जो लोग हमारे प्रति शत्रु-भाव रखते हैं उन्हें ठीक से जानेंगे नहीं तो उनसे निपटेंगे कैसे?
इसलिए इसे पढ़ने के बाद यदि आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ कहें तो मुझे आपत्ति नहीं होगी.
यस सर, हिन्दू होकर भी मैं उनकी आसमानी क़िताब आपको पढ़वाना चाह रहा हूँ. तब भी आप मुझे ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ न कहें तो हज़ारों बार सूरज भले उग लिया, मगर आप सो रहे हैं.
रामनवमी की शोभा-यात्राओं पर पत्थरबाज़ी हिन्दू नव-वर्ष पर हुई पत्थरबाज़ी की ही कड़ी है.
पूर्व-नियोजित.
करौली, राजस्थान की यह पत्थर-हिंसा अगस्त 2020 में बंगालुरु, कर्णाटक की अगली कड़ी थी.
पूर्व-नियोजित.
इसके पहले की कड़ी थी 2020 में ही फ़रवरी में दिल्ली में पत्थर-वर्षा.
पूर्व-नियोजित.
ये पत्थर 1990 में कश्मीर के रलीव (मुसलमान बनो), चलीव (छोड़कर भाग जाओ) या गलीव (मारे जाओ) की ही शृंखला में थे.
पूर्व-नियोजित.
1990 का कश्मीर सत्रहवीं शताब्दी में गुरु तेग़बहादुर को जलते तवे पर बैठाने और उनका सिर काटकर चाँदनी चौक में लटकाने के ‘गलीव’ की निरन्तरता में था.
प्रशासनिक स्तर पर नियोजित.
अठारहवीं शताब्दी का नादिरशाही क़त्लेआम अल्लाह के फ़रमान के मुताबिक था.
पूरी तरह नियोजित.
लगभग ढाई-तीन वर्ष पहले मैंने इस पत्थरबाज़ी पर कुछ निवेदन किया था. उस निवेदन के कुछ अंश यह ‘हिन्दू ज़ाकिर नाईक’ यहाँ दोहरा रहा है.
पत्थरबाज़ी को अभी तक हम अपने न्यूज़ चैनलों पर देख-देख कर ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ से आगे और कुछ नहीं समझ रहे. कश्मीर में बरसों-बरस चली पत्थरबाज़ी को कैसे और क्यों हिन्द के हर शहर में लाया गया, बोरियों में भर-भरकर पत्थर क्यों इकट्ठे किए गए, क्यों गाड़ियों-ऑटोरिक्शाओं में ढोये गए और कैसे पूरी प्लानिंग की गई इसकी गंभीरता हम तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम इस्लाम में ‘रज्म’ (रजम) का महत्व नहीं जानेंगे.
अपनी बेशुमार ‘उम्मतों’ में उलझे हुए हिन्द को इतमीनान से मुग़ालता है कि पत्थर और इस्लाम-कनेक्शन जैसा कुछ होता नहीं. चाहे तस्लीम रहमानी हो, चाहे महमूद पराचा, चाहे असदुद्दीन ओवेसी, या फिर शोएब जमई, इन सबके बयानों और गतिविधियों को हम रजम, हिज्राह, शिर्क-अल-अक़बर, दारुल इस्लाम आदि परिभाषाओं को जाने बिना समझ नहीं पाएंगे. मुग़ालते में ही रहेंगे. ये कनवर्टेड हिन्दू लीडरान इन्हीं शब्दों को घिस-घिस कर अपनी ‘वर्क-फ़ोर्स’ को काम में लगाते हैं. जैसे पहले कश्मीर में और अब हिन्द के बड़े हिस्से में लगाया.
जब तक आप इस तरह की पूरी शब्दावली को ठीक-ठीक नहीं जानेंगे, आप यही समझते रह जाएंगे कि कहने वाला अपने मज़हब की आयत के उद्धरण दे रहा होगा. कुछ उस तरह जैसे किसी से गीता का कोई उद्धरण सुना और समझे बिना भी उसे धार्मिक उल्लेख समझ लिया. मज़हब की आयतें ये शब्द नहीं हैं, आयतों की व्याख्या क्यों और कैसे करें उसकी चाबी इस शब्दावली में छिपी है.
‘रजम’ का सीधा-सा मतलब है पत्थर मारना. हज के दौरान शैतान को सात पत्थर मारना भी यही है. ‘हुदूद’ की सज़ाओं के लिए भी शरीयत में ‘रजम’ बताया गया है. ‘हुदूद’ को अपने-अपने प्रान्तवाद-भाषावाद में उलझे हम हिन्द के ‘उम्मती’ इस तरह समझें कि जिसने लक्ष्मण-रेखा पार कर दी, हद से आगे चला गया वह ‘हदूद’ की सज़ाओं का हकदार हो गया. उसे ‘रजीम’ करना ही पड़ेगा. ‘रजीम’ यानी जिसे पत्थरों से मारा जाए. ‘रजीम’ के लिए ‘रजूम’ हो जाना – यानी पत्थरबाज़ बन जाना — मोमिनों पर फर्ज़ है.
समझें — पत्थरबाज़ी मुसलमानों का धार्मिक मान्यता प्राप्त ‘फर्ज़’ है!
हिन्द के हिंदुओं से बढ़कर ‘रजीम’ (पत्थर मारने योग्य) और कौन होगा जो अल्लाह के बराबर बहुत-से देवी-देवता लाकर, ईश्वर की मूर्त्ति बनाकर, और भी बहुत सी मूर्त्तियाँ – जैसे बुद्ध आदि की मूर्त्ति बनाकर हद पार कर गए हैं?
यह ‘शिर्क-अल-अक़बर’ है – बहुत बड़ा कुफ़्र. हिन्दू तो अल्लाह के सिवा दूसरे की भी कसम खा लेते हैं, जैसे ‘राम-कसम’. यह थोड़ा छोटा कुफ़्र है – ‘शिर्क-अल-असग़र’.
इसलिए हिंदुओं के ऊपर पत्थरबाज़ी मुसलमानों पर मज़हब का बताया फर्ज़ है. क़ुरान-ए-मजीद की क़सम!
जो बात ये मुसलिम नेता असलीयत सामने आ जाने से बचने के लिए बोलेंगे नहीं, मगर जिस कारण इन्होंने हमेशा मुसलमानों को ‘रजूम’ अर्थात् पत्थरबाज़ हो जाने को सबाब और फर्ज़ कहकर उकसाया है, उसका आधार है ‘हिज्राह’.
‘हिज्राह’ यानी अपनी जगह से दूसरी जगह जाना. हज़रत मुहम्मद जब मक्का से मदीना गये थे तो वह ‘हिजरत’ थी.
‘हिज्राह’ को मस्जिदों और मदरसों में जिस तरह समझाया जाता है उसे देखते लगता है यह पत्थरबाज़ी तो कुछ भी नहीं!
एक मुसलिम देश से जाकर दूसरे मुसलिम देश में पनाह लेने को सऊदी अरब जैसे देश अथवा अन्य मुस्लिम देश बढ़ावा नहीं देते. उनके मज़हब के आदेश से उन्हें मालूम है मुसलमानों को ग़ैर-मुसलिम देशों में जाकर बसना चाहिए. इसके लिए ये देश बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. इस्लामिक देश यही पैसा उजड़कर आए इन मुसलमानों के कल्याण के लिए ख़र्च नहीं करते. उन्हें ग़ैर-इस्लामिक देशों में बसाना इसलिए ज़रूरी समझते हैं कि वे वहाँ रहकर उन देशों का इस्लामीकरण करें. अगर वे देश सीधे-सीधे नहीं मानते तो उन्हें भी उजाड़ें.
क्योंकि इनके मुताबिक़ इस्लाम ने दुनिया को एकदम साफ़-साफ़ बाँट रखा है. और यह बँटवारा अल्लाह का हुक्म है.
अल्लाह की बनाई इस ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ के लोग इस्लाम पर ईमान लाते हैं ‘दारुल-इस्लाम’ कहलाता है. सभी घोषित इस्लामी देश ‘दारुल-इस्लाम’ (दार-अल्-इस्लाम) हैं.
कुछ जगहें ऐसी हो सकती हैं जहां सब तो मुसलमान नहीं हो गए, मगर ऐसे देशों के पड़ोस में जो ‘दारुल-इस्लाम’ है उसके साथ अगर उनका यह समझौता हो गया है कि हम ‘अपने मुसलमानों का’ पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे तो वे देश ‘दारुल-सुलह’ या ‘दारुल-अहद’ हुए. अर्थ हुआ ‘संधि-प्रदेश’. ऐसे ‘दारुल-अहद’ देशों के ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया हमेशा जारी रहती है.
मगर जो देश जब तक पूरी तरह इस्लामी नहीं बन जाते उन्हें ‘दारुल-हर्ब’ कहा जाता है. ‘दारुल-हर्ब’ – यानी युद्ध क्षेत्र. 1947 में पाकिस्तान बना तो वह था ‘दारुल-इस्लाम’. भारत जो रह गया वह हुआ ‘दारुल-हर्ब’. अतः टुकड़े-टुकड़े गैंग का एक और इंशा अल्ला नारा है – “भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”.
‘दारुल-हर्ब’ में जिहाद हमेशा जारी रहता है. हिन्द है तो जब तक ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ करके ईंट से ईंट न बजा दी जाए, तब तक जिहाद होता रहेगा. बचना है तो इस्लाम क़बूल कर लो.
हमारे ये कन्वर्टेड हिन्दू पूरे मन से जो भी कुछ कहते-करते हैं वह बेमतलब नहीं है.
यदि आप इनकी किसी बात पर भरोसा कर लेना चाहें तो जैसे इनका खाना-पीना ‘हलाल-सर्टिफ़ाइड’ है, वैसे ही इनकी भरोसे-जैसी बात ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ होती है.
‘तक़ीया’ जानते हैं न? वह भी मोमिनों का मज़हब-सम्मत फ़र्ज़ है. सीधा-सीधा शब्दकोषीय अर्थ है — जो बात कहने का मन न हो उसे भी तात्कालिक लाभ के लिए झूठ-मूठ कह दो! जबकि ये तो पूरे मन से, पूरी ईमानदारी से ‘तक़ीया-सर्टिफ़ाइड’ बात कहते हैं. ये जानते हैं, आप ‘तक़ीया’ के बारे में न जानने से चुप लगा जाएंगे. और ये आगे बढ़ लेंगे.
अगर आप इतनी-सी इस बात को पत्थर खा-खाकर हज़ारों साल में भी नहीं समझे तो आप धर्मनिरपेक्ष नियम के अनुसार इस्लाम की इज्ज़त नहीं करते.
आप ‘रजीम’ हैं. पत्थरों से मारे जाते रहना आपकी नियति है और पत्थर मारना ‘रजूमियों’ का मज़हबी फर्ज़ है.
जय श्रीराम.
12-04-2022