नुसरत के बहाने से…


एक तरफ़ जब भ्रातृवर पार्थसारथी थपलियाल अपने मित्र रज्जब अली के कुरेदने पर भारतीय दृष्टि में ‘ईश्वर’ के बारे में मूलभूत जानकारी एकत्र संकलित करने का महत्कार्य कर रहे थे, दूसरी तरफ़ बंगाल में हुए देवी के मुस्लिम अवतार नुसरत को लेकर हंगामा बरपा था. तीसरी तरफ़ आरएसएस वाले श्री मोहन भागवत हमेशा की तरह विजयदशमी पर अपना अद्भुत भाषण दे रहे थे. मोदीजी से बेहतर भाषण कोई दे सकता है तो वह निःसन्देह भागवतजी हैं. मोदीजी बोलते हैं तो हम सोच सकते हैं राजा दशरथ कितना उम्दा बोलते होंगे. उन्हें भी शासन-प्रशासन आदि की मर्यादा का ध्यान रखना पड़ता होगा. भागवतजी बोलते हैं तो लगता है मानो मर्यादाओं का निर्धारण करने वाले गुरु वसिष्ठ कुछ कह रहे हैं.

बहरहाल, आरएसएस को लेकर गच्चा खा गए निंदकों का मन-विज्ञान बाद में खंगालेंगे, फ़िलहाल तो यह सोचना होगा कि आख़िर थपलियालजी, नुसरत जहाँ और भागवतजी में कौन से एक सूत्र का संबंध है जो दूसरी तरफ़-तीसरी तरफ़ गिनाना पड़ गया? ईश्वर हिन्दू होता है, अल्लाह मुसलमान, देवी मुसलमान नहीं होती, मुसलमानों में देवियों का अवतार लेना अमान्य है, अल्लाह के सिवा किसी और की पूजा करना कुफ़्र है, और हिंदुस्तान में रहने वाले सब हिन्दू नहीं होते. अतः इन तीनों बातों में किसी तरह कोई रिश्ता नहीं बैठता.

इस तरह के विश्लेषण से क्या पता चला? पता यह चला कि विश्लेषण का काम है तोड़ना जबकि अल्लाह की बनायी इस कायनात में सब कुछ आपस में गूँथा हुआ है, संश्लिष्ट है. विश्लेषण करने के लिए मैं टहनी से एक ताज़ा खिला गुलाब तोड़ता हूँ. उसकी पंखुड़ियाँ खसोटता हूँ. पूरा-पूरा एनालिसिस करने के लिए लेबोरेटरी में ले जाता हूँ. विश्लेषण करके जान लेता हूँ इसमें इतना-इतना क्लोरोफ़िल है – उसे काँच के एक जार में संभाल लेता हूँ; इसमें इतना जल-तत्त्व – water content है – काँच के दूसरे जार में समेट लेता हूँ; इतना color content है – उसे तीसरे जार में बंद कर लेता हूँ; पंखुड़ियों और पत्तियों के तन्तुओं का structure ऐसा-ऐसा है – चौथे और पाँचवे  बर्त्तनों में ढँक कर रख लेता हूँ ! इस तरह काँच के दसियों पारदर्शी बंद बर्त्तनों में गुलाब का पूर्ण विश्लेषण संभाल कर अब मैं गुलाब का सबसे बड़ा एक्स्पर्ट हूँ और उसके बारे में सब जानता हूँ.

मगर एक बात नहीं जानता. उन सभी बंद पात्रों को एक कवि के सम्मुख रख दूँ कि यह रहा गुलाब, ज़रा इस पर एक सुंदर गीत तो लिख दो, वह नहीं लिख पाएगा. गीत ईश्वर के रचे गुलाब पर ही लिखे जा सकते हैं क्योंकि तब वह अपने संश्लिष्ट स्वरूप में है ! विश्लेषण – analysis हमारी जानकारी भले बढ़ाता हो, यह संश्लेषण– synthesis ही है जो हमारे ज्ञान और विवेक को बढ़ाता है.

इसलिए भागवतजी के भाषण में से टीवी बहस का विषय यह नहीं था कि ‘लिंचिंग’ किस देश का शब्द है. विषय था क्या शिक्षा पैसा कमाना और पेट भरना सिखाने मात्र के लिए है? या ऐसा ही कुछ और. उनके भाषण में विचार-विमर्ष करने योग्य विषय भरे पड़े थे. किन्तु तोड़क-एक्स्पर्ट हम लोग संश्लेषण की (जिसमें विश्लेषण स्वतः निहित है) क्षमता गँवा चुके लगते हैं. अन्यथा ‘हिन्दू’ को लेकर निरर्थक-निराधार  प्रश्न न करते. रज्जब अली को भी थपलियाल जी को हिन्दू ईश्वर के बारे में उकसाना न पड़ता. इस सबके बीच पार्थसारथी थपलियाल ने जो जानकारी संकलित की वह संश्लेषण का एक बेहतरीन नमूना है.

इसी से जुड़ा है बंगाल में देवी का मुसलमान अवतार जो वहाँ संश्लेषण ही तो कर रही थी.

पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि नुसरत जहाँ ने जो दुर्गा पूजा की न तो वह क़ुरान-ए-पाक हाथ में लेकर की, न कलमा पढ़ते हुए की, और न इस्लाम से मुँह फेरकर की. अल्लाह के सिवा किसी और की पूजा इस्लाम में मना है, दुर्गा के पंडाल में नहीं. अबू धाबी के मंदिर में अरब शेख़ ने जो आरती की थी उससे न तो इस्लाम का अपमान हुआ, न कोई कुफ़्र हुआ. हाँ, वही अरब शेख़ अगर मस्जिद में जाकर मूर्त्ति बैठायें और आरती करें तो अवश्य कुफ़्र है, और निंदनीय-दण्डनीय भी है. उन शेख़ की तरह नुसरत जहाँ ने भी ऐसा कुछ नहीं किया जो इस्लाम के खिलाफ़ ठहरता हो.

इस्लाम किसी की बपौती नहीं है. न क़ुरान मुसलमानों की निजी संपत्ति है. ऐसा भी नहीं है कि ग़ैर-मुस्लिम को क़ुरान शरीफ़ घर में रखना, उसकी इज़्ज़त करना या पढ़ना, उस पर मनन-चिन्तन करना मना है. ये हिल-हिल कर क़ुरान पढ़ने वाले मुसलमान – विशेषतः हिंदुस्तान-पाकिस्तान में, या फिर और भी कहीं – बेसिर-पैर की सोचते हैं कि चलो, क़ुरान-ए-मजीद के अक्षर बाँच लिये, इसलिए अब उनका बाक़ी दुनिया को हिलाना बनता है ! ऐसे ही लोगों के लिए क़ुरान में बार-बार कहा गया है कि ये लोग समझते नहीं, सब स्तुति अल्लाह के लिए है और ये बातें समझदारों के लिए इशारा हैं. ‘अल्लाह’ अरबी भाषा का शब्द है. इसका यह अर्थ कैसे हो गया कि सब स्तुति God के लिए नहीं है? या राम के लिए नहीं है? आख़िर God या राम अरबी से इतर भाषाओं में अल्लाह को ही कहते हैं.

हम अरबी में नमस्ते करते हैं तो कहते हैं – “अस्सलाम अलैकुम”. ‘अस्सलाम’ अल्लाह के 99 नामों में से एक है. वैसे ही जैसे परमात्मा का एक नाम ‘राम’ है. इसलिए  “अस्सलाम अलैकुम” बोलकर हम एक भाषा में “राम-राम” कह रहे हैं और “राम-राम” बोलकर दूसरी भाषा में “अस्सलाम अलैकुम” बोल रहे हैं. अब कोई कूड़मगज ही ऐसा कहेगा कि ख़बरदार जो संस्कृत, हिन्दी, लैटिन, ग्रीक  या अंग्रेज़ी बोली तो ! सिर्फ़ अरबी बोलो !

क़ुरान ने कहा है हर इंसान को अल्लाह के रास्ते पर लाना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है. कोई हिन्दू अगर ईश्वर के रास्ते से भटक जाये और कोई मुसलमान उसे रामायण पढ़ने की प्रेरणा देकर, या किसी ईसाई को बाइबिल के माध्यम से वापिस अल्लाह के रास्ते पर ला दे, तो यह क़ुरान का हुक्म मानना हुआ या नहीं? किसने कहा गर्दन पर तलवार रखकर क़ुरान ही पढ़वाई जाए तभी God पर ईमान लाना माना जाएगा?  

इस्लाम में क़ुरान के इशारे सिर्फ़ समझदारों के लिए हैं, हिंदुस्तान के “हाय मुसलमान” “हाय मुसलमान” वाले नव-जिन्नाहों – neo-Jinnahites — के लिए नहीं. यहाँ इस्लाम की नहीं, सभी मुसलमानों की भी नहीं, केवल नव-जिन्नाह टाईप मुसलमानों की निंदा की जा रही है. हर किसी को करनी चाहिए.

1947 के भारत-विभाजन के बाद लगभग 4 करोड़ मुसलमान ऐसे थे जिन्होंने हिंदुस्तान में रहना चुना था. उनमें तक़रीबन एक करोड़ वे मुसलमान थे जिन्होंने पाकिस्तान के बनने में जी-जान लगाया था. जो चार करोड़ आज बढ़कर 20 करोड़ हो गए हैं, उनमें वे एक करोड़ ‘जिन्नाहवादी’ भी हैं जो आज बढ़कर पाँच करोड़ हो गए हैं. कोलकाता के अपने भाषण में चार करोड़ वाला यह तथ्य उस वक़्त के गृह-मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश के सामने रखा था. इन्हीं ‘नव-जिन्नाहों’ को आज भी उसी ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ का इंतज़ार है, जिसका नमूना कभी नादिरशाह के लश्कर ने दिल्ली में एक लाख लोगों की ‘लिंचिंग’ करके, और ख़ुद इन्होंने 1947 में पेश किया था, क्योंकि इनके मुताबिक समझे बिना भी क़ुरान से बेहतर ‘किताब’ नहीं है. अगर ‘मशरिक़’ में है — मुहम्मद साहब का इस्तेमाल किया शब्द – (“मुझे मशरिक़ से ठंडी हवाएं आती हैं”) – तो वहाँ ग़ज़वा-ए-हिन्द कर डालो ! इन्हें मालूम होना चाहिए कि 1947 में हिन्द के पास आज वाला अपना संविधान रहा होता तो जिन्नाह को पाकिस्तान नहीं, फाँसी मिलती ! जिन्नाह को फाँसी न देकर पाकिस्तान देने और एक इस्लामी मुल्क बनाने का नतीजा आज सबके सामने है. ये नव-जिन्नाह पाकिस्तान सहित इस्लाम पर कलंक सिद्ध हुए हैं और ग़ज़वा-ए-हिन्द की परिकल्पना करते-करते दोज़ख़ के आख़िरी खड्डे में जा गिरे हैं.

सच पूछा जाये तो ये मुसलमान हैं ही नहीं. क्योंकि ये इस्लाम और क़ुरान को ज़रा नहीं जानते. हाँ बड़ी-बड़ी इस्लामिक व्याकरण ज़रूर हाँक सकते हैं — फ़तवा यह होता है, ग़ाज़ी उसे कहते हैं, जिहाद का यह नहीं वह मतलब है — वगैरह-वगैरह. जिस तरह चाँद का कलंक चाँद का हिस्सा होते हुए भी चाँद नहीं कहलाता, उसी तरह ये नव-जिन्नाह इस्लाम का हिस्सा हैं ज़रूर पर मुसलमान नहीं कहला सकते. इसलिए दुनिया भर में ये अपने विनाश को नित नूतन न्योता देते रहते हैं और चिल्लाते रहते हैं — “इस्लामोफ़ोबिया, इस्लामोफ़ोबिया” !

थपलियालजी के लेख में ईश्वर को लेकर जो इशारे हैं वे बार-बार क़ुरान-ए-मजीद की भी याद दिलाते हैं —  एको: देव: — अल्लाह एक है; न तस्य प्रतिमा अस्ति – उसकी कोई मूर्त्ति नहीं अर्थात् वैसा दूसरा नहीं है, या उसका कोई साकार रूप नहीं है, उसे किसी ने देखा नहीं है; एकोहं द्वितीयोनास्ति – “मैं केवल एक हूँ, दूसरा कोई नहीं”; एकमेवाद्वितीयम् – एक ही है, अद्वितीय है, अद्भुत है, उस जैसा दूसरा नहीं है; आदि. मगर ये इस्लाम के self-appointed फ़र्माबरदार इशारे समझने जितना समझदार हों तब न !

क्योंकि बक़रीद मनाने की भी कथा कुछ इस तरह है:

हजरत इब्राहीम अपनी पत्नी हाजरा और पुत्र इस्माइल के साथ रहते थे. मान्यता है कि हजरत इब्राहीम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें वह अपने पुत्र इस्माइल की – जो उन्हें सबसे ज़्यादा प्यारा था — कुर्बानी दे रहे थे. हजरत इब्राहीम इस स्वप्न को अल्लाह का आदेश मानकर अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने के लिए निकल पड़े. पुस्तकों में पढ़ने में आता है कि ईश्वर ने अपने फरिश्तों को भेजकर इस्माइल की जगह एक जानवर की कुर्बानी करने को कहा. दरअसल इब्राहीम से जो असल कुर्बानी माँगी गई थी वह उनकी ख़ुद की थी अर्थात् यह कि ख़ुद को भूल जाओ. तब उन्होनें पुत्र इस्माइल और उसकी माँ हाजरा को मक्का में बसाने का निर्णय लिया. लेकिन मक्का उस समय रेगिस्तान के सिवा कुछ न था. इस तरह एक रेगिस्तान में बसना उनकी और उनके पूरे परिवार की बहुत बड़ी क़ुर्बानी थी.

ईद-उल-अज़हा अहंकार के विसर्जन का संदेश देने वाली ‘बड़ी ईद’ है. अहंकार ही मनुष्य को सबसे ज़्यादा प्यारा है – उसी की क़ुरबानी. मगर ये इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे. इस्लाम इनकी बपौती जो हुआ !

एक पुराना क़िस्सा है. क़िस्सा उस अरब सुलतान  का है जिसने रूस पर चढ़ाई की थी और युद्ध में उसे परास्त किया था. कहते हैं कि मस्क्वा (मॉस्को) की लाइब्रेरी इतनी बड़ी थी और उसमें हर भाषा की जानी-मानी पुस्तकें और ग्रन्थ इतनी बड़ी संख्या में उपलब्ध थे कि उन्हें एक के आगे एक रखा जाता तो पृथ्वी से चंद्रमा तक सात चक्कर लग जाते. सुलतान अपने घोड़े पर सवार लाइब्रेरी के सामने खड़ा था और होठों पर विजेता की मुस्कान लिये उस पुस्तकालय को ताक रहा था. 

अचानक सुलतान ने कहा, “क्या इन किताबों में एक भी किताब ऐसी है जो क़ुरान-ए-मजीद से बेहतर है?”

जवाब कौन देता? थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद सुलतान ने फिर कहा, “है कोई बेहतर किताब? अगर नहीं है तो इन सब के होने का क्या मतलब है? मैं इस लाइब्रेरी को जला दूँगा. और अगर एक भी किताब यहाँ ऐसी रखी है जो क़ुरान से बढ़कर है, तब तो मैं इस लाइब्रेरी को ज़रूर जला डालूँगा.”

और वह महान् ग्रंथालय फूँक डाला गया !

यही मानसिकता है जो नुसरत जहाँ को यह मानकर भी गाली देगी कि उसका किया इस्लाम से बेहतर नहीं था, और तब भी गाली देगी जब लगेगा कि इनकी मुस्लिम ठेकेदारी के बावजूद उसका किया उचित और बेहतर आचरण था, इस्लाम का अपमान किये बिना था और एक सामान्य मुसलमान होकर था !

मेरे बचपन के दिनों की बात है. पिताजी के एक मुस्लिम मित्र तरह-तरह के विषयों पर चर्चा करने हमारे घर आया करते थे. भले आदमी थे और हम बच्चों से भी लाड़-प्यार से पेश आते थे. एक रोज़ वह आये तो कुछ परेशान दिखे. पिताजी ने कुशल-मंगल पूछा तो उन्होंने बताया, “आज हमारा एक आदमी मारा गया.”

हम बच्चों ने भी सोचा, बेचारों का कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं रहा इसलिए वह दु:खी हैं.

पिताजी ने भी मातमपुर्सी के अंदाज़ में पूछ लिया कि क्या हुआ था?

पता चला उनका रिश्तेदार साइकिल से कहीं जा रहा था कि अचानक तेज़ दौड़ते एक ट्रक से टकरा गया और मौके पर ही उसकी मौत हो गई.

“आपका क्या लगता था?” पूछने पर उन्होंने बताया, “नहीं-नहीं, रिश्तेदार नहीं था. मैं तो उसे जानता भी नहीं था. वह कोई एक मुसलमान था.”

कोई हिन्दू नाथूराम गोडसे को फाँसी दिये जाने पर कभी ऐसा नहीं कहेगा कि ‘हमारा’ एक आदमी मारा गया. जबकि यह मानसिकता भारतीय संसद् पर आतंकी हमले के षड्यंत्रकारी अफ़ज़ल गुरु को फाँसी होने पर ज़रूर शर्मिंदा रहेगी क्योंकि उसके ‘क़ातिल’ यानी सज़ा देने वाले जज ज़िंदा हैं. नुसरत जहाँ की निंदा तो चीज़ ही क्या है!

कोई भी वह व्यक्ति इस मानसिकता का दुश्मन है जो हर वक़्त छाती पीट-पीटकर असदुद्दीन ओवैसी की तरह “हाय मुसलमान” “हाय मुसलमान” नहीं करता.

ज़ाहिर है न तो इस्लाम बुरा, न क़ुरान में कोई दोष, न सब मुसलमान संकीर्ण विचारधारा में डिब्बा-बन्द अचार की तरह जीने वाले. बस इन नव-जिन्नाहों को यह समझाना होगा कि मियाँ, अपना रास्ता नापो. ग़ज़वा-ए-हिन्द जैसा कुछ होने वाला नहीं.

यही वजह है कि ये नव-जिन्नाह (और उनके सुर में सुर मिलाकर ‘प्रोग्रेसिव’ चोले व झोले वाले) आरएसएस को कोसते रहते हैं. उन्हें लगता है जिस आरएसएस ने एक मोदी दिया कि जिसने ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ के हमारे प्रोग्राम को चौपट कर दिया, उस आरएसएस में न जाने कितने मोदी और होंगे ! हमारी शैतानी फ़ितरत की दुश्मन आरएसएस – तेरा बेड़ा ग़र्क़ हो !

हिंदुस्तान में एक-से-एक बेहतरीन मुसलमान हैं. यहाँ न तो मुसलमान होने में कुछ बुराई है और न मुसलमान होना कोई गुनाह है. इन पाँच करोड़ नव-जिन्नाहों के चलते अगर आरएसएस हिन्दू अस्मिता को जाग्रत करता-सा जान भी पड़ता है तो इसे भी इनके वाले कट्टरतावादी इस्लाम की ही जीत मानना चाहिये जो मुद्दआ पूछता नहीं, बस तलवार भाँजने को जिहाद कहता है. आर.एस.एस. हिन्दू की तरफ़ से इतना ही कह रहा है — मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ, काश पूछो मुद्दआ क्या है!.

नुसरत इस ज़ुबान का ही एक नाम है.

जहाँ तक देवी के मुस्लिम अवतार का प्रश्न है, उसे इस्लामिक सन्दर्भ देना अनुचित होगा. बल्कि कहें, मुमकिन नहीं होगा. इस बात को केवल आधुनिक विज्ञान और भारतीय (हिन्दू) संदर्भों में ही समझा जा सकता है.

मनुष्यों का ईश्वर केवल इसलिए मनुष्यों जैसा है क्योंकि अगर चींटियों का कोई ईश्वर है तो वह चींटियों जैसा होगा और मच्छरों का मच्छर जैसा. वह निराकार परमात्मा जब स्वयं को मनुष्य रूप में प्रकट करता है तो वह शरीर के गुण-सूत्र – chromosome – से बचकर नहीं करता. एक्स (X) और वाई (Y) दोनों क्रोमोज़ोम का नियंता ईश्वर ही है. यह उसका ख़ुद का निर्णय है कि मनुष्य शरीर में XX क्रोमोज़ोम प्रधान होंगे तो वह मनुष्य-शरीर ‘स्त्री’ कहलाएगा. और जब XY के जोड़ीदार यानी pairing क्रोमोसोम की प्रधानता रहेगी तो मनुष्य-शरीर ‘पुरुष’ होगा. यों दोनों तरह के शरीरों में दोनों तरह के क्रोमोज़ोम मौजूद रहते ही हैं. इस कारण नारायण स्वयं वही हैं जो आदिशक्ति जगदंबिका हैं. और आद्याशक्ति देवी वही हैं जो नारायण हैं ! इस शक्ति के बिना शिव केवल ‘शव’ हैं. जब मनुष्य घोषणा करता है – ‘अनल हक़’ —  ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तो वह XY pairing वाले शरीर तक सीमित घोषणा नहीं है. ‘मैं ही सत्य हूँ, ब्रह्म हूँ’ का यह उद्घोष XX क्रोमोज़ोम-प्रधान शरीर वाली मानुषी के लिए स्वतः सिद्ध है. ‘देवी’ का अर्थ समझने का रहस्य मात्र इतना है. केवल भारत ने ही अल्लाह, ईश्वर या God को — जो भी कहें – स्त्री और पुरुष दोनों रूपों में जाना है और दोनों में कोई अंतर नहीं माना है.

इसी से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत ने स्त्री को श्रेष्ठ क्यों माना. क्योंकि यह विज्ञान-सम्मत सत्य है. पुरुष-शरीर के Y गुणसूत्र को पूर्ण होने के लिए X की आवश्यकता है जबकि स्त्री XX के साथ अपने आप में पूर्ण है. विज्ञान भी female species को अधिक मज़बूत – stronger – कहता है.

भारतीय पुराणों में संदर्भ है कि एक बार नारायण ध्यान लगाकर बैठ गए. ब्रह्मा सहित अन्य देवताओं ने जिज्ञासा व्यक्त की कि भगवान् पद्मनाभ तो स्वयं सबका ‘कारण’-तत्त्व हैं, सब उन्हीं का ध्यान करते हैं. उनसे ऊपर तो कोई है नहीं. तब नारायण किसका ध्यान कर रहे हैं ? नारायण ने स्पष्ट किया कि महामाया जगदम्बिका की शक्ति के बिना मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता. मैं उन्हीं का ध्यान कर रहा हूँ.

इस मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि में देखें तो हम पायेंगे कि भारत में जहाँ कहीं समाज इसलिए ‘पिछड़ा’ माना जाता है कि वह अभी तक ‘भारतीय परम्पराओं’ में रहता है, वहाँ आज भी स्त्री का सम्मान है. जैसे कि मारवाड़ में. हरियाणा में तो बहन की गाली पर हत्या तक हो जाती है. गुजरात-महाराष्ट्र में अधिकांशतः स्त्रियाँ आधी रात में भी सड़कों पर अकेली आती-जाती देखी जा सकती हैं.

भारतीयता की चूलें तब से हिलने लगीं जब से भारतवासियों ने जिस किसी कारण अपनी वैज्ञानिक श्रेष्ठता को घुटनों के बल बैठा दिया और पश्चिम के ‘आधुनिक’ विज्ञान व जीवन-शैली की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली. XX और XY क्रोमोज़ोम के सन्दर्भ में ध्यान देना होगा कि पश्चिम का मनोविकास इस पृष्ठभूमि में हुआ है कि हव्वा को आदम की पसली से बनाया गया. इसलिए जैसे पुरुष मूलतः ईश्वर (की सेवा) के लिए है वैसे ही स्त्री पुरुष (की अधीनता) के लिए है. ये संदर्भ बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट में उपलब्ध हैं. स्वर्ग से आदम के पतन की भी वजह स्त्री को ठहराया गया. पश्चिमी मन पूरी तरह इस ‘आदिम पाप’ – archetypal sin – की छाया में पला-पनपा है तथा एक बुनियादी अपराध-बोध में क़ैद है. जिस देश में स्त्री की सहमति-अनुमति के बिना उसे हाथ लगाने तक का साहस करना कठिन था वहाँ आज इस ‘श्रेष्ठता’ के चलते आए दिन के बलात्कार आसान हो चुके हैं, क़ानून कितने भी कठोर बना लीजिये !  बलात्कार का सम्बन्ध क़ानून से है भी नहीं. आपके archetypal value system से है.

एक सवाल अब भी बाक़ी है. जब वह ब्रह्म निराकार है, उसकी कोई मूर्त्ति नहीं, वह केवल एक है, कोई दूसरा नहीं – तब ऐसा कैसे कि वह अवतार भी ले लेता है, स्वयं को प्रकट भी कर देता है और हम उसे मूर्त्ति बनाने योग्य ‘भगवान्’ भी मान लेते हैं? क़ुरान और पुराण दोनों के विचार से अलग चल देना क्या अनुचित नहीं?

कल्पना कीजिये, जब कोई करुण प्रसंग उपस्थित होता है तब क्या होता है. तब करुणावश पहले हृदय द्रवित होता है. उसके तुरंत बाद वह ‘द्रव’ आँख में अश्रु के रूप में दिखाई भी पड़ता है और टपक कर हथेली पर भी आ सकता है जिसे हम छू सकते हैं. यह क्या है? वह करुणा, हृदय का वह द्रवित होना निराकार है. इस निराकार का आकार में प्रगटीकरण ‘अश्रु’ है. बस उसी तरह अल्लाह वास्तव में है तो निराकार ही, मगर जब उसने यह ज़मीन हमें दी, पानी और हवा बनाये, सूरज-चाँद-तारे बनाये तो उसने स्वयं को ही इन आकारों में प्रकट किया. हम कैसे कह सकते हैं हमने अल्लाह को नहीं देखा?

आप क़ुरान को पुराण से भिन्न सिद्ध करना चाहते हैं जो कि है नहीं. आप “मुसलमान” “मुसलमान” इसलिए करते रहते हैं कि आप ग़ज़वा-ए-हिन्द करना चाहते है जो कि होना नहीं है. क्यों व्यर्थ सबका मगज  ख़राब करते हैं?

पार्थसारथी थपलियाल ने ठीक लिखा, नुसरत जहाँ ने ठीक किया, भागवतजी ने ठीक कहा. दुनिया इनकी है, आपकी नहीं.

14-10-2019   

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“Rajneeti Mat Karo”


देश-विदेश की राजनीति पर हर तरह की चुटकी लेते रहने वाले बहुत लोग ऐसे मिलेंगे जो सोशल मीडिया पर कोई ऐसी पोस्ट मिलते ही कहने लगते हैं “No Politics”, या “राजनीति मत करो”. राजनीति को लेकर उनका यह चौकन्नापन अथवा चिंता विशेष रूप से तब बहुत फुर्ती से मुखर होती है जब कोई पोस्ट बीजेपी या मोदीजी के अनुकूल लगती हो. ज़रा गहरे पैठकर देखेंगे तो पाएंगे कि राजनीति न करने की तटस्थता-मूलक सलाह देने वाले ये मित्र प्राय: तथाकथित लिबरल, प्रगतिशील या रेशनलिस्ट टाईप के well educated नागरिक होते हैं. दरअसल इनका न राजनीति से, न मोदीजी से और न बीजेपी या आरएसएस से कुछ अर्थपूर्ण संबंध या ज्ञान होता है. इनकी यह सजगता बस इतने भर तक महदूद है कि कोई इन्हें कहीं हिंदुत्व से न जोड़ बैठे. इनका सब पढ़ा-लिखा जैसे बेकार हो जाएगा !

फिर, इन्हें किसी से ‘हिन्दू’ होने का सर्टिफ़िकेट भी नहीं चाहिये. इनके लिए तो भोजन की थाली के किनारे बैठे रहना काफी है. इतने लोग खा तो रहे हैं. उसी से इनका भी पेट भर जाना चाहिए. इस देश में जो हिन्दू हैं, उनके बीच जन्म लेना भर क्यों न काफ़ी हो ! तिस पर यह तय होना अभी बाक़ी है कि ये लोग सही मायने में लिबरल या प्रोग्रेसिव होने का पैमाना हैं भी या नहीं.

यहाँ मुद्दा यह है कि अपने हिन्दू होने को लेकर self-conscious ये लोग सोशल मीडिया की हर पोस्ट शायद बंद आँख से पढ़ते हैं. 

हिन्दुत्व कहता है पिंड में ब्रह्मांड है. यह तभी सही होना चाहिए जब पिंड अपने ‘अंड’ से बाहर आ गया हो. ‘बन्द आँख’ अंडावस्था की सूचक है जब व्यक्ति को अपने छिलके के आगे कुछ दिखाई नहीं देता. यही कारण है कि आधुनिकता के भरम में भूले इन पढे-लिखे लोगों की पूरी-की-पूरी सुशिक्षा इनके ‘अंडत्व’ को उबाल-उबालकर ठस्स बनाती चली जाती है.

मुझे यह जानने की जिज्ञासा है कि लोकतंत्र में राजनीति क्या लोकमात्र के लिए अनिवार्य नहीं है? अब तक तो माना, भारतीय जाति स्वयं का नाश होते जाने को देखने के लिए विवश थी. मगर संवैधानिक लोकतंत्र में सम्यक् राजनीति से ही भारतीय अस्मिता की रक्षा हो पायेगी. दूसरी ओर भारतीय जीवन-पद्धति से ही राजनीति सम्यक् बनेगी. तुलसीदास कह गए हैं —  ‘बिनु सत्संग बिबेकु न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई॥‘ इसी तरह सम्यक् राजनीति भी विवेकपूर्ण आचरण से ही संभव है; और वैसा आचरण सही राजकाज के बिना आयेगा कैसे? विकास तभी सधेगा जब आप विश्वामित्र हों या वसिष्ठ, दशरथ व उनके पुत्रों को अनदेखा नहीं करेंगे. ‘कोई नृप होऊ’ षड्यंत्रकर्त्री मंथरा का कथन है, वसिष्ठ का नहीं.

राजनीति क्यों नहीं करें? इन पढे-लिखों के चलते हिदुस्तानी बस सोये रहें? संविधान के अधीन स्वतंत्र सत्ता रखने वाले राष्ट्र में मतदान की ज़िम्मेदारी से शुरू हो जाने वाली राजनीतिक जाग्रति प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक उत्तदायित्व है या नहीं?

उत्तरदायित्व – sense of responsibility — वह गर्माहट है जो अंड को सेती है. तब पिंड छिलका तोड़कर बाहर निकलता और आँख खोलता है.

हमारे पुराणों में वर्णन है कि नारायण के दो पुलिसवाले थे, जय और विजय. सनकादि मुनि (जिनका नारायण भी सम्मान करते थे) जब नारायण से मिलने गये, तो जय-विजय ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया. 

सनकादि मुनियों के श्राप से उन दोनों ने in line of duty अपने प्राण गँवाये.

 नारायण ने उन्हें duty करते हुए मारे जाने पर, पुरस्कार के रूप में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के नाम से जन्म दिलवाया, उनका उद्धार किया और वे पुन: वैकुंठ-निवास की अपनी हैसियत में लौट सके.   

हमारी आधुनिक पुलिस के IPS अधिकारी शेर की तरह हैं. Association भेड़ियों की होती है, शेरों की नहीं. इसीलिए प्रचलित idiom है — “A Pack of Wolves”.

साधु-साध्वियों के श्राप की शक्ति पर संदेह करना भले ‘आधुनिकता’ कहलाता हो, लेकिन याद रहे, सेब के पेड़ से फल आधुनिक युग में भी नीचे ही गिरते हैं और न्यूटन के Law of Motion की पुष्टि करते हैं. 

हेमन्त करकरे ने line of duty में जो प्राण गँवाये, उसका सम्मान करने से साध्वी प्रज्ञा ने कब मना किया? 

लेकिन हिंदू आतंकवाद स्थापित करने में जिस किसी से भी ‘जय-विजय-पन’ होगा उसे duty करने और आतंकवाद से लड़ने में जान देने पर सम्मान तो मिलेगा, लेकिन की गई राजनैतिक भूल पर, साध्वी के श्राप से भी गुज़रना पड़ेगा.

 इसमें एक ओर चुनाव आयोग का दख़ल अज्ञान का सूचक लगता है.  दूसरी ओर साध्वी प्रज्ञा के हेमंत करकरे के व्यवहार से अपने ऊपर गुज़री बताने को लेकर IPS association की आपत्ति, शेर की हैसियत से गिरकर, उनका ‘भेड़ियापन’ जैसा हो जाता है.

जिन्हें चिंता यह है कि साध्वी प्रज्ञा अपने  ऊपर torture का वर्णन अब क्यों कर रही हैं, पहले क्यों नहीं किया, उन्हें बहुत पहले ही India TV पर ‘आपकी अदालत’ का साध्वी-एपिसोड देख रखना चाहिये था. 

मेरे विचार से साध्वी प्रज्ञा को पूरा-पूरा समर्थन दिया जाना इसलिए उचित है कि ऐसा करना हेमन्त करकरे का अपमान हरगिज़ नहीं है, बल्कि भगवा या हिंदू आतंकवाद जैसी घोर-शब्दावली को मिले श्राप का नारायणीय निराकरण है.

मित्रवर श्री लोकेन्द्र शर्मा का मीडिया में अनेक दशक का अनुभव है. व्हाट्सऐप पर साध्वी-विषयक मेरे उपर्युक्त मंतव्य पर उन्होंने जो कहा, मैं नीचे ज्यों-का-त्यों शामिल कर रहा हूँ. इससे कितनी ही बातें साफ़ हो रही हैं और ज़्यादा कुछ कहने को रह नहीं जाता.  

“हेमंत करकरे के विषय पर बहुत सारी बातें कही जा रही हैं. चलिये मैं कुछ तथ्य भी रख देता हूं.

“भारतीय सेना के निर्दोष कर्नल पुरोहित को, जो आर्मी इंटेलिजेंस के कार्य में लगे थे और आतंकवादियों के समूह में इनफ़िल्ट्रेट करके जासूसी से जानकारियां एकत्र कर रहे थे. उन कर्नल पुरोहित को फँसाने वाले और फ़र्ज़ी RDX प्लांट करने वाले हेमंत करकरे ही थे. हेमंत करकरे ने ही कर्नल पुरोहित पर झूठा आरोप लगाया था कि उन्होंने सेना का RDX चुराया और इसका बम धमाके में इस्तेमाल किया.

“हेमंत करकरे एक ऐसे आईपीएस अधिकारी थे, जिन्हें पता ही नहीं था कि इंडियन आर्मी आरडीएक्स का इस्तेमाल ही नहीं करती. इसीलिए उनका झूठ पकड़ा गया और कर्नल पुरोहित निर्दोष साबित हुए.

“यह भी खुलासा हुआ कि हेमंत करकरे, सीधे कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के निर्देश पर जांच को आगे बढ़ा रहे थे, जो उनके पक्षपाती होने और कांग्रेसी इशारों पर कार्य करने वाले प्यादे के रूप में स्थापित करता है.

“हेमंत करकरे ने साध्वी ठाकुर और कर्नल पुरोहित को प्रतिदिन प्रताड़ित किया, थर्ड डिग्री दी, कर्नल पुरोहित के मात्र एक पैर में ही, 43 जगह हड्डियाँ टूटी हुई थीं, और साध्वी ठाकुर की तो मार-मार कर रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी गई थी.

“यह सब कुछ केवल इन निर्दोषों से झूठे इक़बालिया बयान दिलवाने के लिए किया गया. कांग्रेस का उद्देश्य था मुस्लिम वोट बैंक को प्रसन्न करने के लिए हिंदुओं के ऊपर आतंकवादी होने का ठप्पा लगा दिया जाए.

“हेमंत करकरे कांग्रेस के इसी उद्देश्य की पूर्ति में लगे हुए थे.

 “विडंबना देखिए कि जिस मुस्लिम समाज को प्रसन्न करने के लिए यह सब कुछ किया जा रहा था, पाकिस्तान से आये उसी मुस्लिम समाज के एक आतंकी ने हेमंत करकरे को गोली मार दी.

“अब यदि 26/11 आतंकी हमले में हेमंत करकरे के मारे जाने की बात करें, तो हेमंत करकरे कॉम्बैट के समय नहीं मरे थे. जीप में बैठकर परिस्थिति का जायज़ा लेने गए हेमंत करकरे, विजय सालस्कर, अशोक काम्पटे पर आतंकवादियों ने AK 47 से फायरिंग कर दी थी. केवल अशोक काम्पटे ही जीप से कूदकर उतर पाये थे और काउंटर फायरिंग की थी. बाकी सब उसी फ़ायरिंग में मारे गए थे. हेमंत करकरे को गले और कंधे पर गोलियां लगी थी जिससे वह मारे गए.

“26/11 कॉम्बैट में असली वीरता का परिचय देने वाले थे, मुंबई पुलिस कांस्टेबल तुकाराम ओंबले, जिन्होंने हाथ में मात्र एक लाठी लेकर एके-47 से गोलियां चलाने वाले अजमल आमिर कसाब को पकड़ा. अपनी छाती पर उन्होंने AK 47 का एक पूरा बर्स्ट फ़ायर झेला, इसके बावजूद अजमल कसाब को नहीं छोड़ा.

“विश्वास मानिए यदि तुकाराम ओम्बले ने कसाब को ज़िंदा नहीं पकड़ा होता, तो कांग्रेस ने 26/11 आतंकी हमले का आरोप हिंदुओं पर मढ़ दिया होता, क्योंकि सभी जेहादी आतंकवादी अपने हाथों में कलावा और गले में हिंदू भगवानों के लॉकेट बांध कर आये थे. तुकाराम ओंबले अपने प्राणों का बलिदान देकर देश के सभी हिंदुओं को आतंकवाद के कलंक से बचा गए.

“कॉम्बैट में वीरगति प्राप्त करने वाले दूसरे व्यक्ति थे, एनएसजी कमांडो मेजर संदीप उन्नीकृष्णन, जिन्होंने अपने साथियों की जान बचाने हेतु, उन्हें ऊपर आने से मना कर कहा था “ऊपर मत आओ मैं संभाल लूंगा.”

“और आज जिन कांग्रेसियों और लिबरलों को शहीदों की चिंता हो रही है, तो उन्हें बता दूं कि दिल्ली के बटला हाउस कांड में मोहन चंद्र शर्मा दिल्ली पुलिस इंस्पेक्टर भी वीरगति को प्राप्त हुए थे, आतंकवादियों से लड़ते हुए; परंतु इन सभी लिबरलों, कांग्रेसियों और कई विपक्षी पार्टियों ने बटला हाउस एनकाउंटर को फ़ेक ही नहीं कहा, मोहन चंद शर्मा के बलिदान का मजाक भी  उड़ाया था. राहुल गांधी की माँ सोनिया गांधी तो फूट-फूट कर उन आतंकवादियों के मरने पर रोई भी थी, इसकी पुष्टि स्वयं कांग्रेस नेता, भूतपूर्व मंत्री सलमान खुर्शीद ने की थी.

“अतः कांग्रेसियों से निवेदन है कि कृपया, आम जनमानस में झूठ फैलाने का कष्ट न करें कि कौन शहीद था और कौन नहीं. तथ्य और सत्य सबके सामने हैं . प्रमाण सहित उपलब्ध हैं. आम जनता को अब सत्य व झूठ में अंतर करने की समझ है,

“और अब यदि IPS एसोसिएशन की बात करें, तो उन्हें भी अधिक उछलने के बदले 14 साल की रुचिका गिरहोत्रा के यौन उत्पीड़न करने वाले IPS एस.पी.एस. राठौर के विषय में याद कर लेना चाहिए. वह भी एक आईपीएस था. और यदि हर IPS अधिकारी बुरा नहीं होता, तो हर IPS अधिकारी दूध का धुला भी नहीं होता”.

22-04-2019

Hoshiyar, Adhyatm Media Ko Tak Raha Hai


Quote me as saying I was misquoted.

– Groucho Marx

(American actor-comedian)

If you don’t read newspapers you are uninformed. If you read newspapers you are misinformed.

— Mark Twain

सूचना या समाचार के नाम से टी.वी. चैनलों पर रोज़ाना मचते हुल्लड़ को देखकर कहना पड़ेगा कि यह शोर अब राक्षसी हो गया है. इधर मित्रवर रँगीले ठाकुर ने मेरा ध्यान इस प्रश्न की ओर खींचा कि क्या मीडिया आज के इन्सानों में आध्यात्मिकता का पुट भरने के लिए थोड़ा भी योगदान दे पा रहा है? इसकी अनुमति भी रँगीले ठाकुर राजा सा’ब ने मुझे दे दी है कि जब मैं उत्तर से दो-चार हो लूँ तो वेब पर उपलब्ध उनके लघु वक्तव्य को भी इस लेख में शामिल कर लूँ.

आम तौर पर हम संगठित धर्मों को आध्यात्मिकता का दर्जा देने की भूल करते हैं. मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों में बैठी भीड़ देखकर सोचते हैं, कितने आध्यात्मिक लोग हैं ! जबकि यह भीड़ शायद ही कभी आध्यात्मिक आचरण करती हो!

आध्यात्मिकता हमारे अंतर्लोक में निवास करती है और अस्तित्त्व के एक अलग ही धरातल पर ध्यान केन्द्रित करती है. ब्रह्मांड की समरस ऊर्जा से जुडने का नाम अध्यात्म है. यह ‘समरस ऊर्जा’ उस वाद्यवृंद व्यवस्था की तरह है जिसमें अलग-अलग साज़ होते हुए भी एक ही सुमधुर संगीत-रचना निकल कर आती है. अपनी जीवन यात्रा में मिले तरह-तरह के अनुभवों को बीनते-छानते जब हम विश्व-व्यापी समरस ऊर्जा से ‘स्व’ को संश्लिष्ट कर लेते हैं तब कहीं जाकर ऐसा लगता है कि हम आध्यात्मिकता की दहलीज़ पर जा खड़े हुए हैं. उसके पहले कैसे कहें कि कोई आध्यात्मिक है?

अंतर्लोक से भिन्न बहिर्लोक में आयें तो पायेंगे कि मीडिया इसलिए बना था ताकि वह लोक-समुदाय के बड़े हिस्से के साथ संपर्क व संचार का एक प्रमुख माध्यम बन सके. एक खाके के रूप में अर्थात् शब्द-प्रयोग अथवा हाव-भाव के बिना सम्प्रेषण तो गुफ़ा-युग की पेंटिंग, चित्र-लिपि अथवा नक्शों से ही शुरु हो गया था. किन्तु आज के दौर में इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए सामान्यतः काम में लिये जा रहे जाने कितने आधारभूत साधन हो गए हैं – समाचार-पत्र, पत्रिकायें, रेडियो, टेलिविज़न, सिनेमा, रेकॉर्ड हुआ संगीत (विनाइल रेकॉर्ड, मेगनेटिक टेप, कैसेट, कार्टरिज, सी.डी., डीवीडी), इंटरनेट, मोबाईल हेंडसेट, स्पेस रेडिओ आदि प्लैटफ़ार्म ! लगभग सभी लोग मीडिया की ओर इसलिए तकते हैं कि वे उन्हें सूचित रखेंगे, शिक्षित करेंगे और साथ ही उनका मनोरंजन भी करेंगे क्योंकि उनका लक्ष्य निर्धारित किया गया था — to inform, to educate, to entertain.

इन उद्देश्यों के मद्देनज़र एक साधारण सी पारिभाषिक शब्दावली बनाई गई – जन माध्यम – mass media. इस साधारण लगने वाली शब्दावली में बेशुमार संस्थाएं और व्यक्ति समाये हुए हैं जिनके अपने-अपने लक्ष्य और साध्य हैं, भिन्न-भिन्न कार्य-क्षेत्र हैं, अलग-अलग तौर-तरीके हैं, और तदनुसार हरेक का अपना सांस्कृतिक संदर्भ है जिसके अनुकूल बने रहकर उन्हें mass media का उपयोग करना रहता है. जन-माध्यम में किसी भी तरह की सूचना हो सकती है जो सीमित अथवा विस्तृत जन-समूह तक पहुँचानी होती है – कभी हस्तांकित संकेतों में तो कहीं अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ नेटवर्क के द्वारा ! इसका कोई बना-बनाया माप-तौल या पैमाना नहीं हो सकता कि टारगेट श्रोता-दर्शकों की कितनी संख्या होने के बाद कोई कम्यूनिकेशन mass communication हो जायेगा अन्यथा नहीं हो पायेगा ! इसका भी कोई बंधन नहीं है कि प्रस्तुत की जा रही सामग्री किस तरह की हो ! जींस का एक विज्ञापन भी mass communication का ही उदाहरण है और संयुक्त राष्ट्र के किसी प्रस्ताव का विस्तृत ब्यौरा भी. यही कारण है कि जन माध्यम इतने सब प्लैटफ़ार्म के रूप में हमें उपलब्ध हैं.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया में सूचना रेडियो या टेलिविज़न के माध्यम से प्रेषित होती है. इसमें भी लो-पॉवर ट्रांसमीटर (LPT) या Very Low Power ट्रांसमीटर (VLPT) शिक्षा प्रदान करने के काम आते हैं, जैसे कि किसी युनिवर्सिटी के कैम्पस से प्रसारण. कुछ लोग इस लो-पॉवर प्रसारण को narrowcasting मानने की भूल कर बैठते हैं, जबकि यह भी ब्रॉडकास्टिंग ही है. Narrowcasting मनोरंजन व सूचना देने के काम आता है, जैसे कि केबल टीवी.

डिजिटल मीडिया का काम है इंटरनेट और मोबाईल संचार नेटवर्क पर सूचना प्रदान करना. डिजिटल मीडिया में संचार-साधन और सूचना-सम्प्रेषण के लिए वेबसाइट, ब्लॉग, ई-मेल, एस.एम.एस./एम.एम.एस., इंटरनेट रेडियो और टेलीविज़न आदि का इस्तेमाल होता है. डिजिटल मीडिया के अंतर्गत एक अन्य साधन है ‘ऑग्मेंटेड रिएलिटी’ (AR) जो अभी अधिक प्रचलित नहीं है. इसमें स्थूल जगत के परिवेश को उसके ‘वास्तव’ में साक्षात् अथवा परोक्ष रूप से अनुभव करने के लिए कम्प्यूटर से काम लिया जाता है और उस परिवेश को ‘संवेदन’ के साधनों (sensory inputs) जैसे कि ऑडियो, वीडियो या ग्राफ़िक्स का उपयोग करके ‘ऑग्मेंट’ अर्थात् विस्तीर्ण (enlarge) या अभिवृद्ध (enhance) कर लिया जाता है. डिजिटल प्लैटफ़ार्म के रूप में AR दिव्यांगों को सूचना प्रेषित करने के लिये बहुत उपयोगी है.

प्रिंट माध्यम अपनी-अपनी सूचना प्रेषित करने के लिए स्थूल साधनों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि अख़बार, पत्रिका, पुस्तक, पैमफ्लेट, कॉमिक्स आदि.

फिर हमें ‘आऊटडोर मीडिया’ भी उपलब्ध है, यथा, संकेत-चिह्न (symbols), प्लैकार्ड, सूचना-पट आदि. इन्हें सड़कों, व्यावसायिक इमारतों, हवाई अड्डों, खेल के स्टेडियमों, बसों, ट्रेनों आदि पर देखा जा सकता है. ‘ब्लिम्प’ अर्थात् लचीला छोटा वायुयान भी (जैसा जेम्स बॉण्ड फ़िल्म ‘A View To A Kill’ में ‘Zorin’ नाम की कम्पनी इस्तेमाल करती थी) ‘आऊटडोर मीडिया’ का अच्छा उदाहरण है. ‘Skywriting’ (उड़ते हुए हवाई जहाज़ से आकाश में विशेष प्रकार के धुएँ से पढ़ी जा सकने योग्य लिखावट) भी खुली हवा में प्रयुक्त संचार-माध्यम का एक अन्य रूप है.

इतनी बड़ी संख्या में प्रभावशाली माध्यमों के बीच मीडिया कोई भी हो, ये सभी किसी न किसी तरह ‘शिक्षा’ का ही विस्तार हैं. ‘शिक्षा’ स्कूल-कॉलेज-युनिवर्सिटी की हो या सूचना-प्रसारण के रूप में हो, उसे इस बात का ध्यान रखना अपरिहार्य है कि धन की कमाई का लोभ उसका अपहरण न कर ले ! न्यूज़-मीडिया तो हरगिज़ इसका अपवाद नहीं है. दोनों ही रूपों में ‘शिक्षा’ में इसके विपरीत होते देखना क्षुब्ध-क्रुद्ध कर देने वाला है. उस समय तो यह बहुत नागवार गुज़रता है जब आपको शीघ्र ही घर से निकलकर कहीं जाना है या किसी दूसरे काम के लिए थोड़ी देर के लिए टी.वी. के आगे से हटना है, और आप चलते-चलते जल्दी से न्यूज़-हेडलाईन से ‘सूचित’ हो लेने का उपक्रम करते हैं. मगर ‘ईडियट बॉक्स’ है कि आपको अनन्त प्रतीक्षा में खड़ा रखकर मज़ा लिये जा रहा है ! दस-दस मिनट तक वही-वही विज्ञापन स्क्रीन से आपको घूरे चले जा रहे हैं ! ये टीवी चैनल सूचना-सम्प्रेषण का अपना धर्म निबाह रहे हैं या आपकी घोर उपेक्षा करके पैसे के पीछे पगला रहे हैं ? अधिकांश विज्ञापनों के स्तर और कथ्य की गुणवत्ता की तो बात ही न करें ! कुछ विज्ञापन तो ऐसे हैं कि उन्हें देखने के बाद आप ब्लू-फ़िल्म देखें तो लगेगा कि यह भी शायद महर्षि वात्स्यायन की कृति का विज्ञापन होगा ! पत्र-पत्रिकाओं को ही देख लीजिये. व्यावहारिक सत्य तो यही है कि महिलाओं की हर पत्रिका महिलाओं के कितना काम आती होगी मालूम नहीं, मगर पुरुषों की आँखों के लिए सुसज्जित भोज अवश्य है, a feast for male eyes! और मज़े की बात यह कि यह सब ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ की आड़ में चलता रहता है. मीडिया इसलिए तो हरगिज़ नहीं था कि इस तरह लोभ का फंदा गले में डालकर आत्म-तुष्टि की राह चल पड़े ! इस तरह कमाये गए धन का कितना अंश नीति-सम्मत है, आप स्वयं फ़ैसला कर लें !

जैसे हम धर्मों को अध्यात्म मान लेते हैं, वैसे ही हम मीडिया को ऐसा ‘गुरु’ मान बैठते हैं जो हमें सही-सही सूचना-मार्ग दिखला रहा है. किसी भी प्रकार का मीडिया – अपने प्रत्येक स्वरूप में – प्रिंट माध्यम से लेकर रेडियो से लेकर टीवी से लगाकर सिनेमा तक, और ट्विटर, फ़ेसबुक या व्हाट्सऐप के सोशल मीडिया तक ऋषि-चेतना युक्त गुरु नहीं, मात्र एक साधन – एक tool है. ये सारे औज़ार मानस से मानस के आपसी सम्पर्क का माध्यम हैं. हम चाहें तो इस tool का इस्तेमाल चतुर्दिश विध्वंस के लिए कर लें और चाहें तो समूचे विश्व को शांति के एक सूत्र में पिरोने के लिए कर लें. अंततः सब कुछ केवल हम पर निर्भर है. जिस तरह के ‘हम’ ये धर्म अपने आप में या सब धर्म मिलकर तैयार कर पाये हैं, क्या हमें उन सब की गंभीरतापूर्वक जांच कर देखना उचित नहीं होगा? आख़िर यही वे लोग हैं जो अंततः ‘मास मीडिया’ का संचालन अपने हाथ में लेते हैं. क्या ये लोग मीडिया के इन अत्यंत शक्तिशाली tools पर हाथ रखने के लिए भरोसेमन्द इंसान हैं? ख़ास तौर से तब जबकि हम मीडिया के डी.एन.ए. में जो पाते हैं उसे लेकर चिंतित होने के कारणों से घिरे हुए हैं?

सूचना-सम्प्रेषण के क्षेत्र में हुए क्रांतिधर्मी विकास ने अब यह संभव कर दिया है कि हम विश्व के किसी भी कोने में बैठे मनुष्यों के साथ तुरत-फुरत सम्पर्क बना सकते हैं. इस कारण वर्त्तमान ‘मास-मीडिया’ में सार्वजनिक कल्याण का साधन बन सकने की भरपूर संभावनाएं निहित हैं. मास मीडिया के माध्यम से हम बहुत अधिक भिन्नता वाले समाजों तथा तरह-तरह की सांस्कृतिक या धार्मिक पृष्ठभूमि वाले मनुष्यों के बीच संवाद स्थापित कर सकते हैं, उनमें पारस्परिक सहभागिता और सहयोग का भाव उपजा सकते हैं, और इस तरह मानव-एकात्मता को मज़बूत बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं. इसमें संदेह नहीं कि मीडिया के पास सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के वास्तविक-मौलिक साधन के रूप में ऐसी प्रचुर संभावनायें मौजूद हैं जो न केवल सामाजिक मूल्यों की सृष्टि व स्थापना करें, बल्कि उन परिकल्पनाओं को भी अपने स्पर्श से प्रभावित कर लें जिनसे पता चलता है कि हम से नितांत भिन्न चरित्र वाले समुदाय हमारे बारे में क्या धारणा बनाकर चलते आये हैं. मनुष्यों को जोड़ने में इससे बड़ी भूमिका और क्या होगी?

भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाएंगे कि इस क्षेत्र में सिनेमा और रेडियो ने अद्भुत भूमिका निभायी है. अब यह श्रेय बड़े परिमाण में रेडियो से हटकर टीवी को प्राप्त है, मगर यह सोच-सोच कर सिर चकरा जाता है कि टीवी के समाचार चैनल आख़िर कर क्या रहे हैं ! उदाहरण के लिए, ये न्यूज़ चैनल कम से कम अपने रोज़ाना प्राइम टाईम शो में देश के नॉर्थ-ईस्ट के विभिन्न राज्यों से एक प्रतिभागी अनिवार्य रूप से शामिल क्यों नहीं करते? ऐसा करना क्या इन चैनलों को आर्थिक रूप से इतना unproductive लगता है कि मोटी कमाई के अनुपात में उन्हें मंहगा पड़ता है? या फिर उत्तर-पूर्व का ध्यान रखना सिर्फ़ सरकार का काम है और देश के लोगों को जोड़ने में मीडिया की कोई भूमिका नहीं है? क्या ये केवल ‘मीडिया-माफ़िया’ बनने और शेख़ी बघारने भर को हैं? अधिकांश न्यूज़-मीडिया दिल्ली में स्थित हैं, इसके बावजूद इन्होंने दिल्ली और उत्तर-पूर्वी भारत के लोगों की दिली दूरी कम करने के लिए अब तक क्या किया?

भारत का न्यूज़ मीडिया शायद यह मुगालता पाले बैठा है कि लोग स्वयं यह निश्चय करके चलते हैं कि क्या देखना, सुनना, सोचना, पढ़ना है. वे मानते हैं कि मीडिया का इस निर्णय को प्रभावित करने में ‘शून्य’ के बराबर रोल है. इसलिए उन्हें तो केवल अपने तुमुल कलह-कोलाहल को प्रसारित भर करते रहना है, दिन भर की कमाई को जेबों में ठूँसना है और बैंक की दिशा में देखकर मुसकुराना भर है !

ये टीवी चैनल इस तथ्य की धज्जियाँ खुले आम उड़ा रहे हैं कि दरअसल वे समाज-निर्माण का बेहद ताक़तवर औज़ार हैं. ये भूल गए हैं कि यह बृहत् शक्ति अपने साथ मीडिया-कर्मियों के लिए उतनी ही भीमकाय ज़िम्मेदारी भी लेकर आती है जिसका संबंध सत्य, न्याय, आपसी भरोसा-विश्वास, शान्ति, अहिंसा और मानवीय एकात्मता जैसे मूल्यों को स्थापित करने से है. मीडिया-कर्मियों और उनके उपभोक्ताओं (दर्शकों) दोनों को एक बात अच्छी तरह जान रखनी चाहिए कि आधुनिक संचार माध्यम – प्रेस, टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट अपने आप में मनुष्य के अद्भुत आविष्कार हैं, इसलिए इनके माध्यम से प्राप्त समाचार, सूचना, मनोरंजन आदि कुछ भी (मानवीय) मूल्यों से शून्य नहीं हो सकते. हमें यह जानना और न भूलना भी वांछित है कि आधुनिक समाज में सूचना का प्रसारण और मनोरंजन का विकीर्णन किसी न किसी तरह मीडिया को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों के ‘झुकाव’ के मुताबिक सिद्धान्त घड़कर चलता है. हम इस ओर से इतमीनान करके कैसे बैठे रह सकते हैं कि हमें मिल रहे मनोरंजन या संचार के पीछे कोई पूर्व-निर्धारित मान्यता नहीं है, कोई राजनैतिक, सांस्कृतिक, वैचारिक, सैद्धान्तिक या आर्थिक परिकल्पना नहीं है? वे तो बस पूरे-पूरे objective हैं? अपने इस ‘भोलेपन’ का लाभ हम इन चैनलों को क्यों उठाने दें?

यह तथ्य भारतीय मीडिया के इस आचरण से उजागर हो जाता है कि वह इसे नियंत्रित कर रहे अत्यल्प ‘भद्रलोक’ के जीवन-दर्शन मात्र को व्यक्त और पुष्ट करता है. व्यावसायिक घरानों – corporate houses – को चलाने वाले व्यक्ति ही अमूमन मीडिया का संचालन करने वाला भद्रलोक हैं. इन चैनलों को यह चिंता ज़रा भी नहीं है कि जब यह मालकीयत चंद लोगों के पास हो तो जन-साधारण के दिलो-दिमाग़ की धड़कन-धबकन में जोड़-तोड़ करना इन्हीं इने-गिने लोगों के हाथ में चला जाता है. वे निर्धारित करने लगते हैं कि दुनिया क्या देखे, क्या सुने-समझे ! उदाहरण के लिए, ये मालिक लोग उस स्टोरी को बड़ी आसानी से दबा सकते हैं, या उससे आँख चुरा सकते हैं जो एक व्यावसायिक घराने या सरकार के किसी प्रकार के अनैतिक आचरण से संबन्धित रही हो, और इस तरह अपने ख़ुद के आचार-विचार या किसी हरकत के लिए इस या उस व्यावसायिक प्रतिष्ठान अथवा राजनैतिक दल को ज़िम्मेदार सिद्ध कर सकते हैं. इन चैनलों पर रात-दिन किसी न किसी को ‘बेपरदा’ करने या ‘भ्रष्ट’ सिद्ध करने का जो शोर-शराबा मचा रहता है उससे यह सत्य सिद्ध ही नहीं पुष्ट भी होता है. जिस तरह ये चैनल अपनी बहसों की व्यवस्था करते हैं और जिन शब्दों व शैली में सवाल उठाते हैं उससे इनकी नीयत में क्या था, साफ़ पता चल जाता है. ये किसी को इनके ‘कथ्य’ के सत्य पर यकीन तो क्या दिलाएंगे, स्वयं की निष्ठा भी स्थापित नहीं कर पाते क्योंकि इनका पूर्वाग्रह इनके हर शब्द में से झाँक रहा होता है. इनका यह उपक्रम ‘सूचित’ कम करता है, दर्शकों को कुढ़न से भर और जाता है.

यह बात तब खास तौर पर सच साबित होती है जब इन चैनलों की ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ किसी संघर्षपूर्ण ब्यौरे अथवा टकराव की स्थिति पर आधारित होती है. ज़्यादातर चैनलों में मुख्य समाचार अपराध की ताज़ातर सूचना से बनता है – किसी हत्या, गिरफ़्तारी, स्कैंडल आदि से. या फिर कोई विनाशक सुनामी हो, कोई आतंकवादी हमला हो तब बनता है. टकराव, उठा-पटक और आपाधापी से भरी ये ख़बरें, श्रोता, दर्शक अथवा पाठक को मीडिया तक खींच लाती हैं. यह संघर्ष जितना बड़ा होगा, दर्शक और श्रोता उतने ज़्यादा होंगे. श्रोताओं-दर्शकों की भारी संख्या का मतलब है ज़्यादा टी.आर.पी., जो कि मीडिया के बाज़ार की आर्थिक-व्यावसायिक सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है. इसलिए मीडिया का हित इसमें है कि वह टकराहटों की ख़बरें बताते भी रहें और बढ़ा-चढ़ाकर उन्हें दोहराते भी रहें ताकि कोई घटना जितनी वास्तव में गंभीर थी उससे कहीं अधिक चिंताजनक लगने लगे. निरंतर news-fall चूँकि असंभव है, इसलिए वे अकसर ख़बरें घड़ते भी हैं (fake news), जो कि अपने आप में मीडिया-धर्म का सबसे घोर पाप माना गया है. तथापि, वह ख़बर ही क्या जो बिक न सके !

बड़े से बड़े संघर्ष में भी उसे सुलझाने के प्रयास हमेशा शुरू हो जाते हैं जो दीर्घावधि होने की वजह से बहुत धीमे होते हैं और उनका अंदाज़ भी ‘ड्रामाई’ नहीं होता. समस्या के समाधान की यह प्रक्रिया बहुत बार समझने में मुश्किल भी होती है, रिपोर्टिंग के लिए आसानी से उपलब्ध भी नहीं होती, और प्राय: मीडिया की निगाहों से दूर भी रखी जाती है. इसलिए समाधान वाली ये ख़बरें कितनी भी ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ का सामान क्यों न हों ज़्यादातर बुहारकर एक तरफ़ सरका दी जाती हैं और सबसे ताज़ातरीन संघर्ष के अधिक से अधिक चुस्की लेने लायक और घनघोर रूप से दहलाने वाले पहलू को ख़बर बनाकर पेश करने के लिए रास्ता साफ़ किया जाता है. जो मीडिया के इस चलन को समझते हैं वे मीडिया के केंद्र में आना और उसका लाभ लेना जानते हैं. कोई व्यक्ति या संगठन देश-हित और मानव-कल्याण में है ऐसा अकसर तो होता नहीं, ख़बरें ज़्यादातर बुरे लोगों से ही बना करती हैं. यही वह केंद्र-बिन्दु है जो मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है और जो सनसनी उत्पन्न करने के लोभ और लोगों को मूर्ख बना ले जाने या गुमराह करने की वृत्ति के पीछे खड़ी है.

इतने सब के बावजूद मीडिया का साम्राज्य अखण्ड है, क्योंकि इसके बिना दैनंदिन जीवन में लोग अपने पड़ोसी से आगे की किसी घटना के बारे में कैसे जान पाएंगे? अपने परिवार और मित्र-वर्ग के दायरे से कोई व्यक्ति जितना आगे निकलता है घटनाओं से अवगत रह पाना उतना ही समय और धन खपाने वाला होता जाता है. ड्राइंग रूम में रखा टीवी, सुबह घर की दहलीज़ पर पड़ा अख़बार, कार में लगा रेडियो, जेब में रखा स्मार्टफ़ोन और काम की मेज़ पर रखा कम्प्यूटर कुछ ऐसे मीडिया-माध्यम हैं जो हमें दिन-प्रतिदिन की ख़बरों, विज्ञापनों, बन-मिट रही opinions – धारणाओं, अभिमतों – से परिचित करवाते रहते हैं, संगीत सुनाते हैं, तथा मास-मीडिया के अन्य साधनों का भी लाभ लेने को प्रेरित करते हैं.

मीडिया के इन गुणों के संदर्भ में भारतीय चैनलों से यह ध्यान रखना अपेक्षित है कि जिस तरह हमारे यहाँ भरपूर शिक्षा (साक्षरता) मूलतः विचार-पद्धति का पाश्चात्यीकरण है, उसी तरह मीडिया की उपयोगिता के ये अवयव किसी औद्योगीकरण वाले अत्यंत विकसित समाज का चित्र अधिक उकेरते हैं, कृषि-प्रधान जीवन-शैली का कम. निश्चय ही हमारे मीडिया की विश्वसनीयता तब और बढ़ेगी जब भारत जो और जैसा है उसे स्वीकार करके अपने को ढालने में वह रुचि लेगा और देशवासियों को विश्वास में लेने के लिए काम करेगा. पाश्चात्य विकास को आदर्श मानकर किसी न किसी बहाने भारत और भारतीयों को शर्मिंदा किए जाने की आदत मीडिया के प्रति अधिकांश लोगों की अरुचि का बड़ा कारण बन गया है. पश्चिमी जीवन और विचार की ‘श्रेष्ठता’ स्थापित करने के प्रयत्न में भारतीय मीडिया केवल उन ताक़तों के आर्थिक हितों को मज़बूती दिये चला जा रहा है जो इस देश में नहीं देश के बाहर मौजूद हैं, और जिनकी रुचि ‘अस्थिर देश’ में news-fall पैदा करते रहने में है. फलस्वरूप भारत के अधिकांश लोग भले ग़रीबी-रेखा से जूझते रहें, मगर मीडिया को हुक्म देने वाले आक़ाओं की आज्ञानुसार अपने स्वरूप का संचालन करने का भरपूर पारिश्रमिक इन्हें मिलता रहता है.

लगता है भारतीय मीडिया को भारतीय अस्मिता – ‘गोपाल’ अस्मिता की– जो उत्पादकता का मूल है, कृषि-धर्मी पहचान के प्रति अपने उत्तरदायित्त्व की कोई चिंता नहीं है. तिस पर ये भारतीय भाषाओं का जो सत्यानाश करते हैं वह बतलाता है कि इनके ऐंकर साक्षर तो हैं, शिक्षित नहीं !

लुटिएन दिल्ली ने देश की जो लुटिया डुबोई है, उसी लुटिएन दिल्ली और उसके आसपास अंगद का पाँव बना मीडिया भारतीय भाषाओं और भारतीय अस्मिता को लेकर अवश्य आपत्ति उठा सकता है क्योंकि उनके अनुसार ये मात्र उन्मादी देशभक्ति – jingoism के सूचक हैं. उन्हें मीडिया कम्यूनिकेशन का एक सीधा-सा सिद्धान्त ध्यान में रखना ज़रूरी है कि प्रस्तुतीकरण की छोटी सी गलती भी श्रोता या दर्शक को अचकचा सकती है. कोई ऐसा दर्शक हो सकता है जिसे अच्छी भाषा पसंद है, कोई संगीत की खातिर रेडियो या टीवी ऑन करने वाला हो सकता है, बहुत से ऐसे होंगे जो खेल जगत के दीवाने हों, या फिर कोई अकादमिक मिजाज़ का हो सकता है, किसी को चिकित्सा व ओषधि में या विज्ञान में दिलचस्पी हो सकती है जिसके लिए उसने रेडियो या टीवी पर भरोसा किया. ये भले ही इन चैनलों से कभी संपर्क न साधें, मगर हैं ऑडिएंस ही. आपकी तथ्यों में गलती या भाषा के भ्रष्ट उपयोग से क्या इनकी अन्तरात्मा को कष्ट नहीं होता होगा, विशेषतः अगर इनमें कोई जानकार व्यक्ति बैठा हो? एक – मात्र एक भी श्रोता या दर्शक को तकलीफ़ पहुंचाने का किसी मीडिया को कोई अधिकार नहीं है. ज़िम्मेदारी का अहसास उस ‘एक’ से ही शुरू होता है ! वरना निश्चित है कि आप माने बैठे हैं लोग मूर्ख हैं और आप जो भी परोसेंगे वे निगल लेंगे ! आपको किसी भी भाषा का अशुद्ध उच्चारण क्यों माफ़ किया जाये, या शास्त्रीय संगीत में राग का नाम गलत बताना, या किसी आयुर्वैदिक जड़ी-बूटी की अनाप-शनाप जानकारी क्यों माफ़ की जाये? आप कुछ भी घिनौनापन करते रहें और लोग बर्दाश्त करते रहें ! क्यों? आपका साफ़-सुथरा दिखना आपका पाखण्ड नहीं तो और क्या है, जबकि आपकी यह जुर्रत कि ऑडिएंस में से किसी को jingoistic तक कह डालें ? जब तक आप विदेशी टुकड़ों पर पलेंगे आप ऑडिएंस का सम्मान करना नहीं सीखेंगे !

ग़ौर कीजिये, इन तथ्यों के चलते क्या Television Rating Point (TRP) की धारणा वाक्छल या मात्र शाब्दिक खिलवाड़ नहीं रह जाती? क्या मीडिया ने कभी यह जानने की कोशिश की कि उन्हें देख रहे लोगों में से कितने उनपर दुनिया की हर भाषा में उपलब्ध छंटी हुई गालियों की बौछार कर रहे होंगे? गाली खाकर भी TRP? अगर यह सच नहीं तो ये चैनल टीवी स्क्रीन से जितनी उपेक्षा दर्शक-समूह पर बरसाये चले जाते हैं, TRP उसका नाम होता होगा ! और विज्ञापन बेचने वालों को इसकी चिन्ता क्यों नहीं कि देखें, कहीं गुस्से से भरे लोगों में उनके उत्पाद के प्रति विद्रोह तो सिर नहीं उठा रहा? कहीं विज्ञापनकर्त्ता और चैनल ‘मौसेरे भाई’ तो नहीं? कि गाल पर भले जूते की छाप लगा दो, मगर पैसे दे दो !

फिर उन crawlers को क्या कहा जाये जो स्क्रीन के निचले हिस्से में बाएँ-दायें रेंगे चले जाते हैं ? बोला कुछ और जा रहा है और रेंग कुछ और ही रहा है ! ऐंकर बता रहा है, ‘नेता दिल्ली लौटा’, और नीचे रेंग रहा है – ‘दिल्ली में भूकंप के झटके’ ! जिसे समन्वय कहते हैं – coordination – उसके कहीं पते नहीं ! तभी घाव पर नमक छिड़कती एक स्लाईड भी प्रकट हो जाती है जो मूल ‘विंडो’ को आधा कर देती है ! ये ‘Presstitute’ पैसे के लिए कुछ भी करेंगे. ( यह शब्द घड़ा तो था अमेरिकी पूर्वानुमान-कर्त्ता गेराल्ड सेलेंट ने, बदनाम किये गए जनरल वी.के. सिंह !) सौ बात की एक बात, जिस व्यक्ति, समूह या संगठन में पैसे की खातिर कुछ भी कर गुज़रने का माद्दा प्रवेश कर जाए, वह भरोसे के काबिल नहीं रहता ! लगता है, वक्त आ गया है कि हम कह दें — “मिस्टर मीडिया, हमें आपकी ज़रूरत नहीं, क्योंकि आपको बस पैसे की ज़रूरत है.”

मीडिया के उस नीति-वाक्य का क्या हुआ – ‘It is a crime to start an item late, but a sin to start an item early’ ? इस नियम का शीलभंग करने वाले मीडिया को हम अपराध और पाप दोनों करते देख सकते हैं.

मीडिया को लोकतन्त्र का ‘चौथा स्तम्भ’ कहा गया है. दरअसल अठाहरवीं शताब्दी के ब्रिटेन में पहले वकीलों को ‘चौथा स्तम्भ’ कहा जाता था. बाद में किंग की सत्ता से अलग Queen Consort के स्वतंत्र ‘संघ’ को एक बाधा-मुक्त एजेंट की तरह काम करने का ज़िम्मा दिया गया और उसे लोकतन्त्र के हितों की रक्षा करने वाला ‘चौथा स्तम्भ’ माना जाने लगा. इसके बाद बारी आयी वेतनभोगी सर्वहारा — Proletariat — वर्ग की जो ‘चौथा स्तम्भ’ का यह दर्जा पा गए. अंततः हाऊस ऑफ़ कॉमन्स की एक बहस में आयरिश सांसद एडमंड बर्क ने कहा कि लोकतन्त्र का ‘चौथा स्तम्भ सही मायने में कोई है तो वह ‘प्रेस’ है. तभी से पत्रकारिता को, और अब मीडिया को ‘चौथा स्तम्भ’ कहने की परंपरा चली आ रही है. यह परम्परा अब अपने को अंतिम आदर्श मानने — self-idealization – की हद तक जा पहुंची है. इसलिए यह सही समय है जब हमें चौथे स्तम्भ का यह तमगा मीडिया के वक्ष से उतारकर सिनेमा को दे देना चाहिए, क्योंकि यह भूमिका हर तरह से सिनेमा ने कहीं बेहतर ढंग से निभा कर दिखा दी है.

भारतीय समाज के जिस ‘भोलेपन’ की चर्चा पहले भी की गई थी, यह हमारी वही सादगी है कि हम ‘बायस्कोप’ के आकर्षण से अधिक और मीडिया के कथ्य और शैली की हमारी अनुकूलता से कम प्रभावित होकर टीवी देखते हैं. फिर भी टीवी देखते ज़रूर हैं. जिस दिन भारतीय समाज की समझ में बैठ गया कि बहुत हुआ बायस्कोप, उसी दिन यह मीडिया औक़ात पर आ जायेगा.

सूचना का यह भी अर्थ है कि लोकतन्त्र में लोगों की चुनी हुई सरकार जन-साधारण को लोक-कल्याण की अपनी योजनाओं के बारे में बताये, पूरा विवरण दे और अपनी नीतियों को जनता की कसौटी पर कसे. मीडिया को इस प्रक्रिया का वाहक बनना होता है. सरकार और जनता के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मीडिया ही है. यहाँ तक कि सरकार की नीतियों की आलोचना में भी मीडिया को जन-संगठन और सरकार दोनों की अंतश्चेतना को जगाकर रखना होता है. Conscience-keeper की तरह काम करना होता है. तभी मीडिया राष्ट्र-निर्माण में अपनी भूमिका को वहन करने वाला कहा जाएगा. ऐसा तो तभी हो सकेगा जब मीडिया सनसनी पैदा करने की वृत्ति से मुक्त होगा. मगर ऐसा होता नहीं.

ऐसा होने के लिए यह भी देखना होगा कि एक सार्थक कड़ी बनने की प्रक्रिया में मीडिया अपने देश के लोगों से कितना जुड़ाव महसूस करता है. उत्तर-पूर्व के भारत की उपेक्षा का जायज़ा तो हमने लिया ही है, कुछ और बातों की परीक्षा भी करके देखते हैं.

2008-09 में तत्कालीन भारत सरकार ने कर-व्यवस्था से अपने व्यय के बराबर धन उगाह पाने में सफल न होने पर ‘उधार’ लेने – market borrowing में बढ़ोतरी कर दी थी. इसमें देश के धनिकों से लेकर वर्ल्ड बैंक तक किसी से भी ऋण लेने का प्रावधान है. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में सार्वजनिक ऋण में लगभग ₹3,00,000 करोड़ की वृद्धि हो गई. मार्च 2010 तक यह ऋण बढ़कर ₹3406322 करोड़ का आसमान छू गया. यह 2008 के पहले की घोषित रकम से दोगुना था. औसतन हर हिन्दुस्तानी के दस महीने की आय के बराबर का ऋण उसके सिर पर बताया गया. उस समय की कुल जनसंख्या का औसत निकालने पर यह ऋण इस तरह ब्यान किया गया : “हर हिन्दुस्तानी के खाते में 32871.65 का क़र्ज़ है.”

फ़रवरी 2012 में सीबीआई के डायरेक्टर ने सूचित किया था कि विदेशी बैंकों में भारतीयों का 500 बिलियन डॉलर काला धन जमा है, जो किसी भी अन्य देश से कहीं अधिक है. अगले ही महीने, यानी मार्च 2012 में भारत सरकार ने स्पष्ट किया कि सीबीआई डायरेक्टर का यह बयान वही था जो हमने जुलाई 2011 में सुप्रीम कोर्ट को बताया था.

बोलचाल की हिन्दी में इस पूरे काले धन की वापसी को कैसे कहा जायेगा? 15-15 लाख हर हिंदुस्तानी के खाते में होगा”. इसमें बैंक खाता कहाँ से घुस गया?

मज़े की, बल्कि हैरतअंगेज़ बात यह है कि न्यूज़ चैनलों के ऐंकरों ने सही-सही बात कहकर मतलब समझना ऑडिएन्स पर न छोड़कर चुनावी सभा के भाषण के बाद से अपने बैंक खाते में 15 लाख का इंतज़ार करना और लोगों को बताना शुरु कर दिया कि मैं इंतज़ार कर रहा हूँ ! शायद प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वयं नरेन्द्र मोदी ने इस पर कोई सफ़ाई इसलिये नहीं दी ताकि हम न्यूज़ चैनलों की समझ और नीयत दोनों की परख ख़ुद कर देखें.

जब सरकार ने ‘प्रधानमंत्री बीमा योजना’ घोषित की तो इन्हीं चैनलों ने लोगों को यह बताना शुरू कर दिया कि उनका पैसा बीमा अवधि के बाद कैसे डूबने वाला है ! यदि कोई अपने यहाँ काम करने वाली बाई के जन-धन-अकाऊंट में 12 रुपया हर साल जमा करता है और साल भर तक बाई पर ऐसी कोई आफ़त नहीं आती कि उसे बीमे का लाभ लेना पड़े और 12 रुपया प्रतिवर्ष lapse हो जाता है, तो ग़रीबों के लिए जो करोड़ों रुपया सरकार के पास जमा हुआ और जिन पर आफ़त पड़ी उनके काम आया तो कुछ बुरा हुआ क्या? मगर इस तरह तो वही सोच पायेगा जिसका जुड़ाव देश के आम लोगों से होगा. यह तो सही है कि ज़बरदस्ती सरकार की तारीफ़ करने की बाध्यता किसी चैनल पर नहीं है, मगर जहाँ जन-साधारण के कल्याण का मामला हो, उसकी पुष्टि करना इन चैनलों का नैतिक दायित्व है. लोक कल्याण को लोक की दिशा से देखा जाता है, न कि सरकार के दावों की तरफ़ से. इस मामले में न्यूज़ चैनल फ़ेल सिद्ध हुए.

मीडिया की सेवाओं में लोक-पक्षीय कोण होना ही उन सेवाओं की सिद्धि है, बशर्ते कि मीडिया की वैसी चाहत हो तो सही. हर मामले में डी.ए.वी.पी. का विज्ञापन मिले और कमाई हो, ऐसा इंतज़ार मीडिया के चरित्र को और उजागर करता है, जिनके लिए लोग गए भाड़ में, और उनके काम आने वाला सार्वजनिक कोष गया जहन्नुम में!

मीडिया किसे बता रहा कि वे लोग बहुत सूक्ष्मदर्शी हैं या वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष हैं?

भारतीय मीडिया से मिले अनुभव तो यही बताते हैं कि ‘मायावी’ जगत् में अपने कर्त्तव्य का पालन करने में मीडिया ‘धंधे’ के किसी खड्डे में जा गिरा है. यहाँ तक कि ‘धर्म’ के चैनल चलाने के बावजूद मीडिया धर्म के लिए भी शायद ही कुछ कर पाये, जबकि धर्म स्वयं में एक धंधा है. अध्यात्म की तो बात ही मत कीजिये.

पश्चिम में यह प्रचार ज़ोरों से किया जाता है कि मीडिया ने धर्म को digitalize करने का सुंदर काम किया है जिससे लोगों के जीवन में धर्म की वापसी की संभावनाएं बढ़ गई हैं. इन प्रचारकों के अनुसार इस डिजिटलीकरण ने धार्मिक संस्थाओं को यह चुनौती दे डाली है कि वे लोगों और समुदायों की आध्यात्मिक पहचान के प्रति अपनी धारणा में बदलाव लायें. ऐसा इसलिए कि धर्म का संबंध लोगों में उस अस्तित्त्वगत कामना से है जो उन्हें अपना जीवन सार्थकता और मूल्यों के आधारभूत प्रश्नों के अनुसार ढालने को प्रेरित करती है. (यह प्रचार का उलझाव है). ये ‘मूल्य’ और ‘सार्थकता’ समाज पर संगठनात्मक धर्मों के (धर्म-ग्रन्थों पर आधारित) शिकंजे को और कसने से ज़्यादा कुछ नहीं कर पाते. (क्योंकि वे प्रचार के उलझाव से ज़्यादा कुछ नहीं). इस तरह लोग आध्यात्मिकता से और दूर चले जाते हैं. परिणाम यह हुआ है कि सोशल मीडिया के अनुरूप विभिन्न धार्मिक ग्रुप नये-नये ‘हुक्मनामे’ –commandments – घड़ना शुरू हो गए हैं, ताकि लोग ‘उचित’ आचरण अपना सकें. आचरण का यह ‘औचित्य’ – उचित-पन – अन्ततः इतनी वैरायटी वाला हुआ जा रहा है कि जितनी संख्या में संगठित धर्म और उनकी आस्थाएं हैं, आचरण के उतने ही विकल्प हैं ! ये विविध आस्थाएं और विश्वास अकसर एक-दूसरे से टकराते भी रहते हैं — हमेशा की तरह. लिहाज़ा, डिजिटल मीडिया की बदौलत मनुष्य अब भी उसी सोच में है कि क्या करें, क्या न करें !

मीडिया अपने आन्तरिक चरित्रगत लक्षण से ही ‘भीड़’ के लिए बना है, जबकि अध्यात्म का संबंध भीड़ में मौजूद ‘व्यक्ति’ से है.

मीडिया का अस्तित्व ‘दूसरों’ की बदौलत है, कि दूसरे क्या करते हैं या उन्हें करना चाहिये. अध्यात्म का संबंध ‘स्व’ से है, कि मैं क्या करता हूँ.

औज़ार-जैसे मीडिया का दुरुपयोग किया जा सकता है, इसलिए वह धर्मों के बड़े काम का है. अध्यात्म के दुरुपयोग का कोई उपाय नहीं है, इसलिए मीडिया अध्यात्म में प्रासांगिक या उपयोगी ही नहीं है. ज्यों ही हम उपयोगिता,अथवा दुरुपयोग-सदुपयोग की भाषा में सोचते हैं, हम आध्यात्मिक नहीं रह जाते.

यदि आध्यात्मिक रूप से जाग्रत अथवा सक्रिय मनुष्य उपलब्ध हों तो मीडिया को उसकी अदायगी में अचानक सुधार प्राप्त हो जाता है. जबकि मीडिया के कितने भी प्लैटफ़ार्म उपलब्ध हों, अध्यात्म को कुछ नहीं मिलता! एक बार अध्यात्म उपलब्ध हो जाता है तो मीडिया की मौजूदगी के बावजूद उसका कुछ नहीं बनता-बिगड़ता. दूसरी ओर, अध्यात्म के संस्पर्श के बिना मीडिया कैसा हो जाता है? वैसा जैसा हम उसे आज देख रहे हैं !

मास मीडिया के क्षेत्र में उसके उपयोग को लेकर उच्चस्तरीय प्रशिक्षण की सुविधाएं उपलब्ध हैं. मीडिया की सुदीर्घ परम्परा और उसके निरंतर उपयोग के बल पर यह प्रशिक्षण संभव है. मीडिया के संचालन की निपुणता पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आयी है.

अध्यात्म में प्रशिक्षण संभव ही नहीं है क्योंकि अध्यात्म परम्परा पर आधारित नहीं है. अंतश्चेतना की जागृति के लिए गुरु शिष्य को मार्ग तो दिखला सकता है, मगर किसी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं दे सकता. यह कुछ-कुछ ऐसा है जैसे सूर्य को नित्य उदित होने का कोई प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं है. सूर्य का रोज़ उगना भले एक परंपरा है, मगर सूर्योदय में कोई परम्परा नहीं है. जो सूरज कल उगा था, आज वही नहीं उगा है. उगने की परम्परा में रोज़ एक नया ही सूरज उगता है. हर शिष्य का इसी तरह आमूल-चूल नवीन आगमन होता है, तभी अध्यात्म है. हर गुलाब को परंपरा में नहीं, निजी प्रभुता से सम्पन्न होकर खिलना होता है. इसमें मीडिया की कोई भूमिका नहीं हो सकती. केवल गुरु है जो मार्गदर्शक है.

मीडिया हाथों-हाथ उपलब्ध वह साधन है जो युद्ध, अपराध, दुर्घटना, हत्या, भूकंप, महामारी, किसी सामाजिक सेवाकार्य के जमावड़े, कैन्डल मार्च, शेयर बाज़ार आदि के बारे में बताता है. मनोरंजन भी करता है. संक्षेप में कहें तो मीडिया का संबंध हर उस चीज़ से है जो ‘मृत’ है, जिसका अपना कोई जीवन नहीं है. सूचना तो यों भी ज्ञान नहीं है. Information is not knowledge. अतः अध्यात्म सूचना-माध्यमों से कहीं भिन्न है. अध्यात्म का संबंध ‘अ-मृत’ — non-dead से है. इस अंतर के कारण अध्यात्म आसानी से शुभ और अशुभ का निर्णय कर लेता है और सदा तरोताज़ा है. जबकि मीडिया अपने सामान्य कर्त्तव्य की पूर्त्ति करने में ही हाँफने लगा है.

मीडिया के इस विश्लेषण के बाद यही कहा जा सकता है कि अध्यात्म में मीडिया की वही भूमिका है जो शांति-स्थापना में युद्ध की हो सकती है, या जो स्त्री के शील की रक्षा में ‘रेप’ की है.

04-03-2019

Soochanasur


न्यूज़ मीडिया में टी.वी. स्क्रीन पर जिस तरह की बातें होती हैं, और इन बातों के आगे-पीछे जिस तरह की हरकतें चलती हैं, उनकी तरफ़ बहुत लोगों का ध्यान गया है. अनेकानेक सहृदय लोग अब चिंतित हो गए हैं कि आख़िर मीडिया चाहता क्या है ! इन चैनलों के होने का कारण क्या है ! लक्ष्य क्या है !

लोगों को अब लगने लगा है कि ये मीडिया के लोग हमें मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि वे कितने भी मर्यादाहीन हो जायें, हम उन्हें देखते-सुनते रहेंगे और उनसे प्रभावित भी होते रहेंगे. बहुत से जानकार लोगों ने इनके (कोई-सी भी) भाषा-ज्ञान पर तमाम तरह के प्रश्न उठाए हैं. बहुत लोगों को ऐसा भी लगा है अधिकांश न्यूज़-एंकर आमंत्रित अतिथियों के साथ ‘पुलिसिया थर्ड डिग्री’ व्यवहार करने में अपनी धन्यता समझते हैं और उन्हें ज़रा भी ऐसा नहीं लगता कि वे अपनी हदें तोड़ रहे हैं. देश में विवादों और झगड़ों के सिवा और भी बहुत कुछ होता है जिसे प्राय: ये चैनल न्यूज़ ही नहीं मानते.

मित्रवर रँगीले ठाकुर की तरह एक अन्य सुहृद मित्र हैं पार्थसारथी थपलियाल जो 1982 के आसपास मेरे संपर्क में आए थे. साल भर के ब्रेक के बाद पुनः 1987 में उन्हें जोधपुर में देखा जहाँ वह अच्छी तरह जागरूक खोज-बीन करने के बाद स्क्रिप्ट लिखने में तल्लीन हो जाते थे. मीडिया पर उपरिकथित चिंता की ओर उन्होंने मेरा ध्यान खींचा. अनेक शब्द भी उन्हीं के हैं.

इन सब चिन्ताओं के बावजूद यह भी लगभग निश्चित है कि सूचना माध्यमों के बिना अब दुनिया में न तो किसी को नींद आयेगी, न सोते से जागने को मिलेगा.

मीडिया में दशाधिक आकाशवाणी केन्द्रों में काम करने और लगभग इतने से अधिक केन्द्रों की गतिविधियों से परिचित होने के बल पर मैं अपनी समझ सबके समक्ष रखता हूँ. शायद इस देश के भले लोगों के काम आ जाये.

पहले कुछ ऐसी बातें जो रेडियो में काम कर चुके अथवा कर रहे मित्रों के मतलब की ज़्यादा हैं.

नौकरी के दौरान मुझे अनुभव ने ज्ञान दिया कि सुबह आठ बजे और रात पौने नौ बजे के समाचार पूरे ध्यान से सुन लो तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर जो घट रहा है उस पर भारत सरकार की नीति क्या है, वह मालूम हो जाएगा. इस तरह मैं महानिदेशालय से आने वाली instructions पहले से भाँप लिया करता था. तदनुसार कार्यक्रम प्रस्तुत करने में मुझे कभी कोई संभ्रम नहीं हुआ. और, निश्चय ही, ऐसा करने वाला मैं अकेला तो रहा नहीं होऊँगा. आख़िर मैं अपने साथी-समुदाय का ही एक हिस्सा था.

दूसरी तरफ़ मेरी एक बुरी आदत रही कि समस्याओं पर स्पष्टवादी और बोल्ड प्रोग्राम प्रसारित होने चाहियें. सरकारी माध्यम होने और सरकार की नीति के अनुसार प्रसारण करने की रीति होने के बावजूद बोल्ड प्रोग्राम करने में मुझे कभी विरोधाभास का सामना करके संशय का शिकार नहीं होना पड़ा. यहाँ तक कि जोधपुर से दिल्ली जाने के बाद नेशनल प्रोग्राम में मेरे प्रसारणों की boldness पर अक्सर ‘The Statesman’ के दिल्ली संस्करण में हैरानी (और तारीफ़ भी, जो कि महत्वपूर्ण नहीं है) दिखाई पड़ जाया करती थी.

यह सब आत्मश्लाघा में नहीं, गुर क्या था, यह बताने को कह रहा हूँ.

उन्हीं अनुभवों ने मुझे यह भी ज्ञान दिया कि रे मूरख, बस AIR कोड violate नहीं होना चाहिये. कितना भी बोल्ड होने पर यों कोई सरकारी बंधन नहीं है ! मीडिया के सरकारी दुरुपयोग के बाद भी, जैसे कि इमरजेंसी में !

मैं कोई श्रेष्ठतम प्रोग्राम-प्रतिभा था, ऐसा भ्रम मुझे कभी नहीं रहा. मुझ से कहीं बेहतर प्रतिभाएं हमारे पास थीं. फिर भी अक्सर मेरी तरफ़ सबका ध्यान चला जाता था. कारण यह था कि उन्हीं अनुभवों का सम्मान करते हुए मैंने AIR Code और AIR Manual के भेद को कभी गड्डमड्ड नहीं किया और अपनी टीम को भी इस ओर से जागरूक रखा.

Manual और Code को एक समझने वालों की संख्या धीरे-धीरे प्रोग्राम काडर में बढ़ती गयी और हम, by and large, कभी नहीं समझ पाये कि न्यूज़ वालों का खेल आख़िर था क्या. नतीजा यह हुआ कि हम Service Rules, Recruitment Rules और Manual से बँधे होने को सरकारी शिकंजा समझना शुरु हो गये और Code की ज़िम्मेदारी-भरी व्यवस्था को भी उसी का एक रूप मानने लगे. Code बस इतना था कि किसी अंधे-लूले-लंगड़े का मज़ाक मत बनाओ, मित्र-देशों के विरुद्ध कुछ मत बोलो, सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाली कोई बात मत कहो आदि. यह AIR Code पूरा बोल्ड होने और freedom of expression में कोई अड़चन नहीं था !

ये उन दिनों की बातें हैं जब electronic media में रेडियो का एकच्छत्र राज्य था और हमें ‘सरकारी भोंपू’ कहकर लांछित किया जाता था.

विभिन्न राजनैतिक दल और नेता लगातार यह शिकायत किया करते थे कि ‘सरकारी भोंपू’ पर उन्हें बराबर का समय नहीं दिया जाता. उनका कोई प्रचार नहीं किया जाता.

किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ये शिकायतें न्यूज़ बुलेटिन को लेकर थीं. Manual के अनुशासन को बंधन मानने वाले और Code की महिमा न समझने वाले हम हर ऐसी शिकायत को अपने ऊपर झेल लिया करते थे और मुफ़्त बदनाम होने को ‘नाम हुआ’ समझ लिया करते थे. जबकि यह भोंपू-कलंक झेलना चाहिये था न्यूज़ को !

उधर हमारे पास जो थोड़े-बहुत बोल्ड प्रसारण थे भी हमने उनकी महत्ता जमाने में दिलचस्पी नहीं ली. उन्हें लोगों के दिलो-दिमाग़ में जमाते और ख़ुद टिके रहते तो लोग नोटिस लेते, जैसे Statesman ने लिया.

रेडियो में रहते हुए न्यूज़ के लोगों से सीधे साबका पड़ा हो, प्रोग्राम काडर के ऐसे कितने लोग थे या हैं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता. संयोगवशात् यह अवसर मुझे कई बार मिला.

मैंने पाया कि न्यूज़ का चरित्र ही बदमाशी, भ्रष्टाचार और ख़ुराफ़ात का है. इसका सबसे बड़ा कारण था कि इन लोगों को सरकार, पॉवर, मंत्री और राजनेताओं के बहुत निकट रहने को मिलता था. उनका काम ही ऐसा था. भोंपू या चादर (स्क्रीन) पर कौन नहीं आना चाहेगा? और, पॉवर है कि करप्ट करती है. उसके भी आगे कौन नहीं जानता absolute power corrupts absolutely !

एक general-सा बयान दिया जा सकता है कि कुछ अच्छे-सच्चे लोग भी न्यूज़ में हैं. मगर उनकी आड़ में बाक़ी भी बच निकलेंगे. अच्छे लोगों की यही एकमात्र उपयोगिता रह गई है. पाकिस्तान बनाने वाले आख़िर गाँधियों की अच्छाई की आड़ में ही अपना काम कर जाते हैं! इसलिए तारीफ़ का कोई बयान नहीं तो नहीं ! ऐसा कोई कथन नहीं !

मैंने देखा कि रेडियो के पतन का कारण टेक्नोलोजी नहीं, न्यूज़ के लोग थे. ये वे व्यापारी थे, हम प्रोग्राम के लोग जिनके किये को अपनी पीठ पर ढोने का खच्चर बने. कैसे? ऐसे कि हमें केवल यह ज्ञान था कि अपना तबादला कैसे दिल्ली के बाहर नहीं होने देना है!

जिस तरह मैं व्यर्थ अपनी प्रशंसा में नहीं पड़ता, उसी तरह व्यर्थ दोष भी नहीं लेता. इसलिए यहाँ बताना चाहूँगा कि न्यूज़ से साबका पड़ने पर हर बार मैं इनकी ढिबरी टाईट करके चला. इन्हें अपने और अपनी टीम के ऊपर सवारी नहीं करने दी. इसके बावजूद कि news content पर मेरा कभी नियंत्रण नहीं हुआ. वे स्वतंत्र और अलग विभाग/प्रभाग बने रहे.

एक बार माननीय श्री अरुण जेटली ने मुझसे पूछा था (तब वह सूचना व प्रसारण मंत्री थे) — न्यूज़ को अलग चैनल देने की बहुत माँग आ रही है. आप इनसे डील करते हैं, आप क्या कहते हैं.

मैंने निवेदन किया, आप चाहें तो दे दीजिये.

मुझे अच्छी तरह याद है, जेटली जी ने लगभग अप्रसन्न होते हुए कहा था, ऐसे कैसे? आप कोई logic भी तो बताइये.

मैंने कहा था, news-fall तो इतना होता नहीं कि अलग चैनल चलाया जाये, फिर भी स्वतंत्र चैनल एक दिन होगा ही. (जो नहीं कहा वह था कि ऐसा मैं इनके सब लच्छन देख कर कह रहा हूँ.)

और आज टी वी में ही सही, अंधाधुंध न्यूज़ चैनल हैं और ये क्या करते हैं, सब जान रहे हैं. रेडियो पर एफ़ एम चैनल भी समाचार-सूचनाएं देने के अधिकारी हैं.

बस यह कोई नहीं जान रहा कि आकाशवाणी का समाचार सेवा प्रभाग इनका पितामह है. अपनी हदें तोड़ना इनकी घुट्टी में है.

ये कभी .. कभी .. कभी भी नहीं सुधर सकते. इन्हें बाईस्कोप की तरह देखिये और उपेक्षा कर दीजिये. नहीं तो रात सोने के पहले ब्लड प्रेशर की एक गोली सटकना शुरु कर दीजिये!

मगर इतना जान रखना काफ़ी नहीं है.

यह अधिकांशतः उनके लिए उपयोगी जानकारी थी जो कभी मूल्यों पर आधारित मीडिया-कर्म से जुड़े रहे हैं, insider हैं, विशेषतः रेडियो के इनसाडर.

इस पृष्ठभूमि बनाती जानकारी का मेल जन-सामान्य की चिंताओं से बिठाना अभी बाकी है.

इस पृष्ठभूमि के चलते यह ज़रूर पूछा जाना चाहिये कि मीडिया-कर्मी तो ठीक, मगर आम नागरिक का क्या?

शुरू में बयान की गई चिंताएं इसी आम नागरिक की ओर से कही गई हैं, इसलिए अधिक महत्व रखती हैं.

जब मैंने बताया कि मुझे अवसर मिलते ही मैंने न्यूज़-कर्मियों की ढिबरी टाईट कर दी, तो तात्पर्य था कि administrative कंट्रोल मेरे पास था. मेरे द्वारा उसका सही-सही उपयोग करने से अन्य सभी कर्मचारियों को बहुत राहत रहती थी और न्यूज़ के लोग छटपटाकर रह जाते थे क्योंकि उनका वर्चस्व स्थापित नहीं हो पा रहा था.

जब मैंने बताया कि news content मेरे नियंत्रण में नहीं था, केन्द्र के ट्रांसमीटर से जो प्रसारित होता था उसके लिए मैं जवाबदेह था, सिवा समाचार बुलेटिनों के, News content सीधे दिल्ली से परिचालित रहता था, तब content के प्रति यह मेरी चिंता लोगों की प्रमुख चिंता से जा मिलती है और इस तरह मुद्दे को आम श्रोताओं-दर्शकों से जोड़ती है.

आप में से बहुतों को याद होगा चंडीगढ़ के केन्द्र निदेशक श्री राजेन्द्रकुमार तालिब की हत्या पंजाब के आतंकवादियों ने कर दी थी. वह मेरे अत्यंत निकट मित्र थे. पंजाब का न्यूज़ यूनिट चंडीगढ़ में था. यह हत्या ट्रांसमीटर पर हो रहे प्रसारण की ज़िम्मेदारी केंद्राध्यक्ष की होने और news content के अलग से (दिल्ली से) नियंत्रित होने में निहित gap के कारण हुई थी. करे कोई भरे कोई !

एक यही तथ्य इतना बताने को काफ़ी है कि न्यूज़ के होने मात्र और उसके चरित्र में ही ख़ुराफ़ात है. ज़िम्मेदारी का कोई अहसास न रखने से ही ये लोग निज-स्वरूप प्राप्त करते हैं.

न्यूज़ का content-नियंत्रण या तो राजनीति के गलियारे करते हैं, या बड़े-बड़े बिज़नेस हाऊस, या फिर वे अन्तर्राष्ट्रीय ताक़तें जिनको किसी देश के सामान्य नागरिक के कल्याण या समस्या से कुछ लेना-देना नहीं है. इंदिराजी की हत्या को ही देख लें. बी.बी.सी. ने ग्यारह बजे ही बता दिया था के उनका देहांत हो चुका है. आकाशवाणी को बहुत बदनाम किया गया कि शाम को छह बजे बताया. किसी ने नहीं सोचा कि बीबीसी को क्या हिंदुस्तान में क्या आग लगने को थी ! इसका भी ‘दोष’ (जबकि काम न्यूज़ का था) मढ़ा गया प्रोगाम काडर यानी कुल आकाशवाणी के सिर !

अंतर्राष्ट्रीय ताक़तों के लिए सूचना उछालते रहना एक खेल है, एक आसुरी नृत्य ! यह नृत्य कभी न थमे इसके लिए पूरी दुनिया में ऐसी खलबली मचाये रखना न्यूज़ का काम है जिससे news-fall की कमी न होने पाये. आसुरी चरित्र को हम भारतीयों से बेहतर कौन समझता होगा कि जब तक चले अपना धंधा चमकाओ, अन्यथा परिस्थितियों को देवासुर-संग्राम की ओर ले जाओ ताकि विकट विनाश-लीला हो सके. ‘देवासुर-संग्राम’ अर्थात् जहां देखा कि शांति कुछ स्वर्गिक-सी हो रही है वहीं ऐसा करो कि इंद्रासन डोलने लगे, अस्थिरता फैलने लगे!

कहीं भी, किसी भी तरह की न्यूज़-व्यवस्था इसी विनाश-लीला का आश्वासन है, और कुछ नहीं. ये तमाम चैनल वरदान पा गये उस हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु अथवा भस्मासुर आदि दैत्यों की तरह हैं जो किसी से नहीं डरते, सब इनसे आतंकित रहते हैं और जो सब तरह से एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता हैं जिस पर उसके मालिकों या जन्मदाताओं का भी नियंत्रण नहीं है!

कलियुग का अंत करने के लिए नारायण के कल्कि अवतार की हमें सूचना है. कलि-कालीन असुर का नाम कहीं लिखा नहीं है, मगर वह पूर्णाकार ग्रहण करने की प्रक्रिया में है.

उसका नाम है ‘सूचनासुर’. चाहें तो कहिये ‘मीडियासुर’!

यह किसी प्रकार का निराशावाद नहीं है. यह भगवद्सम्मत ‘न्यूज़-पुराण’ का संक्षिप्त आख्यान है.

नारायण नारायण.

22-02-2019

Ayodhya


जिन दिनों मैं अध्यापन में संलग्न था – डिग्री क्लासेस को हिन्दी पढ़ाना मेरा काम था — उन दिनों की बहुत याद आती रही है. काफ़ी दिनों तक इसलिए याद आती रही कि शिक्षक होना एक नोबल प्रोफ़ेशन है; युवा छात्र देश का भविष्य होते हैं, अध्यापन उन्हें घड़ने का काम है; छात्रों की आँखों में ‘समझ में आया’ का सन्तोष देखकर sense of fulfilment मिलता है, वगैरह-वगैरह.

आजकल वे दिन अपने ‘प्रतिभाशाली’ छात्रों के कारण याद आते हैं. इन प्रतिभाओं को उनके स्कूल में अध्यापकों ने अच्छे से सिखाया रहा होगा ‘संकट’ कैसे लिखना होता है, ‘झंझट’ कैसे और ‘पर्याप्त’ किस भांति लिखा जाएगा. इस टेलेंट को हमेशा याद रहा कि ऊपर बिंदी (अनुस्वार) लगानी है. और, ध्यान में बैठा लिया ‘र’ को ‘प’ की बगल में नहीं लिखना है. दूसरा ‘प’ आधा रहेगा — ‘पर्याप्त’, वहाँ तक कौन जाये? लिहाज़ा, ‘सकंट’ (सकण्ट) या ‘झझंट’ (झझण्ट) लिखना उनके लिए सदा ‘प्रयापत’ होता रहा ! कहीं की बिंदी कहीं चिपका दी, ‘र’ के पैर कहीं पसार दिये और हो गया !

ज्यों-ज्यों हमारे दैनंदिन जीवन से हमारे मूल्यों का लोप होना शुरु हुआ विभिन्न भारतीय भाषाओं के ज्ञान और शुद्ध लेखन-उच्चारण को भी गोदाम में ठेल दिया गया. बी.बी.सी. किस तरह अंग्रेज़ी के शुद्ध उच्चारण का आदर्श है, वही भारत का भी ‘प्राइड’ होकर रह गया ! मुझे भी ऐसी हिन्दी लिखनी पड़ रही है जो इक्कीसवीं सदी में ठीक से कम्यूनिकेट हो सके ! ‘संप्रेषित हो सके’ लिखूँगा तो और सब की कौन कहे, कुछ समय के बाद मुझे ख़ुद को समझ में नहीं आयेगा कि यह क्या लिख दिया है, ‘संप्रेषित’ क्या होता है !

कहीं की बिंदी कहीं चिपका दो, अब यही प्रोग्रेसिव ‘रेशनलिस्ट’ होने की सबसे बड़ी गवाही रह गई है !

यह बात उस समय और भी खरी बैठती है जब भारत के इतिहास की विकट तोड़-मरोड़ की जाती है. इस विकृति का मूल कारण यह है कि ऐसे इतिहासकार स्वयं को चाहे जितना भारतीय बताने की चेष्टा करें, किसी के द्वारा इन्हें देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट न दिया जाए. ये शोर मचाते रहा करें, किन्तु इनका सच यही रहेगा कि इन्हें भारत से भयंकर वैर है और ये उसे अस्थिर हुआ देखना चाहते हैं. तभी इनकी यह थ्योरी मान्य बनी रह सकेगी कि भारत यदि पद-दलित और ग़ुलाम रहा तो वह ऐसा deserve करता था.

क्यों डिज़र्व करता था?

इनका तुरत उत्तर होगा — अपनी अंधविश्वासी और दकियानूसी हिन्दू पहचान के कारण !

इनकी इस मनोवृत्ति के कारण कहा यह जाना चाहिए कि दरअसल इन्हें हिन्दुत्व से वैर है. अंग्रेजों के समय से ही ये लोग सहन नहीं कर पा रहे कि अगर हिंदुस्तान की पहचान वेद-पुराण-रामायण-महाभारत और गंगा और हिमालय तथा उनसे जुड़ी पौराणिक कहानियों और लोक में प्रचलित जानकारियों से बनी रही तो यह फिर एक स्थिर और मज़बूत देश हो जाएगा. तब इनके ‘एजेंडे’ का क्या होगा? कहीं की बिंदी कहीं लगाना या इधर की उधर करते रहना ही इनका एकमात्र एजेंडा है, ताक़त है!

अयोध्या में भव्य राम-मंदिर के निर्माण को लेकर हिन्दू-भावना का जो ज्वार उमड़ा उससे बहुतों की चिंताएं बढ़ गईं. यद्यपि इनको हिन्दू-divide का बड़ा आसरा है. दिल्ली के बाद अयोध्या और वाराणसी में संत-समाज और शंकराचार्यों ने दिखाया कि उनका एक वर्ग बीजेपी का विरोधी और कांग्रेस का समर्थक भी है. तथापि राम-मंदिर बनाये जाने के पक्ष में सभी एक स्वर से रहे और हैं. हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी. यह एका तथाकथित प्रगतिशील तत्वों के लिए बड़ा ‘झझंट’ लेकर आया.

इसलिए अब इनका ‘कहीं-की-बिंदी-एजेंडा’ अयोध्या का भेस धरकर आया है, जिसे नाम दिया गया है — “अयोध्या एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी है” ! किन्हीं विवेक कुमार ने लिखा है.

चलिये देखते हैं, देश की ‘चिंता’ में बेतरह भावुक होकर ‘तहज़ीब’ के मर जाने पर ये लोग क्या फ़ातिहा पढ़ रहे हैं:

“कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे, बड़े हुए, बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है. जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर है. जहां बैठकर राज किया वहां भी मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसियों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुग़ल या मुसलमानों का राज रहा.

अजीब है न ! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर ! वे तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किये जाते हैं !”

अजीब यह है कि मुसलमानों ने ये मंदिर कैसे बनने दिये या अजीब यह है कि शायद मुग़ल अपने साथ ज़मीन खच्चरों पर लाद कर, ढोकर लाये थे! वह ज़मीन उन्होंने हिंदुओं को दे दी कि लो मंदिर बना लो. अजीब तो यह भी है कि अयोध्या में ही कहीं, इन मंदिरों के आस-पास राम के वनवास वाले वन, लंका और अशोक-वाटिका वगैरह भी रहे होंगे! उनका ज़िक्र इन महान इतिहासज्ञों ने क्यों नहीं किया? इनके हिसाब में तो राम की पूरी लीला अरबिस्तान से बाबर द्वारा ‘लायी गई’ और मंदिरों के लिए हिंदुओं को ‘दे दी गई’ अयोध्या की ज़मीन पर ही हो गई थी – 400-500 साल पहले !

अजीब है न?

ऐसा नहीं कि ये लोग कुछ जानते-समझते नहीं. इनके आदरणीय मार्क्सवादी इतिहासकार हरबंस मुखिया ने अपनी पुस्तक ‘The Mughals of India’ में लिखा है:

“The history of legitimation of conquest of territories in India’s medieval centuries is not terribly complex. Sultan Mahmud of Ghazni had tactfully combined his love of plunder with religious zeal. Later rulers did not seek justification of conquest except in terms of conquest itself. Zia al-Din Barani, historian and theoretician of the state in the fourteenth century, envisioned both conquest and governance as an exercise of terror by the king; conquest of territories was a manifestation of the king’s virility. Babur claimed to have conquered India because ‘it belonged to my ancestor’, a Turk. Indeed, he repeatedly asserted that he pictured the region as his for this reason and the people (of India) were already his subjects.” (पृष्ठ 50)

जिस तहज़ीब के मरने को ये ‘अयोध्या’ कह रहे हैं उसका तो बयान हरबंस मुखिया ने कर ही दिया. चालाकी से यह भी बता दिया कि भारत-विजय मात्र युद्ध-विजय थी, देश तो उनका ही था, प्रजा सहित ! तहज़ीब के ज़िक्र की कोई गुंजाइश नहीं है, इसलिए उसका ज़िक्र नहीं किया!

इसके बावजूद पूरी इस्लामी तहज़ीब को बुरा समझना ग़लत होगा. हिदुस्तान का दुश्मन इस्लाम नहीं, तथाकथित ‘प्रगतिशील’ हैं ! और नहीं तो ‘1001 Arabian Nights’ यानी ‘अलिफ़ लैला’ का ही हवाला लें तो मुसलमान दीन-ईमान के पक्के ठहरते हैं. हिंदुस्तान और लंका आदि की हिन्दू संस्कृति, वैभव और जीवन-शैली को वे आदर से देखते थे और व्यापारिक संबंध भी रखते थे. ये अच्छे मुसलमान व्यापार के अलावा कभी लूटपाट और बर्बरता का प्रदर्शन करने के लिए अरबिस्तान से नहीं निकले. अरब, ईरान, तुर्किस्तान, अजरबेजान, सहारा, बलख-बुखारा से आने वाले आक्रमणकारी, बलात्कारी, आततायी किस्म के लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई. यही वे लोग थे और हैं जिन्होंने इस्लाम के नाम को बट्टा लगाने का काम किया.

भारत में आकर चंगेज़-तैमूर की ये औलादें, जो ‘तहज़ीब’ को पीछे छोड़कर आती थीं, सबसे पहले मूर्त्तियाँ देखकर मंदिर तोड़ने का काम करती थीं क्योंकि ‘कुफ़्र’ को नष्ट करना उनके लिए सबाब का काम था ! दूसरा काम जो इन लुटेरों का होता था वह था मंदिरों में उपलब्ध असंख्य रत्न देखकर ऊभ-चूभ हो जाना. उनके लिए यह ‘बेशुमार दौलत’ थी जिसे लूटना उनके आक्रमण का प्रमुख उद्देश्य रहता था. उसके बाद हत्या और बलात्कार.

आज तो एक आम हिन्दू भी यही कहता-मानता नज़र आता है कि इन रत्नों को रखे रहने का क्या फ़ायदा? इन्हें बेच-बाचकर अस्पताल, स्कूल, और स्टेडियम बना देने चाहिएं ! हिंदुओं को यह भुला दिया गया है कि यह दौलत नहीं, लक्ष्मी का वरदान है. मंदिरों का निर्माण और उनमें स्थापित मूर्त्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा जिन आध्यात्मिक-तांत्रिक विधियों से होती थी यह वरदान उन विधियों का फलीभूत रूप है. इसे केवल सिद्धों और ऋषियों ने हमें उपलब्ध कराया है. हम जो रत्न अँगूठी बनाकर अपनी उँगलियों में पहनते हैं सो क्या बेच-बाचकर छुट्टी करने के लिए? मंदिरों की प्रक्रिया में ये दुर्लभ रत्न पूरे देशवासियों की करोड़ों उँगलियों की अँगूठी हुआ करते थे. बेचने के लिए पहले तो इन अप्राप्य और दुर्लभ रत्नों का दाम लगाएगा कौन? अगर कुछ पैसा मिल भी गया तो वह शीघ्र ही ख़र्च हो जाएगा ! उसके बाद? हिन्दू ख़ुद यह भूल गए कि आध्यात्मिक आचरण से प्रकट हुए वरदान देश की प्रजा के शुभ-संकल्प के लिए होते हैं, लूट अथवा विक्रय के लिए नहीं? इन वरदानों की ‘उत्पादकता’ सतत आध्यात्मिक जीवन-शैली में समाहित रहती है. स्टेडियम और स्कूल के लिए जिस धन की आवश्यकता है वह धन इन रत्नों के लिए लोभ से नहीं, उत्पादक उद्यमशीलता से मिलता है. पूरी दुनिया अब इस बात को मान गई है कि कृषि एकमात्र उत्पादक उद्यम है, अन्य सब कृषि के उत्पाद ‘धन’ पर आश्रित consumer enterprise हैं !

इस तरह हिन्दू जीवन-शैली हुई कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था ! निरंतर आध्यात्मिक आचरण से लक्ष्मी का वरदान प्राप्त करना और मूलतः कृषि-गत श्रम के द्वारा सांसारिक जीवन की झोली धन-धान्य से भरना, इन दो के समन्वय का नाम है हिन्दू !

इन्हीं प्रोग्रेसिव महानुभावों के इतिहासज्ञ हरबंस मुखिया द्वारा की गई खोज के नाम से सोशल मीडिया पर राजस्थानी शैली की एक पेंटिंग भी घुमाई गई थी जिसमें भगवान कृष्ण एक मुस्लिम बालक को गोद में उठाए उसके माँ-बाप के साथ उसे ईद का चाँद दिखा रहे हैं ! कुछ दिन और बीत जाने पर ये सूरदास का कोई पद भी ढूँढ निकालेंगे जिसमें कविवर सूर बता रहे होंगे कि किस तरह कृष्ण मुसलमान थे ! हनुमान के लिए तो कह ही रहे हैं कि ‘महाबली’ में ‘अली’ और ‘रहमान’ में हनुमान का ‘मान’ होने से वह मुसलमान थे!

योगी आदित्यनाथ ने कह क्या दिया कि हनुमान ‘दलित’ थे, कहीं-की-बिंदी-एजेंडा लागू होने लगा ! अब तो अपनी भाषा की भी समझ इन समझदारों के पीछे-पीछे घिसटानी पड़ेगी. वैचारिकता में वी.एस. नायपॉल की ‘A Million Mutinies’ की मानें तो दुनिया में तीन समुदाय हैं जो दलित हैं. एक तो हर भारतीय जो सदियों से कभी इसका तो कभी उसका ग़ुलाम चला आता है. दूसरा वर्ग है भारत के हरिजन. तीसरा है स्त्री-समूह जो दुनिया भर में दबा-कुचला और दलित है ! योगी ने तो केवल इस दृष्टि से वन-वासी हनुमानजी को वंचित और दलित कहकर याद किया था. हनुमानजी के युग में ‘दलित’ जैसी किसी जाति का नाम-निशान तक नहीं था, भाषा का एक शब्द मात्र था. तो फिर यह कथन उनकी जाति बताना कैसे हो गया? फिर भी समझदार लोग ले उड़े ‘बिंदी’ !

इन्होंने तुलसीदास को तो घसीट ही लिया है. ‘कवितावली’ से तुलसी की एक पंक्ति quote करके पूछा है : “लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे ‘मांग के खाइबो मसीत में सोइबो’. और फिर उन्होंने रामायण लिख डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने का क्या तुलसी को ज़रा भी अफ़सोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं !”

जिन तुलसीदास को ‘चार फल जानिहौं चार हि चनक को’ कहना पड़ा था, चार चने मिल जाएं तो लगता था जैसे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों फल प्राप्त हो गए, उनकी पूरी बात इस तरह है : “मांगि के खाइबो, सोइबो मसीत में, लैबो को एक न दैबो को दोऊ”. माँग के तो खाता ही हूँ, लेना एक न देना दो, अब तो सोना भी मस्जिद में पड़ेगा. “तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै जो सो कहे कछु कोऊ”. मेरा श्रेष्ठ नाम तुलसी है जो राम का सेवक है. जिसके जो मनभाये, कहता रहे” !

इन्हीं तुलसीदास जी को एक बार बाबर ने फतेहपुर सीकरी बुलवा भेजा था. बाबर के बारे में तुलसी के जो विचार थे, लौटे तो उन्होंने लिख डाले : “संतों को सीकरी से भला क्या काम? आने-जाने में पादुका भी टूटी, हरिनाम भूले रहे, सो अलग ! जिसका मुँह तक देखने से पाप लगता है, उसे प्रणाम और करना पड़ा !”

“संतन को कहा सीकरी सों काम.

आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम.

जाकौ मुँह देखै अघ लागै, ताकौ करन परी परनाम.”

तुलसी ने जन्मस्थान का मंदिर तोड़े जाने पर कुछ लिखा क्यों नहीं, यही प्रश्न इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष भी था. श्री रामभद्राचार्य जी को ‘इंडियन एविडेन्स एक्ट’ के तहत एक एक्सपर्ट गवाह के तौर पर हाईकोर्ट में बुलाया गया था. श्री रामभद्राचार्य ने तुलसी के संकलित दोहों ‘तुलसी शतक’ में से साक्ष्य उपस्थित किया और बताया कि यह कहना पूरी तरह ग़लत है कि तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में न कहीं इस घटना की चर्चा की है, न मुग़लों का उल्लेख किया है.

“मंत्र उपनिषद ब्राह्मणहू बहु पुराण इतिहास.

जवन जराये रोष भरि करि तुलसी परिहास.

“तुलसी कहते हैं यवनों ने कोप करके अनेक उपनिषद और ब्राह्मण ग्रन्थ जला डाले और मंत्रों का मज़ाक उड़ाया.

“सिखा सूत्र से हीन करि बल ते हिन्दू लोग.

भमरि भगाये देश ते, तुलसी कठिन कुयोग.

“तुलसी कहते हैं, मुसलमानों ने हिंदुओं को ज़बरदस्ती शिखा और यज्ञोपवीत से हीन कर डाला. उन्हें बलपूर्वक अपना घर छोड़ने को मजबूर किया. कितना कठिन और दुर्दैव-भरा समय आया.

“संवत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतु अनुमानि.

तुलसी अवधहि जड़ जवन अनर्थ किए अनमानि.

(ज्योतिषीय काल-गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाने पर इस प्रकार संवत का निर्धारण होगा — सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1. अर्थात् विक्रम सम्वत 1585. विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 होता है.)

“तुलसी कहते हैं, लगभग ग्रीष्म ऋतु का समय था जब संवत 1585 (ईस्वी सन 1528) में इन जड़बुद्धि बर्बर यवनों ने अयोध्या में अनगिनत ज़ुल्म ढाये.

“रामजनम महिं मंदिरहिं तोरि मसीत बनाय.

जवनहिं बहु हिंदुन हते तुलसी कीन्हीं हाय.

“तुलसी के मुँह से उस समय अनायास ‘हाय’ निकली जब रामजन्मभूमि का मंदिर तोड़कर वहाँ मुसलमानों ने मस्जिद बना दी और अनेकों हिंदुओं को मार डाला.

“दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज.

तुलसी रोवत हृदयहत, त्राहि त्राहि रघुराज.

“मीरबाकी ने अयोध्या का मंदिर पद-दलित कर डाला, राम-भक्तों को मार दिया. यह देखकर भग्न-हृदय तुलसी रो दिया और पुकार उठा, हे रघुकुल के राजा श्रीराम, हमारी रक्षा करो !

“रामजनम मन्दिर जहं लसत अवध के बीच.

तुलसी रची मसीत तहं मीरबाकि खल नीच.

“जहाँ कभी रामजन्मस्थान का मन्दिर शोभित हुआ करता था, तुलसी कहते हैं वहाँ निम्नकोटि के मनुष्य नीच मीरबाकी ने मस्जिद खड़ी कर ली !

“रामायन घरि घण्ट जहं श्रुति पुरान उपखान.

तुलसी जवन अजान तहं कह्यो कुरान अजान.

“तुलसी कहते हैं जहां कभी श्रुतियों और पुराणों की कथायें सुनाई देती थीं, हर घड़ी जहाँ घण्ट-ध्वनि के साथ रामायण गूँजती थी, वहाँ अब ये अज्ञानी यवन अपनी अज़ान और क़ुरान कहने लगे हैं.

“बाबर बर्बर आइके कर लीन्हे करवाल.

हने पचारि पचारि जन तुलसी काल कराल.

“तुलसी कहते हैं यह वह भयंकर समय था जब आततायी बाबर हाथ में तलवार लिये आया और उसने लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मारा.”

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन्हीं परिस्थितियों के लिए अपनी पुस्तक ‘Nationalism’ में लिखा था कि हमने तलुवों को चुभने वाले कंकरों पर चलने की आदत डाल ली थी.

इस बाबर ने मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया, 1494 से 1497 तक. हुमायूं को तो ठोक-पीटकर भगा दिया था. मुग़ल साम्राज्य की नींव अकबर डाल पाया था. और यह साम्राज्य जहाँगीर-शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब के आते-आते उखड़ भी गया.

कुल 100 वर्ष (अकबर 1556 ई. से औरंगजेब 1658 ई. तक) के समय के शासन को मुग़ल-काल नाम से इतिहास में इस तरह पढ़ाया जाता है मानो सृष्टि के आरम्भ से आज तक के कालखण्ड में यदि तीन भाग कर दिये जाएं तो बीच का मध्यकाल पूरा मुग़लों के राज का युग रहा. अब इस स्थिर (?) शासन की इन तीन-चार पीढ़ियों के लिए किताबों, पाठ्यक्रमों, सामान्य ज्ञान और कंपीटीटिव-परीक्षाओं में प्रश्न ठूंस-ठाँसकर, विज्ञापनों में तरह-तरह के भोंडे गीत मचा-मचाकर हल्ला ऐसा कर रखा है, मानो पूरा मध्ययुग बस इन्हीं 100 वर्षों के इर्द गिर्द था ! जबकि उक्त समय में मेवाड़ इनके पास नहीं था. दक्षिण और पूर्व भी मुग़लों के लिए बस एक सपना हो कर रह गया था.

इतिहास की तोड़-मरोड़ तब स्पष्ट हो जाती है जब देखते हैं कि भारत में तीन चार-पीढ़ी तक अथवा सौ वर्ष से अधिक समय तक राज्य करने वाले मुग़लों से इतर वंशों को इतना महत्त्व या स्थान मिलना तो दूर उन्हें भारत के इतिहास से ग़ायब ही कर दिया गया है. सिर्फ़ इसलिए कि उनसे भारत के असली गौरव की प्रतिष्ठा होती है !

अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्ष तक टिका रहा. हम्पी नगर में हीरे और मणि-माणिक्य की मण्डियां लगती थीं. महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध-वंश के 22 राजाओं ने, प्रद्योत-वंश के 5 राजाओं ने 138 वर्ष तक, 10 शैशुनागों ने 360 वर्षों तक, 9 नन्दों ने 100 वर्षों तक, 12 मौर्यों ने 316 वर्ष तक, 10 शुंगों ने 300 वर्ष तक, 4 कण्वों ने 85 वर्षों तक, 33 आंध्रों ने 506 वर्ष तक, और 7 गुप्तों ने 245 वर्ष तक राज्य किया था! फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया. इतने महान् सम्राट होने पर भी वह भारत के इतिहास में से गुमनाम कर डाले गये ! सही इतिहास के जानकार और गंभीर अध्येताओं – भगवतशरण उपाध्याय, जयशंकर ‘प्रसाद’, चतुरसेन शास्त्री, जयचंद्र विद्यालंकार, रांगेय राघव व अनगिनत अन्य को भुला दिया गया.

यह सब कैसे और किस उद्देश्य से किया गया इसे हमने कभी ठीक से समझने की कोशिश नहीं की. तथाकथित ‘प्रोग्रेसिव/रैशनलिस्ट/वैज्ञानिक’ सोच का घुन जाने किस हीन-भावना में या आत्मविश्वास की कमी से अपनी संस्कृति को लगता चुपचाप देखते रहे ! एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत हिन्दू योद्धाओं को इतिहास से बाहर कर सिर्फ मुग़लों को महान बतलाने वाला नकली इतिहास पढ़ाने लगे. महाराणा प्रताप के स्थान पर अत्याचारी व अय्याश अकबर को ‘महान्’ लिखा जाने दिया ! अब यदि इतिहास में हिन्दू योद्धाओं को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है तो शिक्षा के ‘भगवाकरण’ का शोर मचा दिया जाता है. यह शोर केवल ‘कहीं-की-बिंदी’ ले उड़ने की मनोवृत्ति है जो हिंदुओं के प्रति इस इतिहास-based घृणा में से निकलती है और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के इंशा-अल्ला में बदल जाती है.

यही इंशा-अल्ला है जो इस सबको ‘तहज़ीब’ का नाम देता है.

दरअसल हमारे देश में भिखारी बहुत हैं जो हर समय यही हिसाब लगाते रहते हैं कि उनके कमंडल में किसने कितना डाला ! ये प्रगतिशील बहुत गद्गद रहते हैं कि मुसलमानों ने हमें कितना दिया !

पहली तो बात यह है कि भारत संसार का एकमात्र ऐसा देश है जो किसी से कुछ लेता नहीं, देता ही देता है. दूसरी बात, इस्लामी तहज़ीब और दीन-ओ-मज़हब वाले मुसलमानों को पीछे छोड़कर ये आततायी हमलावर यहाँ आते थे और यहाँ के लोगों की नेकनीयत देखकर यहाँ बसने का मन बना लेते थे. हुकूमत चलाने को बैठ जाते ज़रूर थे मगर रहते क्या थे इसे पिछले दिनों जश्ने-रेख्ता में जावेद अख्तर ने बताया था. जावेद जी के मुताबिक अकबर की जो कल्पना हम ‘मुग़ल-ए-आज़म’ देखकर करते हैं, वह वैसा बिलकुल नहीं था. अकबर एक मामूली इंसान था, लुंगी पहने यहाँ-वहाँ घूमता था और पंजाबी में बतियाता था. उर्दू उस वक़्त थी भी नहीं. रामायण और महाभारत के ऐश्वर्यशाली वर्णनों  की प्रतियोगिता ने मुग़ल बादशाहों को मुग़ल-ए-आज़म बना दिया.

इन आक्रमणकारियों के यहाँ बस जाने के बाद हिंदुस्तान के असर से एक तहज़ीब बनना शुरु हुई थी. बनते-बनते यह तहज़ीब जो बनी लखनऊ की तहज़ीब उसका श्रेष्ठ उदाहरण है. उर्दू का एक भाषा के रूप में बनना इसी तहज़ीब के बनने का हिस्सा था. हमारे जीने के ख़ुशहाल ढंग का असर मुग़लों पर यह हुआ कि उनमें से कुछ के दिमाग़ की परतें खुलना शुरु हुईं. उन्होंने भी बड़ा सोचना शुरु किया. दुर्गा-पूजा जैसे उत्सवों को देखकर मुहर्रम पर इन्हें भी ताजिये निकालने की सूझी. जब ताजियों की ऊँचाई इतनी बढ़ने लगी कि बिजली और टेलीफ़ोन के तार काटने पड़ते थे और हिन्दू विमूढ़-से देखा करते थे, तब लोकमान्य तिलक ने ‘गणेशोत्सव’ की परंपरा शुरु की. केवल भारत में ही मुहर्रम के ताजिये निकलते हैं. यह भारत की उत्सव-प्रियता का असर है.

इतना ही नहीं, उर्दू की शायरी और साहित्य देश का गौरव बना. ख़ुदा से संवाद करने की नई शैली ‘क़व्वाली’ के रूप में निकली. अमीर खुसरो ने अपने नाम के साथ ‘देहलवी’ जोड़ा और अरब-फ़ारस, तुर्किस्तान के संगीत को हिन्दुस्तानी लहज़ा दिया. मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित सूफ़ी दर्शन ने हिंदुस्तानी मुहावरा पाया और मलिक मुहम्मद जायसी जैसे कवि पैदा हुए. अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना, बुल्लेशाह और शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ‘रसखान’ जैसे हिन्दी कवि इस संस्कृति का अहम हिस्सा बने. दारा शिकोह जैसे विद्वान् संस्कृत के ज्ञान को शिखर तक ले गए. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत ने तो अनगिनत मुसलमान उस्तादों को हम सब का ही पूज्य बना दिया.

इतिहास को इस तरह पेश करना कि ये सब तो लूट-पाट और हत्या-बलात्कार के लिए आए ही नहीं थे, सिर्फ़ एक ‘तहज़ीब’ लेकर आए थे, भारत से विद्वेष की पराकाष्ठा है. यह वह इतिहास है जो पाकिस्तान में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तानियों को अभी तक विश्वास है कि वे शहंशाहों की विजेता जाति हैं और हिन्दू उनकी प्रजा होने भर को हैं. वे अभी तक बाबर से लेकर अहमदशाह अब्दाली की महानता का नशा किए हुए हैं. वे नहीं जानते कि धन के लोभ और प्राण जाने के भय से धर्म-परिवर्त्तन करने वाला हर व्यक्ति ‘बादशाही’ खानदान का नहीं हो जाता.

भारत ने कभी संस्कृतियों, जातियों व धर्मों के आपसी सम्पर्क से होने वाली सांस्कृतिक समृद्धि को पीछे ढकेलने का उपक्रम नहीं किया. उसका पूरा बड़प्पन ही इस बात में है कि भारत ने सदा कहा, आओ और खुसरो बन जाओ, आओ और बुल्लेशाह, रहीम, जायसी, रसखान और मिर्ज़ा ग़ालिब बन जाओ. भारत ने बाँहें पसार कर कहा आओ और बड़े ग़ुलाम अली ख़ान, अमीर खाँ, बिस्मिल्ला खाँ, अमजद अली खाँ, ज़ाकिर हुसैन बन जाओ.

यह सब भारत ने बाहर से आने वाले हर किसी को दिया और अपना बना लिया. भारत के करोड़ों मुसलमान पूरी तरह मगन होकर सच्चे हिन्दुस्तानी हैं. मगर उनके नेता और प्रवक्ता आज भी मुसलमानों को पाकिस्तान की तर्ज़ पर बाबर, तुग़लक, औरंगजेब, अब्दाली से जोड़ते हैं. उनके नये आदर्श हैं अफ़ज़ल गुरु, याक़ूब मेमन, इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन और ज़ाकिर नाईक आदि !

हिंदुस्तान ने गले न लगाया होता तो रह जाते सब के सब तैमूर, चंगेज़, महमूद ग़ज़नवी और नादिरशाह बनकर. असदुद्दीन ओवैसी औरंगज़ेब को ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ कहकर याद करता है. उससे पूछा जाये कि औरंगज़ेब के बारे में हम ओवैसी की सुनें या गुरु गोबिन्द सिंह और शिवाजी महाराज की बात मानें.

सच तो यह है कि हिंदुओं को भी मुहर्रम मनाना चाहिए. यह मुहम्मद साहब के पोते हुसैन अली की कुर्बानी को याद करने का दिन है. हम हिंदुओं के लिए ऐसी ही उस कुर्बानी को याद करना उचित होगा जो श्री गुरु गोबिन्द सिंह के चार पुत्रों बाबा अजीत सिंह, बाबा जुझार सिंह, बाबा ज़ोरावर सिंह और बाबा फ़तेह सिंह ने औरंगज़ेब के हाथों दी थी. और इनके भी पहले गुरु गोबिन्द सिंह के पिता श्री गुरु तेग़बहादुर ने दी थी. औरंगज़ेब ने श्री गुरु महाराज को तपते तवे पर बैठाकर न केवल यातना दी, बल्कि अंतत: उनका सिर भी काटकर दिल्ली के लाल क़िले की प्राचीर पर लटका दिया था ताकि हर हिन्दू और सिख देखे ! इन पाँच बलिदानों को हर वर्ष याद करना अपने इतिहास से जुड़े रहना है जबकि इसे निरन्तर हर तरह से किसी गुमराह अफ़साने में बदला जा रहा है. उन लाखों दिल्लीवासियों की बात अलग जिनकी ‘लिंचिंग’ नादिरशाह ने एक ही झटके में कर डाली थी. अपने इसी पुरखे के संस्कारवश असदुद्दीन ओवैसी ने भारत को ‘लिंचिस्तान’ नाम दे डाला !

सोचने जैसा है कि क्या वजह है जो इधर भारत के ये मुस्लिम नेता, कांग्रेसी, कम्यूनिस्ट, तमाम ‘प्रोग्रेसिव-रेशनलिस्ट’ और उधर पूरा पाकिस्तान एक ही ज़ुबान बोलते हैं?

क्योंकि हम हिंदुस्तान का नहीं पाकिस्तान का इतिहास लिखते और पढ़ते-पढ़ाते हैं ! कम्युनिस्टों को ऐसा इतिहास लिखने का सॉलिड आधार मिला जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में जो कमोबेश अंग्रेजों की जेल में बैठे-बैठे पाश्चात्य इतिहास पुस्तकों का चरबा था. अगर पश्चिमी घुमक्कड़ और आक्रांता भारत की डिस्कवरी न कर लेते तो भारत मानो था ही नहीं !

कल्पना कीजिये, इनमें से किसी वामपंथी या तथाकथित प्रोग्रेसिव इतिहास-वीर को ‘डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम से पाकी-इतिहास लिखना हो तो वह कैसे लिखेगा/लिखेगी? जो इतिहास हम अपने देश में अपने मूल गौरव को त्याज्य स्थापित करके चला रहे हैं वह ‘डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान’ है या नहीं? क्या यह इतिहास यह सिद्ध नहीं करता कि पाकिस्तान का बनना पूरी तरह ज़रूरी और justified था? क्या सभी तर्क और बयान यह नहीं बताते कि अगर फिर एक और पाकिस्तान बनने की नौबत आयी तो वह भी इसी तरह औचित्यपूर्ण होगी? क्या भारत के टुकड़ों वाला ‘इंशा अल्ला’ इसी औचित्य (?) का पूर्व-कथन नहीं है? क्या नसीरुद्दीन शाह का ‘असुरक्षा’-बयान और पाक-प्रधान का उसे समर्थन इसी इतिहास-मनस की तार्किक परिणति नहीं है?

इतिहास के प्रति इसी कमिटमेंट और माइंड-सेट ने हिंदुस्तानी अस्मिता की बेतरह विकृति करने वाली एक पैरेलल ‘तहज़ीब’ की भी डिस्कवरी कर डाली ! यदि आपने पहले भी कहीं पढ़ा हो, तब भी राहुल गांधी को याद करते हुए और भगवान् श्रीराम से (और रावण से भी) क्षमा-याचना करते हुए पूरा पढ़ जाइए कि इस ‘डिस्कवरी ऑफ़ तहज़ीब’ ने हमारी राम-कथा और दीपावली मनाने की शुरुआत को किस तरह समझना शुरु किया. यह इनकी मानसिक पंगुता को पूरी तरह बेनकाब करने के लिए काफ़ी है :

“So, like this dude had, like, a big cool kingdom and people liked him. But, like, his step-mom, or something, was kind of a bitch, and she forced her husband to, like, send this cool-dude, he was Ram, to some national forest or something… Since he was going, for like, something like more than 10 years or so… he decided to get his wife and his bro along… you know…so that they could all chill out together. But Dude, the forest was reeeeal scary shit… really man…they had monkeys and devils and shit like that. But this dude, Ram, kicked with darts and bows and arrows… so it was fine.

But then some bad gangsta boys, some jerk called Ravan, picks up his babe Sita and lures her away to his hood. And boy, was our man, and also his bro, Laxman, pissed… all the gods were with him… So anyways, you don’t mess with gods. So, Ram, and his bro get an army of monkeys… Dude, don’t ask me how they trained the damn monkeys… just go along with me, ok…

So, Ram, Lax and their monkeys whip this gangsta’s A*s in his own hood… Anyways, by this time, their time’s up in the forest… and anyways… it gets kinda boring, you know… no TV or malls or shit like that. So, they decided to hitch a ride back home… and when the people realize that our dude, his bro and the wife are back home… they thought, well, you know, at least they deserve something nice… and they didn’t have any bars or clubs in those days… so they couldn’t take them out for a drink, so they, like, decided to smoke and shit… and since they also had some lamps, they lit the lamps also…so it was pretty cooool… you know with all those fireworks… Really, they even had some local band play along with the fireworks… and you know, what, dude, that was the very first, no kidding.., that was the very first music-synchronized fireworks… you know, like the 4th of July stuff, but just, more cooler and stuff, you know. And, so dude, that was how, like, this festival started.”

अब ये प्रगतिशील जीव नागपुर को इस वाली ‘तहज़ीब’ के मर जाने की कहानी बताना शुरु हो जाएंगे ! क्या इनकी एक भी बात स्वीकार करने योग्य है, इनके लिखे इतिहास सहित?

तथाकथित ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण का दम भरने वाले ये किताबी इतिहासकार राष्ट्र-द्वेष को तथ्यात्मकता का नाम देकर जो इतिहास बुनते हैं वह भारतीय जीवन-पद्धति में छिद्रान्वेषण की बदनीयती पर आधारित रहता  है. कहने वाले इनके लिए हज़ारों वर्ष पहले सुभाषित कह गए हैं : “अति रमणीय काव्ये पिशुनो दूषण मन्वेष्यति। अति रमणीये वपुषि व्रणमिव मक्षिका निकर:।।“  — दुष्ट लोग सब तरह से सुंदर काव्य-रचना में केवल दोष ढूँढते हैं, ठीक वैसे जैसे मक्खियों का झुण्ड अत्यन्त सुंदर शरीर पर भी केवल ज़ख्म तलाश करता है !

इनका यह गिरोह जो ‘प्रगतिशीलता’ भिनभिनाता है वह ऐसी है जैसे कोई अपने अत्याधुनिक और महँगे स्मार्ट फ़ोन की स्क्रीन और सेल्फ़ी-कैमरे को शेव बनाने के लिए मिरर की तरह इस्तेमाल करता हो !

अयोध्या किसी तरह की तथाकथित तहज़ीब के मरने की कहानी नहीं, भारत के वास्तविक इतिहास को गुमराह होने से बचाने के प्रयास का नाम है.

24-12-2018

Sabrimala-2


In my Hindi post on ‘Sabrimala’ I, not a student of science, was going purely by intuition. I am firm in my opinion that in advocating ‘equality’ of women we only drag them down from their much higher platform. I beg to reiterate in Indian (Hindu) way of life this call for ‘equality’ found its berth only after western invasions. Everything Indian was so much out of the invaders’ mental and psychological grasp, and cognizance also, that they ultimately acknowledged us as ‘backward’ and ‘contemptible’.

Once they lived here, many of them simply fell in love with us. Jim Corbett the hunter was one such soul.

Famous for his book ‘Man-eaters of Kumaon’ Jim Corbett had written another book which he affectionately titled “My India”. He dedicated this book to millions of Indians about whom he observed – “In my India, the India I know, there are four hundred million people, ninety percent of whom are simple, honest, brave, loyal, hard-working souls whose daily prayer to God, and to whatever Government is in power, is to give them security of life and of property to enable them to enjoy the fruits of their labours.”

This observation of Corbett’s about Indians was in 20th century! We can perceive the values Indians (Hindus) breathed in 8th century or prior when by and large these invasions increased in frequency. Nonetheless, Jim Corbett’s comment about us explains why we never bothered ourselves to resist and dismiss ‘alien’ dominance in life, thought and culture.

The womenfolk as an ‘oppressed’ class is initially a western concept, not a Hindu view, which has its origins in ‘The Bible’ itself – “….But I would have you know, that the head of every man is Christ; and the head of the woman is the man…..For the man is not of the woman; but the woman of the man, for neither was the man created for the woman; but the woman for the man….” etc. (New Testament)

There is an Arab saying: “Beat your woman every morning. If you don’t know why, she does.”

Here in India, before these invaders laid their feet on our land, ‘Manusmriti’ had said thus thousands of years ago about women: “यथैव आत्मा तथा पुत्र:  पुत्रेण दुहिता  समा । तस्यां आत्मनि तिष्ठन्त्यां कथं अन्यं धनं हरेत ।।“ …” As is the self, so is the son. So is the daughter equal to a son. When the daughter, who is oneself, exists, who else could inherit  the  estate?” (9:130).

Not only this, Sir Jagdish Chandra Bose, proved life in plants through his researches in biophysics. His major contribution was the demonstration of the electrical nature of the conduction of various stimuli, such as wounds, chemical agents etc. in plants.

The ‘Manusmriti’ had observed thousands of years ago like this: गुच्च गुल्मं  तु विविधं अन्त:संज्ञा भवन्त्येते सुख दुःख समन्विता” … “Various plants, creepers and grasses possess internal consciousness and experience pleasure and pain.” (1.48-49)

The western opinion makers don’t spare even their own, distortion being another name of ‘intelligence’ for them. Friedrich Nietzsche, who had understood the worth of “Manusmriti” was branded a Nazi. Nobody cared to ascertain that in 1901, a year after Friedrich’s death, Elisabeth Forster-Nietzsche, his sister, published ‘The Will to Power’, the re-structured version of his hasty compilation of writings he had never intended for print. Hitler liked the book and also rewarded her after his rise to power. It was Elisa, being a Nazi, who created the most destructive myth of all: Nietzsche as the godfather of fascism!

One wonders, (if not, one should), the urgency western cultures felt to disgrace us was never felt for a review of their own disposition!

Hindu organizations in south India have felt hurt due to the Supreme Court’s decision to allow women to visit the Sabarimala temple in Kerala. Traditionally women aged 10 to 50 were prevented from entering the temple because Lord Ayyappa, the deity of the Sabarimala temple, is a bachelor (Naishtika Brahmachari), and their faith tells them the presence of young women would ‘disturb’ the deity. Hindu women devotees have expressed anger at the court’s decision. They insist they do not wish to enter the Sabarimala temple violating the ancient traditions of the temple.

Tradition and faith apart, Dr. Nisha Pillai, an Indian-American cardiologist has scientifically explained why menstruating women should not enter Hindu temples. Dr. Pillai, who was born in Kerala and obtained her medical degree from Kottayam Medical College, completed her medical residency and fellowship in New York, and is a cardiologist at the reputed Long Island Jewish Medical Center in New York. Using her extensive scientific knowledge and expertise in modern medicine, Dr. Pillai explains very clearly the scientific reasons why women were not allowed to enter Hindu temples, and she also points out the deficiencies of modern science and modern medicine.

The remaining portion of this article belongs entirely to Dr. Nisha Pillai (courtesy “Kerala Media”) because it contains the key scientific principles highlighted by Dr. Pillai. The words are exactly as spoken by her.

Quote:

“As someone working in the medical field for 25-30 years I wanted to give a scientific explanation on why women should not enter the temple during menstruation.

“Unlike other religions’ places of worship which are prayer halls, Hindu temples are situated within a magnetic field. We construct and consecrate the Hindu temple in an area with high magnetic field.

“When a Priest (thanthri) consecrates a Hindu temple, a life force is transferred from the priest to the idol in the temple, and this life force is expanded and the place becomes an ethereal environment.

“The body has different levels of existence, which modern science has not understood, and that has caused several misconceptions in society.

“Just as this mobile phone has hardware, software, and battery, we also have a body, we have our mind, and we have an energy body.

“The biggest deficiency of modern medicine is that it is a structural science. Its understanding is limited to the hardware of the body. If you ask physicians like me who practice modern medicine, we don’t have a good explanation to how the mind works.

“Prana or life force is an energy body that works through the 72,000 nerves (nadis) in our body which go parallel to our nervous system.

“There are 7 plexus in our body or “Chakras” similar to the neural plexus. In every person, there is a basic life force that resides in our “Mooladhaara” or anal plexus.

“If you go above it (anal plexus), that’s where our survival or fighting instinct is based. Above that and near the celiac plexus is where our business instinct is based.

“The life force in each person is at a different level.

“We go to the (Hindu) temple so that we can raise our energy from its lower level to progressively higher levels to universal awareness. This is the concept of spirituality in Hinduism (Sanatana Dharma).

“Spirituality is the process by which we raise the energy in our lower level to the next level, step by step, to grow into universal awareness.

“Temples (Hindu) move our life force in an upward direction.

“There are five “Prana Vayu” (life forces or vital air) in the body. These are Prana, Samana, Apana, Vyana, and Udana. There are also upa-vayu (sub-life forces) like ‘Prasuti-vayu’, the vital air responsible for child birth.

“Prasuti-vayu” is situated in the uterus and the female genital organs. It creates a negative force, a downward force, when a woman is menstruating.

“The downward force of the “Prasuti-vayu” is very strong when a woman is pregnant, that is how the head of the baby in the womb comes down by the 8th month of pregnancy.

“Menstruating women should not go to temples because they experience a downward force in their body, while the temple pulls our life force upwards. So it may cause the menstrual blood to go back into the body in the opposite direction, or may cause the tubes in the uterus to become closed, which could lead to infertility or endometriosis.

“Lord Ayyappa (deity of the Sabarimala temple), a form of Sastha, is a celibate, and in the Sabarimala temple his idol is seated in the yoga pose called ‘Yogapattasana’, which is favorable to celibacy.

“In everyone of us there is a male form (bhava) and a female form. Every person is partly male and partly female in our thinking and in our existential level.

“In this century whatever is needed for our spiritual development is provided by Lord Ayyappa.

“We have to observe 41 days of “Mandala Kaalam” (vow of austerity) before we go to Sabarimala temple. This is because our body needs 21 days to complete a cell- renewal cycle. When we take a vow of austerity during the 41 days of “Mandala Kaalam”, our body goes through two complete cell regeneration cycles, which change our thoughts and mind.

“Women are not able to observe the vow of austerity for 41 days because it is not good for them to experience positive energy or northward energy when they have “Prasuti-vayu” which creates a negative or downward force. So women are excluded from observing penance.

“Lord Ayyappa does not think that it is impure for women to come to the Sabarimala temple. Women are asked to stay away from the Ayyappa temple to protect their own health.

“A devotee’s body and mind need to be pure if you are to step on the ‘Srichakra’ and go to the Sabarimala temple, for which you need to undergo penance for the 41 days of the “Mandala Kaalam”. Women are asked not to go to the temple because we cannot do the 41 days penance, so we have no right to step on the ‘Srichakra’ in the temple. Will you knowingly step on a buried time bomb? If we go to the temple during the menstruation, the Prana Vayu (life form) active in our body will take its negative form and hurt us. Our problem is that many people don’t have this information. All this is very scientific.” Unquote.

Unable to match our merit, also completely incompetent to comprehend our stature, the foreign invaders only contrived to humiliate us!

This continues at the hands of modern-day educated Indians too! We have to be aware of this deceit.

24-11-2018

Deepavali


मेरे एक मित्र हैं “रँगीले ठाकुर”. एकदम राजा आदमी हैं. इसलिए मैं उन्हें ‘राजा सा’ब’ कहकर ही सम्बोधन करता हूँ. वह क्रिया-योगी भी हैं, संगीतज्ञ भी, और धर्मतत्त्व के ज्ञाता भी.

इस दीपावली पर राजा सा’ब ने सोशल मीडिया पर मेरा अभिवादन तो स्वीकार कर लिया, मगर साथ ही एक प्रश्न भी उठा दिया. उन्होंने कहा, दीवाली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान अब तो एक formality होकर रह गया है. समझना मुश्किल है कि दीपावली को कैसे देखा जाये!

वैसे तो राजा सा’ब! मुझे ज़्यादा कुछ पता-वता है नहीं, मगर थोड़ा सिरफिरा ज़रूर हूँ. आप मेरी छोटी सी ‘समझदानी’ के प्रति प्रेमवश मुझे और-और विचार करने का अवसर प्रदान करते हैं, अतः आभारी होकर कुछ कहने का प्रयास करता हूँ.

एक दीपावली ही क्या, पूरे का पूरा हमारा जीवन-धर्म ही एक formality बनाकर रख दिया गया है! यह सिलसिला आठवीं शताब्दी के बाद से शुरु हुआ जब यवन और म्लेच्छों के आक्रमण बहुत बढ़ गये और हमारे इतिहास को केवल कुरीतियों वाले समाज की गाथा के रूप में लिख दिया गया. बुद्ध, महावीर, सम्राट् अशोक, चाणक्य-चंद्रगुप्त, वैशाली गणराज्य, मगध, नालंदा, विजयनगरम्, चोल, पालव, चेर और पाण्ड्य राजवंशों वाले भारत में किसी भी प्रकार के दारिद्र्य, अंधविश्वास, कुरीति, अभाव, सामाजिक अन्याय आदि की परिकल्पना कर पायेंगे आप?

आगे बढ़ने के पहले ज़रा ‘कुरीति’ और बाहरी आक्रमणकारियों के इस रिश्ते को समझ लिया जाये.

गाँव में लड़की की शादी पूरे गाँव की बेटी की शादी मानी जाती थी. सभी मिलकर पूरा प्रबंध देख लिया करते थे. मुख्य (कच्ची) सड़क से शादी वाले घर तक बारात के आने के लिए साफ़-सफ़ाई, छिड़काव वगैरह किसी ने संभाल लिया, खाने का बंदोबस्त किसी ने, बारात के ठहरने, सुख-सुविधा का प्रबंध किसी ने. गाँव के ग़रीब से ग़रीब घर में शादी का ख़र्च कैसे निकल आया, पता तक न चलता था. हौले से यह सामुदायिक व्यवस्था कैसे दहेज़-प्रथा बन गई, ख़बर तक न हुई. सामाजिक बुराई का ठप्पा और लग गया! बाहरी प्रभाव में धीरे-धीरे nuclear families जो बन चलीं थीं! यहाँ तक कि न कोई बुलाना चाहे, न कोई जाना चाहे. फिर भी मंहगे-मंहगे गिफ़्ट के पैकेट देना हर individual की सामाजिक ‘शिष्टता’ हो गयी और शादी का पूरा बोझ उठाना उस अकेले परिवार की ज़िम्मेदारी.

ख़ुद ही फैसला कर लीजिये, यह सामाजिक बुराई है, या वह सामुदायिक भाव जिसपर ‘दहेज़’ का लेबल चिपका दिया गया था?

सती. सती? हाँ-भई-हाँ सती!

गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘आक्रोश’ याद है? 1980 में बनी इस फ़िल्म में ग़रीब किसान (ओम पुरी) की पत्नी (स्मिता पाटिल) जमींदार के गुर्गे द्वारा रेप का शिकार होकर आत्महत्या करती है, लेकिन हत्या के इल्ज़ाम में फँसा दिया जाता है ख़ुद ग़रीब किसान को. किसान के पिता की मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए पुलिस किसान को लाती है. जवानी की दहलीज़ में कदम रख रही अपनी बहन पर जमींदार के उसी गुर्गे की लोलुप नज़र देखकर वह किसान कुल्हाड़ी उठाकर अपनी बहन की हत्या कर देता है.

इस फ़िल्म को ‘गोल्डन ग्लोब’ पुरस्कार दिया गया.

बाहरी आततायियों और उनके उनके गुर्गों की लोलुपता की आए दिन होती घटनाओं के कारण उनसे अपने घर की युवा विधवा को बचाने के लिए कुछ परिवारों ने जब यही ‘आक्रोश’ अपनाया तो उसे ‘सती-प्रथा’ का ‘कीचड़-ग्लोब’ दे दिया गया! अलाउद्दीन खिलजी के सामने यही आक्रोश देवी पद्मावती ने दिखाया था! केवल सती-प्रथा के उदाहरण लें तो भी इतिहास साक्षी है कि करोड़ों के समाज में सती की नौ सौ के लगभग घटनायें हुई नहीं कि हिन्दू समाज ने इस बुराई के विरुद्ध कानून के आने का रास्ता खाली कर दिया था!

मुद्दा यह है कि सामाजिक बुराई का ठप्पा हिन्दू-समाज पर लगाना आसान था इसलिए ‘कर्त्तव्य’ की इतिश्री कर ली गई. क्योंकि यही ‘बाहरी’, ‘आततायी’, ‘आक्रांता’, ‘म्लेच्छ’ जैसे शब्दों से आँख चुराने का भी रास्ता था! ये सब शब्द-सत्य बोलने पड़ेंगे इस से तो अच्छा है कि हिन्दू-समाज को ही कुरीतियों वाली क़ौम घोषित कर दिया जाये! इन तथ्यों को बुहार फेंकना भारत को पद-दलित करते चले जाने के लिए ज़रूरी भी था.

सामाजिक बुराई या षड्यंत्र? स्वयं तौल लीजिये.

‘महाभारत’ के द्रोण के जीवन में था कि पुत्र अश्वत्थामा को पिलाने के लिए उनके पास दूध तक नहीं होता था. आचार्य की पत्नी को दूध के नाम पर आटा घोलकर पुत्र को बहलाना पड़ता था. यह स्थिति एकलव्य के जीवन में नहीं थी.

जैसाकि मैंने पहले भी निवेदन किया था, मुझे संयोगवश यह सौभाग्य मिला जो मैं आदिवासी जीवन के बीच जा पाया. अधिक नहीं, बहुत थोड़ा. फिर भी इतना कि पढ़ने योग्य पाठ पढ़ आऊँ. मैंने पाया कि आज भी किसी आदिवासी के यहाँ दस लोग मेहमान बनकर चले जायें तो वह परिवार आग्रहपूर्वक उन्हें भोजन करवाएगा, तभी जाने देगा. इससे उस परिवार पर कोई आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता. इधर हम पढ़े-लिखों को कभी एक बार चार लोगों को खाने पर बुलाना पड़े तो हमारा महीने भर का बजट गड़बड़ा जाता है. यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि आदिवासी समस्याओं से मुक्त जीवन जी रहे हैं. मगर ध्यान रहे कि जितनी गड़बड़ समस्याओं की मौजूदगी में है, उससे कहीं ज़्यादा घोटाला समस्या को मापने के पैमाने में है.

रह जाती है बात कि द्रोणाचार्य ने क्यों एकलव्य को धनुर्विद्या नहीं सिखलायी.

सिखलाने-न सिखलाने से क्या होता? एकलव्य तो द्रोण की मिट्टी की मूर्त्ति मात्र के सामने अभ्यास करके निपुण हो गया था. बात थी हस्तिनापुर के राजपरिवार को द्रोण द्वारा दिये गए वचन की रक्षा की. इसका जाति से क्या संबंध था?

गुरु-दक्षिणा में आचार्य ने एकलव्य से जो माँगा वह और भी विचित्र है; और उसका प्रचलित narrative उससे कहीं बढ़कर अजीब!

गुरु द्रोण ने कहा गुरु-दक्षिणा में मुझे केवल एक चीज़ चाहिये — यह वचन कि तुम राज्य की किसी स्पर्धा में भाग नहीं लोगे. न ही युद्ध होने पर किसी भी पक्ष की ओर से लड़ोगे.

परीक्षाओं में से सफलता पूर्वक गुज़रने के बाद हर युवक का स्वप्न होता है स्पर्धा में उतरे और स्वयं को सिद्ध करे. बात तीरन्दाज़ी की हो तो अपनी धाक जमाने का अवसर युद्ध से बढ़कर और कहाँ मिलेगा?

एकलव्य को लगा इस दक्षिणा में तो आचार्य ने जैसे मेरा अँगूठा ही माँग लिया है!

महाभारत में यह प्रसंग इस तरह है. मगर उसका प्रचार जिस तरह है, हम सबको उसी तरह मालूम है!

एकलव्य के प्रसंग को कैसे-कैसे हमें शर्मिंदा करने के लिए इस्तेमाल किया गया है!

फिर सोचिये, सामाजिक बुराई या षड्यंत्र?

उस डॉक्टर का किस्सा सुना है जिसके पास से पेट-दर्द ठीक करने की दवा ले जाते हुए मरीज़ ने आश्वस्त होना चाहा, “पेटदर्द ठीक तो हो जाएगा न डॉक्टर साहब?”

डॉक्टर ने कहा, “ पेटदर्द का तो पता नहीं, सिरदर्द ज़रूर शुरू हो जाएगा. तब मेरे पास आना.”

मरीज़ चकराया. “सिरदर्द क्यों?”

डॉक्टर साहब ने बताया, “क्योंकि मैं सिर्फ़ सिरदर्द का इलाज जानता हूँ.”

‘सामाजिक बुराइयाँ’ वास्तव में हैं या केवल इसलिए कि बाहर से आए विजेता बस ऐसे ही ‘सिरदर्द’ से परिचित थे! इतिहास की तोड़-मरोड़ academic dishonesty और धंधा नहीं तो और क्या थी?

जबकि सच यह साक्षात दीख पड़ रहा है कि भारत एक उत्सव-प्रिय देश है. ‘उत्सव’ का अर्थ केवल festivities नहीं है. ‘उत्सव’ यानी निरंतर अभ्युदय और उन्नति!

अरब देशों में एक लोक-विश्वास प्रचलित है कि जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तो अल्लाह आकर उसके कान में कहता है, “मैंने तेरे जैसा एक तू ही बनाया है”.

पूरी पश्चिमी सभ्यता का यह आधारभूत विचार है. सब तरह के अभावों में जीने वालों को इसी से आत्मविश्वास मिलता है. ‘मैं श्रेष्ठतम हूँ’ के आचरण की यह psychological background है!

यहाँ से शुरु होती है ‘happy birthday’ वाली formality-संस्कृति! आठवीं सदी के बाद का भारत निरंतर पतन की कहानी इसलिए है कि formality में श्रेष्ठ होने वालों को वास्तविक श्रेष्ठता का कुछ भी आभास नहीं था. वे लूट और हत्या के दानवी बल को ‘श्रेष्ठता’ का पर्याय मानते रहे.

अत्यंत संवेदनशील भारतीय जीवन शैली प्रकृति की हर नज़ाकत से identify करने के कारण कभी विश्वास न कर पायी कि ‘मनुष्य’ जैसे दिखने वाले ये आततायी ‘संस्कृति-विहीन’ हैं. इसलिए हमारा-उनका interaction कुछ ऐसा हुआ जैसे अभी-अभी उगी दूब के ऊपर से फ़ौजी बूट गुज़र गये हों! यही interaction हमारी पराजयों की कहानी हो गया.

तभी मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि तलवार आत्मा को नहीं काट सकती, मगर गर्दन आत्मा नहीं है, इसलिए उसे काटती आ रही है!

इस हिंसा से बढ़कर formality-culture ने हमारा नुकसान यह कर दिया कि हमारी उत्सव-प्रियता जो अहंकार के समर्पण का अवसर हुआ करती थी, अहंकार को पुष्ट करने वाली औपचारिकता होकर रह गयी! आज हर भारतीय यह सिद्ध करने में लगा है कि मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ, क्योंकि मैं ज़्यादा मँहगा दीवाली-गिफ़्ट दे रहा हूँ! मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि देखो, मैंने कितना intelligent ‘Happy Birthday’ भेजा है. मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मैं हर तरह का दिखावा तुमसे ज़्यादा होशियारी और चालाकी से कर लेता हूँ!

इस formality-संस्कृति को ठीक से समझने के बाद हमें दीपावली पर बात करना आसान हो जाता है.

उत्सव-प्रिय अर्थात् अभ्युदय-प्रिय हम लोग वे हैं जो बचपन से ही ‘ईश्वर’ के साथ खेलकर बड़े होते हैं. हमने (ऋषि भृगु ने) इस ईश्वर की छाती पर लात मार दी तो भगवान् विष्णु उसका निशान आज तक वक्ष पर सँजोये घूम रहे हैं! हमने बैठने को एक ईंट विट्ठल के सामने डाल दी (पुंडलीक ने) तो नारायण आज तक उस ईंट पर एक पाँव से खड़े हैं! हमने अपने इस खिलंदड़े साथी ‘ईश्वर’ का हाथ छोड़ देने के बजाय विष का प्याला पी लिया (मीराँ ने) तो उसका ‘विषैलापन’ पतली गली से निकल लिया!

ऐसी सब घटनायें गिनाने लगेंगे तो और चार ‘वेद’ लिख दिए जायेंगे!

हमारी जीवन शैली में कुछ भी formal नहीं, है तो बस real है! ख़ुदा को आकर हमारे कान में कहना नहीं पड़ता ‘तेरे जैसा एक ही बनाया’. उसे मालूम है कि हम हाथ ही उस ख़ुदा का पकड़ते हैं जो बस ‘एक’ है!

दीपावली को हम प्रायः वैष्णव त्योहार मानते हैं और इस दिन श्रीराम के अयोध्या लौट आने को celebrate करते हैं.

श्रीराम अयोध्या से इसलिए निकले थे ताकि महाराज दशरथ को श्रवण-वध का कर्म हो जाने से पुत्र-वियोग में देह-मुक्त होने को मिले. उधर रावण को ब्राह्मणों का माँस ऋषियों को खिला देने के ‘कर्म’ से केवल नारायण ही मुक्त कर सकते थे, इसलिए तमाम खटकर्म हुए. श्रीराम का अयोध्या लौट आना कर्म-चक्र के निरंतर घूमते रहने का सबक है, इसलिए दीपावली है. इससे कर्म-गति याद रहती है, हम अहंकार का विसर्जन करते हैं और formality- संस्कृति से खुद को बचाकर ego को solidify नहीं होने देते.

एक बार भगवान् शिव के एक गण ने, जिसका नाम था प्रमथ, भगवान् केदारेश्वर की प्रदक्षिणा की जिसमें माता पार्वती को छोड़ दिया. देवी अप्रसन्न हुईं और भगवान् शिव से इस उपेक्षा का कारण जानना चाहा. भोलेनाथ ने बताया कि हे देवी! तुम्हारे पास वह शक्ति नहीं है जो ‘आशुतोष’ होने से मिलती है. इस कारण ऐसा हुआ.

देवी का समाधान नहीं हुआ और उन्होंने ऋषि गौतम से निदान पूछा. ऋषिवर ने उन्हें केदारेश्वर व्रत करने का परामर्श दिया. इस अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले वरदान के रूप में माता पार्वती ने भगवान् शिव के वामांग में उनके शरीर का आधा भाग हो जाना माँगा. इस प्रकार भगवान् केदार ‘अर्धनारीश्वर’ हुए, जिन्हें तंत्र में ‘सदाशिव’ कहा गया है.

दक्षिण भारत में यह त्योहार ‘केदार-गौरी’ व्रत के रूप में मनाया जाता है जिसे ‘दीपावली’ कहते हैं. गाय की पूजा इस व्रत का प्रमुख अंग है.

आप किसी भी तरह देखिये, गोमाता भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का आधार ठहरती है.

दीपावली एक शैव त्योहार भी है.

हमारे शरीर का जो हिस्सा मेरुदंड का सबसे ऊपरी हिस्सा है, ब्रह्मरंध्र के ठीक नीचे, जिसे medulla oblongata कहा जाता है शिव-धनुष है. हमारी कुंडलिनी जब इसे भेदकर ब्रह्मरंध्र तक पहुँचती है तो ‘शिवधनुष’ टूटता है. केवल परमहंस योगी साक्षी हैं कि ‘शिवधनुष’ के ‘भंग’ होने से जो ‘ध्वनि’ होती है वह तीनों लोक गुँजा देती है. यह क्षण हमारे पूरे अस्तित्व के आमूल-चूल कायाकल्प का जो है!

इस प्रकार दीपावली योग-विद्या का भी त्योहार है. यह पर्व Law of Karma, योग-विद्या और नित्य-नैमित्तिक जीवन के निरंतर अभ्युदय का समन्वय करता है.

एक ओर हम दीप प्रज्ज्वलित करके घोषणा करते हैं – “दीपज्योतिः परंब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ; दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते” (वाग्भूषण) — दीपक का प्रकाश सर्वोच्च ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करता है; (ब्रह्मांड के स्वामी) जनार्दन का भी प्रतिनिधित्व करता है; (प्रार्थना है कि) इस दीपक का प्रकाश हमारे पापों का हरण करे! मैं इस प्रकाश (जीवनदाता) को अभिवादन करता हूँ.”

दूसरी ओर, इस दिन हम जीवन को सम्पन्न बनाने के लिए विनय भी करते हैं – “चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह” (श्रीसूक्त) — हे जातवेद (सर्वज्ञ अग्निदेव) चन्द्रवत् प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करो!

दीपावली इसलिए हमारा सबसे बड़ा उत्सव है.

भ्रामक आधुनिकता के फेर में हमने क्या-क्या गँवा दिया है, यह उसका एक छोटा-सा reminder है.

शुभमस्तु!

07-11-2018

We, the People


लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं — Legislature (विधायिका), Executive (कार्यपालिका) और Judiciary (न्यायपालिका). मीडिया चौथा स्तंभ कहा गया है.

इनके अतिरिक्त भारत के राष्ट्रपति की ओर से कार्य करने वाले अनेक संवैधानिक पद व संस्थाएं हैं – उप-राष्ट्रपति हैं, चुनाव आयोग है, रिज़र्व बैंक, सी.बी.आई., महालेखाकार आदि हैं जो हमारे देश की शासन-व्यवस्था को चलाने का काम करने के लिए हैं.

इनमें से विधायिका का हिसाब हम हर पाँच साल में लिया करते हैं. कुछ इस तरह जैसे चौपड़ खेल रहे हों. पहले जब पाँसे फेंके थे तो सामने वाला जीत गया था. इस बार ऐसे पाँसे फेंकेंगे कि बगल वाला जीते! फिर पीठ पीछे वाले को भी मौका मिलना चाहिए! इस तरह खेल में सब कुछ मनमाना होकर रह जाता है और अपने पीछे अनुशासनहीनता की एक लंबी लकीर बनाता चलता है!

चौथे स्तम्भ यानी मीडिया के लिए इतना कहना पर्याप्त है कि इसे अब तक का सबसे अच्छा कॉम्प्लीमेन्ट किसी ने दिया है तो यह कहने वाले ने कि अगर सब मीडिया, टी.वी., रेडियो, अख़बार वगैरह बंद कर दिये जाएं तो हमारी 50% समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी! टी.वी. के रूप में visual media के छा जाने को देखते हुए क्या यह उचित समय नहीं कि ‘चौथे स्तम्भ’ का तमगा अब पत्रकारिता की यूनिफ़ार्म से उतारकर, सिनेमा को दे दिया जाये? न्यूज़ मीडिया जिन मुद्दों को गुड़ की तरह पीट-पीटकर रेवड़ियाँ बनाता रहता है, सिनेमा ने उन्हीं बातों को अधिक प्रभावी ढंग से जन-सामान्य तक पहुंचाने का काम कर दिखाया है.

अब आते हैं कार्यपालिका अर्थात् Civil Services पर. इनमें प्रमुख सेवायें हैं IAS, IFS (विदेश सेवा), IPS और IRS (इन्कम टैक्स आदि).

IAS-IFS के अधिकारी क्या-क्या करते हैं, कैसे प्रशासन में भयंकर ज़मींदारी चलाते हैं, हर तरह के corruption के मूल लिपिक होते हैं, सब जानते हैं.

IPS वाले पुलिस अधिकारी भी क्या नहीं कर गुज़रते, थोड़ा बहुत हम जानते ही हैं.

किसी ने खोज-बीन की थी कि CRPF आदि सुरक्षा फ़ोर्स के जवान नक्सलियों के हाथ क्यों बड़ी संख्या में मरते हैं? पता चला, क्योंकि उनके DG आदि अधिकारी IPS cadre से आते हैं!

पूछे कोई कि सेना या मिलिटरी इंटेलिजेंस से क्यों नहीं आते?

CBI के अंदरूनी झगड़े का सारा किस्सा Civil Services की पड़ताल करने का अवसर है.

इन IPS और IAS अधिकारियों को कंगारू की तरह छलाँगें लगाती महत्वाकांक्षा किसने थमायी है? और क्यों? इन्हें रिटायर होने की उम्र तक झेलने और खेलने देने के बाद CRPF में, सीबीआई में; IAS है तो CAT या UPSC में या कहीं भी नियुक्त करने की आख़िर क्या मजबूरी है? रिटायरमेंट के बाद पेंशन पकड़ाने के साथ पूरी ‘नमस्ते’ क्यों नहीं? महत्त्वाकांक्षा की मेंढक-कूद बंद होगी तो ताज़िंदगी मूँछ पर ताव देने का इनका अंदाज़ भी बदल जाएगा!

देश के सचिव नहीं जानते देश क्या है. विदेश सचिव नहीं जानते हमारी राष्ट्रीय अस्मिता क्या है और दूसरे देश में कैसा भारत project करना है. IPS अधिकारी नहीं जानते देश के अलग-अलग हिस्सों में ज़मीनी हकीकत क्या है.

पर देश को चलाते हैं!

राम-मन्दिर पर चर्चा – फ़ैसले को नहीं, केवल चर्चा को टालने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से न्यायपालिका पर भी थोड़ी बात होनी चाहिए.

साथ ही कुछ और बातें भी जो सवालों के घेरे में हैं. मसलन सरदार पटेल.

इसलिए आर.के. लक्ष्मण की कार्टून-माला ‘You Said It’ के बाबूजी की तरफ़ से आज दो-टूक हो ही जाये!

किसी का अपमान करने या बुरा लगाने के लिए नहीं. बन गए Perceptions की थाली को हिला-हिलाकर एक सही pattern उकेरने के लिए. कितनी भी कड़वी लगें, नीम की पत्तियाँ चबाने-चबवाने का अवसर है. पेट की व्यर्थ खुद-बुद बंद हो जाएगी!

सबसे पहले यह निवेदन कि देश कोरी क्लर्क-बुद्धि से नहीं चलता. अधिकांश में ऋषि-चेतना से चलता है, चलना चाहिये.

कुछ लोग बुरा मान जाते हैं. तब उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि ‘क्लर्क’ किसी नौकरी या पोस्ट या बाबूगीरी का नाम नहीं है. बड़े-बड़े वकील, IAS अधिकारी, कोर्ट के जज, पत्रकार आदि क्लर्क-बुद्धि से काम चलाते हैं — नियमानुसार. नियमों से ही अनुशासन है.

नियमों के लिए अतिरिक्त आग्रह (और अकड़) क्लर्क-बुद्धि है.

क्लर्क-बुद्धि एक स्वभाव है.

ऋषि-चेतना इस देश का lifestyle है.

जीवन — राष्ट्रों का भी जीवन — हवाई अड्डे की airstrip जैसा सीधा-सपाट न होकर zig zag होता है. आड़ा-तिरछा चलता है. नियम की किताब देख-देखकर कार चलाने वाले का किसी तिरछे मोड़ पर एक्सिडेंट पक्का है!

एक नौजवान को किसी क्लब में दरबान की नौकरी मिल गई. इसके पहले वह कोर्ट में चपरासी था. लिहाज़ा नौकरी पर आने के पहले पूछ लिया क्लब के क्या-क्या नियम हैं. उन्होंने उसे Rules & Regulations की किताब पकड़ा दी. रात भर बैठकर उसने पूरी पढ़ डाली और अपनी नौकरी करने में चाक-चौबंद हो गया. ऐसा हो गया जिसे कहते हैं — ‘very competent’!

दूसरे दिन डूयूटी पर जा पहुँचा.

क्लब में प्रवेश के लिए जो सज्जन आये उन्हें सलाम ठोंका, कार्ड देखा और बताया, “ठीक है, आप अंदर जा सकते हैं. मगर अपना छाता कृपया बाहर ही छोड़ जाइये.”

आगन्तुक ने कहा, “मगर मेरे पास तो छाता है ही नहीं.”

दरबान ने बताया, “तब तो आप वापिस जाइये, छाता लेकर आइये, बाहर छोड़िये, और अन्दर प्रवेश कीजिए. हमारे कानून में ‘Other Priorities’ के नीचे साफ़ लिखा है कि मेम्बरान को छाता बाहर छोड़ कर ही अन्दर जाना मिलेगा.”

चीफ़ जस्टिस ने साफ़ कह दिया कि राम-मंदिर पर सुनवाई में कोई जल्दी नहीं. We have other priorities.

बात और ढाई-तीन महीने की होती तब भी असह्य और अनादर-भरी थी. मगर ढाई महीने बाद तो यह तय होगा कि कैसे सुनवाई होगी, कौन करेगा और कब-कब करेगा. मतलब कि चार-छह साल और निकाले जा सकते हैं!

इतना तिरस्कार!

यह भी मतलब साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट के वचन का भरोसा करना व्यर्थ है. पहले रोज़ सुनवाई का निर्णय दिया था जो अकारथ था! क्योंकि अब मुकर गये हैं. आगे जब और जो होगा तब और सो होगा!

इस फ़ैसले से देश के करोड़ों लोग ख़ुश हो गये. साथ ही इन करोड़ों से कहीं ज़्यादा करोड़ों की संख्या में लोग अप्रसन्न हो गये.

एक चीफ़ जस्टिस आते हैं, चन्द मिनट भी बात नहीं सुनते, पहले से जो मन बनाकर आये हैं उसके अनुसार कह देते हैं ‘We have other priorities’.

मध्यमा उँगली को अँगूठे पर रखा और करोड़ों-करोड़ भारतीयों को कंधे पर आ बैठे झींगुर की तरह एकबारगी झाड़ दिया!

यह दंभ की पराकाष्ठा थी या पहले वाले चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के प्रति घृणा की?

सुना है कि बड़े-बड़े जज निजी रुचि-अरुचि, जानकारी और मनोभावों से फ़ैसले नहीं लिया करते.

क्या यह बात सही है?

यह भी सुना है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अधीन है. स्वयं संविधान Preamble से परिचालित है. Preamble भी आरंभिक वाक्यांश — ‘We, the People….’ के अधीन है.

क्या यह बात सही है?

क्योंकि We, the People तो कंधे पर आ बैठा झींगुर सिद्ध हो रहे हैं!

श्रीराम हम ‘झींगुरों’ के हृदय पर जो एकच्छत्र राज करते आ रहे हैं उन्हें यह ‘छाता’ छोड़ देना पड़ेगा.

‘Other Priorities’ का नियम है!

इधर भूतपूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने एक नया शोशा छोड़ा, जिससे बहुत से मुस्लिम प्रवक्ता गला-फाड़ आवाज़ में सहमत हो रहे हैं.

अंसारी के अनुसार 1947 में देश के विभाजन के लिए हिंदू समान रूप से ज़िम्मेदार हैं. इसके लिए अंसारी ने सरदार पटेल के ऐसे वक्तव्य quote किये हैं जिनका लुब्बेलुबाब यह है कि मैं (पटेल) सब तरह विचार करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि देश का बँटवारा करना ही पड़ेगा.

अब ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सिर पर क्रेप की पट्टी लपेटकर इस पर बात करना चाहेंगे तो नहीं होगी, क्योंकि Secular का मतलब ही है कि सच कहने की छूट नहीं है!

विचारणीय है कि सरदार पटेल ने कितने ही वक्तव्य दिये हों, किसी भी वक्तव्य का यह अर्थ कहाँ निकलता है कि हिंदुओं का अलग देश बना दिया जाये? मुसलमानों का अलग देश तो मुसलमानों को ही चाहिये रहा था!

कांग्रेस के partition struggle में (गांधीजी को छोड़ कांग्रेस का कोई freedom struggle था ही नहीं! आज़ादी लाने में उसका कोई असर भी नहीं था!) पटेल के कहने का ज़्यादा से ज़्यादा मतलब यह निकलता है कि ये जिन्नाह-वादी जो गुर्राये चले जा रहे हैं उनके सामने टुकड़ा डालना ही पड़ेगा! सच तो यही है कि पाकिस्तान फेंका गया टुकड़ा ही था! कोई भी भारतीय, विशेषतः हिंदू, अपने ही देश के विभाजन के लिए राज़ी और ज़िम्मेदार कभी नहीं होगा. बस टुकड़ा फेंक कर मुँह झौंसने भर को राज़ी हो तो हो!

3 जनवरी, 1948 को कोलकाता की जनसभा को संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने अपने भाषण में जो बातें कही थीं उनमें से दो यहाँ उल्लेखनीय हैं. एक तो यह कहा था कि जाओ, राज़ी-खुशी आपको पाकिस्तान दिया. अब बनाओ अपना पाकिस्तान. दूसरी बात यह कही कि अब हिंदुस्तान में जो 4 करोड़ मुसलमान रह गए हैं, उनमें बहुत-से ऐसे हैं जिन्होंने पाकिस्तान के बनने में मदद की थी.

आज 4 करोड़ से बढ़कर आप बीस करोड़ हो गए हैं. इनमें वे लोग भी तो बढ़कर कम से कम 5 करोड़ हो गए होंगे, जिन्होंने पाकिस्तान के बनने में मदद की थी! हामिद अंसारी 10 वर्ष तक संवैधानिक पद पर रहने के बावजूद इन्हीं में से किसी परिवार के वंशज साबित हो रहे हैं!

सच यह भी है कि RSS एकमात्र संगठन था जो देश तोड़ने का घोर विरोधी था. पटेल ने जो ban वगैरह लगाये वे कांग्रेसी होने की मजबूरी से. इस तरह के ban लगा दिये जाने से RSS बुरा नहीं, अच्छा ही सिद्ध होता है! भले ही सरदार पटेल ने लगाए!!

अंसारी का यह कहना कि बँटवारे के लिए किसी को तो ज़िम्मेदार ठहराना था, इसलिए मुसलमानों को ठहरा दिया, एक typical मानसिकता का वक्तव्य है. इस बयान का अभिप्राय साफ़ है कि आजकल जो बहुत ‘हिंदू-हिंदू’ सुनायी पड़ रहा है तो मौक़ा है कि फिर अपना अलग देश मांग लो. ये हिंदू जो पहले भी ‘बराबर के ज़िम्मेदार’ थे, फिर बँटवारे को ‘राज़ी’ (मजबूर?) हो जायेंगे!

एक सच यह भी है कि उस हालत में हिंदू विभाजन के लिए बराबर के ज़िम्मेदार ठहराये जा सकते थे अगर सरदार पटेल ने 1947 में यहाँ रह गये मुसलमानों से यह कह दिया होता:

“चलिये, अब यह हिंदुस्तान हिंदुओं का और उधर मोमनिस्तान मुसलमानों का. आपने हमारा देश चुना, पाकिस्तान नहीं, बड़ी अच्छी बात है. आप सब मुसलमान यहाँ आराम से रहें, भले ही आप में से बहुत लोगों ने अलग पाकिस्तान के बनने में मदद की थी. यहाँ आपको सब civil rights मिलेंगे, हिंदुओं के बराबर. मगर आपको अब यहाँ कोई Political right नहीं होगा. आप न चुनाव लड़ सकेंगे, न आपको वोट डालने का हक़ होगा. अगर आपमें से किसी को लगता है कि देश के प्रशासन में मुसलमानों की भी say होनी चाहिये, तो आपने पाकिस्तान आपकी say के ही लिए माँगा था. आपको वहाँ जाकर अपने ढंग से प्रशासन चलाने की छूट है.”

ऐसा तो किसी ने कहा नहीं था. तो हिंदू विभाजन के लिए बराबर के ज़िम्मेदार कैसे हो गये? कहीं अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर कही जाती वही बात तो सच नहीं कि मुसलमान पहले एक देश में जाते हैं, फिर वहाँ अपनी संख्या बढ़ाते हैं, फिर शरीयत की मांग करते हैं, और अंत में अपना अलग देश मांग लेते हैं! इनका गुर्राना किसी तरह कम नहीं होता.

ठहरिये जनाब, बुरा मानने की इतनी जल्दी क्या है? अभी सच और भी है! मगर पहले उस आम मुसलमान की तरफ़ भी देख लीजिए जो सच्चे अर्थ में, पूरी नेकनीयत और ईमानदारी से ‘We, the People….’ का हिस्सा है और जो आप जैसों की नादानियों से सबसे ज़्यादा भुगत जाता है. यह वह हिन्दुस्तानी मुसलमान है जो सबके साथ मिलकर गणेशोत्सव, दुर्गा-पूजा, विजयदशमी के लिए मूर्त्तियाँ बनाता है, दीपावली के लिए दीये बनाता है, इस देश के ऋतुचक्र के अनुसार फ़सलें उगाता है, रसखान की कलम से कृष्ण-भक्ति का काव्य रचता है, दारा शिकोह बनकर फलों के राजा आम को संस्कृत में नाम देता है – ‘रसाल’, बड़े ग़ुलाम अली खाँ साहब के गले से गाता है – ‘हरि ओं तत्सत’, अब्दुल हमीद बनकर पाकिस्तान के टैंक नष्ट करता और ‘परमवीर चक्र’ से सज्जित होता है!

आप कहते हैं कि अब्दुल हमीद जैसे मुसलमान गिनाकर भी आप हिन्दू लोग हम मुसलमानों पर शक करते हैं! सो जनाब, आप तो अब्दुल हमीद नहीं हैं. आप अब्दुर्रहीम खानखाना भी नहीं, रसखान, दारा शिकोह, उस्ताद हाफिज़ अली खाँ या उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खाँ या उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ या उस्ताद अमजद अली खाँ भी नहीं हैं! ये सब तो बिना कहे हर हिन्दुस्तानी के लिए उतने आदरणीय और पूजनीय हो गए जितना घर का कोई बड़ा-बुज़ुर्ग होता है. अगर हिन्दू कहें ‘ईश्वर-अल्ला’ कहने वाला एक गाँधी हो तो गया, और क्या चाहिए, तो क्या आपके लिए काफ़ी होगा?

कौन कहता है कि हिंदुस्तान में मुसलमान नहीं चाहिएं? जो नहीं चाहिए वह है पाकिस्तान-मानसिकता! महत्त्व उन 15 करोड़ मुसलमानों का है जो सच्चे हिन्दुस्तानी हैं. आप 5 करोड़ (या इससे कम या इससे ज़्यादा) पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों का नहीं!

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘Nationalism’ (1917) में पश्चिमी सभ्यता से आ रहे ‘बाज़ार’ मनोवृत्ति वाले ‘राष्ट्रवाद’ की निंदा करते हुए लिखा है कि (तुर्क-मुग़ल-पठान आदि) के आक्रमणों के लम्बे दौर और शासन के बावजूद हमने अपने पाँवों के तलुवों को चुभने वाले कंकरों वाली ज़मीन पर चलने की आदत डाल ली थी. मगर अब (इस यूरोपीय ‘राष्ट्र’-वादी सरकार के कारण) लगता है जैसे कंकड़ जूते में घुस गया हो!

तलुवों को कंकरीली ज़मीन की आदत डाल लेने में कोई योगदान पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों का नहीं है. उन का है जो ‘हरि ओम् तत्सत’ गाते हैं, जो गाने से पहले या साज़ छेड़ने से पहले माँ सरस्वती को प्रणाम करते हैं – बिना कुफ़्र कमाये, और जो फिर भी हंड्रेड परसेंट मुसलमान हैं, योगदान उनका है जो सबके साथ मिलकर दीपावली के दीये बनाते हैं. योगदान उनका है जो किताब में पढ़े बिना समझ जाते हैं कि यह हिंदुत्व जीवन-शैली है, कोई मज़हब नहीं. उनका है जो जान गए हैं कि यह जीवन-पद्धति एक अर्थव्यवस्था का नाम है जो कृषि-आधारित है. ये वे मुसलमान हैं जो सदियों पहले इस सत्य को भाँप गए थे, जबकि आधुनिक विश्व अब कहीं जाकर माना है कि कृषि ही एकमात्र उत्पादक आर्थिक चेष्टा है, अन्य सभी consume करने वाली गतिविधियाँ हैं! योगदान उनका है जो जान गए हैं कि यह ऐसी अर्थव्यवस्था है जो गाय से शुरु होती है और होली-दीवाली के आसपास लगने वाले मेलों में पूरी होती है, जब फ़सलें आ जाती हैं. योगदान उनका है जिन्होंने देख लिया है कि इन मेलों में लाखों-करोड़ों रुपयों का व्यापार हो जाता है! धर्म कहें कि अर्थव्यवस्था – बस कुल मिलाकर एक जीवन-शैली है जिससे दुश्मनी पालने का कोई मतलब नहीं है.

और आप हैं कि निंदा करने के लिए कहते हैं, ये हिन्दू तो बाँटते हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — पूरे समाज को चार में बाँट दिया! हम मुसलमान बस एक ख़ुदा को लेकर चलते हैं. मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य महमूद पराचा ने एक टी.वी. बहस में कहा था.

चार? और — एक?

तो गिनिए ज़रा, यह क्या है — शिया , सुन्नी, अहमदिया, बरेलवी. अल हदीसी, हयाती, पठान, मुग़ल, धुनिया, कुरैशी, सैय्यद , सिद्दीकी, ममाती, देवबंदी, वहाबी?

गिनने में तो चार से ज़्यादा लग रहे हैं!

कुल मिलाकर कुछ नहीं रखा इन बातों में. बहुत सी बातें इसलिए नहीं कही जाती रहीं कि उन्हें बकुरना अशिष्टता होकर रह जाती है. फिर भी, होठों पर उँगली रखे बैठा सच भी सच ही होता है! आप चंद लोगों की गुस्ताखियाँ जो हिंदुस्तान के मूल lifestyle के खिलाफ़ बढ़ती जाती हैं यह सच केवल उनका प्रतिबिंब है. आपने कुएं में झाँका तो जो नीचे दिखा वह आप ही थे!

होगा इससे भी कुछ नहीं. हर संवैधानिक संस्था और पद को यह अच्छी तरह समझा दिये जाने से होगा कि आप ‘We, the People’ का दिया खा रहे हैं. ज़रा तुलना कीजिये अपनी दिन भर की मेहनत की और किसान के दिन भर के परिश्रम की. अब तुलना कीजिये महीने भर की अपनी लाखों की पगार की जो आप अकसर कुछ किये बिना भी घर ले जाते हैं, और आपके जीवनाधार उस किसान की जिसे किसी-किसी महीने कुछ भी नहीं!

अब आपको यह जान रखना होगा कि जब-जब आपको दिये जा रहे भत्तों में दो-अढ़ाई प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है, तब हर बार किसान को भी उसके लिए निर्धारित MSP का उतने प्रतिशत महँगाई भत्ता दिया जाना ज़रूरी है! (इस तरह के निर्णय को ठीक से regularise करना होगा). भले ही इसके लिए आपका वेतन कम करना पड़े! इस तरह के फैसले का justification क्लर्क-बुद्धि के शाब्दिक “twenty-twenty” में नहीं, ऋषि-चेतना के न्याय में मिलेगा. यदि नहीं मिलता तो यह ‘We, the People’ से घनघोर द्रोह है, संविधान की अवहेलना है जो दंडनीय होनी चाहिए. जिस तरह contempt of Court ग़लत है, उसी तरह मूल lifestyle पर ज़मींदारी जमाना सौ गुना बड़ा अपराध है. ऐसा करते ही ‘We, the People’ से छल हो जाता है. आप चारों स्तंभों के होने मात्र का अर्थ समाप्त हो जाता है. संविधान की किताब को तकिये के नीचे दबाकर सोये पड़े रहने का क्या मतलब है? खाली-पीली पगार लेने के लिए?

आख़िर एक विशिष्ट भारतीय जीवन-शैली का जो मूल है यह उसी का पसीना है जो आपकी पगार के हरे-हरे नोटों में बदलता है. यह उसी का श्रम है जो हरी-भरी फ़सलों का रूप लेकर लहलहाता है और ‘शस्य श्यामलां मातरं, वन्देमातरम्’ गुनगुनाता है! और अंतत: भारत के अर्थचक्र के घूमने की शुरुआत होती है मंदिरों के इर्द-गिर्द लगने वाले लोक-मेलों से और जा पहुँचती है वित्त मंत्रालय के सेंट्रल कम्प्यूटर तक!

नज़र आ रहा है कि ‘other priorities’ कोई परिश्रम भरा काम हैं या राजनैतिक महत्त्वकांक्षाओं की कंगारू-कूद!

जो भी सही काम होगा वह केवल लोकतंत्र के चारों स्तंभों के ‘We, the People’ के प्रति नतमस्तक commitment से होगा, उन्हें झींगुर मानकर नहीं. यदि आपको लगता है कि मूल भारतीय जीवन-शैली से प्रतिबद्धता ‘भगवाकरण’ है तो लगने दीजिये. रोज़ सुबह जो सूरज उगता है, वह न हरा होता है, न सफ़ेद. वह भगवा होता है!

यह lifestyle सदा ऐसा खूँटा रहा है हम जिससे बँधी गाय की तरह थे. कितना भी दूर निकल जायें, दिशाहीन कभी नहीं हुए. इस खूँटे को उखाड़ फेंकने के बाद से हम खो गई हुई गाय हो गये हैं. कोई भी आता है, हमारी दुम उमेठने में लग जाता है!

इधर-उधर की सोचिये मत. यह देश उत्सव-प्रिय है, उत्सव-प्रिय ही रहेगा. मुहर्रम-प्रिय कभी नहीं बनेगा!

न ही कभी एक और पाकिस्तान बनेगा!

अब भारतवर्ष का अपना एक मज़बूत संविधान है. अब तो जो भी होगा इसी संविधान के अनुसार होगा.

कुंभकर्ण के कान चाहे घड़े जितने बड़े-बड़े हों, जब वह सोया रहता है किसी की नहीं सुनता. लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ इस मुगालते में हैं कि वे हमारे भाग्य-विधाता हैं, नौकर नहीं. कुंभकर्णी निद्रा में बड़बड़ा-बड़बड़ाकर जाने हमें क्या-क्या पढ़ाये चले जा रहे हैं!

वे कृपया स्वयं ध्यान से पढ़ लें, यह संविधान जहां से शुरू होता है, वहाँ लिखा है –

“We, the People………..

02-11-2018

Sabrimala


[नोट: ये बहुत मूलभूत बातें है. कृपया बहुत ध्यान से पढ़ें. चूक गये तो कुछ हाथ नहीं आयेगा. डांवांडोल विचार वालों को छूट है.]

संजय लीला भंसाली ने अपनी फ़िल्म ‘देवदास’ में शाहरुख़ खान से एक संवाद बुलवाया था: “अगर किसी चीज़ को पूरी शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलवाने पर मजबूर हो जाती है.”

आजकल इसी डायलॉग का इस्तेमाल रिलायंस जिओ के दीपिका पादुकोण वाले विज्ञापन में किया जा रहा है.

दरअसल सबसे पहले यह विचार ब्राज़ील के लेखक पाऊलो कोहेलो ने अपने लोकप्रिय उपन्यास ‘द अलकेमिस्ट’ में इन शब्दों में व्यक्त किया था — “When you want something; all the universe conspires in helping you to achieve it.”

यह सब इसलिए ध्यान में आया कि यदि सिनेमा में हम इन शब्दों को सुनते-देखते हैं, फ़िल्मी सितारों के श्रीमुख से सुनते हैं, या किसी यूरोपीय-अमेरिकी-लातीनी अमेरिकी व्यक्ति का लिखा पढ़ते हैं तो बड़े सहज ढंग से ‘कायनात’ या ‘universe’ जैसे शब्दों से रिश्ता बना लेते हैं. मन में कोई सवाल नहीं उठता. किन्तु जैसे ही कोई कहे – ब्रह्मांड, सृष्टि, परम पिता, परमात्मा, मंदिर, धर्म, पूजा-पाठ, मंत्र, संस्कृत, हिन्दू, ब्राह्मण – हम तुरंत तिरस्कार से भर जाते हैं मानो अंधविश्वास और पोंगापंथ के बीसियों बिच्छू हमारे ऊपर से रेंग गए हों.

यदि कुछ दिखावे के तामझाम में लिपटा है या विदेश का है तो ‘प्रोग्रेसिव’ है. वही यदि भारतीय या ‘हिन्दू’ है तो पिछड़ेपन की निशानी है. अर्थात् ‘हिन्दू’ तो है ही भर्त्स्ना-योग्य!

ग़ज़ब तो यह है कि पाकिस्तान भी इसलिए तेवर दिखाता रहता है कि धर्म के आधार पर बने उस देश के हर बाशिंदे को पक्का है, हिन्दू पिटने योग्य होते हैं, इन्हें जब-तब ठोकते रहना चाहिए. इस ‘सबाब’ के लिए वे बाबर से लेकर अहमदशाह अब्दाली तक को याद करते रहते हैं. यह झूठी बात है कि आम पाकिस्तानी को हिंदुस्तान के नागरिकों से बैर नहीं है. एक सिरे से सबको बैर है. हिन्दू ‘काफ़िर’ जो ठहरा! इस सबाब-यज्ञ में मुट्ठी भर-भर सरहद के इस पार से भी लगातार आहुतियाँ दी जाती रहती हैं. अकेले मुसलमानों पर लांछन लगाना ग़लत होगा. हिंदुओं द्वारा भी योगदान दिया जाता है. पाकिस्तान यह भूल जाता है कि बाहरी आक्रांताओं से भारत की विभिन्न सेनायें अगर पराजित होती रहीं तो इस कारण कि राजपूत आदि जातियाँ अपनी नैतिकता को भी तलवार की बराबरी का धन मानकर लड़ा करती थीं. और सबाब-यज्ञ के आहुति-दाता हिन्दू तो तब भी थे ही. आज देश पर मर मिटने वाले करोड़ों मुसलमान और दूसरे ग़ैर-हिन्दू भी यहाँ हैं और अब फ़ौज की आधुनिक रणनीति बाबरों-अब्दालियों के ज़माने की तरह नहीं बनती.

पाकिस्तान एक मच्छर बराबर भी नहीं.

मगर, सैन्य-बल के कारण नहीं, अन्यथा भी पाकिस्तान के साथ-साथ हर किसी को यह भूल जाना चाहिये कि हिन्दू तिरस्कार के योग्य हैं.

इस बात को सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अब चल रहे झंझट की रोशनी में समझना होगा.

पूरा ज़ोर इस बात पर है कि there is a ‘right’ to worship. क्या कभी किसी ने यह सोचा कि to worship एक right नहीं, duty है? कम से कम सुप्रीम कोर्ट से यह तवक़्क़ो थी कि वह too much right-conscious समाज को थोड़ा duty-conscious होने की राह दिखाएगा.

जब हम अपनी ड्यूटी, अपने करणीय कर्त्तव्य के लिए ईमानदार होते हैं तो जानते हैं कि ड्यूटी अपने स्थान और स्थिति से की जाती है. यथा, सुप्रीम कोर्ट में चपरासी की ड्यूटी करने वाला यह नहीं कह सकता कि मेरे समान अधिकार हैं इसलिए जजमेंट पर मेरे भी हस्ताक्षर होने चाहियें. वेतनमान में सुधार, भत्तों में बढ़ोतरी, मेडिकल बिल की सुविधा आदि में अधिकार समान हैं, तथापि लागू तो उसी अनुपात में होंगे जो चीफ़ जस्टिस और चपरासी की स्थिति और स्थान का अनुपात है. आप समान अधिकारों और अपनी-अपनी ड्यूटी को गड्डमड्ड कैसे करेंगे?

यह उदाहरण मैंने दे तो दिया, मगर कुतर्क यह किया जाएगा कि क्या महिलाएं चपरासी हैं? या ड्यूटी भी करनी हो तो क्या पुरुषों से कमतर हैं?

जी नहीं. हिंदुत्त्व में महिलाएं पुरुषों से श्रेष्ठतर हैं!

हमारी intensity – शिद्दत — और ईमानदारी को देखकर, तौलकर पूरी कायनात के जो तत्त्व हमारी मदद में जुट जाते हैं, वे स्वयं को जब ‘पुरुष’ शरीर के रूप में अभिव्यक्त करते हैं तो उनका उद्देश्य जीवन के रक्षण का होता है. जब कायनात के वही elements अपने आप को ‘स्त्री’ शरीर के रूप में प्रकट करते हैं तो उद्देश्य जीवन की सुरक्षित संरचना का रहता है. यह भूमिका ज़्यादा बड़ी है.

जब एक फूल दूसरे फूल पर अपने पराग-कण फेंक रहा होता है और मधुरिमा-युक्त नए जीवन की सृष्टि हो रही होती है तो ये फूल स्त्री-पुरुष की ही भूमिका में होते हैं.

जीवन-रक्षण के लिए कायनात ने पुरुष को ‘बल’ दिया. संरचना हेतु स्त्री को ‘शक्ति’ दी. साथ ही दिया धैर्य, जो पुरुष को नहीं दिया. और दिया मातृत्व का पोषक वात्सल्य! शिशु के प्रति वात्सल्य पिता में भी रहता है. पिता का वात्सल्य संतान को ‘शिक्षा’ देता है. माता का वात्सल्य उसी शिक्षा को ‘विद्या’ में तबदील कर देता है.

हमारे ऋषि-मुनि पुरुष हैं, मगर उनमें भरी हुई अध्यात्म-विद्या का उत्स स्त्री है!

पुरुष का ‘बल’ जैसे घी. स्त्री का माधुर्य जैसे शहद.

स्त्री को पुरुष के साथ समानता पर लाकर एक तो हम उसे उसकी श्रेष्ठता से नीचे लाते हैं. दूसरे, शहद और घी को समान भाग में मिलाने से जो हलाहल विष बनता है वह कोब्रा के ज़हर से भी अधिक मारक होता है. प्रकृति का नियम है.

स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ कहा तो मक्खन लगाने के लिए नहीं कहा, संक्षेप में कहे गए ये अतिरिक्त गुण उसे देने के कायनात के निर्णय के कारण कहा.

जब मैं गुजरात में था तो कायनात ने चाहा और दैव मुझपर प्रसन्न हो गया. वैसे मैं कभी मंदिर-वंदिर जाता नहीं था. छोटा-मोटा नास्तिक था और इस डर से कि कहीं सचमुच कोई ईश्वर हुआ माँ जिसकी आरती करती थी, उसने गुस्से में कोई श्राप जैसा कुछ दे दिया तो मुश्किल हो जाएगी. इस कारण दूसरों की आँख बचाकर कभी-कभी आस्तिक भी हो लिया करता था. अब वही मैं भुज (कच्छ) के द्विधामेश्वर महादेव के मंदिर में जाने लगा. धीरे-धीरे नित्य ऑफ़िस जाने के पहले मंदिर से हो लेने का नियम बन गया. फिर हौले से कभी कुछ साधु-संतों से भेंट हुई. फिर और ऊंचे सिद्धों और गुरुओं की संगति और आशीर्वाद मिला. इसी प्रक्रिया में कुछ मंत्र मिले. मंत्र की परिभाषा मिली. ‘मननात त्रायते इति: मंत्र:’ — मन की जो आदत हर समय मनन-चिंतन और चिंता करने की होती है, उससे जो त्राण दिलाये वह मंत्र! मैं तो नास्तिक की तरह रटा-रटाया मंत्र बोल दिया करता था. इसी प्रक्रिया में मैंने पाया कि हम कुछ नहीं करते, जो भी करता है मंत्र करता है. उसकी शक्ति कुछ अलग ही चीज़ है!

ऐसे में मैंने एक बार अपनी एक अनुभूति महात्मा गुरुओं के सामने व्यक्त की. मुझ मूर्ख को लग रहा था कि यदि मैं एक चवन्नी कसकर मुट्ठी में बंद कर लूँ और मन-ही-मन मंत्र पर concentrate करूँ तो वह चवन्नी थोड़ी देर के लिए स्वर्ण की हो जाएगी!

क्या ऐसा संभव था?

गुरुओं ने समझाया कि पहले तो ऐसी कोई अनुभूति होती नहीं. किन्तु चलिये मान लेते हैं कि मंत्र के कारण आपको ऐसा लगने लगा, तो क्या आप स्वयं को भृगु, वसिष्ठ, दुर्वासा या याज्ञवल्क्य समझने लगे कि जहां-तहां श्राप या वरदान बांटने लगेंगे? इन ऋषि-मुनियों के पास तप की अखूट संपदा रहती है. वे कुछ भी कर सकते हैं. जितना सोना आप बाज़ार से चार-छह हज़ार रुपये में खरीद सकते हैं उसके लिए जो थोड़ी बहुत ‘शक्ति’ आपके पास जमा हुई होगी, उसे यों ‘ख़र्च’ कर लेंगे तो हो चुका अध्यात्म! जाइए, अपना काम कीजिए.

समझ में आ गया कि मंत्र क्या कर सकता है, कब कर सकता है और कैसे कर सकता है. समझ में आ गया कि बहुत कठिन है डगर पनघट की!

मंत्र दो तरह के हैं – वैदिक और शाबर. बहु-प्रचलित गायत्री आदि मंत्र वैदिक मंत्र हैं. लोक-भाषा मिश्रित मंत्र शाबर मंत्र हैं; जैसे ‘ॐ नमो हनुमंताय ब्रज्ज का कोठा, जिसमें पिंड हमारा पेठा’ आदि. चार पंक्तियों का यह हनुमान-मंत्र एक शाबर मंत्र है. (यहाँ सावधानीवश पूरा मंत्र नहीं दिया जा रहा). इस मंत्र का जाप स्त्रियों को वर्जित है. जपेंगी तो उनके दाढ़ी-मूँछ निकलने लगेंगी!

जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं शाबर मंत्र उनसे आए हैं. जब मैं कहता हूँ कि दैव मुझ पर प्रसन्न हुआ तो साधु-संतों की संगति से ज़्यादा बड़ा वरदान मुझे यह मिला कि आदिवासियों के बीच जाते रहने का संयोग हुआ. जिन आदिवासियों को हम अपने से पीछे मानकर छोटा समझते आए हैं, वे हमसे दसियों साल आगे हैं. ये वे लोग हैं जो कभी शबरी, सीता, मंदोदरी, जांबवान, हनुमान, अंगद, मेघनाद हुआ करते थे, जिनके बीच नारायण ने राम का तो कभी कृष्ण का अवतार लिया, जो कभी भीष्म, युधिष्ठिर, द्रोण, अर्जुन, भीम, सुयोधन, सुशासन, द्रौपदी, कुंती हुआ करते थे. जिन लोगों को कभी पहले-पहल वेद ‘ज्ञात’ हुए थे.

ये आदिवासी हमारे पूर्वज हैं!

इन्हीं पूर्वजों की जीवन-पद्धति भारतवर्ष की जीवन-शैली है जिसे हिन्दुत्व कहकर तिरस्कार करने की कोशिश होती रहती है. इन्हीं पूर्वजों की जीवन-पद्धति से ‘रामायण’ निकली जिसने हमें हमारे जीवन-मूल्य और आदर्श दिये. इन्हीं को देखकर मेरे ध्यान में आ गया कि शास्त्र ‘लोक’ से निकलता है और लोक से बड़ा नहीं होता. आगे चलकर यही शास्त्र लोक का मार्गदर्शक बनता है. यह कुछ-कुछ इस्लाम की ‘हदीस’ की तरह हो जाता है. तब जनसामान्य के लिए ‘परम्परा’ या ‘आस्था’ भले ही पर्याप्त हो मगर जनसामान्य के conscience keeper बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ‘आस्था’ काफ़ी नहीं होनी चाहिये. हमारे लिए ‘जानना’ लोकधर्म है.

इन पूर्वजों के बीच जाकर जाना कि इस तरह हमें मिला ‘लोक’, हमें मिले मंत्र और अध्यात्म, हमारे बीच ‘स्त्री’ लहराई, ‘पुरुष’ खिलखिलाया. यह सब हमने हासिल किया अपनी इसी कायनात से जिसके हम बाशिंदे हैं.

यह कायनात कोई रहस्य-कथा नहीं, एक जीती जागती entity है. इसमें निरंतर एक मूवमेंट है. पृथ्वी भी हर समय घूमती रहती है. इस निरंतर churning में कभी भूकंपों में ज़मीन के अंदर दब गई चट्टान का कोई टुकड़ा धरती की परत फोड़कर बाहर झाँकने लगता है तो वह हमारा ‘स्वयंभू’ शिवलिंग हो जाता है. कायनात के किसी वरदान का अपमान करना हम हिंदुस्तानियों ने नहीं सीखा. Universe ने इसीलिये सदा हमारे पक्ष में conspire किया.

इस पूरी प्रक्रिया में प्रकृति अपने आप को maintain भी करती रहती है. जैसे किसी शेर के पंजे में चोट लग जाये तो वह ख़ुद ही उसे जीभ से चाट-चाट कर ठीक कर लेता है, प्रकृति भी अपने आप को निरंतर ‘ठीक’ करती रहती है. जीवन-चक्र धीरगति से चलता रह सके यह उसका सहज विज्ञान है.

घर को ठीक-ठाक रखने के लिए रोज़ सफाई करनी पड़ती है. दीवाली के पहले बड़ी सफ़ाई भी की जाती है. यह सब कुदरत की प्रक्रियाओं का ही छोटा रूप है.

माँ के गर्भ में पल रहा बालक नाभि-रज्जु से जुड़ा होता है. उसी से उसे श्वास मिलती है, आहार मिलता है, विचार मिलते हैं, संस्कार ट्रांसफ़र होते हैं.

कायनात जो हमारी मदद में जुटी रहती है, सो इसलिए कि हम ब्रह्मांड में पल रहा वह शिशु हैं जो एक अदृश्य नाभि-रज्जु से कायनात से जुड़ा हुआ है. सब वरदान, सब विचार, सब अच्छा-बुरा, हित-अनहित हमें वहीं से मिलता है. इसको मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा है: “आते हैं ग़ैब से ही मज़ामीं ख़याल में!” सब विचार, संस्कार, विषय-वस्तु हमें उस परोक्ष से आते हैं!

इन ‘मज़ामीं’ का नाज़ुक काँच ग़ज़ल बनने के पहले किसी चश्मेबद की ठेस से बिखरने न पाये, पूरी शिद्दत से इस चाहत का रूप है मंदिर में दुष्प्रभावों को ‘कील’ देना. ऐसा मंत्रों की शक्ति को तांत्रिक प्रक्रिया से सक्रिय करके संभव होता है.

यही कारण है कि तिरुवनंतपुरम के मंदिर में जो सात कक्ष तालाबंद मिले थे, उन्हें खोलने से मना किया गया था. फिर भी कोर्ट ने छह दरवाज़े खुलवा दिये. सातवाँ खोलने की हिम्मत अभी तक नहीं हुई. क्योंकि घोर अनर्थ की चेतावनी है. ये भी मेरी तरह के नास्तिक मालूम पड़ते हैं जो कायनात के डर के मारे आस्तिक भी हो लेते हैं! जिन विषयों का ज्ञान क़ानून की किताबों से नहीं मिलता उनमें भी चंचुपात करते हैं! यही हाल लोकतन्त्र के ‘चौथे स्तम्भ’ न्यूज़ मीडिया का भी है. जो विषय इन्हें पढ़ाने-सिखाने वाली एकेडमियों की समझ के परे हैं, न्यूज़ मीडिया उनका भी विद्वान् है!

केरल में क्या हुआ? ऐसी बाढ़ देखी न सुनी. और केरल में ही क्यों? वह तो ‘एपिसेंटर’ था, जहां ताले खुलते ही मंत्र शक्ति जो चश्मेबद से बचा रही थी छू हो गई! विश्व के किस कोने में जल-प्रलय नहीं हुआ? आख़िर धरती का पूरा ग्लोब इसी कायनात का एक छोटा-सा हिस्सा है.

और तो और, उस बेचारी सुकन्या पायल रोहतगी ने कह क्या दिया कि यह बाढ़ इसलिए आई कि खुली सड़क पर गाय काटकर खाई गई थी, सब उसकी निंदा में जुट गए. सिनेमा की कलाकार होना यहाँ रक्षा न कर सका क्योंकि हिंदुओं की ठुकाई का अवसर मिल गया था. लोग यह भी भूल गए कि कायनात में घटी हर घटना आपस में जुड़ी हुई है और हमारी मदद की उसकी नीयत को प्रभावित करती है.

धरती पर जिस स्त्री-शरीर में कायनात ने स्वयं को प्रकट किया, स्वच्छ होने की प्रक्रिया में वह स्त्री रजस्वला होती है. यह अपवित्र नहीं है, पवित्रता की प्रक्रिया है. उसे बड़े काम के लिए तैयार होते रहने के प्रोसेस का हिस्सा है.

घर की सफ़ाई में अगर फ़र्श-धुलाई का पानी गठरी में एक कोने में बंधे रखे साफ़ कपड़ों को भिगो जाये तो सफ़ाई के काम में एक काम और बढ़ जाता है.

मंत्र से संकलित शक्ति न तो चवन्नी को सोना बनाने में गँवाने के लिये है, न मंदिर में किए गए ‘कीलन’ के प्रभाव को कम करके काम और बढ़ा देने के लिए है.

यह कारण है कि रजस्वला स्त्री के शरीर के माध्यम से कायनात की चल रही पवित्रता की प्रक्रिया के समय उसका सिद्ध मंदिरों में प्रवेश वर्जित किया गया. उसे किसी तरह हेय मानकर नहीं किया गया. यह समय कायनात के स्त्री-शरीर को आराम देने का है, उससे ड्यूटी करवाने का नहीं. उसे श्रेष्ठता मिली है बड़े काम के लिए, क्षुद्र झंझटों में पड़ने के लिए नहीं.

आपके पास अब भृगु, वसिष्ठ, दुर्वासा या याज्ञवल्क्य तो हैं नहीं जो कम हो गये या छूमंतर हुए ‘सत्व’ को पुनः प्रतिष्ठित कर देंगे! सृष्टि की प्रक्रियाएं चलती रहेंगी. वे बाढ़ होंगी, सूखा होंगी या हरियाली कौन जाने? हमारे पास बस कायनात से वह संवाद नहीं होगा जो उसकी अनुकूलता बनाये रखता था!

अब कुतर्क यह होगा कि विज्ञान इस तर्क को नहीं मानता. यह अवैज्ञानिक बात है.

पहले यह तो तय कर लीजिये कि कायनात विज्ञान का विषय है या अध्यात्म का, या दोनों का? आपका अधिक झुकाव विज्ञान की ओर होगा. क्योंकि यदि अध्यात्म की बात की तो इस क्षेत्र में विश्व-अग्रणी भारत बड़ी आसानी से अमिताभ बच्चन का यह डायलॉग बोल देगा: “रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं; नाम है हिंदुत्व!”

स्थिति तो यह है कि हमारे यहाँ के मौलवी लोग भी मानते हैं कि संसार में पहला वचन वेद है. और आख़िरी वचन क़ुरान है. यह बात अब से पाँच-छह सदी पहले तक ठीक थी. पहला वचन तो अब भी वेद ही है. मगर अब आख़िरी वचन श्री गुरु ग्रंथ साहब है. आप हमारे यहाँ के सिख पंथ को एक स्वतंत्र और पूर्ण धर्म मानने से कतरा क्यों रहे हैं?

यह हिंदुस्तान है जनाब. अध्यात्म में हमेशा नम्बर वन!

चलिये, अमिताभ बच्चन का संवाद नहीं बोलते. आप सबको बुरा लग जाएगा.

इसी तरह आप भी ध्यान रखिये कि आप ऐसी कोई बात न कहें, न ऐसा काम करें जिससे हमको बुरा लगे.

अब कोई यह भी कहेगा कि तीन तलाक़ में भी तो कोर्ट आया था.

सो बंधुओ, तीन तलाक़ सामाजिक बुराई है. स्त्री का रजस्वला होना सामाजिक बुराई नहीं है.

आपकी मदद के लिए एक छोटी सी कहानी.

उस छोटे से कस्बे के घरों में काम करके गुज़ारा करने वाली वह बुढ़िया गाँव के बाहर थोड़ी दूर एक झोंपड़ी में रहती थी. भली औरत थी इसलिए सभी उसका ध्यान रखते थे और इज़्ज़त करते थे.

एक दिन सुबह-सुबह उस बुढ़िया की झोंपड़ी से चिल्लाने की आवाज़ आई – “बचाओ, बचाओ. मदद करो. आग लग गई.”

सुनकर सब मदद के लिए दौड़े. पानी के बर्त्तन लिये हुए. जिसके हाथ में जो आया – बाल्टी, डोल, पतीला, घड़ा, वह वही पानी से भरकर दौड़ा.

जब बस्ती के लोग झोंपड़ी पर पहुंचे तो देखा कहीं कोई आग नहीं लगी है.

सबको बड़ा बुरा लगा कि काम वाली बाई ने सुबह-सवेरे अच्छा मज़ाक नहीं किया. बुढ़िया से पूछा कि अम्माँ, आग कहाँ लगी है?

बुढ़िया ने कहा, “आग तो अंदर लगी है, मन में.”

यह कहानी कहती है कि जब हम अंदर की आग बुझाने का इंतज़ाम करते हैं तो अध्यात्म के मार्ग पर होते हैं. और जब बाहर की आग बुझाने को तत्पर होते हैं तो विज्ञान हमारी उँगली थामे होता है.

यह है भारतवर्ष! विज्ञान और अध्यात्म को लेकर इतनी साफ़-संतुलित दृष्टि और कहाँ मिलेगी?

सबरीमला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अंदर की आग को बुझाने में बाहर की आग वाली कार्बन डाइऑक्साइड स्प्रे हो गई है.

फैसले पर पुनर्विचार करना ही उचित है. चिंता न करें, पूरी कायनात आपकी मदद में जुट जाएगी.

16-10-2018

Me Too!


मैं एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति हूँ. आचार-विचार, जीवन शैली, रुपये-पैसे, शारीरिक व्यक्तित्त्व – सभी दृष्टियों से. शारीरिक व्यक्तित्त्व आकर्षक नहीं है, मगर अरुचिकर भी नहीं है. अपने चेहरे पर सदा सबका स्वागत करती-सी मुस्कान लिये हुए है. सन 1981-82 में 32-34 साल के युवा में जो शारीरिक त्वरा रहती है, मुझ में भी थी. व्यक्तित्व के बालपन को छिपाता-सा प्लेन ग्लासेस वाला बड़े फ़्रेम का चश्मा कुछ vulnerability ढाँपने के लिए, कुछ थोड़ी maturity दिखाने के लिए आँखों पर रहता था. आजकल जो चश्मा है, नज़र का है. तब नज़रिये का था.

1977 में एक बार चुनाव हारने के बाद कुछ ही साल में श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 में वापिस सत्तारूढ़ हो चुकीं थीं. 1981-82 में कभी उन्हें अजमेर और ब्यावर के बीच कहीं किसी गाँव में एक स्कूल का दौरा करना था और उसके पहले एक जनसभा को संबोधित करना था.

उन दिनों प्रधानमंत्री की रिकॉर्डिंग आर्काईव्ज़ में भेजने की ज़िम्मेदारी आकाशवाणी की हुआ करती थी. (अब क्या व्यवस्था है, नहीं मालूम). उसी रात रेडियो-रिपोर्ट भी प्रसारित करनी होती थी. आकाशवाणी, जयपुर की ओर से इस कवरेज के लिए मुझे लगाया गया और जयपुर केंद्र के कार्य-दक्ष प्रोडक्शन असिस्टेंट मदन शर्मा के साथ इंजीनियरों की टीम देकर हमें रवाना कर दिया गया.

कार्यक्रम दूसरे दिन सुबह-सुबह था. खुले मैदान की रेतीली ज़मीन ओस से गीली थी और ठंडी भी. अपने टेप रिकॉर्डर जमाने के लिये इंजीनियरों को एक टेबल की ज़रूरत थी. मैंने इधर-उधर देखा कि टेबल का जुगाड़ कैसे किया जाये. पास में एक तरफ़ एक पुलिस दल बहुत सी टेबलें जमाकर उनपर सफ़ेद चादरें बिछाये कुछ व्यवस्था करने में व्यस्त था. मैं उनके पास गया और अपना परिचय देकर मैंने उन्हें बताया कि मुझे इंदिरा जी की रिकॉर्डिंग करनी है. इसलिए इक्विपमेंट रखने को एक टेबल चाहिए.

पुलिस वालों ने अपने राजस्थानी लहज़े में जो टका-सा जवाब दिया वह कुछ इस तरह था कि भाई, इंदिरा तेरा जब जो करेगी, तब करेगी. हमारे डीआईजी साहब तो हमारा अभी का अभी बना-बिगाड़ जावेंगे. इसलिए टेबल तो नहीं मिलेगी.

लिहाज़ा मैंने फिर इधर-उधर नज़र दौड़ाई कि कोई उपयुक्त अधिकारी दिख जाये तो उससे कहूँ. ऐसा व्यक्ति तो कोई नहीं मिला मगर कुछ दूर एक टेन्ट लगा दिखा. मैंने आव देखा न ताव उसमें घुस गया. वह प्रधानमंत्री के आराम करने के लिए अस्थायी व्यवस्था थी जहां टॉयलेट आदि का भी इंतज़ाम था. सोफ़े बिछे हुए थे और उनके सामने एक सेंट्रल टेबल रखी हुई थी.

तब सेक्योरिटी आदि के इतने लफ़ड़े नहीं थे. मैंने लपक कर सेंट्रल टेबल उठाई और लाकर अपनी टीम के सामने धर दी.

इंजीनियर अपना इक्विपमेंट जमाने में लग गये और मैं पैंट की जेबों में दोनों हाथ डाले टहलते-टहलाते पास के स्कूल की बिल्डिंग से मालूम कर लाया कि वहाँ प्रधानमंत्री का क्या प्रोग्राम था.

हमारी टीम के दाहिनी ओर कुछ गज़ के फ़ासले पर ऊंची मचान बनाकर मंच तैयार किया गया था जहां से इंदिराजी को जन-सम्बोधन करना था.

प्रधानमंत्री समय से कुछ पहले ही वहाँ पहुँच गईं और सीधे मंच पर जा खड़ी हुईं. उन्होंने सब तरफ का जायज़ा लिया. हमारी टीम सेंट्रल टेबल पर झुकी हुई थी. मैं ही था जो निठल्ला जेबों में हाथ ठूँसे तन कर खड़ा था.

थोड़ी देर में प्रधानमंत्री ने मेरी ओर देखा. मुझे इतमीनान हुआ कि चलो, प्रधानमंत्री ने नोटिस लिया है कि उनके देशवासी मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहे हैं. थोड़े समय के बाद उन्होंने फिर देखा. कुछ ज़्यादा समय के लिये. तीसरी बार फिर देर तक देखा, गोया अपनी दिमागी मशीन में मेरी पहचान का ज़िरॉक्स निकाल रही हों!

एक अलर्ट प्रधानमंत्री!

भाषण शुरु हुआ और समयानुसार पूरा भी हुआ.

उन दिनों सोनी के बैटरी-ओपेरेटेड अल्ट्रा-पोर्टेबल टेप रिकॉर्डर हुआ करते थे, लंबे-से माईक के साथ. मैंने वह रिकॉर्डर कंधे पर लटकाया, माईक हाथ में थामा और स्कूल के मुख्य द्वार पर जा खड़ा हुआ, जहाँ से प्रधानमंत्री को प्रवेश करना था.

इंदिराजी आयीं और स्कूल में चल दीं. लोगों के झुंड झुक-झुक कर उनके पाँव छूकर आशीर्वाद ले रहे थे. वहाँ उन्हें इंस्पेक्शन मात्र करना था और लोगों से कुछ-कुछ पूछना था. मेरा काम था उस बातचीत को रेकॉर्ड करना ताकि उसे रेडियो रिपोर्ट में शामिल किया जा सके. मैं उनके साथ हो लिया और माईक इंदिराजी के मुख के सामने करके पकड़े रहा ताकि उनका बोला हुआ रेकॉर्ड हो सके.

मैं नहीं जानता इंदिराजी के इतना निकट और कौन जा सका होगा, उनका कोई मंत्री भी! सिवा उन लोगों के जो उनके पाँव छू रहे थे. या सिवा एम.ओ. मथाई के, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘Reminiscences of the Nehru Age’ में ‘मैमूना बेगम’ को याद रखा है.

ऐसे में कभी अचानक मेरा कंधा इंदिराजी के कंधे से टकराया. पर मैं बिना लड़खड़ाये पूरी चुस्ती से अपना काम करता रहा.

ज़रा आगे चले तो इंदिराजी का कंधा एक बार फिर मेरे कंधे से टकराया.

अब मैं चौकन्ना हुआ. मुझे लगा इंदिराजी जानबूझकर ऐसा हो लेने दे रहीं हैं!

कहाँ वह सत्ता पर आरूढ़ विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली महिलाओं में से एक, और कहाँ मैं आकाशवाणी का मामूली सा प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव! सारी कायनात उन दिनों जिस महिला की मदद में जुटी हुई थी वह इंदिरा गाँधी!

उस भारी भीड़ में सरेआम वे कुछ क्षण इंदिराजी के साथ मेरे नितांत निजी पल थे! पलक झपकने की गति से आये वे पल उतनी ही तेज़ी से फिसल गये!

Perhaps my own ‘Me-Too’ moments!

अद्भुत और असंभव!!

उस समय का कोई फ़ोटोग्राफ़ यदि कहीं हो तो बस वही साक्षी होगा कि कैमरे ने उन पलों को आँख-भर देखा था!

आगे की बात मैं स्वर्गीय इंदिराजी की आत्मा से क्षमा-याचना के साथ ही कह पाऊँगा. आख़िर वह मेरी माँ के समान थीं.

एम जे अकबर तो कैबिनेट मिनिस्टर भी नहीं. इंदिराजी तो प्राइम मिनिस्टर थीं. एम जे को लेकर कांग्रेस गिरी हुई राजनीति कर रही है ताकि चुनी हुई सरकार को परेशानी में डाला जा सके. क्या खेल नहीं किया गया? अवाॅर्ड वापसी, कैम्ब्रिज अनालिटिका, गुजरात चुनाव, केरल, कर्णाटक, पुणे कोरेगांव, और सबसे बढ़कर वहाबी इस्लामी आतंकवाद के साथ नियो-नाज़ीवाद के लिए काम!

और अब ‘Me Too’ को औज़ार बनाना!

फिर भी, मेरा उद्देश्य राजनीतिक उत्तर देना नहीं है. इससे बात भटक जाएगी. समाज में आ रहे आचरण-गत बदलाव में स्त्री और पुरुष दोनों की स्थिति का जायज़ा लेने के लक्ष्य पर आने के पहले इतना ज़रूर कहूँगा कि मोतीलाल नेहरू के इस परिवार का चरित्र क्या रहा है, किसी से छुपा नहीं है. शेख़ अब्दुल्ला की बात तो बहुतों ने की, फिर करना बंद कर दी. मगर इससे कौन इंकार करेगा कि सिनेमा की गायिका और संगीतकार जद्दनबाई (अभिनेत्री नरगिस की माँ) मोतीलालजी की बेटी थी. औलाद हो जाने के बाद राखी बंधवाकर डोली में बैठा देना मोतीलाल नेहरू की ख़ास अदा थी. जद्दन की माँ की शादी हुई और जद्दनबाई को हिन्दू पिता होने के बावजूद एक मुसलमान की ही तरह पाला गया, जिसमें ऐतराज़ की कोई बात नहीं.

अकबर इलाहाबादी शायर तो थे ही, आई.सी.एस. ऑफिसर भी थे. कांग्रेस को अंग्रेजों और भारतीयों के बीच संवाद के लिये शुरु किया गया था. भारतीयों के लीडर होकर मोतीलाल नेहरू कांग्रेस में जाते थे. हम हिंदुस्तानियों के ‘कष्टों’ पर उनके सब लच्छन बहुत नज़दीक से देखकर अकबर इलाहाबादी ने यह शे’र लिखा था:

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ ।

रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ।।

नरगिस का पुत्र संजय दत्त अपने रक्त में मोतीलालजी के जीवाणु लिये क्या-क्या गुल नहीं खिलाता रहा! कभी ए.के. 47 तो कभी ड्रग्स! अच्छा खासा भावुक व्यक्ति और अभिनेता कैसा बर्बाद हुआ!

लेडी माऊन्टबेटन ने जवाहर लाल से क्या नहीं करवा लिया? भारत का विभाजन भी, और सुभाषचंद्र बोस को ‘युद्ध-अपराधी’ की तरह पकड़कर अंग्रेजों के हवाले करने का आश्वासन लिखित में ले लेना भी!

स्वयं इंदिराजी का फ़ीरोज़ गांधी से संबंध, फिर हिन्दुओं में तलाक़ का क़ानून लाने का कारण बनना. मनोविज्ञान कहता है सत्ता का नशा किये स्त्री या पुरुष को vulnerable-सा पुरुष या स्त्री दिखे तो सबसे पहली गुदगुदी उसके मन के अहंकार में और तन के सेक्स-सेंटर में होती है. कहना न होगा कि इस सब हिस्ट्री के बीच अगर कंधा टकराने में एक मातृतुल्य स्त्री में ‘ईडीपस कॉम्प्लेक्स’ कहीं सक्रिय रहा हो तो क्या आश्चर्य? मैं ज़रूर उसके बाद दो दिन तक नहाया नहीं था, न कपड़े बदले थे.

राजीव-सोनिया ने देश का क्या किया वह सब बताने का यह मौक़ा नहीं है, पर जानते सब हैं. संजय गांधी का तो नाम ही लेना काफ़ी है. और अब राहुल पप्पू के तो कहने ही क्या? दिल्ली के बाहर के किस फ़ार्म हाऊस से नशे में धुत उठाकर कब-कब गाड़ी में डाले गए, किस से छिपा है? मुंबई में भले ही 26/11 हो रहा हो! पप्पू इस वंशवृक्ष पर उगा ऐसा फल है जो हमेशा याद दिलाता रहेगा कि मूल बीज ही में भयंकर गड़बड़ थी! इतने लंबे वक़्त तक इस परिवार को माथे पर बैठाये रखने की ही सज़ा है कि हमें जब-तब पप्पू की अनाप-शनाप प्रेस कॉन्फ्रेंस झेलनी पड़ती हैं!

हम हिन्दुस्तानी भले लोग रहे हैं, इसलिए आँख बचाकर निकल लेते हैं, ज़्यादा कुछ बोलते नहीं.

मगर अब ‘MeToo’ में बहुत बोला है!

राजनीति की इतनी बात भी इसलिए करनी पड़ी कि इस पूरे ‘MeToo’ प्रकरण को जिस आचरण-गत बदलाव – transition in behavioural pattern के परीक्षण का अवसर देख रहा हूँ, हमारे उस behaviour को इस नेहरू-परिवार के इर्द-गिर्द चली सही-ग़लत, अच्छी-बुरी राजनीति ने अपनी उँगलियों पर बहुत घुमाया है!!

पहले हम आचरण में बदलाव के उस पहलू को लेते हैं जिसकी भूमिका समस्या के वास्तविक मनोविज्ञान में अधिक है. यह पक्ष है money power – धन की शक्ति. कुछ लोग यहाँ सत्ता को धन से अधिक बताना चाहेंगे. मगर मैं सत्ता को धन के ही अंतर्गत मानता हूँ.

हमारे समाज में (शिक्षित सभ्य समाज में अधिक) धन और सत्ता के बल पर हो रहे आचरण को कोई भी आसानी से पहचान सकता है. ये विशेष लक्षण पुरुषों के behaviour में अधिक दिखाई देते हैं. अब समानता के दौर में आप इन लक्षणों को स्त्रियों में भी देख सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर, धनवान अथवा सत्ताधीश व्यक्ति (पुरुष हो या स्त्री) दूसरों के कल्याण-कार्यों में रुचि कम लेगा, दिखावा ज़्यादा करेगा. वह हमेशा दूसरों को एक ख़ास ‘टाईप’ की परिभाषा से आँकेगा. आपसे बात करेगा तो आँख मिलाकर बात करने में अपनी हेठी समझेगा. अपने बारे में उसे हमेशा यही लगेगा कि जो वह चाहे वह मिलना उसका जन्मजात अधिकार है. दूसरा कोई भी सामने हो तो वह सवाल किये बिना उसकी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए है. क्योंकि व्यवहार के जो नियम दूसरों के लिए हैं, वे उसपर लागू नहीं होते. गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर ही रखा रहता है और पलटवार के अंदाज़ में जवाब देने में ही उसकी श्रेष्ठता है! क़ानून कोई सा भी हो उसे तोड़ने में उसकी शान है! उसे तो कोई हाथ तक नहीं लगा सकता. वह क़ानून के ऊपर की सत्ता है. उसके ग़ैरक़ानूनी व्यवहार और धंधों में उसे वैसे ही दूसरे लोगों का साथ और समर्थन भी मिल जाता है.

पैसे और सत्ता वालों के बच्चे बचपन से ही ये सब लक्षण अपने माँ-बाप से सीखते रहते हैं. सत्ता बहुत लुभावनी होती है और बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती है. हिन्दू शास्त्रों ने तो सत्ता के जाल के फैलने को बताया ही इन शब्दों में है : “बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति”! इसीलिये power आदत डालने वाली चीज़ है. ज़्यादातर यह आदत नशों की होती है.

सबसे ख़ास बात तो यह है कि सत्ता की स्थिति में आने को प्रयत्नशील व्यक्ति हर तरह की सामाजिक हैसियत का इस्तेमाल करके वहाँ पहुंचता है और पहुँचते ही भूल जाता है कि अब उसे समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार करना उचित है. इस प्रक्रिया में उसने अगर कभी किसी का अहसान लिया होता है तो उसकी खिसियाहट मिटाने के लिए वह दुर्व्यवहार को नॉर्मल मानता है. कभी अहसान का बदला चुकाने के लिए अहसानकर्त्ता को उसकी ज़रूरत भी पड़ सकती है. ऐसे में उसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जो वह नहीं करना चाहता!

जिस किसी ने अपने को किसी भी पावर की हैसियत में माना – पैसा, अधिकार और अफ़सरी, लेखक,बुद्धिजीवी, पत्रकार की हैसियत, कलाकार का दर्ज़ा, चर्च-मस्जिद-मंदिर का मठाधीश, आध्यात्मिक गुरु या बाबा, अत्यंत रूपवती स्त्री — समझ लीजिये कि उसके हाथों अपराध होने ही वाला है!

‘MeToo’ में जितने नाम सामने आए उनमें से क्या एक भी ऐसा है जो ऊपर दी गई शास्त्रीय परिभाषा से बाहर हो? लगता है एक भी पुरुष ‘चरित्रवान’ नहीं है! उन सबके आचरण के एक-एक detail विस्तार में बताकर क्या हासिल होगा? पैसे वाली और सत्ता में बैठी स्त्रियाँ क्या गुल खिलाती हैं, क्या उनके भी MeToo सामने लाये जाएँ? तब उससे क्या होगा? ‘घर की इज्ज़त’ पर हाथ डालने वाला तो मरा समझो! पकड़े जाने पर पुरुष की सम्पत्ति हो जाना इन स्त्रियों को स्वीकार हो जाता है ! पुरुषों के साथ-साथ white collar class की स्त्रियों का भी वही चरित्र है.

हम सब मिलकर स्वयं समाज को इस ‘गर्व करने योग्य’ स्थिति में ले गए थे. अब भी इरादा समाज को सही दिशा में ले जाने का है या नहीं?

जब तक पुरुष स्वयं को मालिक और स्त्री को संपत्ति मानने की गफ़लत में पड़ा रहेगा और सत्ता अथवा पैसे में खेल रही स्त्रियाँ पुरुष को कामना-पूर्ति का खिलौना बनाए रहेंगी, यह खेल ऐसे ही चलता रहेगा.

दूसरे को अपनी संपत्ति समझना बंद करो!

Behavioural pattern में परिवर्तन देखे जाने के लिए दूसरा क्षेत्र है सेक्स!

पैसा (सत्ता) और सेक्स ऐसी दो driving force हैं जो जीवन को चलाती हैं.

सेक्स के विषय में यह जान रखना काफी होगा कि यह जीवनदायिनी शक्ति भी है और जानलेवा बीमारी भी. इसीलिये सेक्स संबंधी तमाम विश्लेषण अक्सर एड्स व अन्य यौन-रोगों, contraceptive के उपयोग व सावधानियों आदि तक सिमट कर रह जाते हैं. दुर्भाग्य से इसके बारे में कोई सर्वमान्य-सार्वजनिक अध्ययन अथवा नियमावलि उपलब्ध नहीं है. यह कमोबेश एक व्यक्तिगत मामला ही समझा जाता रहा है. तथापि, 1980 के बाद के भारत को लेकर कुछ अध्ययन हुए हैं जिनके अनुसार लोगों की मानसिकता में sexuality को लेकर एक बड़ा बदलाव यह देखा जा रहा है कि जिन बातों को पहले ‘स्कैंडल’ का कारक माना जाता था, और जिन्हें दबा-छुपा देना ही ‘सामाजिक आचरण’ माना जाता था ताकि स्थापित चारित्रिक मानदंडों की अनुपालना होती रह सके, उन बातों को अब सहज-सामान्य की तरह स्वीकार किया जाने लगा है. वे सब बातें अब वर्जना नहीं रहीं. ले-देकर एक ‘Hite Report on Female Sexuality’ अवश्य उपलब्ध है, और 1975 से उपलब्ध है! 1981 में इन्हीं जर्मन मनोचिकित्सक महिला शेरे हाईट ने ‘Hite Report on Male Sexuality’ भी उपलब्ध कराई. ये दोनों रिपोर्ट हज़ारों-हज़ार स्त्री-पुरुषों को प्रश्नावली भेजकर और लिखित उत्तर प्राप्त करके तैयार की गईं और अब तक का सर्वाधिक ग्राह्य अध्ययन मानी गईं.

मगर भारतीय महिलाएं शायद इस परिवर्तन से भी अस्पर्शित ही रह गईं. या शायद किसी ने उनकी सुध नहीं ली. साहित्य, कला और सिनेमा ने उनके बारे में सोचा ज़रूर मगर वह नाकाफ़ी रहा. महेश भट्ट ने ‘आश्रम’ नाम की फिल्म बनाई जिसमें देवी हेमा मालिनी ने एक साध्वी की भूमिका निभाई थी. इस फ़िल्म में साध्वी के प्रेम (सेक्स?)-जीवन पर विचार किया गया. कुछ साल पहले “मारग्रेटा विद ए स्ट्रॉ’ अनुराग कश्यप कैंप से आई जिसमें सेरेब्रल पाल्सी का शिकार लड़की की सेक्स-लाईफ़ की चिंता की गई. ये दोनों हिन्दी फिल्में बेअसर रहीं क्योंकि इनकी नीयत साफ़ नहीं थी. 2010 के आसपास ‘थैंक्स माँ’ नाम की हिन्दी फ़िल्म आई थी जिसके बारे में शायद ज़्यादा लोग जानते तक नहीं. इसे कोरियोग्राफ़र कमाल के पुत्र इरफ़ान कमाल ने बनाया था. यह एक फ़िल्म मेरी राय में पूरी ईमानदारी से बनी फ़िल्म थी जिसने सेक्स के विषय में व्हाईट कॉलर क्लास और उच्च मध्यम वर्ग की दोगली मानसिकता को बुरी तरह उधेड़कर रख दिया था.

ये ‘MeToo’ ऐसी ही किसी मानसिकता में से निकलकर आ रहे हैं जिसे उधेड़कर ही हम किसी वास्तविक behavioural परिवर्तन का द्वार खोल पायेंगे.

महिलाओं को बुरा तो लगेगा, मगर अब यह कहना आवश्यक है कि वे चाह तो रही हैं कि अपने बारे में, अपनी ज़रूरतों के बारे में, और स्वयं को खुलकर अभिव्यक्त करें, मगर अब भी हिचकिचा रही हैं, डर रही हैं. अपने को असहाय और शोषित सिद्ध करने तक सीमित हो रही हैं.

दूसरी बात, जो महिलाएं अपना विवाहित जीवन व्यतीत करती दिख रही हैं, यदि उनके विवाहोपरांत परिवार के अंदर के ‘MeToo’ सामने लाये जाएं तो ये सुप्रकाशित ‘MeToo’ पीले पड़ जाएंगे! यदि वास्तव में स्त्री की ज़रूरतों को समझना है तो विवाहित सम्बन्धों में सच तलाश कीजिये. पड़ाव-दर-पड़ाव समस्या आपको वहाँ तम्बू गाड़े मिलेगी. पुरुष जो स्वयं को सत्ता का केन्द्र माने बैठा है, उसकी बेचारगी भी उजागर हो जाएगी. यह एक-पक्षीय ‘MeToo’ नौटंकी क्यों खुक्खल है, यह भी पता चल जाएगा.

इसमें संदेह नहीं कि स्त्रियाँ हर समाज का सर्वाधिक शोषित-उपेक्षित वर्ग रही हैं. हमेशा taken for granted! पुरुष अब भी ऐसे आचरण किये चला जा रहा है जैसे वही सत्ता है. वही है जो औरत को कुछ ‘देनेवाला’ है और स्त्री को उसका ‘दिया हुआ’ thankful होकर स्वीकार करते रहना चाहिए.

तो जनाब, सभी समझ लें, न तो पुरुष कुछ देने की हैसियत में है, न स्त्री उस दीनावस्था में है कि वह कुछ भी स्वीकार कर लेगी!

स्त्री की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता तभी स्थापित होगी जब वह सब डर छोड़ देगी. सेक्स-predator कहलाने वाले पुरुष को उसे तत्काल ज़न्नाटेदार थप्पड़ से ‘कैश पेमेंट’ करना होगा. इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है. इन ‘MeToo’ विवरणों में केवल अपनी असहाय अवस्था की स्वीकृति है. महिलाओं को ऊपर इंगित किये गए सत्ताधारी के लक्षणों से बचकर दिखाना होगा और अपनी प्रत्येक संभावना को शिखर तक ले जाकर पूरे समाज में — स्त्री और पुरुष दोनों में — behavioural परिवर्त्तन को आने के लिए force करना होगा.

अभी तो बस धुआँ उठ रहा है!

महिलाएं छोड़ें यह धुआँ-धुआँ ज़िंदगी. पैसा (सत्ता) और किसी भी तरह का behavioural pattern वह दहकता अंगारा है जिसमें से धुआँ नहीं निकला करता. वहाँ केवल सुलगती आँच होती है! उस आँच से हाथ सेंकना-न सेंकना पूरी तरह से स्त्री की अपनी स्वतंत्रता है!

चलते-चलते मैं स्वर्गीय इंदिराजी से पुनः क्षमा-याचना करूंगा. वह जो भी थीं, जैसी भी थीं – अच्छी या बुरी – इस या ऐसे अन्य प्रसंगों के बिना भी वैसी थीं.

और यह सत्य एक सिरे से सब पर लागू होता है!

15-10-2018