूंजीवाद का चरम! उसकी चिंता थी कम्युनिस्टगण ठीक से मार्क्सवाद को न पढ़ते, न लागू करते!

हिटलर पूरी तरह से मार्क्सवाद की घड़न था. ठीक वैसे जैसे ओसामा बिन लादेन अमेरिका की रचना. जैसे भिंडरांवाले इन्दिरा की देन!

आप पूछेंगे फिर हिटलर ने रूस पर क्यों हमला किया?

जवाब है जिस कारण ओसामा ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया!

भारत के विपक्ष को एकजुट होकर मोदी के खिलाफ देश को भड़काने के पक्ष में होते समय जोसेफ़ होप को यह सब दिखाई नहीं देगा. ऐसे बुद्धिजीवी/पत्रकार वे लोग हैं, मार्क्सवाद को जवाब देते वक़्त जिनकी घिग्घी बंध जाती है और rationalist हो जाने के सिवा जिन्हें और कोई उपाय नहीं दिखाई देता. ये वह लोग हैं जिनके लिए किसी ने ठीक कहा था कि अपने दुश्मन से लड़ने में एक दिन हम उसी का चेहरा बन जाते हैं! मार्क्सवाद से लड़ते-लड़ते ख़ुद रेशनलिस्ट हो लिये!

अब इन्हें कैसे दिखाई देगा कि जैसे मार्क्सवाद ने हिटलर दिया, उसी को मंहगा पड़ा, अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन बनाया, उसी को भुगतना पड़ा, इन्दिरा गांधी ने भिंडरांवाले घड़ा और जान गंवायी, उसी तरह इस सोच के पीपाबंद पश्चिमवालों ने एक दिन पाकिस्तान बनाया और आज उन्हीं को आतंकवादी लादेन छिपाकर उसने मुँह चिढ़ा दिया!

हिटलर, लादेन, भिंडरांवाले जैसे individuals पैदा करना, फिर उसी तर्ज़ पर एक पूरा देश बनाने का खौफ़नाक experiment कर डालना!!

पाकिस्तान-एक्सपेरिमेंट सफल होने पर वहाबी इस्लामी ताकतों का हौसला बुलंद हो गया जो आज ISIS के खलीफ़ा तक जा पहुंचा है. इधर पाकिस्तान का होना इसलिए ज़रूरी माना गया कि इसे बाक़ी बचे हिंदुस्तान के इस्लामीकरण की कोशिशों का कैंप बनाया जाये!

जो बात जोसेफ होप को और उसके पाले हुए हिन्दुस्तानी पत्रकारों को दिखाई नहीं देगी वह है कि इस वक़्त मार्क्सवादी ताक़तें इस्लामी आतंकवाद में से Neo-Nazism घड़ रही हैं जो हिटलर से भी ज़्यादा मंहगा साबित होने जा रहा है. इस प्रयोग के लिए हिंदुस्तान की ज़मीन काम में ली जा रही है. केरल, कर्णाटक, JNU, पुणे-कोरेगाओं, भारत के टुकड़े-टुकड़े गैंग, PFI, NGO, सोशल एक्टिविस्ट, पत्रकार,विपक्षी राजनीतिक दल – सबको एकजुट किया जा रहा है, मोदी को बहाना बनाकर! अगर यह किसी को नहीं पता कि मोदी के मन में क्या है तो इसमें ऐतराज़ की बात क्या है? इतना तो पता है न कि उनके मन में अपने देश का हित है. यह कहाँ ज़रूरी है कि भारत का देश-हित जोसेफ़ होप से एप्रूव करवाने के बाद ही लागू किया जा सकेगा?

यह स्पष्ट होना चाहिए कि मोदी की कोई लड़ाई इस्लाम के खिलाफ़ नहीं है. इन तमाम वर्षों में एक भी ऐसा निर्णय नहीं है जो इस्लाम धर्म या मुसलमानों के खिलाफ़ हो!

मोदी का जो होना हो सो हो. भारत की ज़मीन जाने! मगर जोसेफ होप जैसे लोग और उसके पिछलग्गू Neo-Nazism की कामयाबी के लिए काम कर रहे हैं. इन्हें पराजित करने के लिए मोदी का बने रहना और हर चुनाव जीतना ज़रूरी है!

रहा नियो-नाज़ीवाद, सो वह अकेले हिंदुस्तान का सिरदर्द नहीं है!!

23-09-2018

ShriGanesh


India and Indians are busy with Lord Ganesha. A video clip had gone viral recently on social media highlighting a Madrid Church inviting Lord’s procession inside and seek His blessings.
I too shared the clip with a lot of friends and acquaintances and followed with the complete news on how the priest Bishop Rafael Zornoza Boy had to apologise for causing “deep sorrow for this ‘unfortunate’ fact that has caused damage, confusion or scandal in the Christian community”.
I was questioned by a few of my ‘progressive’ activist friends if sharing the clip was not just sufficient in the interest of secularism. What was the need to share the complete news item which in the end harmed the ‘goodwill’?
Secularism? Was it a tool to speak “half-truths”?
I am firm in my opinion that no other nation, community or religion than only Hinduism & India could ever be truly secular. Because of Hindu lifestyle, India is the only land having world’s all religions.
We are like a rich library which contains all books of all languages.

India is a great library of all religions.

Abrahamic religions like Christianity and Islam usually don’t want to even dream of this. They feel insecure in such a scenario and feel an urge to criticize/destroy Hinduism.
Can we think of a reason for this attitude?
Reason could be they are religious, not spiritual. They know nothing about God or Allah. Whereas even a non-believer and atheist is allowed to be a good Hindu. They don’t feel like exploring to understand this.
All they can think of is a need to have more and more crowds of Christians or Muslims before and behind them. For this they more often indulge in conversions. They are then reassured that when such a large crowd speaks of a God/Allah, there M U S T be a God/Allah. This in turn certifies their authority as cleric. They are sure Hinduism should be opposed which can afford a नास्तिक among believing (religious) Hindus.
So, secularism is not the answer. Indian lifestyle IS. This they call हिन्दुत्व.
This lifestyle is not based in any religion. It is an economics, the agrarian economy which has so far successfully cushioned all world wide recessions.
Incidentally, ‘Hindu’ is a Persian word, nowhere to be seen in entire Samskrut literature and scriptures.
कल अनंत चतुर्दशी है. हम गणेशजी का विसर्जन करेंगे, secularism का नहीं.
Our Constitution tells us to be secular to religions, not to be secular to Lifestyle.
22-09-2018.