अब यह तो मालूम नहीं कि अरबी और फ़ारसी भाषाओं के व्याकरण के अनुसार यह शब्दावली — ‘उम्मत-ए-हिंद’ — सही है या नहीं. यदि समय रहते विश्व की ये दोनों शास्त्रीय भाषाएं – classical languages — सीखने को मिली होतीं तो मैं अपनी बात और अधिक आत्मविश्वास के साथ कह रहा होता. ‘जश्न-ए-रेख्ता’ के एक अधिवेशन में परम पूज्य श्री जावेद अख़्तर से पता चला था बादशाह अकबर कैसे एक मामूली इंसान था, तहमद (लुंगी) बांधकर घूमता था, कहीं भी खड़े होकर लोगों से बतियाता था, और चूँकि उस वक़्त उर्दू ने भाषा के रूप में शक्ल अख़्तियार नहीं की थी पंजाबी में बतियाता था. जब ऐसा अकबर ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हो सकता है तो जिस राष्ट्र ‘हिन्द’ के लोग ‘हिंदू’ कहलाए, वहाँ की ‘उम्मत’ को अवश्य ‘उम्मत-ए-हिंद’ कहा जा सकता होगा.
अरबी भाषा के इस शब्द ‘उम्मत’ का अर्थ है किसी पैग़म्बरी धर्म के तमाम अनुयायियों का समुदाय. इसे समूह और गिरोह के भी अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
इस्लाम की यह प्रतिबद्धता प्रशंसनीय है कि ‘उम्मत’ के चलते दुनिया के किसी एक कोने में रहने वाला मुसलमान किसी दूसरे कोने में रह रहे अपरिचित मुसलमान से भी सबसे पहले जुड़ाव रखेगा और उसके लिए फ़िक्रमंद रहेगा. अपने लोगों को आपस में बाँधकर रखने के लिए यह भाव अत्यन्त सहायक है.
संसार के किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों को इस्लाम के प्रशंसनीय पक्षों को कलंकित करने वालों का समूह देखना हो तो उन्हें पाकिस्तान अथवा उससे भी बढ़कर हिंदुस्तान का वीज़ा लेना चाहिए. हिंदुस्तान में तो ‘मुसलमान-मुसलमान’ करते हुए रात-दिन मुहर्रम-मोड में बने रहने वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ देखने-सुनने को मिलेगी. पाकिस्तान को भी और कहीं के नहीं, हिंदुस्तान के ही मुसलमानों की इतनी चिंता है कि वहाँ की स-फ़ौज सरकार को नींद न आने की बीमारी हुई रहती है.
इस तरह की बेमतलब बीमारियों का इलाज हो नहीं पा रहा. ‘उम्मत-ए-हिन्द’ की सही-सही समझ के बिना होगा भी कैसे?
दरअसल ‘उम्मत-ए-हिन्द’ की तरफ़ उस समय बेसाख़्ता ध्यान चला गया जब भारतीय संसद् ने दोनों सदनों में नागरिकता संशोधन बिल को स्वीकार कर लिया और असम सुलग गया. उसके बाद देश के और हिस्से भी भभके – विशेषतः जहाँ-जहाँ ‘हिन्दू-राष्ट्र की प्रतीक’ बी.जे.पी. सरकार थी.
संशोधित अधिनियम का हिन्दुत्व से कुछ लेना-देना न होते हुए भी पहली लपट असम के आसमान में लपकी, इसलिए पहले असम की बात.
अंग्रेज़ी के पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने असम का होने के बूते अपने कार्यक्रम में असम के लोगों को भी बहस में शामिल किया और स्पष्ट किया यद्यपि वह स्वयं भी नागरिकता संशोधन का समर्थक नहीं, मगर देख रहा है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रम फैलाकर हिंसा करवाई जा रही है. अर्नब ने बताया आप हिन्दू हैं या मुसलमान, असम में मायने नहीं रखता.
और जगह रखता है?
यह भी बताया भारतरत्न भूपेन हज़ारिका क़व्वाली गा लेते थे, परवीन सुलताना भजन.
कोई अहसान करते थे क्या?
शिव कृष्ण बिस्सा ने शीन काफ़ निज़ाम नाम से और रघुपति सहाय ने ‘फ़िराक’ नाम से उर्दू में शायरी की तो कोई अहसान किया क्या? जायसी, रहीम, रसखान ने और राही मासूम रज़ा ने हिन्दी में लिखा तो पूरी ‘हिन्दू’ क़ौम पर परोपकार कर दिया क्या? या ऐसा होना यों ही भारतीय (हिन्दू) संस्कृति की रवायत है? एक सामान्य जीवन-शैली मात्र है?
दूसरे असमिया बंधुओं ने बताया वे पहले असमी हैं, तभी तो भारतीय हैं. उनके अनुसार बी.जे.पी. और कुछ नहीं, भगवा कांग्रेस है और हम उसे भी निकाल बाहर करेंगे. 1985 के असम समझौते का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जा सकता? असम-अस्मिता का प्रश्न है.
अर्नब के चैनल के Nation First No Compromise का क्या हुआ? हमें तो ‘असम फ़र्स्ट’ सुनाई दिया. असम में आंदोलन करने वाले लोगों और इन असमिया बांधवों ने एक बार को नहीं सोचा राजनैतिक दल और मुसलिम नेता देश में अस्थिरता लाने के लिए बस एक बहाना ढूँढ रहे थे. वह बहाना हाथ में आया नहीं कि शुरु! असम किसी रिले रेस की तरह baton इन्हें थमाकर हरी घास पर बैठ धूप सेकने लगा और ये भारत-माता की सिकाई करने के अपने पुश्तैनी धंधे में लग गए. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की इतनी हिम्मत कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ से छुटकारा दिला दे और शांति बनी रहे! कश्मीर पर इस्लामी नियंत्रण न रहकर वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का हिस्सा हो जाये और कहीं पत्थरबाज़ी न हो? चलो, बनाओ सब जगह कश्मीर! हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मंदिर के पक्ष में फ़ैसला दे दिया और कहीं मुंबई के बम-ब्लास्ट या 26/11 जैसा कुछ हुआ नहीं! ऐसा कैसे चलेगा?
असम-समझौता के हिमायतियों ने बता दिया कि ‘असम’ एक उम्मत-ए-हिन्द है!
हमारी एक और उम्मत है बंगाल, एक है मराठा, एक उम्मत है तमिल – हमारे राष्ट्र-गान में हमारी अधिकांश उम्मतें गिना दी गई हैं – पंजाब, सिंध (?), गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग! और भी हैं जो गिनायी भले नहीं गयीं मगर हैं – जाट, गुज्जर, पटेल, राजपूत, ब्राह्मण, बनिया! हम किस मुँह से मुसलमानों की निंदा करते हैं जिनकी तो एक नबी की उम्मत है, मगर यहाँ तो उम्मतों का अंबार लगा हुआ है? उम्मतें ही उम्मतें!!
किसी को यह चिंता कि लालू यादव को जेल से कैसे निकालें? किसी को फ़िक्र कहीं उनके हुक्काम चिदम्बरम के जैसे तिहाड़-वास न करने लगें. कोई इसलिए दाहिनेहुं बायें (बिनु काज एक्को नाहीं, बेचारे परले दर्जे के संत जो ठहरे!) कि दाऊद को पाकिस्तान भगा देने में अपने मददगार नेता की मदद कैसे की जाये! इसलिए दे पत्थर, दे आग, दे तोड़-फोड़, दे छात्र, दे बुद्धिजीवी! आख़िर, इस ढेर-ए-उम्मत-ए-हिन्द का दम घुटा जा रहा था! देश को साँसत में डाल अब साँस में साँस आयी!
और, बात कुछ नहीं! सिर्फ़ इतनी कि उन ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता देकर बात ख़त्म करो जो क़ानूनी कागज़ात लेकर आए थे, बरसों से यहाँ रह रहे थे, धार्मिक प्रताड़ना के कारण जाने से इनकार कर रहे थे! मुसलमानों के अतिरिक्त ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति अगर सरकार अपना कोई भी दायित्व निभाती है तो देश ‘हिन्दू-राष्ट्र’ हुआ जा रहा है! लगाओ आग!!
इसलिए क्या कोई यह बताने का कष्ट करेगा, हम तब इनमें से कौन सी उम्मत में से गर्दन उचका कर कह रहे होते हैं – “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई” – जब हमारे मेहमाने-ख़ास कह रहे होते हैं – “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला, इंशा अल्ला”? अल्ला ने तो इंशा कर ही रखी है — होंगे नहीं, टुकड़े हुए रखे हैं! इस बात को कहने के लिए हिम्मत की नहीं, इस सत्य को जान रखने भर की ज़रूरत है.
पाकिस्तान के बाशिंदे और हिन्दुस्तान के मुस्लिम नेता-प्रवक्ता-मौलवी हमारे इस सत्य को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए सँभालकर रखे हुए हैं. जब-तब पानदान में से निकालते भी रहते हैं. इन सबका हर बयान इसी सत्य की तश्तरी में रखकर पेश किया जाता है. तश्तरी दिखाई नहीं देती क्योंकि ‘यह हमारा भी देश है’ के रूमाल से ढँकी होती है, जिसमें ‘वन्दे मातरम् नहीं बोलेंगे’ की गाँठ भी लगी रहती है.
यह शायद क़ुदरत का इंसाफ़ है कि इन कठमुल्लों की बातों में न आकर भारत के अनेक शिक्षित मुसलमान खुलकर सामने आना शुरु हुए हैं जो इस्लाम की अच्छाइयों से जुड़े रहते हैं. इस तरह वे अपने धर्म और देश-धर्म में संतुलन बनाकर इनकी बातों को निरर्थक सिद्ध करने का भी काम करते हैं. जबकि ये कठमुल्ले अधिकांश मुसलमानों को शिक्षा से दूर रखते हैं और उस हालत में रखते हैं जिसमें हमने गोल टोपी लगाए मुसलिम युवाओं को पत्थरबाज़ी करते पाया था. यह भीड़ इन मुस्लिम नेताओं की ‘वर्क-फ़ोर्स’ है, इसलिए उन्हें समुचित शिक्षा से दूर रखना इनके लिए ज़रूरी है.
पत्थरबाज़ी को अभी तक हम अपने न्यूज़ चैनलों पर देख-देख कर ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ से आगे और कुछ नहीं समझ रहे. कश्मीर में बरसों-बरस चली पत्थरबाज़ी को कैसे और क्यों हिन्द के हर उस शहर में लाया गया, बोरियों में भर-भरकर पत्थर क्यों इकट्ठे किए गए, क्यों गाड़ियों-ऑटोरिक्शाओं में ढोये गए और कैसे पूरी प्लानिंग की गई इसकी गंभीरता हम तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम इस्लाम में ‘रज्म’ (रजम) का महत्व नहीं जानेंगे. अपनी बेशुमार उम्मतों में उलझे हुए हिन्द को इतमीनान से मुग़ालता है कि पत्थर और इस्लाम-कनेक्शन जैसा कुछ होता नहीं. चाहे तस्लीम रहमानी हो, चाहे महमूद पराचा और चाहे असदुद्दीन ओवेसी, इन सबके बयानों और गतिविधियों को हम रजम, हिज्राह, शिर्क-अल-अकबर, दारुल इस्लाम आदि को जाने बिना समझ नहीं पाएंगे. मुग़ालते में ही रहेंगे. ये लोग इन्हीं को घिस-घिस कर अपनी ‘वर्क-फ़ोर्स’ को काम में लगाते हैं, जैसे पहले कश्मीर में और अब हिन्द के बड़े हिस्से में लगाया.
‘रजम’ का सीधा-सा मतलब है पत्थर मारना. हज के दौरान शैतान को सात पत्थर मारना भी यही है. ‘हुदूद’ की सज़ाओं के लिए भी शरीयत में ‘रजम’ prescribe किया गया है. ‘हुदूद’ को हम हिन्द के उम्मती इस तरह समझें कि जिसने लक्ष्मण-रेखा पार कर दी, हद से आगे चला गया. उसे ‘रजीम’ करना ही पड़ेगा. ‘रजीम’ यानी जिसे पत्थरों से मारा जाए. ‘रजीम’ के लिए ‘रजूम’ हो जाना – पत्थरबाज़ बनना — मोमिनों पर फर्ज़ है.
समझें — पत्थरबाज़ी मुसलमानों का धार्मिक मान्यता प्राप्त ‘फर्ज़’ है!
हिन्दी हिंदुओं से बढ़कर ‘रजीम’ (पत्थर मारने योग्य) और कौन होगा जो अल्लाह के बराबर बहुत-से देवी-देवता लाकर, ईश्वर की मूर्त्ति बनाकर, और भी बहुत सी मूर्त्तियाँ – जैसे बुद्ध आदि की मूर्त्ति बनाकर हद पार कर गए हैं. यह ‘शिर्क-अल-अकबर’ है – बहुत बड़ा कुफ़्र. हिन्दू तो अल्लाह के सिवा दूसरे की भी कसम खा लेते हैं, जैसे ‘राम-कसम’. यह थोड़ा छोटा कुफ़्र है – ‘शिर्क-अल-असग़र’. इसलिए इनके ऊपर पत्थरबाज़ी मुसलमानों पर मज़हब का बताया फर्ज़ है. क़ुरान-ए-मजीद की क़सम!
यह कारण है कि ये मुसलिम-नेता ‘पत्थरबाज़ी’ की निंदा करते कभी दिखाई नहीं देते. इसी पत्थरबाज़ी – रजम – के वीडियो और फ़ोटो दिखाकर आतंकवाद से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े इन मुस्लिम लीडरान को विदेश से और पैसा मिलेगा. ‘दार-अल-हर्ब’ (युद्ध-क्षेत्र) हिन्द को ‘दार-अल-इस्लाम’ (इस्लाम-परस्त ज़मीन) बनाने के लिए इस नमूने से मिले पैसे को ‘काम पूरा करने’ के लिए लगाया जाएगा.
नागरिकता संशोधन क़ानून किसी की भी नागरिकता लेने के लिए नहीं, बहुत समय से अटके पड़े कुछ ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का अधिनियम है. तब यह मुसलमानों के विरुद्ध कैसे हो गया?
जो बात ये मुसलिम नेता असलीयत सामने आ जाने से बचने के लिए बोलेंगे नहीं मगर जिस कारण इन्होंने इस अधिनियम के सामने मुसलमानों को ‘रजूम’ अर्थात् पत्थरबाज़ हो जाने को सबाब और फर्ज़ कहकर उकसाया उसका आधार है ‘हिज्राह’.
‘हिज्राह’ यानी अपनी जगह से दूसरी जगह जाना. हज़रत मुहम्मद साहब जब मक्का से मदीना गए थे तो वह ‘हिजरत’ थी. अनावश्यक युद्ध टालने के लिए ऐसे ही कभी भगवान् श्रीकृष्ण भी मथुरा से द्वारका जाकर ‘रणछोड़राय’ हुए थे. हिंदुओं में भी कोई ओवैसी हो और चाहे तो वह भी इसी तरह श्रीकृष्ण के ‘हिज्राह’ को तोड़-मरोड़कर उलटा-सीधा भड़काने के लिए काम में ला सकता है.
बहरहाल, ‘हिज्राह’ को मस्जिदों और मदरसों में जिस तरह समझाया जाता है उसे देखते लगता है यह पत्थरबाज़ी तो बहुत कम रही!
एक मुसलिम देश से जाकर दूसरे मुसलिम देश में पनाह लेने को सऊदी अरब जैसे देश अथवा अन्य मुस्लिम देश बढ़ावा नहीं देते. उनके मज़हब के आदेश से उन्हें मालूम है मुसलमानों को ग़ैर-मुसलिम देशों में जाकर बसना चाहिए. इसके लिए ये देश बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. क्योंकि इनके मुताबिक़ इस्लाम ने दुनिया को एकदम साफ़-साफ़ बाँट रखा है. और यह बँटवारा अल्लाह का हुक्म है.
अल्लाह की बनाई इस ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ के लोग इस्लाम पर ईमान लाते हैं ‘दारुल-इस्लाम’ है. सभी घोषित इस्लामी देश ‘दारुल-इस्लाम’ हैं. कुछ जगहें ऐसी हो सकती हैं जहां सब तो मुसलमान नहीं हो गए, मगर ऐसे देशों के पड़ोस में जो ‘दारुल-इस्लाम’ है उसके साथ अगर यह समझौता हो गया है कि हम अपने मुसलमानों का पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे तो वे देश ‘दारुल-सुलह’ या ‘दारुल-अहद’ हुए. अर्थ हुआ ‘संधि-प्रदेश’. ऐसे देशों के ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया जारी रहती है.
मगर जो देश जब तक पूरी तरह इस्लामी नहीं बन जाते उन्हें ‘दारुल-हर्ब’ कहा जाता है. ‘दारुल-हर्ब’ – युद्ध क्षेत्र. 1947 में पाकिस्तान बना तो वह हुआ ‘दारुल-इस्लाम’. भारत जो रह गया वह हुआ ‘दारुल-हर्ब’. अतः, टुकड़े-टुकड़े गैंग का एक और इंशा अल्ला नारा है – “भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”. ‘दारुल-हर्ब’ में जिहाद हमेशा जारी रहता है. हिन्द है तो जब तक ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ करके ईंट से ईंट न बजा दी जाए, तब तक जिहाद होता रहेगा. बचना है तो इस्लाम क़बूल कर लो.
राजनीति में शौकिया लिप्त हमारी बुद्धि आज तक यही माने बैठी है पाकिस्तान का बनना एक राजनैतिक घटना थी. ये जो ‘रज्म’ (रजम) के पत्थर आज नज़र आ रहे हैं आजतक हमारी अक्ल पर पड़े रहे हैं जो हमें मार्क्स की उक्ति कभी ठीक नहीं लगी – धर्म अफ़ीम है. दारुल-इस्लाम पाकिस्तान इसी अफ़ीम की लहलहाती खेती था, है और रहेगा.
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की, और इन तमाम काफ़िर हिंदुओं की इतनी हिम्मत कि ‘दारुल-इस्लाम’ पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्ला देश से ‘दारुल-हर्ब’ हिन्द में आ रहे मुसलमानों को आने वालों में नहीं गिनेंगे! अल्पसंख्यक वहाँ रह नहीं सकेंगे, और हिन्द के मुसलमान उन्हें यहाँ रहने नहीं देंगे. इसलिए मुसलमानों को भी आने दो क्योंकि उनका कैसे भी वहाँ से यहाँ आना ‘हिज्राह’ नामक इस्लामी फ़र्ज़ है, ताकि वे दारुल-हर्ब हिन्द को दारुल-इस्लाम बनाने के काम में जुट सकें. उन्हें न आने देना इस्लाम से दुश्मनी है जिसकी सज़ा है पत्थरबाज़ी – रजम!
यह कारण था जो इन नेताओं के लिए बहुत ज़रूरी हो गया कि बोरियाँ और गाड़ियाँ भर-भर पत्थरों का इंतज़ाम करें और दिखा दें ‘रजम’ का इस्लामी हुक्म कैसे बजाया जाता है.
मुझे पक्का विश्वास है क़ुर’आन-ए-पाक में ये सब बातें इस रूप में और इस उद्देश्य से नहीं कही गई होंगी. ये शैतान आई.एस.आई.एस.-मानसिकता के समर्थन में क़ुर’आन की आयतें उद्धृत करते हैं और यदि कोई नेक मुसलमान दुनिया के किसी कोने से उठकर इन्हें ग़लत कहता भी है तो ये उसे काफ़िर घोषित करके उसकी जान तक लेने पर उतारू हो जाते हैं. जितना मेरी समझ में आया है हज़रत मुहम्मद इतनी बड़ी हस्ती थे कि ज़रा से में उनका अपमान या ‘ईश-निन्दा’ – blasphemy – हो ही नहीं सकती. संभव ही नहीं है. सम्भव मानना स्वयं मुसलमानों द्वारा नबी की हस्ती को कम करके आँकना है.
इस एक उदाहरण से यह बात समझ में आ सकेगी.
अल्लाह के जो 99 नाम इस्लाम में बताए गए हैं और जो क़ुर’आन के पाठ में से संकलित हैं, वे सभी ‘विष्णुसहस्रनाम’ में आ गए हैं.
आप स्वयं देख लीजिए —
1 अर रहमान — बहुत मेहरबान — प्रियकृत्
2 अर रहीम — निहायत रहम वाला — प्रीतिवर्धन:
3 अल मलिक — बादशाह — लोकनाथ:
4 अल कुद्दुस — पाक ज़ात — पूतात्मा
5 अस सलाम — सलामती वाला — शरणं शर्म
6 अल मु अमिन — अमन देने वाला — शांतिद:
7 अल मुहयमिन — निगरानी करने वाला — रक्षण:
8 अल अजीज़ – ग़ालिब — जेता
9 अल जब्बार — ज़बरदस्त — महाबल:
10 अल मुतकब्बिर — बड़ाई वाला – महाशक्ति:
11 अल खालिक — पैदा करने वाला — स्रष्टा
12 अल बारी — जान डालने वाला — विधाता
13 अल मुसव्विर — सूरतें बनाने वाला — विश्वकर्म्मा
14 अल गफ़्फ़ार — बख्शने वाला — क्षमिणावर:
15 अल क़हहार — सब को अपने काबू में रखने वाला — दारुण:
16 अल वहहाब — बहुत अता करने वाला — वरद:
17 अर रज़्ज़ाक — रिज़क देने वाला — वाजसन:
18 अल फतताह — खोलने वाला — योगविदांनेता
19 अल अलीम — खूब जानने वाला — सर्वज्ञ:
20 अल काबिज़ — नपी तुली रोज़ी देने वाला — प्रग्रह:
21 अल बासित — रोज़ी को फराख देने वाला — उदारधी:
22 अल खाफ़िज़ — पस्त करने वाला — दमयिता
23 अर राफ़ी — बुलंद करने वाला — उत्तारण:
24 अल मुईज़ — इज्ज़त देने वाला — मानद:
25 अल मुज़िल — ज़िल्लत देने वाला — दर्पहा
26 अस समी — सब कुछ सुनने वाला — विश्रुतात्मा
27 अल बसीर — सब कुछ देखने वाला — सर्वदृक्
28 अल हकम – फ़ैसला करने वाला — नियन्ता
29 अल अदल — अदल (न्याय) करने वाला — समात्मा
30 अल लतीफ़ — बारीक बीं — सूक्ष्म:
31 अल खबीर — सब से बाख़बर — विद्वत्तम:
32 अल हलीम — निहायत सहनशील — सहिष्णु:
33 अल अज़ीम — बुज़ुर्ग — महान्
34 अल गफ़ूर — गुनाहों को बख्शने वाला — सर्वसह:
35 अश शकूर – कदरदान — कृतज्ञ:
36 अल अली — बहुत बुलंद, बरतर — प्रांशु:
37 अल कबीर — बहुत बड़ा — श्रेष्ठ:
38 अल हफ़ीज — निगेहबान — गोप्ता
39 अल मुक़ीत — सबको रोज़ी, तवानाई (बल) देने वाला — भूतभृत
40 अल हसीब — काफ़ी — पुष्ट:
41 अल जलील — बुज़ुर्ग — प्रतिष्ठित:
42 अल करीम — बेइंतिहा करम करने वाला — भक्तवत्सल:
43 अर रक़ीब – निगेहबान — प्रजागर:
44 अल मुजीब — दुआएं सुनने और कुबूल करने वाला — अनुकूल:
45 अल वासिऊ — फराखी देने वाला — व्यापी
46 अल हकीम — हिकमत वाला — वैद्य:
47 अल वदूद — मुहब्बत करने वाला — सुहृत्
48 अल मजीद — बड़ी शान वाला — गुरुतम:
49 अल बाईस — उठाने वाला — बीजमव्ययम्
50 अश शहीद — हाज़िर — साक्षी
51 अल हक़ — सच्चा मालिक — सत्य:
52 अल वकील — काम बनाने वाला — आधारनिलय:
53 अल क़वी – ज़ोरावर — शक्तिमताम्श्रेष्ठ:
54 अल मतीन — कुव्वत वाला — महावीर्यः
55 अल वली — हिमायत करने वाला — लोकबंधु:
56 अल हमीद — ख़ूबियों वाला — स्तव्य:
57 अल मुह्सी — गिनने वाला — कालः
58 अल मुब्दी — पहली बार पैदा करने वाला — उद्भवः
59 अल मुईद — दोबारा पैदा करने वाला — समावर्त:
60 अल मुह्यी — ज़िंदा करने वाला — प्राणद:
61 अल मुमीत — मारने वाला — शर्व:
62 अल हय्युल — ज़िंदा — जीवन:
63 अल क़य्यूम — सबको क़ायम रखने,निभाने वाला — शाश्वतः
64 अल वाजिद — हर चीज़ को पाने वाला — संग्रह:
65 अल माजिद — बुज़ुर्गी और बड़ाई वाला — शुचिश्रवा:
66 अल वाहिद — एक अकेला — एकः
67 अल अहद — एक अकेला — एकात्मा
68 अस समद — बेनियाज़ (निस्पृह) — विविक्त:
69 अल क़ादिर — कुदरत रखने वाला — विक्रमी
70 अल मुक्तदिर — पूरी कुदरत रखने वाला — क्षम:
71 अल मुक़द्दम — आगे करने वाला — भूतादि:
72 अल मुअख्खर — पीछे और बाद में रखने वाला — अंतक:
73 अल अव्वल — सब से पहले — सर्वादि:
74 अल आख़िर — सब के बाद — विक्षर:
75 अज ज़ाहिर — ज़ाहिर व आशकार — व्यक्तरूप:
76 अल बातिन — पोशीदा व पिन्हा — अव्यक्त:
77 अल वाली –मुतवल्ली (देखरेख करने वाला) — शास्ता
78 अल मुताआली — सब से बुलंद व बरतर — उदीर्ण:
79 अल बर — बड़ा अच्छा सुलूक करने वाला — पुरुसत्तम:
80 अत तव्वाब — सब से ज्यादा कुबूल करने वाला — पापनाशन:
81 अल मुन्ताक़िम — बदला लेने वाला — शत्रुतापन:
82 अल अफ़ुव्व — बहुत ज्यादा माफ़ करने वाला — सह:
83 अर रऊफ़ — बहुत बड़ा मुश्फ़िक (कृपालु) — सुंद:
84 मालिकुल मुल्क — मुल्कों का मालिक — लोकस्वामी
85 अजजुल जलाली वल इकराम —- अज़मतो जलाल और इकराम वाला — महातेजा: मान्य:
86 अल मुक्सित — अदलो इन्साफ कायम करने वाला — न्याय:
87 अल जामिऊ — सब को जमा करने वाला — श्रीनिधि:
88 अल गनी — बड़ा बेनियाज़ व बेपरवा — निधिरव्यय:
89 अल मुग्नी — बेनियाज़ व गनी बना देने वाला — धनेश्वर:
90 अल मानिऊ — रोक देने वाला — दुरारिहा
91 अज ज़ार्र — ज़रर (आघात) पहुँचाने वाला — प्रतर्दन:
92 अन नाफ़िऊ — नफ़ा पहुँचाने वाला — सिद्धिद:
93 अन नूर — सर से पैर तक नूर बख्शने वाला — प्रकाशात्मा
94 अल हादी — सीधा रास्ता दिखाने व चलाने वाला — नेता
95 अल बदी — बेमिसाल चीज़ को ईजाद करने वाला — सर्गः
96 अल बाक़ी — हमेशा रहने वाला — सनात्
97 अल वारिस — सब के बाद मौजूद रहने वाला — वंशवर्धन:
98 अर रशीद — बहुत रहनुमाई करने वाला — गुरु:
99 अस सबूर — बड़े तहम्मुल(सहिष्णुता)वाला — धृतात्मा
अल्लाह अनन्त है. उसे न 99 नामों में समेटा जा सकता, न एक हज़ार नामों में. इसका यह अर्थ नहीं कि हज़रत मुहम्मद को 99 से आगे मालूम नहीं था. अनादि, अनन्त, असीम, अरूप, अविकार अल्लाह को वह पूरा-पूरा जानकर ही कुछ कहते-करते थे. इसलिए उन्होंने प्रकट रूप से उतना ही कहा जितना अरबिस्तान की तात्कालिक परिस्थितियों में ज़रूरी था. बर्बर जीवन के लिए अभिशप्त वहाँ की मनुष्य-श्रेणी के अन्तर्मन में अध्यात्म और अल्लाह के प्रति समर्पण का फूल खिलाने के लिए जितना और जो कुछ ज़रूरी था, वह सब उन्होंने कहा और 99 नामों में समेटकर रख दिया.
हमारे शैतान दोस्त इसी सब को तोड़-मरोड़ कर अपनी कट्टरता के लिए इस्तेमाल करते हैं. अपनी इस तोड़-मरोड़ और संकीर्णता को यह डेढ़ हज़ार वर्ष पहले के अरबिस्तान पर रुका हुआ देखना चाहते हैं. इनकी साम्प्रदायिकता का विरोध करो तो उसे अपना नहीं इस्लाम का विरोध सिद्ध करने में लग जाते हैं. इनके तिलिस्म के शिकार, शिक्षा से दूर, अल्लाह के नहीं मुल्ला के इस्लाम पर ईमान लाने वाले मुसलमान हाथ में पत्थर उठा भी लेते हैं.
बहुत लोगों को एक बात पर हैरानी होती होगी. ये मुसलिम नेता और प्रवक्ता इतनी वफ़ादारी से अपने मज़हब के लिए ज़ोर देकर कैसे बोल लेते हैं कि हिन्द का मुसलमान वास्तव में बहुत परेशान जान पड़ता है?
दरअसल ये क़ुरान-ए-पाक और इस्लाम की बहुत सी शब्दावली और सिद्धांतों-अवधारणाओं से हमारे-आपके अपरिचय का लाभ उठाकर साफ़-साफ़ झूठ बोल रहे होते हैं. जिस तरह पत्थरबाज़ी इस्लाम की एक धार्मिक गतिविधि है – रज्म, उसी तरह एक अन्य इस्लामिक सिद्धान्त है – ‘तक़ीया’. यों तो ‘तक़ीया’ का सामान्य सा अर्थ है — दुराव, छिपाव. अपने प्राण बचाने के लिए बोला गया झूठ ‘तक़ीया’ है. सुन्नियों से अपने प्राण बचाने के शिया मुसलमान ‘तक़ीया’ को अमल में लाते थे. काफ़िरों और ग़ैर-मुस्लिमों के बीच सच का दुराव करते हुए, झूठ को घुमावदार ढंग से सच की तरह कह डालना इस्लाम में जायज़ है. इस्लाम में धैर्य, साहस और आत्मोत्सर्ग जैसे जो आदर्श कहे गए हैं, ‘तक़ीया’ को उनसे भी ऊपर रखा गया है, ख़ास तौर से तब जब कि मोमिनों के सामने दीन के लिए एक बड़ा मक़सद मौजूद हो. भारत में इनके सामने ‘ग़ज़वा-ए-हिन्द’ अथवा एक बार और पार्टीशन की माँग या पूरे भारत का इस्लामीकरण आदि इतने बड़े मक़सद उपस्थित हैं कि ये कभी भी सच बोलने के फेर में न पड़कर हमेशा ‘तक़ीया’ से काम लिया करते हैं. यह मानसिक-वाचिक ‘तक़ीया’ उस समय स्थूल शारीरिक स्वरूप में लागू किया जाता है जब जिहाद को समर्पित मुसलमान के लिए मुँह पर नक़ाब लगाकर पत्थरबाज़ी, आगज़नी या अन्य हिंसा करना अनुकूल रहता है. ऐसे नक़ाबपोश जिहादी जब छात्रों के बीच जाकर सक्रिय होते हैं तब उस राजनैतिक दल को बदनाम करने में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं जो सत्तारूढ़ होता है. इस्लाम-समर्थित इस ‘रजम’ (पत्थरबाज़ी) अथवा ‘तक़ीया’ (झूठ) से ये कोई पाप नहीं कर रहे होते, बल्कि इनकी समझ में स्वयं को पक्का मुसलमान सिद्ध कर रहे होते हैं.
नागरिकता संशोधन के बहाने ‘रज्म’ की पत्थरबाज़ी से हिन्द को ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने की दिशा में जो क़दम बढ़ाया गया है उसे, और इनके लगातार चलते ‘तक़ीया’ को देखते हुए अब समय आ गया है कि इन सब तथ्यों को लेकर इन मुसलमानों की आँख में आँख डालकर देखा जाए, इनसे बेखौफ़ सवाल किया जाए. इन्हें बेधड़क दण्डित किया जाए और इनकी परवाह करना छोड़ दिया जाए. पाकिस्तानी मानसिकता के ये लोग ‘हिन्दू-राष्ट्र’-‘हिन्दू-राष्ट्र’ क्यों चिल्लाते हैं, अब यह समझ में आ जाना चाहिए. यह वक़्त है कि पूरा ध्यान उन मुसलमानों पर लगाया जाए जो राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े हुए हैं. सौभाग्य से हिन्द के कुल मुसलमानों का दो तिहाई राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ा हुआ है. सब औरंगज़ेब नहीं, दारा शिकोह भी हैं और इस बार वे सुरक्षित रहने चाहिएं, उनका सिर कटना नहीं चाहिए. ये ही सबको यह बताकर मदद कर सकते हैं कि रज्म, शिर्क, हिज्राह, तक़ीया आदि इस्लामी अवधारणाओं का देश को अस्थिर बनाने के लिए राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है. दीन के इस राजनैतिक इस्तेमाल को बेनक़ाब करना हर हिन्दुस्तानी का फ़र्ज़ है.
इन शैतानों को सबसे बड़ी मदद मिलती है हिन्द में उम्मतों के अंबार से जो कि राजनीति चलाने का भी आधार है. जिसे हम ‘अनेकता में एकता’ कहते आ रहे हैं वह दरअसल इन उम्मतों के ढेर का आधार सिद्ध हुई है – अनेकता विभिन्न अस्मिताओं की अलग-अलग ललक में बदलती चली गई है और एकता मजबूरी में बोला गया एक नारा लगने लगी है.
क्या हुआ उस एक उम्मत-ए-हिन्द का जिसे हम राष्ट्र-भारती, भारत माता, जननी जन्मभूमि जैसे सम्बोधन देते आये हैं और जिसके लिए ‘वन्देमातरम्’ उच्चारते आये हैं? यदि यह ‘हिन्दुत्व’ है और इससे देश बच जाता है – दारुल-हर्ब – युद्ध-क्षेत्र — कहलाने से, या रजम से – पत्थरबाज़ी से, तब भी यह इस्लाम-विरोधी नहीं है. ‘विष्णुसहस्रनाम’ के उपरिकथित उदाहरण से स्पष्ट है हिन्दुत्व इस्लाम को आग़ोश में लेकर ही चलता है.
यह हिन्दुत्व ‘उम्मत-ए-हिन्द’ है.
25-12-2019
बहुत रिसर्च और गहन विचार के बाद लिखा गया लेख वर्तमान स्थिति के विषय में बहुत साफ़गोई से बहुत कुछ कहता है। विषय गम्भीर है, प्रश्न उठता है कि इस सब की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? हाल ही में देश ने जो देखा वह आँखे खोलने के लिए काफ़ी था पर निराशा होती है हिंदुओं की कुम्भकर्णी नींद से। मुस्लिमों में पत्थर मार कर सज़ा देने की परम्परा रही है पर इस सच्चाई को कहने की हिम्मत भी हम कहाँ बटोर पाते हैं? बात सिर्फ मुसलमान और हिन्दू की ही नहीं है देशविरोधी ताकतों के पैर पसारते जाने की है जो निस्संदेह गम्भीर चिंता का विषय है। अब समय आ गया है जब हमें हर दृष्टि से विचार करना होगा। ये लेख आँखे खोलने में सहायक होना चाहिए, बाकी ईश्वर मालिक।
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