Soochanasur


न्यूज़ मीडिया में टी.वी. स्क्रीन पर जिस तरह की बातें होती हैं, और इन बातों के आगे-पीछे जिस तरह की हरकतें चलती हैं, उनकी तरफ़ बहुत लोगों का ध्यान गया है. अनेकानेक सहृदय लोग अब चिंतित हो गए हैं कि आख़िर मीडिया चाहता क्या है ! इन चैनलों के होने का कारण क्या है ! लक्ष्य क्या है !

लोगों को अब लगने लगा है कि ये मीडिया के लोग हमें मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि वे कितने भी मर्यादाहीन हो जायें, हम उन्हें देखते-सुनते रहेंगे और उनसे प्रभावित भी होते रहेंगे. बहुत से जानकार लोगों ने इनके (कोई-सी भी) भाषा-ज्ञान पर तमाम तरह के प्रश्न उठाए हैं. बहुत लोगों को ऐसा भी लगा है अधिकांश न्यूज़-एंकर आमंत्रित अतिथियों के साथ ‘पुलिसिया थर्ड डिग्री’ व्यवहार करने में अपनी धन्यता समझते हैं और उन्हें ज़रा भी ऐसा नहीं लगता कि वे अपनी हदें तोड़ रहे हैं. देश में विवादों और झगड़ों के सिवा और भी बहुत कुछ होता है जिसे प्राय: ये चैनल न्यूज़ ही नहीं मानते.

मित्रवर रँगीले ठाकुर की तरह एक अन्य सुहृद मित्र हैं पार्थसारथी थपलियाल जो 1982 के आसपास मेरे संपर्क में आए थे. साल भर के ब्रेक के बाद पुनः 1987 में उन्हें जोधपुर में देखा जहाँ वह अच्छी तरह जागरूक खोज-बीन करने के बाद स्क्रिप्ट लिखने में तल्लीन हो जाते थे. मीडिया पर उपरिकथित चिंता की ओर उन्होंने मेरा ध्यान खींचा. अनेक शब्द भी उन्हीं के हैं.

इन सब चिन्ताओं के बावजूद यह भी लगभग निश्चित है कि सूचना माध्यमों के बिना अब दुनिया में न तो किसी को नींद आयेगी, न सोते से जागने को मिलेगा.

मीडिया में दशाधिक आकाशवाणी केन्द्रों में काम करने और लगभग इतने से अधिक केन्द्रों की गतिविधियों से परिचित होने के बल पर मैं अपनी समझ सबके समक्ष रखता हूँ. शायद इस देश के भले लोगों के काम आ जाये.

पहले कुछ ऐसी बातें जो रेडियो में काम कर चुके अथवा कर रहे मित्रों के मतलब की ज़्यादा हैं.

नौकरी के दौरान मुझे अनुभव ने ज्ञान दिया कि सुबह आठ बजे और रात पौने नौ बजे के समाचार पूरे ध्यान से सुन लो तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर जो घट रहा है उस पर भारत सरकार की नीति क्या है, वह मालूम हो जाएगा. इस तरह मैं महानिदेशालय से आने वाली instructions पहले से भाँप लिया करता था. तदनुसार कार्यक्रम प्रस्तुत करने में मुझे कभी कोई संभ्रम नहीं हुआ. और, निश्चय ही, ऐसा करने वाला मैं अकेला तो रहा नहीं होऊँगा. आख़िर मैं अपने साथी-समुदाय का ही एक हिस्सा था.

दूसरी तरफ़ मेरी एक बुरी आदत रही कि समस्याओं पर स्पष्टवादी और बोल्ड प्रोग्राम प्रसारित होने चाहियें. सरकारी माध्यम होने और सरकार की नीति के अनुसार प्रसारण करने की रीति होने के बावजूद बोल्ड प्रोग्राम करने में मुझे कभी विरोधाभास का सामना करके संशय का शिकार नहीं होना पड़ा. यहाँ तक कि जोधपुर से दिल्ली जाने के बाद नेशनल प्रोग्राम में मेरे प्रसारणों की boldness पर अक्सर ‘The Statesman’ के दिल्ली संस्करण में हैरानी (और तारीफ़ भी, जो कि महत्वपूर्ण नहीं है) दिखाई पड़ जाया करती थी.

यह सब आत्मश्लाघा में नहीं, गुर क्या था, यह बताने को कह रहा हूँ.

उन्हीं अनुभवों ने मुझे यह भी ज्ञान दिया कि रे मूरख, बस AIR कोड violate नहीं होना चाहिये. कितना भी बोल्ड होने पर यों कोई सरकारी बंधन नहीं है ! मीडिया के सरकारी दुरुपयोग के बाद भी, जैसे कि इमरजेंसी में !

मैं कोई श्रेष्ठतम प्रोग्राम-प्रतिभा था, ऐसा भ्रम मुझे कभी नहीं रहा. मुझ से कहीं बेहतर प्रतिभाएं हमारे पास थीं. फिर भी अक्सर मेरी तरफ़ सबका ध्यान चला जाता था. कारण यह था कि उन्हीं अनुभवों का सम्मान करते हुए मैंने AIR Code और AIR Manual के भेद को कभी गड्डमड्ड नहीं किया और अपनी टीम को भी इस ओर से जागरूक रखा.

Manual और Code को एक समझने वालों की संख्या धीरे-धीरे प्रोग्राम काडर में बढ़ती गयी और हम, by and large, कभी नहीं समझ पाये कि न्यूज़ वालों का खेल आख़िर था क्या. नतीजा यह हुआ कि हम Service Rules, Recruitment Rules और Manual से बँधे होने को सरकारी शिकंजा समझना शुरु हो गये और Code की ज़िम्मेदारी-भरी व्यवस्था को भी उसी का एक रूप मानने लगे. Code बस इतना था कि किसी अंधे-लूले-लंगड़े का मज़ाक मत बनाओ, मित्र-देशों के विरुद्ध कुछ मत बोलो, सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाली कोई बात मत कहो आदि. यह AIR Code पूरा बोल्ड होने और freedom of expression में कोई अड़चन नहीं था !

ये उन दिनों की बातें हैं जब electronic media में रेडियो का एकच्छत्र राज्य था और हमें ‘सरकारी भोंपू’ कहकर लांछित किया जाता था.

विभिन्न राजनैतिक दल और नेता लगातार यह शिकायत किया करते थे कि ‘सरकारी भोंपू’ पर उन्हें बराबर का समय नहीं दिया जाता. उनका कोई प्रचार नहीं किया जाता.

किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ये शिकायतें न्यूज़ बुलेटिन को लेकर थीं. Manual के अनुशासन को बंधन मानने वाले और Code की महिमा न समझने वाले हम हर ऐसी शिकायत को अपने ऊपर झेल लिया करते थे और मुफ़्त बदनाम होने को ‘नाम हुआ’ समझ लिया करते थे. जबकि यह भोंपू-कलंक झेलना चाहिये था न्यूज़ को !

उधर हमारे पास जो थोड़े-बहुत बोल्ड प्रसारण थे भी हमने उनकी महत्ता जमाने में दिलचस्पी नहीं ली. उन्हें लोगों के दिलो-दिमाग़ में जमाते और ख़ुद टिके रहते तो लोग नोटिस लेते, जैसे Statesman ने लिया.

रेडियो में रहते हुए न्यूज़ के लोगों से सीधे साबका पड़ा हो, प्रोग्राम काडर के ऐसे कितने लोग थे या हैं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता. संयोगवशात् यह अवसर मुझे कई बार मिला.

मैंने पाया कि न्यूज़ का चरित्र ही बदमाशी, भ्रष्टाचार और ख़ुराफ़ात का है. इसका सबसे बड़ा कारण था कि इन लोगों को सरकार, पॉवर, मंत्री और राजनेताओं के बहुत निकट रहने को मिलता था. उनका काम ही ऐसा था. भोंपू या चादर (स्क्रीन) पर कौन नहीं आना चाहेगा? और, पॉवर है कि करप्ट करती है. उसके भी आगे कौन नहीं जानता absolute power corrupts absolutely !

एक general-सा बयान दिया जा सकता है कि कुछ अच्छे-सच्चे लोग भी न्यूज़ में हैं. मगर उनकी आड़ में बाक़ी भी बच निकलेंगे. अच्छे लोगों की यही एकमात्र उपयोगिता रह गई है. पाकिस्तान बनाने वाले आख़िर गाँधियों की अच्छाई की आड़ में ही अपना काम कर जाते हैं! इसलिए तारीफ़ का कोई बयान नहीं तो नहीं ! ऐसा कोई कथन नहीं !

मैंने देखा कि रेडियो के पतन का कारण टेक्नोलोजी नहीं, न्यूज़ के लोग थे. ये वे व्यापारी थे, हम प्रोग्राम के लोग जिनके किये को अपनी पीठ पर ढोने का खच्चर बने. कैसे? ऐसे कि हमें केवल यह ज्ञान था कि अपना तबादला कैसे दिल्ली के बाहर नहीं होने देना है!

जिस तरह मैं व्यर्थ अपनी प्रशंसा में नहीं पड़ता, उसी तरह व्यर्थ दोष भी नहीं लेता. इसलिए यहाँ बताना चाहूँगा कि न्यूज़ से साबका पड़ने पर हर बार मैं इनकी ढिबरी टाईट करके चला. इन्हें अपने और अपनी टीम के ऊपर सवारी नहीं करने दी. इसके बावजूद कि news content पर मेरा कभी नियंत्रण नहीं हुआ. वे स्वतंत्र और अलग विभाग/प्रभाग बने रहे.

एक बार माननीय श्री अरुण जेटली ने मुझसे पूछा था (तब वह सूचना व प्रसारण मंत्री थे) — न्यूज़ को अलग चैनल देने की बहुत माँग आ रही है. आप इनसे डील करते हैं, आप क्या कहते हैं.

मैंने निवेदन किया, आप चाहें तो दे दीजिये.

मुझे अच्छी तरह याद है, जेटली जी ने लगभग अप्रसन्न होते हुए कहा था, ऐसे कैसे? आप कोई logic भी तो बताइये.

मैंने कहा था, news-fall तो इतना होता नहीं कि अलग चैनल चलाया जाये, फिर भी स्वतंत्र चैनल एक दिन होगा ही. (जो नहीं कहा वह था कि ऐसा मैं इनके सब लच्छन देख कर कह रहा हूँ.)

और आज टी वी में ही सही, अंधाधुंध न्यूज़ चैनल हैं और ये क्या करते हैं, सब जान रहे हैं. रेडियो पर एफ़ एम चैनल भी समाचार-सूचनाएं देने के अधिकारी हैं.

बस यह कोई नहीं जान रहा कि आकाशवाणी का समाचार सेवा प्रभाग इनका पितामह है. अपनी हदें तोड़ना इनकी घुट्टी में है.

ये कभी .. कभी .. कभी भी नहीं सुधर सकते. इन्हें बाईस्कोप की तरह देखिये और उपेक्षा कर दीजिये. नहीं तो रात सोने के पहले ब्लड प्रेशर की एक गोली सटकना शुरु कर दीजिये!

मगर इतना जान रखना काफ़ी नहीं है.

यह अधिकांशतः उनके लिए उपयोगी जानकारी थी जो कभी मूल्यों पर आधारित मीडिया-कर्म से जुड़े रहे हैं, insider हैं, विशेषतः रेडियो के इनसाडर.

इस पृष्ठभूमि बनाती जानकारी का मेल जन-सामान्य की चिंताओं से बिठाना अभी बाकी है.

इस पृष्ठभूमि के चलते यह ज़रूर पूछा जाना चाहिये कि मीडिया-कर्मी तो ठीक, मगर आम नागरिक का क्या?

शुरू में बयान की गई चिंताएं इसी आम नागरिक की ओर से कही गई हैं, इसलिए अधिक महत्व रखती हैं.

जब मैंने बताया कि मुझे अवसर मिलते ही मैंने न्यूज़-कर्मियों की ढिबरी टाईट कर दी, तो तात्पर्य था कि administrative कंट्रोल मेरे पास था. मेरे द्वारा उसका सही-सही उपयोग करने से अन्य सभी कर्मचारियों को बहुत राहत रहती थी और न्यूज़ के लोग छटपटाकर रह जाते थे क्योंकि उनका वर्चस्व स्थापित नहीं हो पा रहा था.

जब मैंने बताया कि news content मेरे नियंत्रण में नहीं था, केन्द्र के ट्रांसमीटर से जो प्रसारित होता था उसके लिए मैं जवाबदेह था, सिवा समाचार बुलेटिनों के, News content सीधे दिल्ली से परिचालित रहता था, तब content के प्रति यह मेरी चिंता लोगों की प्रमुख चिंता से जा मिलती है और इस तरह मुद्दे को आम श्रोताओं-दर्शकों से जोड़ती है.

आप में से बहुतों को याद होगा चंडीगढ़ के केन्द्र निदेशक श्री राजेन्द्रकुमार तालिब की हत्या पंजाब के आतंकवादियों ने कर दी थी. वह मेरे अत्यंत निकट मित्र थे. पंजाब का न्यूज़ यूनिट चंडीगढ़ में था. यह हत्या ट्रांसमीटर पर हो रहे प्रसारण की ज़िम्मेदारी केंद्राध्यक्ष की होने और news content के अलग से (दिल्ली से) नियंत्रित होने में निहित gap के कारण हुई थी. करे कोई भरे कोई !

एक यही तथ्य इतना बताने को काफ़ी है कि न्यूज़ के होने मात्र और उसके चरित्र में ही ख़ुराफ़ात है. ज़िम्मेदारी का कोई अहसास न रखने से ही ये लोग निज-स्वरूप प्राप्त करते हैं.

न्यूज़ का content-नियंत्रण या तो राजनीति के गलियारे करते हैं, या बड़े-बड़े बिज़नेस हाऊस, या फिर वे अन्तर्राष्ट्रीय ताक़तें जिनको किसी देश के सामान्य नागरिक के कल्याण या समस्या से कुछ लेना-देना नहीं है. इंदिराजी की हत्या को ही देख लें. बी.बी.सी. ने ग्यारह बजे ही बता दिया था के उनका देहांत हो चुका है. आकाशवाणी को बहुत बदनाम किया गया कि शाम को छह बजे बताया. किसी ने नहीं सोचा कि बीबीसी को क्या हिंदुस्तान में क्या आग लगने को थी ! इसका भी ‘दोष’ (जबकि काम न्यूज़ का था) मढ़ा गया प्रोगाम काडर यानी कुल आकाशवाणी के सिर !

अंतर्राष्ट्रीय ताक़तों के लिए सूचना उछालते रहना एक खेल है, एक आसुरी नृत्य ! यह नृत्य कभी न थमे इसके लिए पूरी दुनिया में ऐसी खलबली मचाये रखना न्यूज़ का काम है जिससे news-fall की कमी न होने पाये. आसुरी चरित्र को हम भारतीयों से बेहतर कौन समझता होगा कि जब तक चले अपना धंधा चमकाओ, अन्यथा परिस्थितियों को देवासुर-संग्राम की ओर ले जाओ ताकि विकट विनाश-लीला हो सके. ‘देवासुर-संग्राम’ अर्थात् जहां देखा कि शांति कुछ स्वर्गिक-सी हो रही है वहीं ऐसा करो कि इंद्रासन डोलने लगे, अस्थिरता फैलने लगे!

कहीं भी, किसी भी तरह की न्यूज़-व्यवस्था इसी विनाश-लीला का आश्वासन है, और कुछ नहीं. ये तमाम चैनल वरदान पा गये उस हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु अथवा भस्मासुर आदि दैत्यों की तरह हैं जो किसी से नहीं डरते, सब इनसे आतंकित रहते हैं और जो सब तरह से एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता हैं जिस पर उसके मालिकों या जन्मदाताओं का भी नियंत्रण नहीं है!

कलियुग का अंत करने के लिए नारायण के कल्कि अवतार की हमें सूचना है. कलि-कालीन असुर का नाम कहीं लिखा नहीं है, मगर वह पूर्णाकार ग्रहण करने की प्रक्रिया में है.

उसका नाम है ‘सूचनासुर’. चाहें तो कहिये ‘मीडियासुर’!

यह किसी प्रकार का निराशावाद नहीं है. यह भगवद्सम्मत ‘न्यूज़-पुराण’ का संक्षिप्त आख्यान है.

नारायण नारायण.

22-02-2019

Leave a comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.