एक केमिकल लोचा


[इस लेख में संकलित अनेक विचार व कथन मेरे अन्य लेखों में भी हैं. आवश्यकतानुसार यहाँ पुन: लिखे गए हैं.]

अमेरिका के न्यूरोसाइंटिस्ट सैमुएल हैरिस ने अभी कोई सात साल पहले एक किताब लिखी थी  —  ‘वेकिंग अप’. सैम एक पॉडकास्टर भी हैं, मीडिया के आदमी हैं. तर्क, धर्म, नैतिकता, आतंकवाद से लेकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तक सब उनके लेखन व शोध के विषय हैं. ‘वेकिंग अप’ के पहले ही अध्याय में सैम ने एक्सटेसी नामक ड्रग (methylenedioxy-N-methylamphetamine) का अपना अनुभव बताया है कि कैसे उस रसायन ने उनके दिमाग़ में एक केमिकल लोचा किया. इस अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य-जीवन को ड्रग से नहीं, धर्म-अध्यात्म के केमिकल लोचे से – बौद्ध-चिन्तन पर उनका ज़ोर है, बहुत बेहतर बनाया जा सकता है. ड्रग के प्रभाव में वह अपने निकट बैठे मित्र के लिए अचानक अपार प्रेम से भर गए. इतना कि वह उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर सकते थे. उनके सामने उस मित्र की प्रसन्नता ही सब कुछ हो गई जो उस समय उनके प्रेम का लक्ष्य था. सैम का कहना है कि उस क्षण जो भी उनके दरवाज़े से प्रवेश करता वही इस अपार प्रेम का हिस्सा बन जाता. सैम ने इस अनुभूति को नैतिक परिप्रेक्ष्य में और उसके परे जाकर वर्णन किया है.

सैम हैरिस के अनुभव से यह भी पता चला कि जो भी कुछ दिमाग़ में केमिकल लोचा कर सके उसी के प्रति सजगता अनिवार्य है. फिर वह चाहे ड्रग हो, कोई अन्य नशा हो, धर्म हो, या फिर कोई मान्यता, आस्था, विश्वास या विचार. आचार्य मार्क्स ने तो धर्म को अफ़ीम कहा ही था. 

मुट्ठी भर-भर रात-दिन विचार उलीचने वाला मीडिया दिमाग़ी केमिकल लोचा करने में आज धर्म से बढ़कर ताक़तवर नशा है. इसलिए मेरा यह निवेदन अपने मीडिया-मित्रों से विशेष रूप से है. क्योंकि विचार को अब विज्ञान किसी तरह का धुआँ या गुबार न मानकर एक जीवित सत्ता  — एक  living entity मानता है. इस विषय में अनुसंधान करने वालों ने पाया कि विचार रेंगते हुए एक से दूसरे दिमाग़ में प्रवेश करते हैं.

उदाहरण के लिए मिट्टी के किसी खिलौने या गुल्लक वगैरह की कल्पना कीजिये, जिसे बहुत समय से किसी ऊँची जगह, किसी आले में या किसी अलमारी के ऊपर रखकर छोड़ दिया गया हो. फिर वह एक दिन अचानक हमारे हाथ से गिरकर टूट जाता है. उसमें से निकलकर अनेक कीड़े रेंगते हुए चलते हैं और आस-पास रखी वस्तुओं, फ़र्नीचर आदि में जा छुपते हैं.

इन शोधकर्त्ताओं ने किसी मरते हुए व्यक्ति का उदाहरण देते हुए कहा है कि उस व्यक्ति के विचार भी टूट गए मिट्टी के खिलौने में से निकलकर रेंग आते हैं और आस-पास खड़े लोगों में प्रवेश कर जाते हैं. विचार रह गए, यद्यपि मिट्टी का शरीर गया मिट्टी में. बाइबिल कहती है – डस्ट अनटु डस्ट! किन्तु मुझे लगता है किसी व्यक्ति की हत्या शायद इसलिए नहीं बुरी कहलाती कि वह कोई अधार्मिक कुकृत्य है, बल्कि इसलिए बुरी है कि वह एक विचारहीन हिंसा है.

अच्छे या बुरे विचार कभी मरते नहीं. हमेशा बने रहकर दिमाग़ों में केमिकल लोचा करते रहते हैं.

हो न हो अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस  का भी सम्बन्ध ऐसे ही केमिकल लोचे से है. मीडिया से भी पहले सबसे बड़े लोचा-कर्त्ता धर्म और उसके ईश्वर के बारे में मेरा सोचना कुछ ऐसा है कि मनुष्यों का ईश्वर केवल इसलिए मनुष्यों जैसा है क्योंकि अगर चींटियों का कोई ईश्वर है तो वह चींटियों जैसा होगा, मच्छरों का मच्छर जैसा और बकरियों का बकरी जैसा. वह निराकार परमात्मा जब स्वयं को मनुष्य के रूप में प्रकट करता है तो वह शरीर के गुण-सूत्र – chromosome – से स्वयं को बचाकर नहीं करता. एक्स (X) और वाई (Y) दोनों क्रोमोज़ोम का नियंता यही ईश्वर (प्रकृति) है. यह उसका ख़ुद का निर्णय है कि मनुष्य शरीर में XX क्रोमोज़ोम प्रधान होंगे तो वह मनुष्य-शरीर ‘स्त्री’ कहलाएगा. और जब XY के जोड़ीदार यानी pairing क्रोमोसोम की प्रधानता रहेगी तो मनुष्य-शरीर ‘पुरुष’ होगा. यों दोनों तरह के शरीरों में दोनों तरह के क्रोमोज़ोम मौजूद रहते ही हैं. यह विज्ञान-सम्मत सत्य है. पुरुष-शरीर के Y गुणसूत्र को पूर्ण होने के लिए X की आवश्यकता है जबकि स्त्री XX के साथ अपने आप में पूर्ण है. विज्ञान भी female species को अधिक मज़बूत (stronger) कहता है.

XX और XY क्रोमोज़ोम के सन्दर्भ में ध्यान देना होगा कि पश्चिम का मनोविकास इस पृष्ठभूमि में हुआ है कि हव्वा को आदम की डेढ़ पसली से बनाया गया था. इसलिए जिस तरह पुरुष मूलतः ईश्वर (की सेवा) के लिए है वैसे ही स्त्री (पुरुष की अधीनता) के लिए है. ये संदर्भ बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट में उपलब्ध हैं. स्वर्ग से आदम के पतन की भी वजह स्त्री को ठहराया गया. निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन….(मिर्ज़ा ग़ालिब). पश्चिमी मन पूरी तरह इस ‘आदिम पाप’ – archetypal sin – की छाया में पला-पनपा है तथा एक बुनियादी अपराध-बोध में क़ैद है.

आज से दो-एक दशक पूर्व तक हम east meets west की बात करते ज़रूर थे, और यह भूगोल की बात नहीं थी, मगर सच्चाई यह है कि आज पूरब कहीं है नहीं. विचार के भूगोल में पश्चिम में भी पश्चिम है और पूरब में भी पश्चिम है. इस तरह हमारा यह archetypal sin दुनिया भर के दिमाग़ों में केमिकल लोचा कर रहा है जिसे हम ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ कह रहे हैं ताकि हम अपने आदिम पाप-बोध को थोड़ा-बहुत पूर सकें.

इस केमिकल लोचे का सम्बन्ध सीधे-सीधे original sin के archetype से बन गए हमारे मनोवैज्ञानिक ढाँचे से है. महिला को समानता और आज़ादी भी देगा तो पुरुष देगा! मीडिया को यह सोचना और स्थापित करना है कि डेढ़ पसली तो क्या, स्त्री को कुछ भी देने वाला पुरुष है कौन?

यहाँ फिर दोहरा दूँ कि यह निवेदन समाज का वैचारिक नेतृत्त्व करने वाले मीडिया के प्रति है. मीडिया से इतर समाज में, विभिन्न देशों में नीतियाँ बनाने वाली सरकारों में अपराध-बोध को पूरने से ही सही, स्त्री के पक्ष में जो हुआ है शुभ हुआ है. नोबेल पुरस्कार पाने वाले लेखक वी.एस. नॉयपाल को याद करें तो उनके अनुसार संसार में ये तीन हैं जो वास्तव में शोषित और दलित हैं – भारत के दलित, संसार भर की स्त्रियाँ और स्वयं भारत देश!  

बाइबिल के बाद अब हम भारत के पुराणों को देखते हैं. किसी धार्मिक विवेचन के लिए अथवा कम या ज़्यादा अच्छा-बुरा कहने के लिए नहीं. विचार-संस्कार के archetype जो केमिकल लोचा करते हैं उनकी पृष्ठभूमि में. यों देखा जाए तो कोई विचार यदि विज्ञान-सम्मत होने से श्रेष्ठतर है और उसकी श्रेष्ठता को केवल इसलिए स्वीकार करने से बचा जाए कि वह मूलत: भारतीय मूल का है, उचित नहीं है. मीडिया में तो बिलकुल नहीं.

पुराणों में संदर्भ है कि एक बार नारायण ध्यान लगाकर बैठ गए. ब्रह्मा सहित अन्य देवताओं ने जिज्ञासा व्यक्त की कि भगवान् पद्मनाथ तो स्वयं सबका ‘कारण’-तत्त्व हैं, सब उन्हीं का ध्यान करते हैं. उनसे ऊपर तो कोई है नहीं. तब नारायण किसका ध्यान कर रहे हैं ? नारायण ने स्पष्ट किया कि महामाया जगदम्बिका की शक्ति के बिना मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता. मैं उन्हीं का ध्यान कर रहा हूँ.

इस कारण नारायण स्वयं वही हैं जो आदिशक्ति जगदम्बिका हैं. और आद्याशक्ति देवी वही हैं जो नारायण हैं ! इस शक्ति के बिना शिव केवल ‘शव’ हैं. जब मनुष्य घोषणा करता है – ‘अनल हक़’ —  ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तो वह XY pairing वाले पुरुष-शरीर तक सीमित घोषणा नहीं है. ‘मैं ही सत्य हूँ, ब्रह्म हूँ’ का यह उद्घोष XX क्रोमोज़ोम-प्रधान शरीर वाली मानुषी के लिए भी स्वतः सिद्ध है.

इतना ही नहीं, यह XY और XX भी माया हैं. सृष्टि-चक्र चलता रहे इसलिए हो रही लीला. एक फूल दूसरे फूल पर नया फूल खिलाने के लिए जैसे पराग फेंकने का खेल करता हो. हमसे वही भूल हो रही है जो सन्नाटे पर नहीं शब्द पर, शून्याकाश पर नहीं, पदार्थ पर ध्यान देने में होती है. हम स्त्री देख रहे हैं, पुरुष देख रहे हैं जबकि हमारी क्षमता XX की लीला और XY की माया को देख पाने की है. पुरुष के रिश्ते से हमें XY के pairing क्रोमोज़ोम में फ़िज़िक्स की लीला को देखना है और स्त्री की दिशा से XX क्रोमोज़ोम में केमिस्ट्री की माया को देखना है. पुरुष को श्रेष्ठ कहकर हम मिथ्या सम्भाषण कर रहे हैं. स्त्री को पुरुष के समान बताकर हम उसे उसकी श्रेष्ठता से गिरा रहे हैं. जीवन-चक्र का संचालन करने में यदि XY की pairing ‘बल’ है और घृत की तरह है तो XX क्रोमोज़ोम संचालित जीवन का ‘माधुर्य’ है और मधु की तरह है. घृत और मधु को समान भाग में मिलाने से कोब्रा के विष से भी भयंकर विष बन जाता है. पश्चिमी सोच के मूल अपराध बोध से ऐसा दिमाग़ी केमिकल लोचा हुआ कि समानता के फेर में अधिकांश गृहस्थियाँ विषाक्तता का दंश झेल रही हैं. हर नया फूल (सन्तान) वैसा बनता है जैसी माँ होती है. छत्रपति शिवाजी को माता जीजाबाई ने बनाया. यह मातृत्त्व और कुछ नहीं क्रोमोज़ोम का लोचा है और इस तरह जीवन-शैली का आधारभूत तत्त्व है. विचार का सही केमिकल लोचा लाने से स्त्री-शक्ति को प्राप्त अवसर जस के तस रह जाते हैं, कहीं चले नहीं जाते.

प्रचार-माध्यमों में होती हमारी बात एक नारेबाज़ी, एक औपचारिकता होकर रह जाती है. क्रोमोज़ोम न नारा है, न औपचारिकता. मीडियाकर्मी भी यदि मीडिया के केमिकल लोचे का शिकार होकर बात करेंगे तो समाज में उनकी विशिष्ट हैसियत का क्या होगा?            

मगर लीला और माया को देख पाने मात्र से हिंसा नहीं मिट जाती. जैसे आत्मा अमर है कहने से गर्दन अमर नहीं हो जाती. गर्दन आत्मा नहीं है इसलिए तलवार से कटती रही है. उसी तरह नारायण और उनकी लीला के बावजूद भारत में सब ठीक था या सब अच्छा-अच्छा है, ऐसा कहना अपने आप को छलने जैसा होगा.  धीरे-धीरे पूरब फिर आँख ज़रूर खोल रहा है क्योंकि यह archetype विज्ञान-सम्मत अधिक और धर्म-सम्मत कम है. ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग यहाँ ‘मज़हब’ के अर्थ में हुआ है, गुण-धर्म के अर्थ में नहीं.

मीडिया को इन मौलिक पाप-पुण्य वाली धारणाओं से होने वाले केमिकल लोचे से स्वयं को बचाते हुए देखना यह है कि शिक्षित सभ्य समाज में धन और सत्ता के बल पर चल रहे छद्म को कैसे पहचानें. शोषक-वर्ग के ये विशेष लक्षण पुरुषों के behaviour में अधिक दिखाई देते हैं. अब समानता का दौर है इसलिए आप इन लक्षणों को स्त्रियों में भी देख सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर, धनवान अथवा सत्ताधीश व्यक्ति (पुरुष हो या स्त्री) दूसरों के कल्याण-कार्यों के लिए काम कम करेगा, उनमें रुचि ही नहीं लेगा, दिखावा ज़्यादा करेगा. वह हमेशा दूसरों को एक ख़ास ‘टाईप’ की परिभाषा से आँकेगा. आपसे बात करेगा तो आपसे बराबरी पर आँख मिलाकर बात करने में अपनी हेठी समझेगा. अपने बारे में उसे हमेशा यही लगेगा कि जो भी कुछ वह चाहे उसे वह मिलना उसका जन्मजात अधिकार है. दूसरा कोई भी सामने हो तो वह सवाल किये बिना उसकी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए है. क्योंकि व्यवहार के जो नियम दूसरों के लिए हैं, वे उसपर लागू नहीं होते. गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर ही रखा रहता है और पलटवार के अंदाज़ में जवाब देने में ही उसकी श्रेष्ठता है! क़ानून कोई सा भी हो उसे तोड़ने में उसकी शान है! उसे तो कोई हाथ तक नहीं लगा सकता. वह क़ानून के ऊपर की सत्ता है. उसके ग़ैरक़ानूनी व्यवहार और धंधों में उसे उसी जैसे दूसरे लोगों का साथ और समर्थन भी मिल जाता है.

पैसे और सत्ता वालों के बच्चे बचपन से ही ये सब लक्षण अपने माँ-बाप से सीखते रहते हैं. सत्ता बहुत लुभावनी होती है और बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती है. हिन्दू शास्त्रों ने तो सत्ता के जाल के फैलने को बताया ही इन शब्दों में है : “बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति”! इसीलिये पॉवर आदत डालने वाली चीज़ है. ज़्यादातर यह आदत नशों की होती है.

सबसे ख़ास बात तो यह है कि सत्ता की स्थिति में आने को प्रयत्नशील व्यक्ति हर तरह की सामाजिक हैसियत का इस्तेमाल करके सत्ता में पहुँचता है और पहुँचते ही भूल जाता है कि अब उसे समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार करना उचित है. इस प्रक्रिया में उसने अगर कभी किसी का अहसान लिया होता है तो उसकी खिसियाहट मिटाने के लिए वह दुर्व्यवहार को नॉर्मल मानता है. कभी अहसान का बदला चुकाने के लिए अहसानकर्त्ता को उसकी ज़रूरत भी पड़ सकती है. ऐसे में उसे ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं जो वह नहीं करना चाहता!

इस सब लक्षणों से पुरुष का ध्यान आता है या स्त्री का, कहना मुश्किल है. 

जिस किसी ने अपने को किसी भी पॉवर की हैसियत में माना – पैसा, अधिकार और अफ़सरी, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार की हैसियत, कलाकार का दर्ज़ा, चर्च-मस्जिद-मन्दिर का मठाधीश, आध्यात्मिक गुरु या बाबा, अत्यन्त रूपवती स्त्री — समझ लीजिये कि उसके हाथों अन्याय होने ही वाला है! हमें महिला दिवस, दीन-दुःखी दिवस, मज़दूर दिवस, ग़रीब दिवस, कृषक दिवस, पर्यावरण दिवस, हिन्दी दिवस की, और वह दिन दूर नहीं जब इन्सान-दिवस की ज़रूरत पड़ने ही वाली है. ध्यान दें तो ये सब युग-युगान्तर से  रेंगते चले आये अविचार का केमिकल लोचा हैं.

मीडिया पर ख़ुद यह समझकर औरों को, स्त्री और पुरुष सबको समझाने का दायित्व है कि दूसरों को अपनी सम्पत्ति समझना बन्द करो!  

08-03-2021

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