तालकटोरा स्टेडियम — एक फ़ेंटेसी ….?


नवम्बर 2018 में 3 और 4 तारीख को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में अयोध्या के राम-मंदिर के निर्माण को लेकर करीब तीन हजार साधु-संत ‘धर्मादेश सम्मेलन’ में शामिल हुए. ‘फ़तवा’ जारी करने का चलन संत-समाज में है नहीं, इसलिए ‘धर्मादेश’ शायद ही कभी दिया गया हो. अयोध्या में मौजूद श्रीराम के मंदिर को भव्य स्वरूप देने में सुप्रीम कोर्ट की टालमटोल ने इस विषय में चल रही राजनीति को ICU में डाल दिये जाने से बचा लिया. इस राजनीति पर लगाम लगाने के लिए ये सब संत ‘इमाम-ए-हिन्द’ श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुए.

इस ‘धर्मादेश सम्मेलन’ ने धर्मनिरपेक्षता के साये में पले-बढ़े और पढ़े आम हिन्दुस्तानी को कुछ अचरज में डाला. एक तो यह तय हुआ कि मुग़लों के बनाये तालकटोरा गार्डन की बग़ल में स्थित स्टेडियम में बैठने में संतों को कोई उज्र नहीं था. हिन्दू-मुसलमान में विरोध निराधार प्रचार है. दूसरे, राजनीति की रैलियों और सभाओं के लिए काम में आने वाला यह स्टेडियम शायद पहली बार किसी भले काम के लिए उपयोग किया गया. तीसरे यह कि धर्मादेश दे रहे साधु-संतों ने पहली बार हर भारतीय को यह बताया कि आने वाले चुनाव में किसे प्रधानमंत्री चुनना है! चौथी बात यह कि साधु-संतों के एक छोटे वर्ग ने राजनैतिक निर्णय देने का विरोध भी किया.

आधुनिकता के फेर में हम सामान्य भारतीय नागरिक साधु-संतों के बारे में कुछ ज़रूरी जानकारी भुला बैठे हैं.

पहली और सबसे महत्त्व की बात यह कि हमारे मन में आदतन संतों का सम्मान होना चाहिए. आजकल के भीड़-भाड़ वाले नगरों में अव्वल तो कोई साधु सड़कों पर आता-जाता दिखता नहीं. कभी कोई नज़र आ भी जाए तो या तो हम तिरस्कार से भर जायेंगे या फिर इस उलझन में पड़ेंगे कि इस साधु ने हमसे भिक्षा मांग ली तो दें या दुत्कार कर भगा दें?

मेरे विचार से हमें जो भी गेरुआ धारण किये हुए दिखे उसे दान देना ही चाहिए.

आप पूछ सकते हैं, हमें कैसे मालूम कि वह पाखण्डी नहीं है?

निवेदन है कि बात गेरुआ वस्त्रों के प्रति हमारे भाव की है, व्यक्ति की नहीं. हमें दान देना है, वोट नहीं. यदि साधु-वेश में जो हमारे सामने है, वह पाखण्डी है तो ऐसा होना-न होना उसका अपना सिरदर्द है, हमारा चरित्र नहीं. आप क्या समझते हैं, लक्ष्मण-रेखा लाँघने में असफल जो ‘साधु’ भिक्षा मांग रहा था वह कौन है, सीता जी नहीं जानती थीं? फिर भी उन्होंने वही किया जो उन्हें करना बनता था! ‘कर्म’ के क़ानून से भी हमारे संविधान के क़ानून की तरह कोई नहीं बचता!

साथ ही यह भी समझना होगा कि भारतवर्ष के – या यों कहें कि हिन्दुओं के — ये साधु-सन्त, ये धूनी रमाये बैठे वैरागी दरअसल हैं कौन.

संभवतः भर्तृहरि के ‘वैराग्य-शतक’ ने दो पंक्तियों में पूरी व्याख्या कर दी है : “अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि ;  शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः?” — हम भिक्षा में मिले अन्न का आहार करें, आकाश को अपना वस्त्र बनाएं, धरती की सतह पर शयन करें, (दौलत पर आधारित) ऐश्वर्य का क्या करेंगे?

जिन्होंने अत्यल्प साधनों में जीवन जीने का यह मार्ग व्याख्यायित किया वह भर्तृहरि किसी झोंपड़-पट्टी में रहने वाला सामान्य व्यक्ति नहीं, राजा थे! फिर भी, हर समय घबराए रहने वाले हम आधुनिक बुद्धि के लोग इन साधुओं को ऐसे परिभाषित करना चाहेंगे कि इनमें से कोई भग्न-हृदय होगा जो प्रेम में असफल रहने से दुनिया से भाग गया, या कोई शेयर मार्केट में घाटा उठाते-उठाते डर गया होगा, पढ़ाई-लिखाई में निकम्मा रहा होगा, कानून के शिकंजे से बचता फिरता कोई मुजरिम होगा, वगैरह-वगैरह. अपनी जानकारी और अनुभवों का आरोपण इन संतों पर करने से कतई आगे नहीं जा पाएंगे. ठीक वैसे जैसे अपने सीमित-संकुचित दृष्टिकोण का आरोपण पश्चिम ने भारत और हिन्दुत्व पर किया.

हमारी कल्पना में नहीं बैठेगा कि यह किसी भी तरह के पिंजरे से मुक्त पंछी की परिभाषा है!

एक बार मैंने अपने एक मित्र से गुरुओं की महिमा बखान की तो उन्होंने अविश्वास का वही ‘वैज्ञानिक’ राग अलाप दिया – “मुझे तो ऐसा एक भी नहीं मिला”. जबकि मेरा अनुभव बहुत बड़े सिद्धों के साथ न होकर बहुत सीमित और कम था, एकदम मामूली.  अब पूछे कोई कि आप हैं कौन कि आपको ये मिलें? आप भारत के प्रधानमन्त्री हों या अमेरिका के राष्ट्रपति, इन संतों को क्या मतलब? आप ही का क्या प्रयत्न अथवा उद्यम था कि आप किसी सच्चे साधु तक पहुँच पायें?

इन्हें ढूँढना और पाना असंभव है. कुम्भ के मेले में या शिवरात्रि पर ये सब जाने कहाँ से लाखों की संख्या में प्रकट हो जाते हैं और उसके बाद फिर ग़ायब!

हिन्दुत्व का कहना है कि संसार में हर किसी का एक गुरु, एक देवता, और एक मंत्र नियत है. टी.वी., कंप्यूटर और गूगल वाले ‘महाज्ञानी’ हम हरगिज़ नहीं जानते कि मेरा गुरु कौन है. सामने आकर खड़ा हो जाये हम तब भी कैसे पहचानेंगे? जिस दिन हमारी पात्रता बन जाती है ये अपने आप सामने आकर खड़े हो जाते हैं. हम नहीं जानते गुरु कौन है, मगर ये जानते हैं कि शिष्यता किसमें उपज आयी है.   

जिस तरह हमारे UPSC वगैरह के सेलेक्शन बोर्ड होते हैं, या सरकार का मंत्रिमंडल होता है, वैसे ही इन परम सिद्ध गुरुओं का ‘गुरुमंडल’ है!

यहाँ आपको लगेगा कि क्या दिमाग़ की ख़राबी है और यह नीचे, इसके आगे किस Shangri-La अथवा ‘वंडरलैंड’ का वर्णन होने जा रहा है! बहुत फ़िल्में देख ली हैं, या अंग्रेज़ी के बहुत फ़ेंटेसी नॉवेल पढ़ लिए हैं, या फिर एलएसडी का सेवन कर लिया है?

ऐसा कुछ नहीं. मैं तो उन लोगों में से एक हूँ जिन्होंने तालकटोरा स्टेडियम का ‘धर्मादेश-सम्मेलन’ भी बस टी.वी. पर देखा था.

हिमालय में रोहतांग से आगे ब्यास नदी के उद्गम के निकट चंद्रा नदी है. इसकी घाटियों में कहीं ‘चंद्र-घाटी’ है. इसी ‘चंद्र-घाटी’ की गुफाओं में से किसी एक में हल्की नीली आभा लिए प्रकाश रहता है जहाँ गुरु-मण्डल आपस में मिलता है. इनमें जो सबसे सीनियर है वह हिमालय की ‘चंद्र-घाटी’ से पूरे जगत का कारोबार चलाता है!

सीनियर और जूनियर?

जी हाँ. Law of Karma से ये साधु-संत-सिद्ध भी मुक्त नहीं. इसलिए सीनियर-पद से च्युत होकर कभी भी जूनियर हो जाते हैं.

कल्पना कीजिये कि किसी समय महर्षि वेदव्यास senior-most हैं.

महर्षि के लिये कहा जाता है कि वह हर समय विद्याध्ययन में डूबे रहते थे. कहते हैं, उनकी पत्नी भी बड़ी तपस्विनी थीं. वह पति के लिए पीने का पानी नदी से अपने आँचल में भरकर लाती थीं और एक भी बूँद पानी टपकता नहीं था!

एक बार उन्होंने नदी में एक गंधर्व-युगल को जल-क्रीड़ा करते देखा. उनके मन में संस्कार उदय हुआ कि काश कभी मेरे पति भी अध्ययन तज कर यहाँ आते और हम भी ऐसे ही क्रीड़ा करते.

बस, यहीं उस महासती से ‘कर्म’ हो गया!

उस दिन लाख प्रयत्न करने पर भी पानी आँचल में नहीं ठहरा और एक-एक बूंद टपक गई. हारकर उन्हें उस दिन जल मटके में ले जाना पड़ा.

महर्षि ने जल पिया तो उसके स्वाद में बहुत अंतर पाया. उन्होंने कारण जानना चाहा तो उनकी पत्नी ने सब बात कह सुनाई.

सुनकर महर्षि वेदव्यास को हल्का-सा क्रोध हो आया. उन्होंने पत्नी को डाँटते हुए कहा, “ऐसा विचार मन में आया ही क्यों? मालूम है अब तुम्हें वही शक्ति प्राप्त करने के लिए कितनी तपस्या फिर करनी पड़ेगी?”

अब महर्षि की बारी थी! क्रोध करते ही ‘कर्म’ हो गया!

लिहाज़ा उन्हें भी फिर एक लंबी तपस्या करने के लिए निकल जाना पड़ा.

उधर ‘चंद्र-घाटी’ में जगत का व्यापार चलाने का दायित्व अब जो सीनियर मुनि थे उनपर आन पड़ा.

बहुत कठिन है डगर पनघट की…!

चंद्रघाटी के ये सिद्ध चाहें तो पानी को पेट्रोल कर दें, पत्थर के टुकड़े को उँगली के इशारे से सोना बना दें, बोतल-बन्द शराब शरबत में बदल जाये, हाथ उठाकर मूसलाधार बरसता पानी रोक दें – सिनेमा का कोई सीन फ़्रीज़ हो जाने की तरह, फिर वहीं से आगे बरसात शुरू कर दें, एटम बम को फटने से रोक दें, चलती ट्रेन रुक जाये और टस से मस होने से इनकार कर दे!

प्रकृति का हर नियम इन सिद्धों के अधीन है! या यों कहें कि इन्हें सिद्ध है.  

भारत-भूमि अध्यात्म व धर्म (‘Religion’ नहीं) की धरती होने से इन महासिद्धों को विशेष प्रिय है. तथापि पूरा विश्व इनके लिए समान है. जहाँ की प्रजा जैसा चाहती है, उस देश को ये वैसा हो जाने देते हैं. विश्व में हिंसक जातियाँ व देश प्रकृति के नियम से हैं. उद्यमशील धनी देश हैं तो प्रकृति की अनुमति से. मनुष्य-संस्कृति की सर्वोच्चता वाले लोग कहीं हैं तो divine intervention से. मनुष्यों के लिए यही  (ईश्वरीय) आदेश व न्याय है. भारत भूमि के मनुष्य यदि अध्यात्म के शिखर और भौतिक समृद्धि के चरम में समन्वय नहीं करते तो जान रखिये, वे ईश्वरीय न्याय के विपरीत आचरण कर रहे हैं!

सिद्ध-गुरुओं के अनुशासन की आवश्यकता इसलिए है! अध्यात्म का शिखर और भौतिक समृद्धि का चरम — इन दोनों में समन्वय के लिए!

तालकटोरा स्टेडियम में धर्मादेश के लिए एकत्र संतों के वचनों पर कुछ कहने के पहले इतना जानना और ज़रूरी है :–

कहते हैं कि पाँचवीं-छठी शताब्दी के महाज्ञानी मण्डन मिश्र के घर के तोते भी संस्कृत जानते थे. पं. मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने के पूर्व किसी को भी पहले इन तोतों को हराना पड़ता था!

उधर पंडित जी की पत्नी उभय भारती जी भी परम विदुषी थीं. जब आदि शंकराचार्य से पं. मण्डन मिश्र का शास्त्रार्थ हुआ तो निर्णय देने के लिए किसे बैठाया जाये यह समस्या उत्पन्न हुई. पूर्व मीमांसा और अद्वैत वेदान्त का इन दोनों से बड़ा और कोई भी विद्वान् दार्शनिक उपलब्ध नहीं था. तब संत-समाज ने न्याय दिया कि केवल उभय भारती ही ऐसी विदुषी हैं जो इस शास्त्रार्थ पर निर्णय सुना सकती हैं.

आदि शंकराचार्य ने भी यह न्याय स्वीकार किया. प्रतिद्वंद्वी की पत्नी के जज होने से उन्हें कोई चिंता नहीं हुई.

भारती जी ने यह शर्त्त रख दी कि मैं तभी निर्णायक बनूँगी जब दोनों के गले में ताज़े फूलों की माला डाल दी जाएगी.

शास्त्रार्थ शुरु हुआ और कई दिन चला. पूरी विद्वद्सभा को विस्मय था कि दोनों में से विजयी कौन होगा. शास्त्रार्थ के सम्पन्न होने के दिन उभय भारती जी ने निर्णय सुनाया कि शंकराचार्य विजेता हैं.

अन्य विद्वानों ने निर्णय का आधार जानना चाहा क्योंकि मिश्र जी के भी सब तर्क पूरी तरह ठीक थे.

भारती जी ने स्पष्ट किया कि तर्क करते हुए अनेक बार ऐसा हुआ कि मेरे पति ने बल दिया, मैं जो कह रहा हूँ, यही सत्य है. शंकर केवल वही कहते रहे जो सत्य है. पराजय को निकट जान मेरे पति बार-बार अहंकार से भरे और इस कारण उनसे क्रोध का ‘कर्म’ हुआ. आप देख सकते हैं कि क्रोध के ताप से उनके गले की माला के फूल कुम्हला गए हैं. जबकि आचार्य शंकर की माला के फूल ज्यों के त्यों ताज़े बने हुए हैं. शंकराचार्य ही विजेता हैं.

कंप्यूटर और ई-मेल तो अब आए हैं. हम भारत के लोग सृष्टि के आरंभ से ही ईश्वर के साथ ई-मेल पर वार्त्तालाप करते आ रहे हैं.

ईश्वर का e-mail address है – अहं@कर्म.कॉम ; अंग्रेज़ी में me@act.com !

तालकटोरा स्टेडियम में जो संत-समाज एकत्र हुआ, मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ से अभिव्यक्ति उधार लें तो वे गुरु हीरामन हैं, जिन्हें पराजित करना या जिनके आदेश का उल्लंघन करना असंभव जितना कठिन है. पहले इनसे शास्त्रार्थ करें, पात्रता हासिल करें, तब सिद्धों के दर्शन की सोचें! इनका आशीष पाकर इनके ही भावोद्रेक से हम ‘चंद्रघाटी’ के सिद्धों का आह्वान करने की उम्मीद बाँध सकते हैं.

इन गुरुओं में जो राजनीति से दूर रहने का विचार रखने वाले संत हैं उनसे मेरा विनयपूर्वक निवेदन है कि अब किसी भी ‘राजधर्म’ का पालन ‘धर्मादेश’ के बिना नहीं किया जा सकता. आज वह समय नहीं है कि कोई सम्राट्  विक्रमादित्य शासन करता है और समाज अपनी मूल राष्ट्रीय अस्मिता की सुरक्षा की ओर से निश्चिंत रह सकता है. वह समय गया जब कहावत थी ‘यथा राजा तथा प्रजा’. अब प्रजातन्त्र है इसलिए कहना होगा  ‘यथा प्रजा तथा राजा’. यदि साधु-सन्त प्रजा को मार्ग नहीं दिखाएंगे कि किसे वोट देना चाहिये तो सामान्य जन के पास भटकने के बहुत कारण रहते हैं. संवैधानिक पद पर बैठे प्रधानमंत्री के लिए आपके ‘धर्मादेश’ का पालन करना तभी संभव होगा जब प्रजा भी किसी के बहकावे में न आकर आपके वचन का मान रखती हो. 

राम-मंदिर के निर्माण को लेकर आपने जो धर्मादेश दिया है, उस से हमारे देश का एक वर्ग सीधे-सीधे प्रभावित होता है. ये वे लोग हैं जो अपने को ‘मुसलमान’ कहते हैं. इनमें से चंद पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों की चिंता नहीं, मगर हमारे जो दूसरे मुसलमान भाई हैं, उन्हें लेकर बहुत तरह की राजनीति की जाती है.

आप सब ज्ञानवान गुरुओं के संज्ञान में यह लाना उचित रहेगा कि इस राजनीति के चलते हम सामान्य-जन किस-किस तरह की समस्याओं का सामना करते हैं.

होता क्या है कि एक मार्क्सवादी महाशय आरोप लगा देते हैं, हिन्दुओं को मुसलमानों जैसा बनाया जा रहा है, जबकि होना इसका उलटा चाहिये!

इसका क्या मतलब हुआ?

साफ़ है कि मार्क्सवादी हों या अन्य ‘धर्मनिरपेक्ष’, ये लोग मुसलमानों को बिलकुल अप्रूव नहीं करते और नहीं चाहते कि कोई उनके जैसा बने! यानी मुसलमान को देखते ही साँस खींचेंगे और बोलेंगे ‘तलाक़-तलाक़-तलाक़’. जब उनसे पिटेंगे तो साँस छोड़ेंगे और बोलेंगे ‘कुबूल है -कुबूल है -कुबूल है’! कहलाएंगे ‘प्रगतिशील’!

मैंने उन महोदय से जानना चाहा, हिंदू अगर मुसलमानों जैसे हो जायें तो बुरा क्या है? कृपया स्पष्ट करें कि मुसलमानों जैसे होकर हिंदू आपकी नज़र में कैसे-कैसे हो जायेंगे. 

मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पास इस विषय पर कुछ नोट्स हैं. आपकी विद्वत्ता से उनकी तुलना करके मुझे कुछ सीखने को मिलेगा.

इस पर वह कुछ कहने को तैयार नहीं. 

मेरी समझ में हम हिन्दू कहाँ गड़बड़ करते हैं, कहता हूँ. हो सकता है मैं ग़लत होऊँ. फैसला ख़ुद कर लें.

काम, क्रोध आदि षड्-रिपु हैं. मगर अध्यात्म के मार्ग पर. लीला-रूप  संसार-धर्म निभाने में नहीं. समुद्र किसी तरह रास्ता न दे, माने ही नहीं तो उठा लो धनुष! क्रोध करो. ऐसा क्रोध रिपु-वर्ग में नहीं होगा, सात्त्विक होगा. रिपुवर्ग में होता तो रिपुदमन श्रीराम क्रोध करते ही नहीं. 

करणीय सांसारिक कर्त्तव्य को पूरा करने में ये सभी  षड्-रिपु समयानुसार साधन हैं. कर्त्तव्य सामने हो और हाथ काँपने लगें, मुँह सूखने लगे, पसीना निकल आये और हम ‘नहीं मारूँगा’ कहकर धम् से बैठ जायें तो नारायण कहेंगे : “उत्तिष्ठ भारत!”

इसके उलट, यदि हम सोचें कि बैंक में चैक जमा कराते रहने से सांसारिक कर्तव्य पूरा हो जाएगा, या ‘छोड़ो, कौन नाश्ता बनाये’ कहकर भूखे रह जाने से अध्यात्म सध जायेगा तो हम गड़बड़ कर रहे हैं. 

यह तो ठीक कि आत्मा तलवार से नहीं कटेगा. मगर गर्दन तो आत्मा नहीं है. वह कटती आ रही है. इसे नहीं  देखकर हम गड़बड़ कर रहे हैं. 

इसलिए हमें मुसलमानों जैसा हो जाना चाहिये. 

यह साम्प्रदायिकता-भरा कथन नहीं है.  मुसलमान जैसा होकर हम धर्म पर दृढ़ सत्पुरुष ही बनेंगे. 

राजपूत राजा अपना खज़ाना मुसलमान के हाथ में रखते थे, हिंदू के पास नहीं, क्योंकि उनका विश्वास था सच्चा मुसलमान ईमान का पक्का और भरोसेमंद होता है. 

मुसलमान जैसा धर्म-दृढ़ होकर हिंदू और भी ईमान के पक्के और भरोसेमंद हो जायेंगे. कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों जैसे लिज्ज-बिज्ज नहीं रहेंगे.

एक अच्छा मुसलमान ज़बान का पक्का होता है. हिंदू इतना आज़ाद-ख्याल होता है कि सभी इतना स्वतंत्र हैं कि आत्मानुशासन-भर काफी है (वह भी अगर हो, वरना उसके बिना भी ‘हम भी हिन्दू!!). इन ‘प्रोग्रसिव’ ‘हिंदुओं’ में समाजोन्मुख अनुशासन अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ़ है! जबकि वास्तविक ‘आज़ाद-खयाल’ हिन्दू को वी. एस. नायपॉल ने (स्वर्गस्थ हुए भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार) एक स्तर पर  ‘a million mutinies’ कहकर बयान किया है.

मुसलमान जैसा होकर हिंदू एक अनुशासन से बँधने की आदत डालेंगे. 

इन बातों से ये लोग कन्नी काटकर निकल जाने कि कोशिश करते हैं. कम-से-कम अब तो हम यह जानें कि ‘कुफ़्र’ करने वाले को सज़ा दी ही जानी चाहिये. उसे कन्नी काट कर निकल जाना मना है. भले ही सज़ा देने के लिए हमें हाथ में पत्थर उठाना पड़े! 

मुसलमान जैसा होकर हिंदू भी आधुनिक रीति से – अपनी पारंपरिक रीति छोड़, दृढ़-प्रतिज्ञ होना सीखेंगे और हर दुष्ट को उसके ही सिक्के में भुगतान करना जानेंगे.

अगर ऐसा करना ग़लत आचरण की श्रेणी में गिना जाता है — संविधान के विपरीत होता है — तो हिंदू-मुसलमान दोनों कम से कम इस सहमति पर आ सकेंगे कि चलो, अब इस सिक्के में व्यापार बंद करें!

मार्क्सवादी मक्कारी के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा.

तथाकथित प्रोग्रेसिवों को समझना होगा कि मुसलमान का मतलब सिर्फ़ मार-काट नहीं है, और भी बहुत कुछ होना सम्भव है.

हिंदुओं का मुसलमानों जैसा हो जाना  शुभ है!

‘एकता’ और ‘समानता’ की इस नयी प्रक्रिया को न तो आर.एस.एस. ने शुरु किया न धर्मादेश ने. इस प्रक्रिया को अब कहीं जाकर आरंभ किया है भारत-भूमि पर मनुष्यों के लिए निर्धारित ‘ईश्वरीय आदेश’ के अंधाधुंध विनाश ने!

भारतीय अस्मिता की इस अनाप-शनाप बरबादी को सामने देखकर भी हम जाने किस दबाव में देखते नहीं.

रद्दी अख़बार तौल-तौल कर ले जाने वाला याद है? आजकल तो डिजिटल काँटा लेकर आता है. कहीं-कहीं अभी भी उसी दो पलड़ों वाली तराज़ू से तौलता है.

एक पलड़े में एक किलो का बाट रखता है. एक किलो रद्दी तौलकर बाट वाले पलड़े में शिफ़्ट कर देता है ताकि दो किलो तौल सके. अब और दो किलो रद्दी बाट वाले पलड़े में जमा देता है. दोनों पलड़ों की चार-चार किलो रद्दी एक साथ उठा नहीं पाता तो एक किलो का बाट सरका कर अलग रख देता है. और, चल पड़ता है रद्दी से रद्दी तौलने का सिलसिला!

1947 में आज़ाद होने के बाद जब हमें अपना देश ख़ुद चलाने का अवसर आया तो वह समय था आधुनिक-बोध के साथ भारतीय जीवन-मूल्यों को समन्वित करके हम देश को आगे ले जाएं. हमारा ‘वैल्यू-सिस्टम’ कुछ भी मापने-तौलने के लिए एक किलो वाला ओरिजिनल बाट था. सबसे पहले हमने तौला जवाहर लाल को और भारतीयता वाले पलड़े में जगह दे दी. जल्दी ही अपनी जीवन-शैली वाला असली बाट हमें सरका कर अलग कर देना पड़ा.

और, चल पड़ा रद्दी से रद्दी तुलने का सिलसिला!

आधुनिकता और भारतीय परंपरा में कोई विरोध होता तो आज मोदीजी कैसे दोनों को साध पा रहे हैं? जो काम 1947 में होना चाहिए था वह अब हो रहा है! किसने सोचा था जवाहर लाल की तरफ से अंग्रेज़ निश्चिंत थे कि राज तो उनका ही चलता रहेगा. बस एक दिन भारतीय किसान को आत्महत्या करनी होगी!        

हमारे पास आज आधुनिक रीति-नीति है, एक समृद्ध संविधान है, एक मज़बूत लोकतंत्र है. देखना तो यह है कि इस देश का हर नागरिक – किसी भी पंथ-संप्रदाय, जाति, हैसियत या मिजाज़ का हो, मन में कैसा संस्कार लाये, और किस विधि लाये, ताकि प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर हर संवैधानिक नियम के अनुसार आचरण होता रह सके, प्रजा के संस्कार के अनुरूप राजनीति चल सके, मूल भारतीय जीवन-शैली और कृषक-अर्थव्यवस्था हमारे उत्थान की व्यवस्था बनी रह सके.

कौन तय करेगा कि एक किलो वाला हमारा मौलिक बाट कौन सा है? मुहम्मद अली जिन्नाह तो कर नहीं पाये. जवाहर को भी जो खेल करना था कर गए. आज हालत यहाँ तक आ गई है जिनके लिए भारत  ‘भारतमाता’ नहीं, सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा है, वे कहने की तैयारी में हैं “और चाहिये”. ऐसे में कौन बताएगा भारतीय जीवन-मूल्य क्या हैं? राष्ट्रपति-भवन? प्रधानमंत्री कार्यालय? ‘Other Priorities’ वाला सुप्रीम कोर्ट? JNU? फ़िल्म सेंसर बोर्ड? स्टॉक एक्सचेंज? या फिर टी.वी. चैनल?

भारतीय मूल्य तय करना अकादमियों का काम नहीं है. न ही ऐसा कर पाना इन संस्थाओं के बस का है. उसके लिए साधु-संतों के ही अनुशासन की आवश्यकता रहेगी. इसलिए वे कृपया ‘प्रजा’ को संभालने से इनकार न करें. ‘तंत्र’ और ‘राजनीति’ केवल प्रजा का एक्स्टेंशन हैं, प्रजा के राजा नहीं.

तालकटोरा स्टेडियम में घटी ‘धर्मादेश-सम्मेलन’ की पूरी फ़ेंटेसी वक़्त का तक़ाज़ा है, एक reality है!

10-11-2018

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