द केरल स्टोरी


यदि ऐसा वे लोग कर रहे होते जो राजनीति में हैं तो समझ में आता था. उन्होंने हमेशा यही किया है. वे लोग कर रहे होते जो कट्टर मज़हबी हैं, तब भी समझ में आता था. मज़हबी यानी अफ़ीम का घोल पिये लोगों ने भी हमेशा यही किया है. नुक्कड़ की दूकान का पंसारी ऐसा कर रहा होता तब भी मालूम था, तौलने में वह हमेशा से डंडी मारता आया है.

       मगर अचरज है कि अब ऐसा कर रहे हैं बुद्धिजीवी और उनका मीडिया!! जिस तरह ठेलों पर हमारी रुचि के अनुकूल बिकती विविधता उपलब्ध रहती थी — मूँगफली, अमरूद, खजूर, गुड़, बर्त्तन, खिलौने, बाल सँवारने की कंघी, वैसे ही अब मीडिया-क्लिप सुलभ्य हैं — जो पसन्द में फ़िट हो उसे उठाओ और ठेलो!

              पहले उसने ‘मुस्’ कहा, फिर ‘तक़’ कहा, फिर ‘बिल’ कहा।

              इस  तरह ज़ालिम ने  मुस्तक़बिल  के टुकड़े  कर  दिये!

       लगता है मीडिया के ज़ालिम टुकड़-कर्त्ता कमोबेश हम सभी हैं. यह घड़ी वह है जब जिस किसी का जिस भी रूप में मीडिया से कोई रिश्ता रहा है, उसे शर्मिन्दा होकर रह जाना चाहिये!

       फ़िलहाल यह ठेलम-ठेल चल रही है ‘दि केरला स्टोरी’ नाम की फ़िल्म को लेकर. इनमें कुछ ही प्रतिक्रियायें हैं जो फ़िल्म देखने के बाद दी गई हैं. अन्य सब सुनी-सुनाई बातों का शोर है. अचरज इसलिए है कि हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया-कर्मी शोर पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, मुद्दे पर नहीं. जबकि बुद्धिजीवी होने का औचित्य मुद्दे पर बात करने में निहित है, शोर के समर्थन अथवा विरोध पर उतरने में नहीं.

       हमारे बीच ऐसे बहुत लोग हैं जो मानकर चल रहे हैं कि ‘द केरला स्टोरी’ मुसलमानों और इस्लाम के ख़िलाफ़ है. उन्हें भय है इससे मुसलमानों को देश में शान्ति भंग करने के लिए कारण मिलता है. अनेक मुस्लिम नेताओं के बयान इस भय की पुष्टि भी कर रहे हैं.

       यह भय और इसकी पुष्टि इस बात का प्रमाण है कि इन सभी लोगों की अवधारणाएं शोर-शराबे पर आधारित हैं, मुद्दे पर नहीं.

       ठीक से देखा जाए तो ये सभी लोग एक स्वर से केवल इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं. ये लोग कृपया बतायें क़ुरान-ए-मजीद की कौन सी आयतें ऐसी हैं जो इस बात को मुसलमानों पर फ़र्ज बता रही हैं कि लड़कियों को केवल बच्चा पैदा करने की मशीन समझो, उन्हें सेक्स-स्लेव बनाओ और लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद उन्हें मार डालो? स्पष्ट है कि ऐसी घटनाओं को सब मुसलमानों और इस्लाम पर इसलिए थोपा जा रहा है कि ऐसा करने वाले आतंकी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ के गुर्गे वे हैं जो मुसलमान हैं! इनके हथकंडों को बयाँ करना आतंकवाद के प्रति सजग करता है या इस्लाम के ख़िलाफ भड़काता है?

       हमारे बुद्धिजीवियों के भय का एक अन्य कारण भी समझना होगा. उन्हें अहसास है कि ऐसी अनेक आयतें क़ुरान में मिल जाएंगी जो काफ़िरों की हत्या, उन्हें लूटने और लूट का माल आपस में बाँट लेने से सम्बन्धित हैं. इस्लाम को फैलाने के आदेश के रूप में हैं. यहाँ ये लोग, विशेषत: मुस्लिम नेता यह नहीं बताते कि क़ुरान के ऐसे तमाम सन्दर्भ केवल सामयिक हैं, देश-काल के परे नहीं हैं. वे एक विशेष कालखंड की ऐतिहासिक आवश्यकता के लिए थे. मैं ख़ुद क़ुरान के विभिन्न संस्करणों से गुज़रा हूँ जो स्वयं मुसलमानों– मुस्लिम स्कॉलरों के द्वारा की गई व्याख्यायें हैं और हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में हैं. मूल अरबी-फ़ारसी भाषाओं का मुझे कोई ज्ञान नहीं है. मुझे लगा, क़ुरान का मुख्य स्वर अल्लाह के प्रति समर्पण और अध्यात्म है, न कि आतंकवादी आचरण. कहना न होगा, ‘द केरला स्टोरी’ का प्रदर्शन आतंकी हथकंडों को बेपर्दा करता है. जबकि इसका विरोध स्पष्ट रूप से इस्लाम पर बदनामी का स्थायी ठप्पा लगाने की साज़िश जैसा सिद्ध होता है. अब कृपया कोई यह तर्क देने की चेष्टा न करे कि अनूदित क़ुरान में पढ़ी गई जानकारी ग़लत है!!

       हमारे मीडियाकर्मियों और बुद्धिजीवियों की पूरी ‘समझदारी’ यह बता रही है कि वे सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे बुद्धिजीवियों का हश्र देखकर सहमे हुए हैं. डरे हुए लोगों से यह उम्मीद रखना इनसे नाइंसाफी होगी कि ये किसी भी तरह इस प्रकार की असामाजिकता को बेनक़ाब करने वाले पब्लिक मीडिया (सिनेमा अथवा सोशल मीडिया) को सही और सार्थक सन्दर्भ में देखना चाहेंगे.

       ‘द केरला स्टोरी’ देखे बिना इससे अधिक कुछ कहना ग़लत होगा. यों भी यह टिप्पणी इस फ़िल्म पर नहीं है. उन ‘समझदारियों’ पर है जिनकी तटस्थता के चलते राष्ट्र-ध्वज से अशोक चक्र हटाने की हिंसा पर चुप रहा जा सकता है. इस बार किसी मन्दिर का स्थापत्य नहीं नष्ट हुआ है, किसी मूर्त्ति का शिल्प नहीं खंडित हुआ है कि जिसे ‘मज़हबी बुखार’ कहकर अनदेखा किया जा सकता हो. यह सीधे-सीधे राष्ट्रीय अस्मिता का नकार है!

       फ़िल्म को तो जब देखना हो पायेगा तब होगा. सोच रहा हूँ क्या वैसे ही देखना सम्भव होगा जैसे ‘सम्पूर्ण रामायण’ या जेम्स बांड फ़िल्में देखी थीं? निस्सन्देह वैसी एक-मनस्कता मुद्दे के प्रति पूर्वाग्रह-मुक्त रह पाने के सामर्थ्य से ही सम्भव हो पायेगी. आख़िर जेम्स बांड फ़िल्मों ने भी सामाजिक मुद्दे उठाये थे — समूचे विश्व पर अधिनायकवादी सत्ता, आतंकवाद, जल-समस्या, परमाणु चोरी, मीडिया का दुरुपयोग, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, हथियारों की होड़ आदि. जिस केन्द्र-बिन्दु के इर्द-गिर्द ये फ़िल्में घूमी हैं वह है Special Executive for Counter-intelligence, Terrorism, Revenge and Extortion. इन शब्दों का प्रथमाक्षर लेकर बनता है SPECTRE — इन फ़िल्मों का विलेन! वास्तविक समाज में Spectre कहीं है ऐसा नहीं है. तथापि ऐसा भी नहीं है कि बांड फ़िल्मों में उठाये गये मुद्दे समाज में कहीं नहीं हैं. जबकि ISIS तो वास्तव में है भी! उसके लिए जी-जान से कुछ भी कर गुज़रने वाले इस्लाम को कलंकित कर रहे (या इस्लाम पर चल रहे?) मुसलमान भी हैं. केरल की सरकार और हाईकोर्ट भी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘लव जिहाद’ एक सत्य है!

       इसलिए सावधान! केवल मुद्दे पर ही नज़र रहे!

       और रामायण?

       ‘रामायण’ के मुद्दे मैं कुछ अलग ही तरह से देखता हूँ. इन मुद्दों से हमारे बुद्धिजीवी किस तरह इन्कार करते हैं उनकी उस अदा से रू-ब-रू होना दिलचस्प होगा.

       यह सर्व-विदित है कि ‘रामायण’ विभिन्न आदर्श प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है — आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, पत्नी, भाई, परिवार, आदर्श मित्र, सेवक, राज्य, आदर्श शासन आदि. ‘रामायण’ के नायक श्रीराम स्वयं शील-शक्ति-सौन्दर्य जैसे तीनों आदर्शों का समन्वय हैं और इनकी पराकाष्ठा भी हैं.

       ‘आदर्श’ शब्द का अर्थ है ‘दर्पण’. इसका उपयोग सभी लोग घर की सजावट से लेकर स्वयं को निहार कर नार्सिसस — आत्ममुग्ध हो जाने तक विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं. किन्तु दर्पण का सर्वाधिक उपयोग सँवरने के लिए होता है. चेहरे पर दाग-धब्बे हों, कोई बदसूरती हो, तो मेक-अप करके उस असुन्दरता को ढाँपने-छिपाने-सुधारने में दर्पण सहायक होता है.

       रचनाधर्मिता के सामाजिक सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि साहित्य में अनुस्यूत बृहत्तर आदर्श (दर्पण) मानव-समाज में उपस्थित अनेकविध असुन्दरताओं की ओर संकेत करते हैं — आतंक, ग़ैर-आनुपातिक महत्त्वाकांक्षा, षड्यन्त्र, युद्ध और हिंसा आदि! कालजयी रचना ‘रामायण’ की ओर निरन्तर बढ़ता आकर्षण इस बात की सूचना है कि मानव-समुदाय अपनी बदसूरतियों से निरन्तर लड़ते रहने को अभिशप्त है.  असंख्य लोगों ने विविध भाषाओं में रामकथा कही है. इसे सेल्युलॉयड पर भी तरह-तरह से उतारा गया है. मूल कथ्य को हानि पहुँचाये बिना हर बार सम-सामयिक सन्दर्भ भी दिये गए हैं.

       ऐसे में ‘द केरला स्टोरी’ को इस लड़ाई के मात्र एक अध्याय की तरह देखा जाना चाहिए. लड़की को बच्चों की हेड़ पैदा करने की मशीन की तरह इस्तेमाल करके उसे मार देना और पैशाचिक आतंक फैलाना आधुनिक समाज की बहुत बड़ी बदसूरती है. इसके प्रति हर सामाजिक को सजग करना प्रत्येक बुद्धिजीवी की ज़िम्मेदारी है.

       ‘रामायण’ का दूसरा मुद्दा है ट्रेजेडी. आख्यानों में और साहित्य में ग्रीक ट्रेजेडी या फिर शेक्सपियर की ट्रेजेडी को श्रेष्ठ माना गया है. ये वास्तव में हैं भी अद्भुत. शेक्सपियर की चार ट्रेजेडी प्रमुख हैं — मैकबेथ, हेमलेट, ऑथेलो और किंग लीयर. चारों नाटकों में ये चार महानायक हैं. ये सभी शक्ति, वीरता व गुणों से सम्पन्न हैं. सब तरह से पूर्णता को स्पर्श करते इन महानायकों में कोई एक चारित्रिक कमी है जिसके कारण उनका भरा-पूरा जीवन दु:खान्त में समाप्त होता है. इस दोष को विद्वानों ने Tragic Flaw अथवा Fatal Flaw कहा है. मैकबेथ अत्यधिक महत्वाकांक्षी है तो ऑथेलो सहज विश्वासी तथा तुरत-ईर्ष्यालु है. किंग लीयर अहंकारी है तो हेमलेट अपने वहम का शिकार होकर ज़रूरी कामों को टालता चला जाता है. बस यह एक दोष इन महानायकों के जीवन की इति जिस तरह ट्रेजेडी में करता है वह शेक्सपियर की कलम से अत्यन्त मर्म्मस्पर्शी होकर निकला है.

       Tragic Flaw की मौजूदगी पाश्चात्य जीवन-दृष्टि की परिचायक है. इससे भिन्न ‘रामायण’ के महानायक राम सर्वत: आदर्श-सम्पन्न व्यक्तित्त्व हैं. एक ट्रेजेडी की तरह विश्व की सभी ट्रेजेडियों में ‘रामायण’ इसलिए बीस है कि यहाँ Tragic Flaw की आवश्यकता ही नहीं है. जीवन की हर ट्रेजेडी के लिए नायक का एक सामान्य मनुष्य होना पर्याप्त है! ‘रामायण’ को मूल रूप में पढ़ने के बाद कौन न कहेगा कि श्रीराम के जीवन की एक-एक व्यथा सामान्य मनुष्य की ही कथा है?

       प्रसंगवश कहता चलूँ, जिस तरह मैं भाषा के अज्ञानवश क़ुरान शरीफ़ को मूल रूप में नहीं पढ़ पाया वैसे ही अपने मुसलमान भाइयों के हर काम को आगे बढ़ाने को तत्पर हमारे बुद्धिजीवियों ने ‘रामायण’ को मूल रूप में अवश्य नहीं पढ़ पाया होगा. मूल में इस साहित्यिक कृति को पढ़ पाने से एक-मनस्कता प्राप्त होती है. एकाग्रता आती है. मुद्दे पर टिके रहना सम्भव हो पाता है.

       इतना ही नहीं कि नायक में सामान्य मनुष्यता पर्याप्त है, ‘रामायण’ का खलनायक भी ध्यान देने योग्य है. वह किसी भी तरह डेविल अथवा शैतान (Satan) नहीं है. तथापि प्रति-नारायण (Anti-Christ) है. नारायण विरोधी है, फिर भी उन्हीं का प्रतिरूप है, अभिन्न अंग है.

       यदि हमें स्मरण हो, जब ब्रह्मा के चारों मानस-पुत्र सनकादि मुनि (सनक, सन, सनत्कुमार और सनन्दन) बैकुंठ में प्रवेश कर नारायण से मिलना चाहते थे तो जय-विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया. तब कुपित मुनियों ने उन्हें बैकुंठ से पतित हो भूलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला. यह कुछ अलग क़िस्म का Paradise Lost था. क्षमायाचना करने पर उन्हें हर जन्म में नारायण के हाथों मुक्ति पाकर ड्यूटी पर लौटने का वरदान भी मिल गया. इस तरह जय को संसार में तीन बार हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल का, तथा विजय को हिरण्यकशिपु, कुंभकर्ण और कंस का जन्म ग्रहण करना हुआ.

       श्राप क्या होता है और कैसे काम करता है, उसके विश्लेषण का यहाँ अवकाश नहीं है. किन्तु इतना तय है कि रावण का होना बताता है आगे जो होगा वह उस पर निर्भर करता है आपने अभी क्या किया है. ‘कर्म’ का यह सिद्धान्त पूरे भारतीय चिन्तन का सार है. अधिक विस्तार में न जाकर इतना कहना पर्याप्त होगा कि न्यूटन का Third Law Of Motion ही Law of Karma है —  Every action has its equal and opposite reaction! इस वैज्ञानिकता पर आधारित देश को नष्ट करने के लिए यदि कोई व्यक्ति या समुदाय देश की बेटियों को इसलिए सीरिया ले जाने की साज़िश रचता है कि वे हिन्द के ख़िलाफ़ और अधिक ग़ाज़ी पैदा करने की मशीन बनेंगी तो यही एक कारण काफ़ी है कि ‘द केरला स्टोरी’ के विरोध का मुँह बन्द कर दिया जाए.

       हम मनुष्यों के जीवन-नाट्य में रावण ऐसा खलनायक हुआ जो प्रोलितेरीयेत को संगठित कर स्वर्णपुरी के पूँजीवाद को नष्ट करने का माध्यम बना. प्रोलितेरीयेत को आधार बनाकर मार्क्स ने जो संवेदनशील राजनैतिक दर्शन देना चाहा था उसे हमारे यहाँ के बुद्धिजीवियों ने नष्ट कर दिया. अपने प्रमाद में ये ‘प्रोलितेरीयेत’ का अर्थ शब्दकोश में तलाशते रहे. इनको पक्का था कि शोषित समाजों के ‘सर्वहारा’ या रूसी बोल्शेविक ही प्रोलितेरीयेत हैं. भारत का जनसामान्य या वनवासी तो ‘हिन्दू’ है. वह प्रोलितेरीयेत कैसे हो सकता है?

       यहाँ हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे, भारतीय जनसामान्य हिन्दू? क्यों? मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख — इन सबका क्या हुआ? बुद्धिजीवी हैं, इसलिए वे यह समझने की ज़हमत नहीं करेंगे कि यहाँ उनके उस दौर का सन्दर्भ है जब उन्होंने पूरे ही भारतीय जनसामान्य को प्रोलितेरीयेत मानने से इनकार करना शुरु किया था. जब उन्होंने समूचे भारतीय इतिहास को मार्क्स के ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री’ तक सीमित करना शुरु किया था. जबकि मार्क्स के इन नोट्स का इरादा कुछ और था. इस पर अलग से फिर कभी लिखूँगा. यहाँ मुद्दा यह है कि इस शब्दकोशीय रवैये के चलते इन सभी का ‘कनेक्ट’ भारतीय प्रोलितेरीयेत से कट गया. वे ज़मीनी हक़ीक़तों को जानने से वंचित रह गये. परिणामस्वरूप ‘प्रगतिशील’ कहलाकर भी अब वे क़ुरान शरीफ़ की समसामयिक व्याख्या पर बात नहीं कर सकते. कहने को मज़हब के विरुद्ध हैं, मगर केरल का सत्य सामने आते ही उसे  ISIS वाले मज़हबी अस्तित्व पर हमला बताने लगते हैं. तब इनका पूरा सरोकार मज़हब से हो जाता है. उसी साँस में प्रोलितेरीयेत के प्रति संवेदन-शून्य भी हो जाते हैं.

       क़ुरान की समसामयिक व्याख्या की बात होगी तो आप पायेंगे, ऐसा करना अनुचित है इसलिए सम्भव नहीं है.  कारण जानने के लिए पहले वेद और पुराण का उदाहरण समझना होगा. जब वेदोक्त सत्य को समझना कठिन लगने लगा तो महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने उस सत्य को सरलता से समझाने के लिए भगवान् की लीलाओं का आश्रय लिया. इस तरह उन्होंने अठारह पुराणों की रचना की और ‘वेद-व्यास’ कहलाये. इसी तरह जब क़ुरान में व्यक्त ‘हक़’ (सत्य) को समझना मुश्किल लगने लगा तब हदीस लिखी गईं. हदीसों में क़ुरान की बातों को हज़रत मोहम्मद के जीवन के प्रसंगों से समझाया गया है कि किसी स्थिति-विशेष में नबी ने क्या किया था. जब क़ुरान समझ में न आये तो हदीस पढ़कर नबी के उदाहरण से समझ लेना चाहिए. संसार का हर मुसलमान जो भी कुछ करता है नबी के इन उदाहरणों से आदेश लेकर करता है. यही प्रेरणा मोमिनों के ‘उम्मा’ का आधार है. क़ुरान की किसी आयत की नबी के आदेश से अलग व्याख्या करना गुस्ताख़ी है. गुस्ताख़-ए-नबी की एक ही सज़ा है — सर तन से जुदा!

       आप यदि इस्लामिक साहित्य गहरे उतरकर सहानुभूतिपूर्वक पढ़ेंगे तो पायेंगे कि यूपी में अतीक अहमद, मुख़्तार अंसारी आदि जो कर रहे थे वह इस्लाम के विरुद्ध नहीं था. यदि वे कहें वे उनके मज़हब का पालन कर रहे थे तो एक स्तर पर वे ग़लत नहीं कह रहे होंगे. इसी स्तर पर कह सकते हैं कि उनके खिलाफ़ की गई कार्यवाही कितनी भी संविधान के अन्तर्गत हो, थी वह ‘मुसलमानों'(?) के खिलाफ़! याद कीजिये यह बात ओवेसी जैसे मुस्लिम नेताओं ने कही भी थी. यूपी सरकार की रक्षा केवल यह तथ्य करता है कि कोई कार्यवाही मुसलमानों के विरुद्ध हो जाने के लिए नहीं, अपराध पर क़ानून लागू करने के लिए थी. इसी स्तर पर आप यह भी पायेंगे कि दुनिया भर के देशों के संविधानों और इस्लाम के मज़हबी आदेशों के बीच मेल बिठाना मुश्किल होता है. वास्तव में बुद्धिजीवियों को इस तालमेल का रास्ता बनाने के लिए काम करना है. मगर वे अपनी ज़िम्मेदारी से बचकर चलते हैं और कहना चाहते हैं –‘हमें क्या?’

       संविधान के प्रावधानों और इस्लाम के आदेशों में तालमेल का रास्ता बन सकता है तो ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों से. ज़रा सोचिए, कितने ही मुसलमान हैं जो ISIS जैसे संगठनों के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहते हैं मगर कुछ कह नहीं पाते, ऐसी फ़िल्में इन लोगों की भी आवाज़ बनती हैं और उन्हें साहस देती हैं. बुद्धिजीवी यहाँ कूदकर कहेंगे कितने ही मौलवियों ने ISIS के खिलाफ़ बोला तो है. और क्या चाहिये? बेहतर है, ये बुद्धिजीवी चुप ही रहें. मुद्दा मौलवियों का नहीं उन मुसलमानों का है जो भारतीय प्रोलितेरीयेत का हिस्सा हैं.

       बुद्धिजीवियों से अपेक्षित है कि वे निडर होकर हम सब को समझायें क़ुरान को लेकर ईमानदारी से बात करना सम्भव नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी’ मत बनाओ. जहाँ मुसलमानों की बात हो वहाँ इस तरह सच कहना  उचित नहीं है. इसलिए ‘द केरला स्टोरी मत दिखाओ. जहाँ दीन का सवाल हो वहाँ आधुनिक अर्थ-घटन ख़तरनाक है. इस्लामी दुनिया को समझकर चलें तो ये सभी सच्ची बातें हैं. पहले इस इस सच को कहने से बचना, फिर ‘द केरला स्टोरी’ पर रोक लगाने की बात करना डरपोकपन है, बुद्धिजीविता नहीं. सच कहना दरअसल क़ुरान का ही सम्मान करना है. क़ुरान का पूरा ज़ोर ‘हक़’ (सत्य) पर है.

       ये बुद्धिजीवी ‘रामायण’ का मुद्दा आत्मसात किये होते तो ‘द केरला स्टोरी’ इन्हें भी भारतीय प्रोलितेरीयेत का रक्षण कर रही फ़िल्म जान पड़ी होती. मगर इनका एजेण्डा कुछ अलग है.

       इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में इन बुद्धिजीवियों और इनके एजेण्डा को परिभाषित करने हेतु भी ‘रामायण’ की ओर देखा जाना चाहिए. राष्ट्र के तिरंगे से सम्राट् अशोक के धम्मचक्र को हटाकर वहाँ कलमा लिख दिये जाने के बाद इन की चुप्पी के कारण ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है.

       ‘रामायण’ का वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें राम युद्ध करते हुए रावण के दसों सिर और बीसों भुजायें काट डालते हैं, किन्तु वे फिर उग आती हैं. बार-बार ऐसा होता है. रावण के मारे जाने की कुंजी न जाने क्या है! तब विभीषण श्रीराम को सुझाते हैं कि रावण की नाभि में अमृत-कुण्ड है. नाभि पर प्रहार करने से रावण नष्ट हो जाएगा.

       ‘रामायण’ का नाम आते ही सबसे पहले वाल्मीकि-रामायण का ध्यान हो आता है क्योंकि राम-कथा का मूलभूत ग्रन्थ वही है. किन्तु यह प्रसंग वाल्मीकि-रामायण में न होकर ‘अध्यात्म रामायण’ में है.

       हमारे बुद्धिजीवियों की मनोवांछा के सम्मान में ‘अध्यात्म रामायण’ का विभीषण द्वारा बोला गया श्लोक तिरंगे पर वहाँ लिख दिया जाना चाहिये जहाँ अशोकचक्र हटाकर कलमा लिखा गया था! हिन्द पर ग़ाज़ी बनकर टूट पड़ने को तैयार ISIS के समूहों को ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ का रहस्य बतलाना बुद्धिजीवियों को आसान हो जायेगा — “इस देश की हस्ती मिटाने के लिए उस विचार पर प्रहार कीजिये जिसके अनुसार देश की बेटियाँ आद्या पराशक्ति देवी हैं. उसके बाद कोई ‘द केरला स्टोरी’ कहने का साहस नहीं करेगा! इस प्रहार के लिए लव-जेहाद एकदम कारगर अस्त्र है.”

       हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे कि देश के 80 प्रतिशत मुसलमान शान्तिप्रिय हैं. सबको दोष नहीं दिया जा सकता. ‘द केरला स्टोरी’ से 20 प्रतिशत के कारण सभी मुसलमानों की छवि ख़राब होती है.

       हमारे यहाँ ही क्यों, दुनिया में सभी जगह 80% लोग हमेशा शान्तिप्रिय होते हैं. विनाशलीला तो 20 प्रतिशत मूलतत्त्व (रेडिकल) ही मचाते हैं. नाज़ी जर्मनी को ही देख लीजिए. 80% जर्मन शान्तिप्रिय ही थे. तब भी हिटलरवादी प्रतिशत 6 करोड़ हत्यायें करने में सफल रहा. ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! रूस में भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी शेष 20% लोगों की बदौलत दो करोड़ से अधिक लोग मारे गये! ये 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! दूसरे विश्वयुद्ध के समय जापान के भी 80% लोग शान्तिप्रिय थे. फिर भी जापानियों ने लगभग सवा करोड़ हत्यायें कीं. 80% शान्तिप्रिय किस काम के थे? किसी काम के नहीं! वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के समय अमेरिका में भी ढाई लाख अरब शान्ति से रह रहे थे. केवल 19 जिहादी थे जो 9/11 के दिन पूरे अमेरिका को घुटनों पर ले आये थे. वहाँ के ढाई लाख शान्तिप्रिय अरब किस काम के थे? किसी काम के नहीं!

       80% शान्तिप्रिय के भरोसे प्रोलितेरीयेत को अब और मुग़ालते में नहीं रखा जा सकता. 1947 में विभाजन तथा करोड़ों हत्याओं के समय भी ‘शान्तिप्रिय’ लोगों का प्रतिशत लगभग यही था मगर वे भी नबी के आदेश और उम्मा से बाहर नहीं थे. इनके लिए देश ‘भारतमाता’ नहीं ज़मीन का टुकड़ा है. अब और चाहिए! केवल यहाँ का नहीं, विश्व-भर का अनुभव सबके सामने है.

       हमारे ये शान्तिप्रिय बुद्धिजीवी सब बुद्धिजीवियों का 80% होते भी तब भी यह सच इन्हें जान लेना चाहिये कि हृदय से विचार और बुद्धि से प्रेम करना नष्ट हो जाने के मार्ग पर पहला चरण है. प्रोलितेरीयेत को शब्दकोश में धकेलने के दिन से ये उसी मार्ग के मुसाफ़िर हैं. इस तथ्य का प्रमाण यह है कि ये अब केवल ‘पुरस्कृत’ कृतियाँ दे पाते हैं.

       एक व्यक्ति बुक-स्टोर पर गया और काऊंटर पर खड़ी लड़की से बोला — “मुझे कोई पढ़ने योग्य पुस्तक दीजिए.”

       काऊंटर-गर्ल ने किताबों का ढेर लगा दिया — “इसे नोबेल पुरस्कार मिला है, यह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित है, इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है, इसने राज्य अकादमी पुरस्कार पाया था, इस पुस्तक को भाषा-पुरस्कार से नवाज़ा गया है, इसे गाँधी पुरस्कार, इसे मन्त्री पुरस्कार, इसे नुक्कड पुरस्कार, इसे पनवाड़ी पुरस्कार, इसे…इसे…इसे…..”

       उस व्यक्ति ने हाथ आगे बढ़ाया और पुस्तकों के पूरे ढेर को एक ओर सरकाते हुए कहा — “मैंने कोई पढ़ने योग्य पुस्तक माँगी है.”

       ये बुद्धिजीवी, ये साहित्यकार-कवि, ये मीडिया-कर्मी किस काम के हैं?

       उत्तर प्रत्यक्ष है.

       तब क्या ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फ़िल्म बनाना और पूरे देश को दिखाना ज़रूरी नहीं हो जाता?

       मगर हमारे बुद्धिजीवी मानेंगे नहीं. इसलिए उनके इरादों को ऑथेंटिक बनाने के लिए ‘अध्यात्म रामायण’ से विभीषण-कथन का मूल श्लोक प्रस्तुत है —

              नाभिदेशेSमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्…….

       मैं ‘द केरला स्टोरी’ देखने के इन्तज़ार में हूँ. एक-मनस्क होकर देखूँगा. मुद्दे से नहीं भटकूँगा. यह वादा है.

13-05-2023

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