ध्रुवीकरण


बीजेपी ने ध्रुवीकरण की हद्द कर दी!

कुछ लोगों का ऐसा कहना है.

बीजेपी के साथ इसे जोड़ना यह स्थापित करने में काम आएगा कि ‘ध्रुवीकरण’ ऐसी गाली है जिसे मोदीजी को दी जाने वाली गालियों के अम्बार में मुट्ठी-भर और डालने के लिए बचाकर रख लिया जाए.

‘ध्रुवीकरण’ गाली इसलिए है कि यह समाज में मौजूद अच्छे-ख़ासे अनेकानेक मतभेदों का कुछ ऐसा पनीर जैसा बना देता है जिससे लोग आसानी से ‘हम’ बनाम ‘वो’ करने-कहने में सक्षम हो जाते हैं! तब इन विभिन्न मत-वादों के लिए चिल्ला-चिल्लाकर कहना पड़ता है कि इनकी मौजूदगी बहुत नॉर्मल-सी बात होनी चाहिए थी, ‘हम-वो’ से दूध फाड़कर पनीर क्यों?

कोई-कोई ध्रुवीकरण के लाभ भी बताता है. सो यों कि किसी एक राजनैतिक दृष्टि का चयन आसान हो जाने से लोकतन्त्र में लोगों की राजनैतिक हिस्सेदारी बढ़ती है और राजनैतिक पार्टियाँ मज़बूत बनती हैं.

इस तरह मुँह में कई-कई ज़ुबान रखने वाले लोग ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करना और निशान बीजेपी के गाल पर लगा देना अपने लिए आसान बना लेते हैं.

बीजेपी की बीजेपी जाने, हमें क्या मतलब? हमें सरोकार है अपने देश और उसके लोगों से. ईमानदारी से ‘राष्ट्र प्रथम’ हो जाये तो ठीक क्या और ग़लत क्या अपने आप हमें मालूम होता चलता है. जो ठीक के पक्ष में होते हैं, ‘ठीक’ ऑटोमेटिकली उनके पाले में चला जाता है, और ‘ग़लत’ ग़लत वालों के पाले में. कसौटी हमेशा यह रहती है कि ‘राष्ट्र प्रथम’ है या नहीं, या फिर मेरे सुने-सुनाये मत-वाद के लिए सोच-समझ के बिना हो रही मेरी बयानबाज़ी महत्त्वपूर्ण है! इस कसौटी को कोई भी कभी भी आज़मा देखे. ‘स्वयं’ से बाहर आए बिना ‘कसौटी’ की स्वीकृति नहीं होती, नहीं हो सकती.

देखा जाए तो ध्रुवीकरण कब और कहाँ नहीं रहा? ‘कम्यूनिज़्म’ और ‘लोकतन्त्र’ दो ध्रुव नहीं थे? या फिर ‘उदारवाद’ और ‘रूढ़िवाद’? ‘समाजवाद’ और ‘पूँजीवाद’ को क्या कहेंगे? या छोड़िए, सीधे-सीधे कहते हैं – ‘ग़रीब’ और ‘अमीर’? ये दो ध्रुव नहीं हैं? मार्क्सवादी शब्दों में ‘सर्वहारा’ और ‘बूर्जुआ’ दो ध्रुव नहीं तो और क्या थे? या ‘मालिक’ और ‘मज़दूर’? और, आज तक जो ‘औद्योगीकरण’ बनाम ‘कृषि-कृषि’ खेला गया, क्या वह ध्रुवीकरण नहीं था? और भारत जिस ‘साम्राज्यवाद’ से जूझते हुए ‘राष्ट्रवाद’ में से गुज़रकर आज़ाद हुआ सो? जिसे ‘तीसरी दुनिया’ कहकर ‘अमेरिकी-सोवियत ब्लॉक’ के मुक़ाबिल खड़ा करने की कोशिश हुई उसे ध्रुवीकरण कहेंगे या नहीं? अस्सी-सौ साल पहले लड़े गए विश्वयुद्धों में ‘मित्र-राष्ट्र’ बनाम ‘धुरी-राष्ट्र’ दो ध्रुव नहीं थे? फिर उसके बाद ‘नाटो’ बनाम ‘सोवियत’?

सच कहें तो मानव-सभ्यता सदा इतने सब ध्रुवों में से गुज़री है तब जाकर किसी या किन्हीं परिणामों पर पहुँची है. 

तब हिन्दू-मुसलमान के ध्रुवीकरण से क्या?

क्षमा कीजिये, ऐसा कोई ध्रुवीकरण है ही नहीं! होता तो किसी परिणाम पर पहुँचने की सोची जा सकती थी! 1947 में मज़हब को एक ध्रुव बताकर ज़बर्दस्ती भारत का जो विभाजन किया गया वह परिणाम पर नहीं, दुष्परिणाम पर पहुँचने जैसा था!! ‘दार-अल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) के हासिल को ‘परिणाम पर पहुँचना’ मानने वाले कौन लोग हैं?

अब तक मैं भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ वाला एक बौड़म हुआ करता था. मगर लगातार कई महीनों तक चलने वाले दिल्ली  के शाहीनबाग़ वाले कब्ज़े ने बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखा दिया है. यह कब्ज़ा न तो कोई आंदोलन था, न जन-आंदोलन, न प्रदर्शन, न विरोध-प्रदर्शन और न कोई संवैधानिक अधिकार. यह भदेस क़िस्म की मुसलमानी इस्लामिक ताक़त का दिखावा मात्र था, जिसकी न ज़रूरत थी, न औचित्य. यह निरर्थक हड़बोंग अराजक और ग़ैर-संवैधानिक थी जिसने expose कर दिया ‘ऐसे वाले’ मुसलमान हमेशा ग़लत क्यों होते हैं.

यदि किसी की अन्तड़ियाँ कुलबुलाने लगी हों कि यह तो मुस्लिम-विरोधी बात होने लगी, वह आगे पढ़ना बन्द करने को स्वतंत्र है. उसे फिर कभी मित्र-भाव से न देखा जा सकेगा. इसके लिए मैं स्वतन्त्र हूँ. मित्र-भाव के लोप का कारण मुसलमानों का पक्ष या विरोध नहीं बल्कि ऐसे लोगों के दिलो-दिमाग़ में ‘राष्ट्र प्रथम’ की कसौटी का न होना है. मुसलमानों को लेकर तो अभी पूरी-पूरी और खुली बात करना बाक़ी है. राष्ट्र-द्रोही जो बोलते हैं, उनके बोलने का क्या?

या तो जो हैं ना-फ़हम वो बोलते हैं इन दिनों,

या जिन्हें ख़ामोश रहने की सज़ा मालूम है.

तय कैसे होगा इन लोगों में राष्ट्र-भाव है या नहीं? तय करने के लिए रॉकेट-साइंस की कहाँ ज़रूरत है?

देश के लिए जब सही दिशा में काम होता हो तब भी रोड़े अटकाते चले जाना और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के साथ खड़े होने के लिए सौ तरह के जस्टीफ़िकेशन दिये चले जाना क्या इंगित करता है?

कभी सिराजुद्दौला को अंग्रेज़ों से पिटवाकर ख़ुद बंगाल का नवाब बन जाने वाला मीर जाफ़र हुआ था. उसके पहले पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए पिटे हुए मुहम्मद गौरी को न्योतने वाला जयचंद भी हुआ था. उसके भी पहले आम्भीक (आम्भी) — राजा पुरुवास (पोरस) के विरुद्ध सिकंदर की मदद करने वाला — हो ही चुका था. इन सबके पहले विभीषण की भी कथा हम सब जानते हैं जिसे स्वयं राम-भक्तों ने ‘घर का भेदी’ कहा था. इन सभी के पास देश-द्रोह के लिए अपने-अपने justification मौजूद थे. इन्हें किसी और ने नहीं, मार्क्सी इतिहासकारों ने अपने इतिहास-पोथों में ‘देशद्रोही’ की संज्ञा दी थी. ऐसा कैसे कि इन सबके जस्टीफ़िकेशन तब तो ग़लत थे, मगर आज के मार्क्सवादी एक्टिविस्ट रणबाँकुरों की ज़ुबान से उच्चरित होते ही वही सारे देश-विरोधी तर्क सही हो जाते हैं? उन्हें किसी से देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं रहती?

तीन तलाक़ से लेकर CAA-NRC तक के तमाम मुसलमानी भड़कावे पर आधारित शाहीनबाग़ का अनाप-शनाप समर्थन इस बात की सूचना दे रहा है या नहीं कि ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव इन लोगों में है ही नहीं? राष्ट्र-भाव की बात करने में हिन्दूपन कहाँ से घुस गया? आपके कहे अनुसार, अगर घुस ही गया तो क्या आप स्वयं नहीं कह रहे राष्ट्र हिंदुओं का है इसलिए वे चिंता कर रहे हैं?

क्या तीन तलाक़ की कुप्रथा समाप्त होना मुसलमान-विरोधी है? क्या कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय राष्ट्र-हित नहीं है? तब धारा 370 पर समुचित निर्णय मुसलमान-विरोधी कैसे है? क्या अयोध्या का न्याय राम-मंदिर के मसले को राजनैतिक मुद्दा बनाये रखने की वृत्ति पर प्रहार नहीं है? क्या नागरिकता संशोधन मुसलमानों की नागरिकता छीन लेने के लिए है या अन्याय के शिकार लोगों को नागरिकता देने के लिए है? जिन्हें किसी भी अन्य देश में नागरिकता नहीं मिल सकती उनके लिए है? नागरिकता रजिस्टर (NRC) जब भी आयेगा — आना भी चाहिए — हिन्दू हो या मुसलमान हर घुसपैठिए को निकाल बाहर करेगा या सिर्फ़ मुसलमानों को? इस पर झूठ किस राजनीतिक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए बोला जा रहा है? वर्त्तमान CAA केवल दिसंबर 2014 तक सीमित है, तब उसके लिए यह झूठ क्यों कि आगे आने वाले NRC में इससे हिन्दू को फ़ायदा दिया जाएगा, मुसलमान को नहीं? गृहमंत्री ने लोकसभा में कहा  chronology समझिये, पहले CAA तभी NRC. इस बयान का बहाना लेकर शाहीनबाग़! सच समझे-जाने बिना? जब एक सांसद ने CAA और NCR एक साथ लाने पर आपत्ति की थी तब गृहमंत्री ने समझाया था CAA से जब तक देश के उचित नागरिक तय नहीं हो जाते तब तक नागरिकता रजिस्टर कैसे आ सकता है? दोनों एक साथ हैं ही नहीं. पहले नागरिकता संशोधन फिर नागरिकता रजिस्टर! यह है chronology. इसे समझिये. इस बात में बतंगड़ कहाँ है कि नानी-दादियाँ घर से निकाल बाहर कीं?

और, शाहीनबाग़ की दादी-नानियों ने क्या सुना? कि जब फूफी के मूँछ निकलेगी तब ये काफ़िर मोदी वगैरह ज़बर्दस्ती करेंगे किअब फूफी को चचा कहो! दादी तो दादी, पोते-पोती-नाती-नातिन ने भी यही माना और एसिड-पत्थर-पेट्रोल से इस्लाम सुरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया!

चलिए, राष्ट्र-भाव की इस ‘हाँ’-‘ना’ के ‘ध्रुवीकरण’ के साथ किसी परिणाम पर पहुँचने की कोशिश करते हैं.

शाहीनबाग़ में महीनों तक भारत सरकार ने कोई पुलिस एक्शन नहीं किया.

क्यों?

16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का इतिहास भूलने वाले देशवासी इतिहास दोहराने को अभिशप्त हुए और उस दिन के बिम्ब के रूप में उन्हें शाहीनबाग़ उपलब्ध हुआ. ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा हड़ताल के रूप में हुई थी. यह घोषणा मुस्लिम लीग काउंसिल ने पाकिस्तान बनने के समर्थन में ऐसी ही raw मुस्लिम ताक़त का परिचय देने के लिए की थी. इसकी वजह से देश-भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे जो उस दिन तक के सबसे भयानक दंगे कहे जाते हैं.

शाहीनबाग़ का कब्ज़ा शुरू होते ही मुस्लिम नेताओं-प्रवक्ताओं की 1946 वाली छटपटाहट साफ़ दिखायी पड़ रही थी. कैसे भी पुलिस एक्शन हो जाए और पूरे देश में जगह-जगह दंगे हो जाएं, इस मन्नत पर ‘आमीन’ पूरी शिद्दत के साथ मुसलमानों की ज़रूरत था. पुलिस एक्शन न होने से मुसलमानों की यह हाजत पूरे देश में पूरी न होकर दिल्ली तक सिमटकर रह गई.

दिल्ली भी इसलिए क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दिल्ली में मौजूद थे. संसार भर में हिंदुस्तान पर लानत भिजवाने का ज़बर्दस्त मौक़ा मुसलमानों के हाथ में था. लिहाज़ा, दिल्ली में खुलकर दिखा दिया गया कि इस्लामीकरण के लिए जारी जिहाद वाली ज़मीन ‘दार-उल-हर्ब’ — Land of War — की शक्ल कैसी होती है. शाहीनबाग़ में जिस जिहादी आतंकवाद ने आँख खोली उसकी शुरुआत जामिया मिलिया के तथाकथित ‘छात्र आंदोलन’ से और अमानतुल्ला खाँ के तीन तलाक़, धारा 370 वगैरह पर ‘हमारी ख़ामोशी को हमारी कमजोरी समझा’ वाले भाषण से हो चुकी थी.

इसके बाद से घट रही हर घटना ने इस सच पर रोशनी डाली है कि वास्तव में मुसलमान चाहते क्या हैं. यह चाहत पुन: चुपचाप अन्दर ही अन्दर सक्रिय रह सके इसके लिए देशद्रोहियों सहित हर मुसलमान नेता-प्रवक्ता-मौलवी बढ़-बढ़कर अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और जाने कौन-कौन से ‘हिन्दू’ नाम गिनवा रहा है ताकि हमेशा की तरह ‘तुम भी दोषी-हम बाद में दोषी’ की चौपड़ बिछायी जा सके और फिर सब वैसे ही चलने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं. मुसलमानों के मन में हिन्द केवल जिहाद-ज़मीन ‘दार-अल-हर्ब’ है, मानो यह सत्य उजागर हुआ ही नहीं!

जब तक “Fuck Hinduism” कहा जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. “सब बुत उठवाये जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्ला का” गाया जाता रहा, कोई दंगा नहीं भड़का. सरेआम “Free Kashmir” के पोस्टर लहराये जाते रहे, कोई दंगा नहीं भड़का. “मोदी और शाह को कुत्ते की मौत मारेंगे” घोषित करते जाने से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत का चिकन-नैक् काट दो” वाले भाषण से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत में हर जगह सड़कें ब्लॉक कर दो ताकि यह अंदर ही अंदर आर्थिक रूप से ख़त्म हो जाये” के प्लान से कोई दंगा नहीं भड़का. “हर जगह शाहीनबाग़ बना दो” के भाषणों से कोई दंगा नहीं भड़का. “हिन्दू तेरी क़ब्र खुदेगी” के गान से कोई दंगा नहीं भड़का. “सभी मुसलमान अपनी ख़ातूनों और बच्चों सहित घर से बाहर निकलकर जाम लगा दो”  के आह्वान से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो फिर देखो” से कोई दंगा नहीं भड़का. “15 करोड़ 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे” से कोई दंगा नहीं भड़का. “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह” से भी दंगा नहीं भड़का.

जैसे ही कपिल शर्मा ने कहा, हर जगह शाहीनबाग़ नहीं बनने देंगे, तीन दिन में जगह खाली करो — कि दिल्ली में सीरिया उतार लाये! हिन्दू-मुसलमान बराबर के गुनहगार कैसे हो गए? ‘देश के ग़द्दारों को’ ही तो कहा, ‘मुसलमानों को’ तो नहीं कहा. ओवेसी ने कैसे कह दिया “मुझे मारो गोली”? ख़ुद ही ख़ुद को ग़द्दार कह रहा है और हत्याएं हो रही हैं उनकी जो ग़द्दार हैं नहीं. “पत्थरबाज़ कपड़ों से पहचाने जाते हैं”, इतना ही तो कहा, “मुसलमानों के कपड़ों से” तो नहीं कहा. उसी ओवैसी ने कैसे कह दिया “मेरे कपड़े आपके कपड़ों से ख़राब हैं क्या”? ख़ुद ही कह रहा है पत्थरबाज़ मुसलमानी कपड़ों में हैं, और मारे जा रहे हैं वे मुसलमान जो मुसलमानी कपड़े ही नहीं पहनते!

मुसलमान पादते रहें और हिन्दू चुपचाप सूँघते रहें, कोई दंगा नहीं होता. हिन्दू को डकार भी आ गई तो दंगा भड़क जाता है. मुसलमानों के पास दंगा तैयार ही रहता है. तैयारी भी रहती है. 

ग़द्दारों के लिए ‘गोली मारो’ नहीं तो ‘आरती उतारो’ कहा जाएगा? देश के कुछ नागरिकों की दादी-नानियाँ ग़लत-सलत कुछ भी मानकर सड़क रोके बैठी रहें, और कोई अन्य नागरिक ‘अब और सहन नहीं’ भी न कहे? जबकि सिर्फ़ कहा, किया कुछ नहीं. मुसलमान कहते नहीं, बहुत ज़्यादा कर रहे होते हैं. जितना कहते भी हैं, वह ‘तक़ीया’ (कपट, झूठ) के इस्लामी प्रावधान के अधीन कहते हैं ताकि पकड़े जाने पर ख़ुद को बचा सकें!

हिंदुस्तान की ऐसी क्या लाचारी है कि ऐसे मुसलमानों का अनाप-शनाप कुछ भी सहन करता चला जाए? अब भेद खुल रहा है कि आज तक दिल्ली की सरकारें ऐसे मुसलमानों की बदौलत इस्लामाबाद् से चलती आई हैं. अब नहीं चल रही तो तकलीफ़ हो रही है — पाकिस्तान से ज़्यादा यहाँ के मुसलमानों को.

आपका इस्लाम भले कहता है हर काफ़िर को मुसलमान बनाओ, जो न बने उसे मार दो. लेकिन कौन भला आदमी आप जैसा मुसलमान बनना चाहेगा? तब आप क्या करेंगे? वही करेंगे न अंकित शर्मा को जिस तरह 400 बार चाकू से गोदने का काम किया? फिर उसकी अंतड़ियाँ खींचकर बाहर निकाल लीं. इससे तो हमें कारगिल युद्ध के शहीद कैप्टेन कालिया की याद हो आती है. ऐसी ही वहशियाना हरकत तब भी हुई थी और आँखें बाहर निकाल ली गईं थीं. या लांस नायक हेमराज और लांस नायक सुधाकर सिंह का ध्यान आ जाता है जिनके सिर पाकिस्तानी काट कर ले गए थे. आपको तो मौक़ा मिलने भर की देर है, मेरे जिस्म में भी चाकू छेद-छेदकर तृप्ति हासिल की जाएगी, एक-एक उँगली काटी जाएगी, आँखें फोड़ कर उँगली घुसाकर सॉकेट से बाहर खींची जाएंगी, पेट चीरकर आँतें मुट्ठी में भींचकर बाहर घसीटी जाएंगी, दोनों किड्नी चीरी जाएंगी. आप लोग ईद मुबारक कहकर अल्लाहो अक़बर इसीलिए चिल्लाते हैं क्या? हम कैसे मान लें हर बक़रीद पर आप निरीह बकरे को धीरे-धीरे काटते हुए, उसे torture करते-करते रक्त बहने और शिकार के छटपटाने का मज़ा लेने की प्रैक्टिस नहीं करते?

क्योंकि आप हर तरह से एक ही बात स्थापित करने और हमें समझाने में लगे हैं –  कि हम ‘जंग रहेगी-जंग रहेगी’ वाले ‘दार-उल-हर्ब’ ( Land of Jehadi War) में रह रहे हैं, जिसे आप ‘दार-उल-इस्लाम’ (मुसलमानों की ज़मीन) बनाने के लिए कुछ भी करेंगे, करते रहेंगे, कभी भी किसी भी हालत में रुकेंगे नहीं. इससे यह सत्य (हक़?) उजागर हो गया है कि पाकिस्तानियों और इस तरह के हिन्दुस्तानी मुसलमानों में कोई फ़र्क नहीं है. दोनों में कैप्टेन कालिया और अंकित शर्मा को हलाल करने का मज़ा लेना बिलकुल एक जैसा है!

दिल्ली के एक हिस्से के लिए कितने गैलन एसिड, कितने टन पत्थर, कितने पेट्रोल-बम, कितनी गुलेलें, कितनी बोतलें, कितनी थैलियाँ, चुपचाप चलती कितनी प्लानिंग और ‘इस्लाम’ में कितनी गहरी आस्था!

इस्लाम के विश्वासियों के लिए कुछ होता होगा ‘दारुल-इस्लाम’. हमें क्या मतलब? देख तो लिया ‘दारुल-इस्लाम’ पाकिस्तान! वक़्त आ गया है जब इस पाकिस्तान को पूरी तरह तबाहो-बर्बाद कर दिया जाए. इसके साथ बांग्लादेश को भी रहना मुश्किल हो गया था, जो कि ख़ुद दारुल-इस्लाम है! जिन्नाह की इस्लामी महत्वाकांक्षा की औक़ात पश्चिम पंजाब जितने टुकड़े से ज़्यादा की नहीं थी. सिंध, बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान का स्वतन्त्र सार्वभौम देश हो जाना ही ठीक है. रहेंगे ये भी बांग्लादेश की तरह दारुल-इस्लाम ही. ऐसा कर देने से मुसलमानों के मज़हबी विश्वास पर चोट पहुंचाने का काम होगा नहीं, मगर ये हिन्दी मुसलमान घायल ज़रूर हो जाएंगे, क्योंकि इनके मन में ‘कुछ-कुछ’ चलता रहता है. पाकिस्तान इनकी लंबी प्लानिंग का हिस्सा जो था!

हर वह काम होना चाहिए जिससे कट्टर जिहादी इस्लाम का हौसला पस्त होता हो. यह अब ज़रूरी हो गया है. हर वह काम भी होना चाहिए जिससे हिंदुस्तान के दिल्ली-दंगाई मुसलमानों पर लगाम कसे. ये मुसलमान इस योग्य सिद्ध नहीं हुए हैं कि आगे इनकी और ज़्यादा परवाह की जाये. ‘रजम’ (पत्थरबाज़ी) को भी मज़हबी रस्म तक महदूद कर देना अब लाज़िम है. सिर्फ़ और सिर्फ़ हज के दौरान शैतान के लिए मक्का में ‘रजूम’ (पत्थरबाज़) होने की कोई मनाही नहीं. रवायत है, ठीक है. मगर इज़राइल के सैनिकों के बाद कश्मीर में, फिर हिन्द के अलग-अलग शहरों में, और अंततः दिल्ली-दंगे में इस कदर पत्थरबाज़ी! ऐसी हरकत के लिए देखते ही गोली मारने का अधिकार पुलिस और सेना को दे देना चाहिए.

क़ुरान और इस्लाम की हर शिक्षा की मनमानी व्याख्या करने वाले मुसलमान इसके लिए भी कहेंगे, इज़राइली सैनिकों की तरह भारत के सैनिक और पुलिसवाले भी ‘शैतान’ का ही रूप हैं. इसलिए टीवी चैनलों पर मुस्लिम प्रवक्ता चाहे जितनी ‘च्च्-च्च्’ करें, मन ही मन वे आश्वस्त हैं कि अंकित शर्मा को बर्बर होकर मारने से इस्लाम की सिद्धि हुई है.

शैतान की यह फ़ितरत है कि वह हर शैतानी किस्म के काम के लिए प्रेरित भी करता है और उसी साँस में यह भी कहता है वह अल्लाह का ही काम कर रहा है!

यह जो आए दिन ‘हिन्दू-आतंकवाद’ या ‘भगवा-आतंकवाद’ का हौआ लहराया-फहराया जाने लगा है, उसपर भी स्पष्ट होना ज़रूरी है.

दूसरे-दूसरे देशों में जाकर हिन्दू कोई हरकत नहीं करते. इस्लामाबाद से चलने वाली दिल्ली-सरकारों की बेरुख़ी के चलते अपने देश में छोटा-मोटा अपराध कर लेते हैं, मगर वह है अपराध ही, जिसके खिलाफ़ देश का क़ानून हरकत में आ जाता है. वह आतंकवाद नहीं है. आतंकवाद पर तो मुसलमानों का कॉपीराइट है. लगाके तक़रीबन हज़ार साल से, या शायद इससे भी ज़्यादा, इन लोगों ने आतंकी होने के लिए बहुत मेहनत की है. इनके मुक़ाबले हिन्दू क्या खाकर आतंकवादी होगा?

यह सब सभ्यता और संस्कृति के सरताज देश भारत में इस्लाम के नाम पर किया गया!

लिहाज़ा, ध्रुवीकरण कोई है तो ‘सभ्यता’ और इनके वाले ‘इस्लाम’ के बीच है!!

ग़नीमत है कि भारत में संतुलित बुद्धि वाले मुसलमानों की कमी नहीं है. ये मुसलमान खुलकर पाकी-वृत्ति वाले मुस्लिमों पर सवाल उठाते हैं. इस्लाम को उसके सही स्वरूप में समझते-समझाते हैं. सबके साथ मिलकर देश की विकास-यात्रा के बटोही हैं. बात-बिना बात जिन्नाह अथवा ओवैसी की तरह ‘मुसलमान-चालीसा’ का पाठ नहीं करते रहते.

इन सही केटेगरी के मुसलमानों की रीढ़ तब मज़बूत होगी जब कुछ मिथक तोड़े जाएंगे. जयचंदी भारतीय, उनमें भी विशेषतः हिन्दू, इन मिथकों को अपनी गुल्लक में इसलिए बचाकर रखते हैं कि यह उनकी आदत है. उन्हें पक्का है यह गुल्लक उस दिन काम आएगी जिस दिन आर.एस.एस. और बीजेपी की ‘बेवकूफ़ियों’ के कारण भारत का इस्लामीकरण पूरा हो जाएगा. तब सबसे पहले लपक कर ये लोग कलमा पढ़ेंगे. ‘ईद मुबारक’ कहने के बाद मुहर्रम की भी तैयारी इनकी अभी से है.

कभी-कभार कुछ बातें तब अधिक साफ़ होती हैं जब उन्हें समझाने के लिए थोड़ी अश्लीलता का हल्का-सा तड़का लगाया जाता है. इन जयचंदों की ‘आदत’ के संज्ञान के लिए यह तड़का उपयोगी रहेगा.

हुआ यूँ कि एक सीधा-सादा आदमी बार में अपने स्टूल पर चुपचाप बैठा बीयर के सिप ले रहा था. अभी वहाँ आये उसे ज़्यादा समय नहीं हुआ था.

तभी हॉलीवुड की काऊबॉय मूवीज़ के अंदाज़ में बार के दरवाज़े के स्प्रिंगदार कपाट खुलते हैं. एक हट्टा-कट्टा, लम्बा-चौड़ा हैटधारी प्रवेश करता है, चारों ओर नज़र घुमाकर बार के वातावरण का जायज़ा लेता है और सधे हुए क़दमों से चलकर बीयर चुसक रहे सज्जन के पास आता है. पाँव की ठोकर से एक स्टूल सरकाता है, फिर इधर-उधर देखता है और बीयर वाले इंसान की बग़ल में बैठ जाता है.

अपना ड्रिंक ऑर्डर करने के बाद आगंतुक ने जेब से सिगार निकाला, सामने का हिस्सा दाँतों से काट कर थूका और गिलास का इंतज़ार करते हुए लाइटर को उँगलियों में घुमाने लगा. बारटेंडर जब उसका ड्रिंक रख गया तो उसने दो-एक सिप लिये और संतोष का भाव जतलाया. थोड़ी देर में सिगार पीने की तलब हुई, सो उसने सिगार को बीयर-प्रेमी के पिछवाड़े में डाला, निकाला, सुलगाया और पीने लगा.

यही सिलसिला थोड़ी देर चला. हर बार हैटधारी ने सिगार को बग़लवाले के पिछवाड़े में डालने के बाद सुलगाया.

इसी तरह दो-चार सिगार पीकर उसने अपना बिल चुकाया और चला गया.

दूसरे दिन भी इसी तरह हुआ. आज तो सिगार कुतरने का कटर भी उसके पास था. दाँत से काटना नहीं पड़ेगा.

तीसरे और उसके अगले दिन फिर ड्रिंक और सिगार के दौर इसी मानिंद चले.

इसके बाद काफ़ी दिन बीत गये. वह हैटधारी दिखाई नहीं दिया.

कुछ साल बाद अचानक बार का स्प्रिंगदार दरवाज़ा खुला और उसी हैटवाले ने प्रवेश किया. स्टूल सरकाया और बीयर वाले सज्जन के पास बैठ गया. ड्रिंक आया, उसने चुस्कियाँ लेना शुरु किया, मगर सिगार के कहीं पते नहीं थे.

हैटवाले का दूसरा ड्रिंक भी आ लिया, फिर भी उसने सिगार नहीं निकाला. तीसरे ड्रिंक पर भी जब सिगार नहीं निकला तो बीयरवाले से रहा नहीं गया. उसने पूछ ही लिया, “जनाब, आज आप सिगार नहीं पी रहे?”

जवाब मिला, “यस डीयर, अब देश आज़ाद है. सरकार भी जन-हित की योजनायें चलाती है. मैंने सिगार पीना छोड़ दिया है.”

“यह तो आपने बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी”, बीयरप्रेमी बोला.

“क्यों क्या हुआ? धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है”.

बीयर वाले ने कहा, “सो तो ठीक है”, और अपने पिछवाड़े की तरफ़ इशारा करते हुए बताया,  “मगर मुझे जो आदत लग गई है, उसका क्या?”

इन ‘प्रोग्रेसिवों’ की आदत समझ लेने से पहला मिथक अपने आप टूट जाता है.

धर्म-अध्यात्म-ईश्वर-समाधि-जागृति आदि ऐसे मामले हैं जो आधे-अधूरे रह नहीं पाते. या तो ये बिलकुल नहीं होते – लाख कोशिश कर लो. या जब होते हैं तो पूरे ही होते हैं. सूर्य चमकता है तो पूरा ही चमकता है, मगर भूमण्डल का ऐसा भाग उस समय भी रहता है जहाँ सूरज नहीं चमकता. सूर्य के बावजूद उसे अँधेरा ही मंज़ूर है. मुसलमानों की ज़मीन ‘दारुल-इस्लाम’ का दम भरने वाले जिहादी इस्लाम के रसियाओं का कुछ ऐसा ही आलम है.

क़ुरान-ए-मजीद में अल्लाह के जो 99 नाम आए हैं, जिन्हें हदीस में संकलित किया गया है, वे सब ‘विष्णुसहस्रनाम’ में उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं. ये ‘उम्मत-ए-हिन्द’ शीर्षक लेख में देखे जा सकते हैं. सूरज-चाँद सभी तरह की रोशनी जिन्हें पूरी-पूरी उपलब्ध थी, उन हज़रत मुहम्मद ने बर्बर और सब तरह निगेटिव जातियों को उतना ही दिखाया जितना वे अपने अंदर समो सकती थीं, जितनी उनकी क्षमता थी — एक मोबाइल फ़ोन में एस.एम.एस. जितना. जो ‘आदत’ वाले हिन्दू नहीं हैं वे समझ सकेंगे उनके पास पहले से 70 एम.एम. की स्क्रीन पर अध्यात्म उपलब्ध है. वे जब क़ुरान पढ़ेंगे तो 70 एम.एम. के समूचे कैनवस के इशारे वहाँ भी देख पाना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा.

वहाबी-सलाफ़ी इस्लाम वाले ये कट्टरपंथी जिहादी मुसलमान 70 एम.एम. को निरंतर मोबाइल के एसएमएस तक सीमित रखने के लिए जो तलवार भाँज रहे हैं और अभी तक उतने ही निगेटिव बने रहने को इस्लाम समझ रहे हैं, वे नबी और उनके माध्यम से उपलब्ध ईश्वर के फ़रमान के घोर अपमान में मुब्तिला हैं. ख़ुद कुफ़्र करके ये आतंकवादी मुसलमान दूसरों को आँख दिखाने की हिमाक़त करते हैं. ये लोग भारत में अरब का रेगिस्तान उतार लाना चाहते हैं और भूल जाते हैं जितना ज़रूरी था उतना रेगिस्तान अल्लाह ने हिन्द को पहले से दे रखा है. इनकी हरकतें यहाँ irrelevant हैं. दिल्ली-दंगा यहाँ इस्लाम के लिहाज़ से भी कोई अर्थ नहीं रखता और ग़ज़वा-ए-हिन्द की आपकी योजनाओं को केवल बेनक़ाब करता है. ग़ज़वा के लिए मुहम्मद साहब के व्यक्तित्व जितनी औक़ात चाहिये. उतनी औक़ात की सोचना भी मत. आप चिन्दीचोर फ़सादी हैं, ग़ाज़ी नहीं.

‘आदत’ वाले जयचंद स्वयं को ‘लेफ़्ट-लिबरल’ कहने में शान समझते हैं. वे मानते हैं वे ‘रेशनलिस्ट’ हैं, प्रोग्रेसिव हैं, मार्क्सवाद से प्रेरित हैं. हिंदुस्तान को बरजते हैं, ‘ख़बरदार जो इतिहास का ‘पुनर्लेखन किया”! उस समय भूल जाते हैं मार्क्स ने इतिहास के पुनर्लेखन को ‘पहला मैदान-ए-जंग’ कहा था! बेचारे करें भी क्या? इतिहास की कचरा-किताबों में ख़ूब ढोलकी बजा चुके हैं, मुसलमानों ने भारत को यह दिया, वह दिया. sms मानो 70 mm को सिनेमा दिखाने ले जा रहा है!

जिन दिनों मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर चढ़ाई करना शुरु किया था, भले मुसलमान आक्रमण करने नहीं आते थे. बाबर और नादिरशाह-टाईप लोग आते थे. इनके पास ख़ून-ख़राबे से ज़्यादा देने को कुछ होता नहीं था. यह हिन्द के हवा-पानी का असर था जो अनेक आक्रांताओं को लगा यहाँ बसा भी जा सकता है. धीरे-धीरे हिन्द ने मुसलमानों को अवसर दिया, आओ, खुसरो हो जाओ, आओ जायसी, रहीम, रसखान, ग़ालिब हो जाओ, दारा शिकोह हो जाओ, बड़े ग़ुलाम अली खाँ, बिस्मिल्लाह खाँ हो जाओ. अन्तहीन सूची है. जो भी दिया, हिन्द ने दिया जिसे निभाने वालों ने निभाया भी. भारत ने कभी किसी से कुछ लिया नहीं. भारत अवसर न देता तो रह जाते सब के सब तैमूर और चंगेज़! निभाने की नीयत नहीं हो तो दिल्ली में दिखा दिया न अपने मूल स्वरूप में ये लोग क्या हैं!

कहते हैं सरिश्त (प्रकृति, स्वभाव) बदलती नहीं, श्मशान तक साथ जाती है.

बुरी सरिश्त न बदली जगह बदलने से,

चमन में आ के भी काँटा गुलाब हो न सका!

नाम लेते हैं लाल क़िले और ताजमहल का!

चलिये, ताज को देखते हैं.

याद करें, अभिनेत्री श्रीदेवी का शव जब अग्नि-संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो मेकअप से शव की ख़ूबसूरती कुछ ऐसी कर दी गई थी जैसे ताजमहल! मगर था तो मृत शरीर ही!  

ताज क्या है? है तो वह सजावट किये हुए एक क़ब्रगाह ही! एक ऐसा मुर्दाघाट, जो न सिर्फ़ ग़रीबों की मुहब्बत का मज़ाक उड़ाता है, बल्कि जिन कारीगरों ने बनाया उनके हाथ कटवा दिये जाने की मुसलमानी दास्तान भी कहता है! इसे इनसानों के प्रति ग़ैर-इंसानी नफ़रत का म्यूज़ियम कहने के बजाय मुहब्बत की यादगार कहना प्रेम जैसे काव्यात्मक भाव पर कलंक लगाने जैसा है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ को भी यह काल के गाल पर ठहरा हुआ आँसू ही लगा था. ‘काल’ का अर्थ समय ही नहीं, मृत्यु भी है.

मुहब्बत का वास्तविक स्मारक कोई है तो रामेश्वरम का पुल है, जिसे बनाने में देश के वनवासी नागरिकों का अभिनंदन भी हुआ था और बनाने वालों के हाथ भी नहीं कटवाये गये थे. प्रिय पत्नी के प्रति श्रीराम के उत्कट प्रेम के सात्विक स्मारक के रूप में रामेश्वरम को याद किया जाना चाहिए या क़ब्रगाह को?

यह तो वही बात हुई, असदुद्दीन ओवेसी औरंगज़ेब को ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ कहकर बखानता है. आज़ाद हिंदुस्तान में औरंगज़ेब को लेकर गुरु गोबिन्द सिंह और छत्रपति शिवाजी के अनुभवों को तरजीह दी जाएगी या ओवेसी के जिहादी नज़रिये को?

और ये कहते हैं इतिहास का पुनर्लेखन मत करो! राष्ट्रप्रेम का सर्टिफ़िकेट मत बाँटो!!

“आदत” !!!  

ऐसी ‘आदत’ या तो लोभवश डाली जाती है, या भयवश. 1947 के बाद से जिहादी मुसलमान का भय इन लोगों के मन में जो इतना गहरा बैठ गया है, उसका तिलिस्म छिपा है क़ुरान में लिखी हर बात को मक्खी पर मक्खी मारकर समझने-समझाने की बेईमानी में. इसलिए, अगर कहा है जिहाद मुसलमानों पर फर्ज़ है तो उनकी व्यर्थ मार-काट को चुपचाप मान लो, क्योंकि यह उनका ‘धर्म’ है. कोई नहीं पूछेगा क्यों झूठ बोलते हो? अपने ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार करने के लिए किया जाने वाला संघर्ष जिहाद है, निरर्थक मारामारी नहीं. क़ुरान में कहा गया सब तारीफ़ अल्लाह के लिए है, अल्लाह पर ईमान लाना फर्ज़ है. कोई नहीं पूछेगा ‘अल्लाह’ अरबी भाषा का शब्द है. और सब अनुवाद किया, ‘अल्लाह’ का अनुवाद क्यों नहीं किया? अल्लाह का अर्थ किसी भाषा में God है तो किसी में ‘नारायण’. जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, ज़बरदस्ती ही करनी है तो उनपर करो. यानी नास्तिकों पर. God या नारायण को मान रहे लोग तो अल्लाह पर ईमान लाये हुए ही हैं. ना भाई, इस्लाम में तो क़ुरान का कोमा-फुलस्टौप भी छेड़ना मौत को बुलावा देना है. ‘भय’ कहेगा, यह उनका धर्म है, वे जो कहें चुपचाप मान लो. क़ुरान में किन्हीं परिस्थितियों में झूठ बोल देना जायज़ है, कभी तो यह फर्ज़ भी है. इस झूठ का नाम है ‘तक़ीया’. ‘किन्हीं परिस्थितियों में’ को बड़े आराम से छिटक दिया और अपने अर्थ वाला जिहाद कर-करके पूरे देश को दारुल-इस्लाम बनाने के लिए तक़ीया, बस तक़ीया, सिर्फ़ तक़ीया!!

शाहीनबाग़ के कब्ज़े के बाद से हर मुल्ला, प्रवक्ता, मुस्लिम नेता अपने ढब का इस्लाम सिर्फ़ ‘तक़ीया’ से धकेलने में लगा है. लाचार बने कसमसाते रहो क्योंकि यह उनका धर्म है. क्या तक़ीया वाले ये मुसलमान विश्वास-योग्य हैं?

“आज़ादी-आज़ादी” चिल्लाकर हम ग़रीबी, बेरोज़गारी से आज़ादी माँग रहे हैं – तक़ीया.

हमने जिन्नाहवाली आज़ादी नहीं कहा, ‘जीनेवाली आज़ादी’ कहा – तक़ीया.

अच्छा हुआ, शरजील इमाम का पता चल गया, हम हैरान थे हमारे बीच कौन ग़द्दार है – तक़ीया.

कपिल मिश्रा के कारण दंगा भड़का – तक़ीया.

जो भी गुनहगार है उसे सज़ा दो – तक़ीया.

बहस में हमें हरा दो, दिल्ली को मत हारने दो – तक़ीया.

अभी नहीं बोले तो तुम्हारे जनाज़े उठेंगे – तक़ीया.

और, जो ये दम भरते हैं ‘मुसलमान अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं झुकता’, तब क्या हुआ था जब अली-बन्धु बीमार पड़े गाँधीजी के पाँव चूम रहे थे – मुहावरे में नहीं, सचमुच झुककर चूम रहे थे? क्योंकि तब उन्हें गाँधीजी को किसी भी तरह खिलाफ़त आंदोलन के पक्ष में लाना था! – तक़ीया! ‘अल्लाह के सिवा नहीं झुकते’ कहना भी ‘तक़ीया’, और पाँव चूमना भी ‘तक़ीया’, क्योंकि जैसे ही उल्लू सीधा हो गया अली-बंधुओं का बयान था – गिरे-से-गिरा मुसलमान भी गाँधी से अच्छा है! मतलब होगा तो पाँव चूमेंगे, नहीं तो आपको अंकित शर्मा बनाएंगे!

1947 में हमने भारत में रहना चुना था, पाकिस्तान नहीं! –तक़ीया.

1946 के विशेष चुनाव में पाकिस्तान बने या न बने इस पर 75% से अधिक मुसलमानों ने पार्टीशन के पक्ष में वोट दिया  था, मगर विभाजन के बाद गये केवल 2% ही! अब समझ में आया इनकी पाकी वृत्ति का पेंच? ये इसलिए यहाँ रुके थे कि अब इस हिस्से को भी ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने के लिए काम करना है! शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे तक इस लक्ष्य का काफ़ी रास्ता पार कर लिया है. रहा-सहा अगले दस-बीस वर्ष में पूरा करने का विश्वास है.  

धर्मनिरपेक्षता है कि कहती है, यह उनका धर्म है!

वह आदमी मिठाई की दूकान के सामने खड़ा भरे-भरे थाल ताक रहा था. थोड़ी देर तक कुछ बोला नहीं तो हलवाई ने पूछा, “क्या चाहिए?”

उसने कहा, “वह बर्फ़ी क्या भाव है?”

हलवाई – “साढ़े छ्ह सौ रुपये किलो”.

वह – “एक किलो तौल दो”.

हलवाई ने तौल दी. “और कुछ?”

वह – “वह इमरती क्या भाव?”

हलवाई – “छ्ह सौ की एक किलो”.

वह – “इमरती भी एक किलो तौल दो. एक किलो बालूशाही, एक किलो घेवर, एक किलो कलाकंद, एक-एक किलो लड्डू और पेड़ा. और एक डिब्बा यह काला गुलाबजामुन.”

हलवाई ने बड़ी तत्परता से सब तौल दिया. ऐसा गाहक कभी-कभार ही आता है.

वह – “अब इन सबको एक बड़ी कढ़ाही में डालकर अच्छे से मिक्स कर दो.”

हलवाई ने अचकचाकर ग्राहक की तरफ़ देखा.

वह – “सोच क्या रहे हो? सबको मिक्स कर दो. एकदम आटे की माफ़िक गूँध दो.”  

हलवाई हैरान-परेशान तो हुआ, मगर क्या करता? ग्राहक तो भगवान् होता है. गूँध दिया.

वह – “अब इस मिक्स्चर में से एक पुड़िया में चवन्नी की मिठाई मेरे लिए बाँध दो.”

वह आदमी जानता था वह मिठाई ख़रीदने में अक्षम है.

‘आदत’ वालों की अक्षमता के चलते चवन्नी की पुड़िया का नाम है धर्म-निरपेक्षता!

काश! ‘धर्म-निरपेक्षता’ यथार्थ में सबके लिए समान रूप से लागू हो सकने वाला सामाजिक-राजनैतिक सिद्धान्त होता! कौन सी मजबूरी है जो कोई बोलता नहीं, दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यकों को जैसे ही आप धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित करते हैं, आप धर्म-निरपेक्ष न रहकर धर्म-सापेक्ष हो जाते हैं. बहुसंख्यक भी धर्म के ही आधार पर नहीं हैं क्या? कहाँ है धर्म-निरपेक्षता? यह चवन्नी की पुड़िया नहीं तो और क्या है?

इसलिए, जैसे ही कोई कहे, ‘मैं मुसलमान हूँ’, उससे कहा जाए, ‘हमें तो हिन्दुस्तानी नज़र आते हो. 1947 में अंतिम रूप से तय हो चुका है, मुसलमान कहाँ रहेंगे, और हिन्दुस्तानी कहाँ – उनका धर्म कुछ भी हो. मुसलमान हो तो वहीं रहो जहाँ के लिए तय हो चुका है.’ या, ‘मुसलमान हो तो अपने घर में हो. हम पर क्या अहसान है?’

मुसलमानों के औसाफ़ (गुण) बहुत सुने, मगर वे सब सद्गुण हैं कहाँ?

सुनते रहे हैं आप के औसाफ़ सबसे हम,

मिलने का आप से कभी मौक़ा नहीं मिला.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का होना, अल्पसंख्यक के रूप में अतिरिक्त सुविधा-सहायता उपलब्ध होना, देवबंद में दारुल-उलूम का इस्लामी दर्शन पर विचार और अध्ययन करने से बढ़कर सामाजिक-राष्ट्रीय क्षेत्र में मुसलमानों की भूमिका और उसके स्वरूप पर नियंत्रण करना, सामान्य संपत्ति क़ानून से अलग वक़्फ़ बोर्ड का होना, मुसलमान के रूप में राजनीतिक पार्टियों का होना और क़ुरान के मुताबिक राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश करना – सब के सब धर्म-निरपेक्षता के विपरीत और ग़ैर-संवैधानिक नहीं हैं तो क्या हैं? भारतीय संसद् और संविधान हर तरह से भारत को ‘इस्लामी’ राष्ट्र बनाने के हर इंतज़ाम को समर्थन देते जान पड़ते हैं?     

मालूम नहीं यह कौन सी गंगा-जमनी तहज़ीब है कि जिसमें गंगा भी हिन्द की, जमना भी हिन्द की, मगर पाकिस्तान बना नहीं कि गंगा-जमना दोनों ग़ायब और आब-ए-ज़मज़म हाज़िर! पीछे बचे दारुल-हर्ब हिन्द में फिर वही ‘गंगा-जमनी तहज़ीब’ का नारा!!  — तक़ीया? बेशक़ तक़ीया!

कहते हैं हिंदुस्तान हमारा देश है, हमें इससे मुहब्बत है. आप तो मुसलमान हैं, और हिंदुस्तान ‘दारुल-इस्लाम’ है नहीं. फिर भी मुहब्बत है? – तक़ीया!

दिल्ली में दंगा नहीं होता तो क्या होता?

जिस तेज़ी से मुसलमान अपनी जनसंख्या बढ़ाते हैं उसका भी रहस्य अब रहस्य नहीं रहा. कश्मीर में जो इन्होंने कहा था, “हमें कश्मीर चाहिए, हिंदुओं के बिना, मगर हिंदुओं की औरतों के साथ”, तो वह कोई बलात्कारी घोषणा-मात्र नहीं थी. औरत इनके लिए और ज़्यादा मुसलमान पैदा करने की मशीन है, इसलिए कहा था. जितनी तेज़ी से इनकी संख्या बढ़ेगी, चाहे घुसपैठिए और रोहिङ्ग्या लाकर बढ़ानी पड़े, भारत उतनी जल्दी दारुल-इस्लाम बन सकेगा. हार्वर्ड के एक अध्ययन ने तो घोषित कर भी दिया है, आने वाले 20 वर्ष में (2040 तक) भारत में हिन्दू और मुसलमान बराबर की संख्या में हो जाएंगे. तब इस्लामी सरकार बनाने और भारत को इस्लामी देश घोषित करने की माँग ज़ोरों से उठेगी, और पूरी भी होगी.

अध्ययन, अफ़वाह, प्रचार, fake news आदि एक तरफ़. इन्हें छोड़कर सिर्फ़ इतना देखें कब-कब क्या-क्या होता रहा है तब भी इन जिहादी मुसलमानों के लिए कहा जा सकता है — तक़ीया पर आधारित राजनीतिक लक्ष्य, क़ुरान पर आधारित आध्यात्मिक उद्देश्य नहीं!!

1947 से 2020 तक संख्या बढ़ाने की  दिशा में मुसलमानों की प्रगति उनके लिए संतोषकारक है. शाहीनबाग़ और दिल्ली-दंगे ने यह भी रेखांकित कर दिया है कि इस्लामी सन्तोष के साथ और क्या-क्या आता है.   

धर्म-निरपेक्षता की चवन्नी की पुड़िया के चलते यह भुला दिया जा रहा है कि हिन्द की पहचान क़ुरान कभी नहीं बन सकती, वेद-पुराण-गीता-रामायण ही रहेंगे. ज़मज़म यहाँ नहीं बह सकती. यहाँ गंगा ही बहेगी. मक्का यहाँ नहीं आ सकता. यहाँ इक्यावन शक्ति-पीठ और बारह ज्योतिर्लिंग ही रहेंगे. यहाँ मुहर्रम नहीं होगी, कुम्भ का मेला ही लगेगा.  

शक्ति-पीठ से याद आया, इक्यावन नहीं, भारत में अब पैंतालीस शक्ति-पीठ हैं. एक पाकिस्तान (बलूचिस्तान) में चला गया – हिंगलाज में ‘हिंगुलादेवी’. पाँच बांग्लादेश में गए – श्रीशैल, अपर्णा, यशोरेश्वरी, चट्टल भवानी, और जयंती.

दो बातें.

मुसलमान 1947 से पहले भी और आज भी हज के लिए जाते हैं तो उन्हें वीज़ा लेना होता था और लेना होता है. 1947 से पहले हिंदुओं को इन छहों शक्तिपीठ की यात्रा के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता था. पार्टीशन के कारण आज वीज़ा लगता है.

दूसरी बात यह कि दारुल-इस्लाम बनकर भी पाकिस्तान की पहचान मक्का या इस्लाम न होकर हिंगलाज माता ही रहीं. या कराची, सिंध के पंचमुखी हनुमान्! यक़ीन न हो तो पूछ देखिए वहाँ के लोगों से. बांग्लादेश की भी पहचान ये पाँच शक्तिपीठ और आर्य भाषा परिवार की बाँगला भाषा हैं.

जैसे अफ़गानिस्तान की पहचान बामीयान की बौद्ध मूर्त्तियाँ हुआ करती थीं. तालिबानी तोपों के धुएँ में धुंधलाने के बावजूद अब भी हैं. मूर्त्ति तोप से उड़ सकती है, पहचान नहीं. 

भारत इस्लामी राष्ट्र हो भी गया तो आप कुछ हासिल करेंगे या कुछ गँवाएंगे?

तमाम ग्रन्थों, साहित्य, संगीत, नृत्य, मन्दिरों, मूर्त्तियों – के साथ जो होगा, नहीं दीखता? बामीयान के बाद भी?

और जीती-जागती औरतों के साथ जो होगा? नहीं दीखता? कश्मीर के बाद भी?

कला, शिल्प, रचनाधर्मिता का दम भरने वाले लेफ़्ट-लिबरलों को मंज़ूर है?

चवन्नी की पुड़िया ‘आदत’ को तरजीह देगी, सबको दीखता है.     

इस्लाम 124000 पैग़म्बरों का होना मानता है. हज़रत मुहम्मद आख़िरी थे. इसलिए क़ुरान आख़िरी ‘वचन’ हुआ. मुसलमान भी स्वीकार करते हैं पहला वचन वेद है, और आख़िरी क़ुरान. (बशर्त्ते वेद-सम्बन्धी कथन इनका ‘तक़ीया’ न हो.)

मगर कुदरत तो मुल्ला की नहीं अल्लाह की है. अध्यात्म के 70 mm इस भारत देश में उसने लगभग 600 वर्ष पूर्व गुरु नानक की परम्परा में दस पैग़ंबर और भेज दिए. गुरु गोबिन्दसिंह अब आख़िरी पैग़ंबर हो गए और आख़िरी वचन अब क़ुरान नहीं रहा, श्री गुरुग्रंथ साहब हो गया. अलबत्ता, पहला वचन अब भी वेद ही है और क़ुरान की महत्ता भी कुछ कम नहीं हो गई. मगर आख़िरी वचन ज़रूर श्रीगुरुग्रन्थ साहब हो गया!

हम देख सकते हैं कितने मिथकों के सिर पर पाँव रखकर इन जिहादी मुसलमानों का एजेंडा आगे बढ़ता है. ‘आदत’ वाले प्रोग्रेसिव’ लिबरल इनकी इस तीर्थयात्रा में इनके जूतों पर गुलाबजल छिड़कते हैं. सच्ची बात के लिए इन लोगों पर नहीं, संतुलित विचार वाले मुसलमानों पर भरोसा किया जाना चाहिए. मुसलमानों पर इतनी सब बातें कहने की ज़रूरत इन संतुलित मुसलमानों की तरफ़ देखकर नहीं पड़ती रही है.

सच पूछें तो, यह भी इन्हीं अच्छे मुसलमानों का काम है कि तीन तलाक़ समाप्त करने, कश्मीर समस्या हल करने और ‘CAA से हिंदुस्तान के किसी मुसलमान की नागरिकता नहीं जा रही’ जैसी बातों पर वे टीवी तक महदूद न रहें. अपने जैसे और मुसलमानों को इकट्ठा करें और शाहीनबाग़ की दादी-नानियों के सामने मोर्चा जमायें. वहाँ सच बात रखें, इन ग़लत क़िस्म के जिहादियों को बेनक़ाब करें और कपिल मिश्रा जैसों का सड़क पर आना ग़ैर-ज़रूरी है, यह साबित करें.

क्या ये भारत में मुसलमानों की मेनस्ट्रीम बनना पसंद करेंगे, ताकि मुसलमान पर उल्टे-सीधे सवाल उठना बंद हो? ताकि ‘हिन्दू-मुसलमान’-‘हिन्दू-मुसलमान’ करते रहने की ज़रूरत न रहे?

ये अच्छे लोग हैं. इनसे भी यह सवाल करना बनता है कि यदि पूरा हिंदुस्तान पूरी तरह इस्लामी राष्ट्र हो जाए, सब केवल क़ुरान पढ़ें, नमाज़ अदा करें, देव-वाणी संस्कृत और तमिल को भुलाकर अल्लाह की ज़ुबान अरबी का अभ्यास करें तो इन अच्छे मुसलमानों का क्या बिगड़ेगा? कुछ बिगड़ेगा भी नहीं, और ये ऐसा हो जाने के लिए काम भी नहीं करते. ये वे मुसलमान हैं जो इस्लाम के आध्यात्मिक पक्ष से उसे धर्म की श्रेणी में लाते हैं, न कि ज़बान की तलवार चमकाने वालों की तरह रक्त-रंजित राजनीतिक आकांक्षा को अध्यात्म कहते हैं. 

हिन्द के असली मुसलमान हम हैं, वो नहीं, क्या ये ऐसा स्थापित करने में सफल होंगे?

क्या ये कह सकेंगे ? –-

मुझे दिल की ख़ता पर ‘यास’ शरमाना नहीं आता,

पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता.

हिन्द में कोई ध्रुवीकरण है तो दरअसल अच्छे और बुरे मुसलमानों के इस ‘हम’ और ‘वो’ के बीच है.   

यदि अच्छे मुसलमान इस्लामी मेनस्ट्रीम नहीं बन पाते और मुसलमानों के बीच का यह ध्रुवीकरण ढह जाता है तो सदा के लिए बात पूरी हो जाएगी. तय हो जाएगा जैसे अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद कुछ नहीं होता, आतंकवाद आतंकवाद होता है, वैसे ही अच्छा मुसलमान और बुरा मुसलमान भी कुछ नहीं होता. मुसलमान मुसलमान होता है.

केवल हिंदुओं में हिन्दू नहीं होता. उनमें ‘आदत’ वाले भी होते हैं.

ऐसा स्पष्ट हो जाने के बाद भारत को जो फ़ैसला करना होगा, बेहतर है अभी से कर रखे.

तथास्तु!

05-03-2020   

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One thought on “ध्रुवीकरण

  1. अदभुत लेख, आंखे खोलने वाल, हर वाक्य कोट करने जैसा। कुछ अंश ट्वीटर पर शेयर करना चाहूंगी अगर इज़ाज़त हो।

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