यदि मैं कहूँ कि मुझ से कभी कोई ग़लती नहीं हुई, मैंने कभी कोई भूल नहीं की, मैं कभी नहीं लड़खड़ाया, अपने जीवन में, अपनी नौकरी में हमेशा केवल ठीक ही निर्णय किये, तो इन सब बातों का केवल एक अर्थ निकलता है – कि मैं झूठ बोल रहा हूँ.
आज की दुनिया के समझदारों के बीच झूठ-झाठ बोलकर कोई कितने दिन टिका रह सकता है, सो सब को मालूम है.
फिर भी आकाशवाणी की दुनिया में एक असत्य का सामना वहाँ काम करने वाले हम सब करते आ रहे हैं – बल्कि कहें कि उस एक ‘असत्य’ को हम सब अपने-अपने खीसे में संभालते आ रहे हैं. सो भी स्वेच्छा से! इस असत्य की पड़ताल में गुरुओं का आशीर्वाद मेरे बहुत काम आया. गुरुओं ने दिया तो बहुत, किन्तु मुझ में इतना ही समा पाया. वही यहाँ प्रस्तुत है.
पिछले दिनों एक वकील साहब की हथेली और बाँह पर एक गिलहरी को प्यार और इतमीनान से खेलते हुए देखा था, कुछ फ़ोटो में. वास्तव में ब्रॉडकास्ट का पूरा-का-पूरा कारोबार संवेदन के संवाद पर चलता है – गिलहरी हो या ग़ज़ल. दोनों अपनी त्वरा में इतने स्मार्ट हैं कि उनके आचरण में किंचित् भी छन्द-भंग उनके कम्यूनिकेशन को तुरन्त पटरी से उतार देता है. सहजता का व्याकरण है ही कुछ ऐसा कि असावधानी या उपेक्षा की नहीं कि गिलहरी और ग़ज़ल, दोनों हमसे छिटक जायेंगी. उन्हें समझने से इनकार उनका नहीं, हमारा छन्द-भंग है.
‘असत्य’ ही छन्द-भंग है, छन्द-भंग का कारण है.
जब रेडियो ब्रॉडकास्ट का सिलसिला शुरुआती दौर में था और लोकप्रिय हो रहा था उस समय शॉर्टवेव और मीडियम वेव वह तकनीक थी जो हमारे प्रसारण का आधार थी. उस तकनीक को इस बात की ज़रूरत थी कि हम श्रेष्ठ मंच-नाटकों, जाने-माने उपन्यासों आदि का रेडियो नाट्य-रूपान्तरण करें और उन्हें लोगों तक पहुँचाएं. किसी उपन्यास को किताब में पढ़ने का जो सुख है, वह उसे नाट्य-रूप में सुनने पर भी उतना ही मिले. क्योंकि इस रूप में उस रचना का मज़ा ही कुछ और है.
‘लोगों तक पहुँचाएं’ से अभिप्राय इस ‘कुछ और ही’ आनन्द को अनुभव करने-करवाने से था. यह अर्थ नहीं था कि ये रचना-धर्मी कृतियाँ लोगों तक पहुँची नहीं थीं. वे प्रसारण-माध्यम के बिना भी उन पाठकों के बीच थीं जिनके बीच उन्हें होना चाहिए था. जो पढ़ नहीं सकते थे, वे उन दिनों रेडियो-सेट भी नहीं ख़रीद सकते थे. इन रचनाओं की ज़रूरत मीडियम वेव-शॉर्टवेव तकनीक को अपनी धन्यता हासिल करने के लिए थी. मूलतः तकनीकी माध्यमों को श्रेष्ठ सृजन-धर्मी रचनाओं की ज़रूरत थी. उपन्यास-कहानियों की, नाटकों की, विचार-वार्त्ताओं की, परिचर्चाओं, सूचनाओं, समाचारों की, जन-सामान्य को नयी-से-नयी जानकारियों में शिक्षित करने में जो सहायक हों ऐसे आलेखों की ज़रूरत थी. शिक्षण के अतिरिक्त मनोरंजन के लिए श्रेष्ठ गीतों और सुमधुर संगीत की ज़रूरत थी.
यह प्रश्न सब तरह से बेमानी था कि इस सब को जन-जन तक पहुँचाने का काम प्रसारण-कर्मियों के सामने कोई ‘चुनौती’ है. चुनौती नहीं, वह सृजन-धर्म के गौरव का सम्मान सुरक्षित रखते हुए एक और सृजन-कर्म था!
जब हम संवेदन और सृजन के सामने सवाल उठाते हैं, उन्हें तकनीक की ‘चुनौती’ नाम के भूखे शेर से मल्ल-युद्ध करने में डालते हैं तो यह पड़ताल ज़रूरी हो जाती है कि छन्द-भंग कहाँ हो रहा है.
विज्ञान की उपलब्धियों से आतंकित होकर उसके प्रति अतिरिक्त आग्रह रखने के कारण आधुनिक मन और बुद्धि किसी भी नयी तकनीक के आते ही चिन्तित हो उठते हैं कि अब रचनात्मकता के सामने चुनौती आ खड़ी हुई है. चुनौती यह कि उसे स्वयं को अब इस नई तकनीक के अनुकूल कैसे ढालना होगा. सृजन-कर्म को अब अपने अन्दर कुछ ऐसे परिवर्त्तन लाने होंगे जिनके चलते वह ‘लोगों तक पहुँचने’ के नवीनतम प्लेटफ़ॉर्म के अनुकूल बन जाये. मीडियम वेव-शॉर्ट वेव से लेकर एफ़ एम तकनीक और फिर डिजिटल माध्यम आदि तकनीक के निरन्तर परिवर्त्तित-विकसित स्वरूप को लेकर रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों के सामने ‘चुनौती’ बताकर ऐसे प्रश्न उठाए जाते हैं. इन प्रश्नों को बेमानी कहना आज ग़ैर-वैज्ञानिक ठहराकर कहने वाले को शर्मिन्दा होने की स्थिति में ला दिया जाता है.
इस चिन्ता को गोबर के उपलों की तरह रेडियो-प्रसारण की दीवार पर सर्वाधिक चिपकाया गया है. विशेषत: एफ़ एम तकनीक आने के बाद से. उपला तो लिजबिजा ही रहा, दीवार ज़रूर सूख गयी. जबकि सत्य यह है कि ऐसी चिन्ता न केवल मिथ्या है, अपितु प्रोग्राम-संरचना के आधार-रूप में जो उदात्त सृजन-शक्ति सक्रिय रहती है उससे अपरिचय की भी द्योतक है.
यही वह झूठ है जिसके कारण रेडियो के तमाम कार्यक्रम रचनाकारों को, प्रोग्राम केडर के सभी लोगों को उनके मूल चरित्र से ही बेदख़ल हो जाना पड़ा. छंद-भंग ऐसा हुआ कि पूरा-का-पूरा मामला हमेशा के लिए बेसुरा हो गया लगता है.
ऐसी मिथ्या चिन्ता को सृजन-शक्ति से तो अपरिचय है ही, इस एक सत्य से आँख चुराये रखने का भी हठ है कि विज्ञान के अपने अंधविश्वास होते हैं. इस सोच को विज्ञान को अंधविश्वासी मानने से इनकार है. विज्ञान तो अन्धविश्वास को दूर करने वाला माना जाता है. यह विचारणीय है कि समाज में प्रचलित अन्य किसी भी कोटि के अंधविश्वास किन्हीं अनुभवों पर आधारित होने से शायद उतने ख़तरनाक न भी हों, जितने अवांछित परिणाम लाने वाले विज्ञान के अंधविश्वास हो सकते हैं, क्योंकि वे तथ्यों से निकले होते हैं. विज्ञान तथ्य-परक है.
विज्ञान और तकनीक को लेकर एक बहुत बड़ा अन्ध-विश्वास यह है कि वह एक क्रान्ति है. वह परम्परा-भंजक है. जबकि सत्य इसके एकदम विपरीत है. सच तो यह है कि विज्ञान की एक परम्परा होती है. एक लंबी परम्परा के बिना विज्ञान चल ही नहीं सकता. हर नया वैज्ञानिक दरअसल अपने से पहले वाले वैज्ञानिक के कन्धों पर पाँव टिकाकर खड़ा होता है. वैज्ञानिक का काम इतना चुनौती भरा है कि आगे बढ़ने के लिए उसे पहले की कोई खोज चाहिये, चाहे वह अकस्मात जान लिया गया कोई प्राकृतिक रहस्य ही हो. ध्यान से देखें तो आर्किमिडीज़, पायथागोरस, गैलीलियो, न्यूटन से लेकर आइन्स्टाइन तक विज्ञान के हर क्षेत्र की एक परम्परा है. बीच की एक भी कड़ी निकाल दीजिये, सब ताश के पत्तों से बनी मीनार की तरह भरभरा कर ढह जाएंगे.
विज्ञान एक परम्परा है, पारम्परिक शृंखला है. तकनीक इस परम्परा की घिसावट में से निकला बुरादा है.
इसका यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान निन्दनीय अथवा त्याज्य है. विज्ञान और उसपर आधारित तकनीक उपयोगी हैं. चाँद पर जाना हो और कोई कहे मैं तो अपनी घोड़ा-बग्घी या बैलगाड़ी में ही जाऊँगा तो नहीं चलेगा. यहाँ विज्ञान और उसका बनाया यान ही उपयोगी है. यों, बग्घी और बैलगाड़ी भी आख़िर किसी तकनीक से काम करते थे, करते हैं.
बग्घी से ध्यान आया, सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में, अमेरिका में भी, ‘स्टेजकोच’ या ‘स्टेजवैगन’ नाम की बग्घियाँ चला करती थीं. ये आम तौर पर चार घोड़ों से चलती थीं और लम्बे सफ़र में काम में लायी जातीं थीं. इन में पैसा देकर (टिकट?) यात्रा की जाती थी. बीच-बीच में ‘स्टेज-स्टेशन’ भी हुआ करते थे जहाँ रुककर ‘कोच’ के घोड़े बदलकर ताज़ादम घोड़े जोते जाते थे.
जब स्टीम इंजन वाली गाड़ी आयी तो ‘स्टैंडर्ड गेज’ की जो रेल-पटरियाँ बिछायी गयीं वे ‘स्टेजकोच’ के दोनों तरफ़ वाले पहियों की दूरी पर थीं! इस परम्परा को निभाने के बाद ज़रूरत के अनुसार ब्रॉड-गेज, मीटर-गेज या नैरो-गेज की पटरी बिछाना कहाँ मुश्किल था?
दुनिया भर में ट्रेन का आज तक चला आ रहा रेलवे गेज ‘स्टेजकोच’ की परम्परा में है! ‘वैगन’ और ‘कोच’ जैसी संज्ञायें तो ख़ैर इस परम्परा की हैं ही.
यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जेम्ज़ वाट ने जो स्टीम इंजन बनाया था वह टॉमस न्यूकमेन नाम के इंजीनियर द्वारा पहले बनाये गए स्टीम इंजन की परम्परा में था.
यह विज्ञान का अपना अंधविश्वास है कि वह परम्परा-भंजक है. दरअसल विज्ञान एक परम्परा है.
सृजन-क्रिया के लिए ऐसा कहना सही नहीं है. तात्कालिक दृष्टि से – प्रथम दृष्ट्या ऐसा लग सकता है कि रचना-संसार में भी परम्परा होती है. कृष्ण-काव्य की परम्परा है. राम-काव्य में वाल्मीकि की ‘रामायण’ से लेकर मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ तक एक परम्परा है.
किन्तु मेरे देखते रचना की प्रक्रिया प्रथम-दृष्ट्या तथ्य को चीरकर गहरे उतरती है. राम-काव्य की परम्परा में से तुलसी को हटा देने से आकाश का एक जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र अवश्य लुप्त हो जाता है, मगर राम-काव्य की परम्परा विज्ञान की माफ़िक भरभरा कर ढह नहीं जाती.
इसे यों समझना होगा. दैनन्दिन सूर्योदय प्रकृति की एक परम्परा है. खगोल-विज्ञान ने बता दिया है कि — विज्ञान के महत्त्व से इनकार नहीं है, उसे सिर पर बैठा देने पर पुनर्विचार किया जा रहा है — सूर्य रोज़-ब-रोज़ बुझता जा रहा है. करोड़ों वर्षों में यह कभी पूरा बुझ जायेगा. इसलिए नित्य का सूर्योदय सदा एक बदले हुए, एक नये सूर्य का उदय है. कल का सूरज आज नहीं उगा, आज का कल नहीं उगेगा. कहाँ है परम्परा? ठीक ऐसे ही रचना के संसार में प्रत्येक कवि, लेखक और सृजन-कर्त्ता का सूरज परम्परा में नहीं, अपनी स्वतन्त्र सत्ता में नया ही उगता है.
रेडियो-प्रसारण को केवल प्रोपेगेण्डा-प्रसारण मान लेना और ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ से आगे न देखना, इसे केवल रेवेन्यू-कमाई का साधन मान लेना जो कर सकता था उसने किया. सर्जनात्मक प्रतिभा की पहचान गँवा देने से ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ को ‘गनपत दारू ला’ में बदल दिया. प्रोग्राम केडर के हम लोगों का क्रोध इस पर सदा करबद्ध ही रहा. मेरे कवित्त पढ़ो तो लगे क्रोध है. यह सावधानी ज़रूर रखता हूँ कि सत्ता को बस जुड़े हुए दो हाथ नज़र आयें!
सांस्कृतिक आत्महत्या की टेक लिये हुए मन और सृजन की हाराकीरी पर उतारू बुद्धि को छत से कूद जाना हर बार एक चुनौती जैसा लगता रहेगा.
रचना-कर्म की अन्तश्चेतना और विज्ञान की बाह्य-दृष्टि में अन्दर-बाहर का यह जो अन्तर है, वह भी विज्ञान को अन्धविश्वास में धकेलने का काम करता है.
एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिये जो रात के अँधेरे में चला जा रहा है. रास्ते के रोड़ों-रुकावटों से टकराते-जूझते धीरे-धीरे उसका आगे बढ़ना ही उसकी विकास-यात्रा है. लेकिन विज्ञान की दुनिया में इसे विकास कहना इसलिए अंधविश्वास है कि यात्रा को मंज़िल नहीं माना जा सकता. आख़िर आँख बन्द करके विश्वास कर लेने को ही अन्धविश्वास कहते हैं.
इसी भूल के चलते विज्ञान के निष्कर्ष कुछ वर्षों के भीतर बदल जाते हैं. अँधेरे की इसी यात्रा को न्यूटन ने विशाल सागर के किनारे कंकड़ बीनना कहा था. थॉमस एडिसन ने भी स्वीकार किया था कि हम एक प्रतिशत का दस लाखवाँ हिस्सा भी नहीं जानते हैं.
अँधेरे में चल रहा व्यक्ति अपनी टॉर्च की रोशनी डालता है और सामने सड़क के गहरे गड्ढे का तथ्य उसके हाथ लग जाता है. टॉर्च ने निस्सन्देह गड्ढे से बचने में उसकी मदद की. थोड़ा आगे जाने पर टॉर्च की बीम ने जो दिखाया उससे तथ्य बदल गया. अब गड्ढा नहीं, एक बड़ी चट्टान रास्ते की रुकावट है. टॉर्च की मदद से वह चट्टान से टकराने और चोट खाने से भी बच गया. उसके आगे की यात्रा कभी रास्ते पर भरे पानी की सूचना लाती है तो कभी ऐसे ख़तरनाक मोड़ की जहाँ से गहरी खाई में गिरने का भय था.
हर क़दम परिवर्तित स्थिति और तदनुसार नये निष्कर्ष में ले जाने का ही काम करता है. यह विज्ञान और तकनीक की नियति है.
मगर यदि आसमान में अचानक बिजली चमक जाए तो सामने के पत्थर, खड्डे, पानी, मोड़ और खाई एकबारगी दिखलाई पड़ जाते हैं!
जब यात्रा न तो टॉर्च की मदद से, न आकाश में चमक कर ग़ायब हो जाने वाली बिजली में बल्कि चमचमाते सूर्य के प्रकाश में होती है तो सब कुछ साफ़-साफ़ देखकर निष्कर्ष दिये जाते हैं. इन निष्कर्षों पर पहुँचने का नाम है रचनाशीलता, सर्जन-प्रक्रिया, सृजन-कर्म, और प्रसारण की भाषा में कहें तो प्रोग्राम-धर्म!
यह ‘प्रोग्राम-धर्म’ कैसे काम करता है और क्या कर दिखलाता है, विज्ञान के अंधविश्वासों से प्रभावित व्यक्तियों ने ‘पॉज़िटिव पब्लिसिटी’ में इसकी प्रभाविता को देखा और उसे रेवेन्यू-कमाई से जोड़ने में देर नहीं लगायी. विज्ञान नियम-नियंत्रित है. इसलिए प्रोग्राम की ‘स्वतन्त्र सत्ता’ को इस तरह नियन्त्रित करके ही बदलती तकनीक को चुनौती की तरह पेश किया जा सकता था. स्वतन्त्रता विज्ञान-बुद्धि को भयभीत करती है! जर्मनी के मनोविश्लेषक एरिक फ़्राम ने तो ‘The Fear of Freedom’ नाम की किताब ही लिख डाली थी!
जो ये महानुभाव नहीं देख पाये, जिसे देखने के लिए परम्परा के पार जा सकने की क्षमता का वरदान चाहिये, जो वरदान केवल सृजन-कर्म अर्थात् प्रोग्राम-धर्म को उपलब्ध है, उसे देखना ज़रा गहरी बात है. उस गहराई तक जाने के लिए वैज्ञानिक तर्क-बुद्धि नहीं, आर्टिस्ट-मिजाज़ काम लगेगा.
आपको याद होगा, ‘रामायण’ के लिए कहा जाता है, महर्षि वाल्मीकि ने उसे राम के जन्म लेने से पहले ही लिख दिया था. सदियों से यह कथन चला आता है. तर्क-बुद्धि ने इस बात को मोड़ देकर इसे ‘नियतिवाद’ बता दिया कि सब कुछ पूर्व-निर्धारित होना भाग्यवाद है. मेरी समझ से वह कोई रेडियो का आदमी रहा होगा जिसने राम-जन्म के पहले ‘रामायण’ का लिखा जाना बताया.
क्योंकि सब कुछ स्क्रिप्टेड है!
वाल्मीकि जैसा कवि कुछ लिख दे तो ब्रह्म को भी आकर उसे निभाना होता है. अब आप कल्पना कीजिये, राम को ब्रह्म होते हुए भी राज-पाट छोड़ना पड़ रहा है, वन जाना पड़ रहा है, सीता के चुरा लिए जाने पर, या लक्ष्मण को मूर्च्छा आने पर रोना पड़ रहा है. राम ब्रह्म हैं भी, नहीं भी हैं, बस मनुष्य हैं. इधर रामलीला में जिस मनुष्य को राम की भूमिका निभानी है, वह भी जानता है, वह राम नहीं, पड़ोस वाला रामचन्द्र गुप्ता है. यदि वह अपने को सचमुच राम समझ बैठे तो सीता के चुराये जाने पर उसे हार्ट अटैक आ जाएगा और खेल वहीं रुक जाएगा. वह राम है भी, वह राम नहीं भी है!
रेडियो में लोहा सिंह बने रामेश्वर कश्यप लोहा सिंह भी थे और रामेश्वर कश्यप भी थे. रमई काका बहरे बाबा थे भी, नहीं भी थे, जानकी दास भारद्वाज ठुणिया राम भी थे, और जो वह थे वह भी थे. ‘काके दी अम्मा’ का रोल करती हुई सुखजिन्दर कौर काके की अम्मा भी थी, सुखजिन्दर भी थी!
सब कुछ एक Psycho-Drama है और था! सृजन-कर्म यह साइको-ड्रामा क्रियेट करके श्रोता को पॉज़िटिव पब्लिसिटी के पॉइंट बता रहा है — रक्त-दान करना है, दहेज़ नहीं माँगना है, सद्भाव बनाकर रखना है, फिजूलख़र्ची नहीं करनी है, वगैरह-वगैरह. हमारे सामाजिक इसी तरह समझते आये हैं कि उनकी परिस्थितियाँ भी और कुछ नहीं, साइको-ड्रामा हैं और उन सब के बीच अपनी भूमिका निभा ले जाना उनके अपने हाथ में है.
यह काम प्रोग्राम-धर्म का है, किसी तकनीक का नहीं. किसी ऑफ़िस ऑर्डर या संसद् में बने क़ानून का भी नहीं. चुनौती अगर कोई है तो तकनीक के सामने है कि प्रोग्राम-धर्म को नये प्लैटफ़ॉर्म पर कैसे ले जाना है.
क्योंकि कल आपकी टॉर्च की बीम किसी अन्य निष्कर्ष पर पड़ने ही वाली है. प्रोग्राम धर्म को उससे क्या?
कविवर बिहारी की नायिका एड़ियाँ ऊँची करके पंजों के बल उचकी है, दोनों बाँहें ऊपर को उठी हुई हैं क्योंकि वह दही की हाँडी छींके पर रख रही है. या शायद उतार रही है. छींके को छुए हुए वह बहुत नीकी, बेहद ख़ूबसूरत लग रही है. कवि का दोहा है –
अहे दहेंड़ी जिनि धरै, जिनि तू लेइ उतारि
नीके ह्वै छींके छुवै, ऐसे ही रहि नारि।
“हे सखि! तू न तो दही हाँडी को छींके पर रख, न उसे उतार. छींके को छुए हुए तू सुन्दर दिखती है, इसलिए हे नार! बस ऐसे ही रह जा.”
इस ‘ऐसे ही रहि नारि’ में आपने कैमरे की ‘क्लिक’ सुनी? सृजन धर्म को कैमरे की दरकार कहाँ है? उलटे, कैमरे की तकनीक को फ़ोटो खींचने के लिए ऐसे या अन्य दृश्यों की ज़रूरत रहेगी.
इसका यह भी अर्थ नहीं कि सर्जनशीलता के सामने कोई चुनौती नहीं है. वस्तुतः वह स्वयं अपने सामने एक चुनौती है. मिसाल के तौर पर, आज जो महागाथा (एपिक) लिखी जायेगी, वह न तो ‘महाभारत’ जैसी होगी, न ‘इलियड’ या ‘ईडिपस’ जैसी. शायद आज का कोई एपिक ‘वार एंड पीस’ की तरह लिखा जा सकेगा. सवाल यह भी है कि महागाथा के लिए आज अवसर है भी या नहीं है? गाथा पुरातन या ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित नहीं होगी तो क्या केवल फ़ेन्टेसी होगी? इस तरह के अनेक प्रश्न हैं जो सृजनात्मकता के सामने चुनौती हैं. इनका उत्तर उचित समय पर रचना-धर्म के अन्दर से आयेगा.
दुनिया और जीवन बेहद रंगीन हैं. तरह-तरह के रंग हैं! मगर सपने सभी केवल ब्लैक एण्ड व्हाईट में आते हैं. ऐसा सोचना भी कि तकनीक अपने किसी भी परिवर्त्तन के बाद रचना-प्रक्रिया के सामने कभी चुनौती बनकर आ पायेगी, एक सपना है, बदलते निष्कर्षों का कोई ब्लैक एण्ड व्हाईट सपना! यह कल्पना बहुरंगी जीवन की सर्जनात्मक जिजीविषा के सामने चुनौती बनकर कभी आ नहीं पायेगी.
रचना-कर्म ने ऐसी ब्लैक एण्ड व्हाईट ना-इंसाफ़ी के सामने जाने किस गफ़लत में उँगलियों को मुट्ठी में बाँधकर, बाँहें ऊपर उठाकर कभी विरोध नहीं किया! भिंची मुट्ठियों वाले कर-बद्ध क्रोध की तासीर कुछ अलग है!
2 दिसम्बर, 2020