जिन दिनों मैं अध्यापन में संलग्न था – डिग्री क्लासेस को हिन्दी पढ़ाना मेरा काम था — उन दिनों की बहुत याद आती रही है. काफ़ी दिनों तक इसलिए याद आती रही कि शिक्षक होना एक नोबल प्रोफ़ेशन है; युवा छात्र देश का भविष्य होते हैं, अध्यापन उन्हें घड़ने का काम है; छात्रों की आँखों में ‘समझ में आया’ का सन्तोष देखकर sense of fulfilment मिलता है, वगैरह-वगैरह.
आजकल वे दिन अपने ‘प्रतिभाशाली’ छात्रों के कारण याद आते हैं. इन प्रतिभाओं को उनके स्कूल में अध्यापकों ने अच्छे से सिखाया रहा होगा ‘संकट’ कैसे लिखना होता है, ‘झंझट’ कैसे और ‘पर्याप्त’ किस भांति लिखा जाएगा. इस टेलेंट को हमेशा याद रहा कि ऊपर बिंदी (अनुस्वार) लगानी है. और, ध्यान में बैठा लिया ‘र’ को ‘प’ की बगल में नहीं लिखना है. दूसरा ‘प’ आधा रहेगा — ‘पर्याप्त’, वहाँ तक कौन जाये? लिहाज़ा, ‘सकंट’ (सकण्ट) या ‘झझंट’ (झझण्ट) लिखना उनके लिए सदा ‘प्रयापत’ होता रहा ! कहीं की बिंदी कहीं चिपका दी, ‘र’ के पैर कहीं पसार दिये और हो गया !
ज्यों-ज्यों हमारे दैनंदिन जीवन से हमारे मूल्यों का लोप होना शुरु हुआ विभिन्न भारतीय भाषाओं के ज्ञान और शुद्ध लेखन-उच्चारण को भी गोदाम में ठेल दिया गया. बी.बी.सी. किस तरह अंग्रेज़ी के शुद्ध उच्चारण का आदर्श है, वही भारत का भी ‘प्राइड’ होकर रह गया ! मुझे भी ऐसी हिन्दी लिखनी पड़ रही है जो इक्कीसवीं सदी में ठीक से कम्यूनिकेट हो सके ! ‘संप्रेषित हो सके’ लिखूँगा तो और सब की कौन कहे, कुछ समय के बाद मुझे ख़ुद को समझ में नहीं आयेगा कि यह क्या लिख दिया है, ‘संप्रेषित’ क्या होता है !
कहीं की बिंदी कहीं चिपका दो, अब यही प्रोग्रेसिव ‘रेशनलिस्ट’ होने की सबसे बड़ी गवाही रह गई है !
यह बात उस समय और भी खरी बैठती है जब भारत के इतिहास की विकट तोड़-मरोड़ की जाती है. इस विकृति का मूल कारण यह है कि ऐसे इतिहासकार स्वयं को चाहे जितना भारतीय बताने की चेष्टा करें, किसी के द्वारा इन्हें देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट न दिया जाए. ये शोर मचाते रहा करें, किन्तु इनका सच यही रहेगा कि इन्हें भारत से भयंकर वैर है और ये उसे अस्थिर हुआ देखना चाहते हैं. तभी इनकी यह थ्योरी मान्य बनी रह सकेगी कि भारत यदि पद-दलित और ग़ुलाम रहा तो वह ऐसा deserve करता था.
क्यों डिज़र्व करता था?
इनका तुरत उत्तर होगा — अपनी अंधविश्वासी और दकियानूसी हिन्दू पहचान के कारण !
इनकी इस मनोवृत्ति के कारण कहा यह जाना चाहिए कि दरअसल इन्हें हिन्दुत्व से वैर है. अंग्रेजों के समय से ही ये लोग सहन नहीं कर पा रहे कि अगर हिंदुस्तान की पहचान वेद-पुराण-रामायण-महाभारत और गंगा और हिमालय तथा उनसे जुड़ी पौराणिक कहानियों और लोक में प्रचलित जानकारियों से बनी रही तो यह फिर एक स्थिर और मज़बूत देश हो जाएगा. तब इनके ‘एजेंडे’ का क्या होगा? कहीं की बिंदी कहीं लगाना या इधर की उधर करते रहना ही इनका एकमात्र एजेंडा है, ताक़त है!
अयोध्या में भव्य राम-मंदिर के निर्माण को लेकर हिन्दू-भावना का जो ज्वार उमड़ा उससे बहुतों की चिंताएं बढ़ गईं. यद्यपि इनको हिन्दू-divide का बड़ा आसरा है. दिल्ली के बाद अयोध्या और वाराणसी में संत-समाज और शंकराचार्यों ने दिखाया कि उनका एक वर्ग बीजेपी का विरोधी और कांग्रेस का समर्थक भी है. तथापि राम-मंदिर बनाये जाने के पक्ष में सभी एक स्वर से रहे और हैं. हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी. यह एका तथाकथित प्रगतिशील तत्वों के लिए बड़ा ‘झझंट’ लेकर आया.
इसलिए अब इनका ‘कहीं-की-बिंदी-एजेंडा’ अयोध्या का भेस धरकर आया है, जिसे नाम दिया गया है — “अयोध्या एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी है” ! किन्हीं विवेक कुमार ने लिखा है.
चलिये देखते हैं, देश की ‘चिंता’ में बेतरह भावुक होकर ‘तहज़ीब’ के मर जाने पर ये लोग क्या फ़ातिहा पढ़ रहे हैं:
“कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे, बड़े हुए, बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है. जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर है. जहां बैठकर राज किया वहां भी मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसियों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुग़ल या मुसलमानों का राज रहा.
अजीब है न ! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर ! वे तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किये जाते हैं !”
अजीब यह है कि मुसलमानों ने ये मंदिर कैसे बनने दिये या अजीब यह है कि शायद मुग़ल अपने साथ ज़मीन खच्चरों पर लाद कर, ढोकर लाये थे! वह ज़मीन उन्होंने हिंदुओं को दे दी कि लो मंदिर बना लो. अजीब तो यह भी है कि अयोध्या में ही कहीं, इन मंदिरों के आस-पास राम के वनवास वाले वन, लंका और अशोक-वाटिका वगैरह भी रहे होंगे! उनका ज़िक्र इन महान इतिहासज्ञों ने क्यों नहीं किया? इनके हिसाब में तो राम की पूरी लीला अरबिस्तान से बाबर द्वारा ‘लायी गई’ और मंदिरों के लिए हिंदुओं को ‘दे दी गई’ अयोध्या की ज़मीन पर ही हो गई थी – 400-500 साल पहले !
अजीब है न?
ऐसा नहीं कि ये लोग कुछ जानते-समझते नहीं. इनके आदरणीय मार्क्सवादी इतिहासकार हरबंस मुखिया ने अपनी पुस्तक ‘The Mughals of India’ में लिखा है:
“The history of legitimation of conquest of territories in India’s medieval centuries is not terribly complex. Sultan Mahmud of Ghazni had tactfully combined his love of plunder with religious zeal. Later rulers did not seek justification of conquest except in terms of conquest itself. Zia al-Din Barani, historian and theoretician of the state in the fourteenth century, envisioned both conquest and governance as an exercise of terror by the king; conquest of territories was a manifestation of the king’s virility. Babur claimed to have conquered India because ‘it belonged to my ancestor’, a Turk. Indeed, he repeatedly asserted that he pictured the region as his for this reason and the people (of India) were already his subjects.” (पृष्ठ 50)
जिस तहज़ीब के मरने को ये ‘अयोध्या’ कह रहे हैं उसका तो बयान हरबंस मुखिया ने कर ही दिया. चालाकी से यह भी बता दिया कि भारत-विजय मात्र युद्ध-विजय थी, देश तो उनका ही था, प्रजा सहित ! तहज़ीब के ज़िक्र की कोई गुंजाइश नहीं है, इसलिए उसका ज़िक्र नहीं किया!
इसके बावजूद पूरी इस्लामी तहज़ीब को बुरा समझना ग़लत होगा. हिदुस्तान का दुश्मन इस्लाम नहीं, तथाकथित ‘प्रगतिशील’ हैं ! और नहीं तो ‘1001 Arabian Nights’ यानी ‘अलिफ़ लैला’ का ही हवाला लें तो मुसलमान दीन-ईमान के पक्के ठहरते हैं. हिंदुस्तान और लंका आदि की हिन्दू संस्कृति, वैभव और जीवन-शैली को वे आदर से देखते थे और व्यापारिक संबंध भी रखते थे. ये अच्छे मुसलमान व्यापार के अलावा कभी लूटपाट और बर्बरता का प्रदर्शन करने के लिए अरबिस्तान से नहीं निकले. अरब, ईरान, तुर्किस्तान, अजरबेजान, सहारा, बलख-बुखारा से आने वाले आक्रमणकारी, बलात्कारी, आततायी किस्म के लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई. यही वे लोग थे और हैं जिन्होंने इस्लाम के नाम को बट्टा लगाने का काम किया.
भारत में आकर चंगेज़-तैमूर की ये औलादें, जो ‘तहज़ीब’ को पीछे छोड़कर आती थीं, सबसे पहले मूर्त्तियाँ देखकर मंदिर तोड़ने का काम करती थीं क्योंकि ‘कुफ़्र’ को नष्ट करना उनके लिए सबाब का काम था ! दूसरा काम जो इन लुटेरों का होता था वह था मंदिरों में उपलब्ध असंख्य रत्न देखकर ऊभ-चूभ हो जाना. उनके लिए यह ‘बेशुमार दौलत’ थी जिसे लूटना उनके आक्रमण का प्रमुख उद्देश्य रहता था. उसके बाद हत्या और बलात्कार.
आज तो एक आम हिन्दू भी यही कहता-मानता नज़र आता है कि इन रत्नों को रखे रहने का क्या फ़ायदा? इन्हें बेच-बाचकर अस्पताल, स्कूल, और स्टेडियम बना देने चाहिएं ! हिंदुओं को यह भुला दिया गया है कि यह दौलत नहीं, लक्ष्मी का वरदान है. मंदिरों का निर्माण और उनमें स्थापित मूर्त्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा जिन आध्यात्मिक-तांत्रिक विधियों से होती थी यह वरदान उन विधियों का फलीभूत रूप है. इसे केवल सिद्धों और ऋषियों ने हमें उपलब्ध कराया है. हम जो रत्न अँगूठी बनाकर अपनी उँगलियों में पहनते हैं सो क्या बेच-बाचकर छुट्टी करने के लिए? मंदिरों की प्रक्रिया में ये दुर्लभ रत्न पूरे देशवासियों की करोड़ों उँगलियों की अँगूठी हुआ करते थे. बेचने के लिए पहले तो इन अप्राप्य और दुर्लभ रत्नों का दाम लगाएगा कौन? अगर कुछ पैसा मिल भी गया तो वह शीघ्र ही ख़र्च हो जाएगा ! उसके बाद? हिन्दू ख़ुद यह भूल गए कि आध्यात्मिक आचरण से प्रकट हुए वरदान देश की प्रजा के शुभ-संकल्प के लिए होते हैं, लूट अथवा विक्रय के लिए नहीं? इन वरदानों की ‘उत्पादकता’ सतत आध्यात्मिक जीवन-शैली में समाहित रहती है. स्टेडियम और स्कूल के लिए जिस धन की आवश्यकता है वह धन इन रत्नों के लिए लोभ से नहीं, उत्पादक उद्यमशीलता से मिलता है. पूरी दुनिया अब इस बात को मान गई है कि कृषि एकमात्र उत्पादक उद्यम है, अन्य सब कृषि के उत्पाद ‘धन’ पर आश्रित consumer enterprise हैं !
इस तरह हिन्दू जीवन-शैली हुई कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था ! निरंतर आध्यात्मिक आचरण से लक्ष्मी का वरदान प्राप्त करना और मूलतः कृषि-गत श्रम के द्वारा सांसारिक जीवन की झोली धन-धान्य से भरना, इन दो के समन्वय का नाम है हिन्दू !
इन्हीं प्रोग्रेसिव महानुभावों के इतिहासज्ञ हरबंस मुखिया द्वारा की गई खोज के नाम से सोशल मीडिया पर राजस्थानी शैली की एक पेंटिंग भी घुमाई गई थी जिसमें भगवान कृष्ण एक मुस्लिम बालक को गोद में उठाए उसके माँ-बाप के साथ उसे ईद का चाँद दिखा रहे हैं ! कुछ दिन और बीत जाने पर ये सूरदास का कोई पद भी ढूँढ निकालेंगे जिसमें कविवर सूर बता रहे होंगे कि किस तरह कृष्ण मुसलमान थे ! हनुमान के लिए तो कह ही रहे हैं कि ‘महाबली’ में ‘अली’ और ‘रहमान’ में हनुमान का ‘मान’ होने से वह मुसलमान थे!
योगी आदित्यनाथ ने कह क्या दिया कि हनुमान ‘दलित’ थे, कहीं-की-बिंदी-एजेंडा लागू होने लगा ! अब तो अपनी भाषा की भी समझ इन समझदारों के पीछे-पीछे घिसटानी पड़ेगी. वैचारिकता में वी.एस. नायपॉल की ‘A Million Mutinies’ की मानें तो दुनिया में तीन समुदाय हैं जो दलित हैं. एक तो हर भारतीय जो सदियों से कभी इसका तो कभी उसका ग़ुलाम चला आता है. दूसरा वर्ग है भारत के हरिजन. तीसरा है स्त्री-समूह जो दुनिया भर में दबा-कुचला और दलित है ! योगी ने तो केवल इस दृष्टि से वन-वासी हनुमानजी को वंचित और दलित कहकर याद किया था. हनुमानजी के युग में ‘दलित’ जैसी किसी जाति का नाम-निशान तक नहीं था, भाषा का एक शब्द मात्र था. तो फिर यह कथन उनकी जाति बताना कैसे हो गया? फिर भी समझदार लोग ले उड़े ‘बिंदी’ !
इन्होंने तुलसीदास को तो घसीट ही लिया है. ‘कवितावली’ से तुलसी की एक पंक्ति quote करके पूछा है : “लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे ‘मांग के खाइबो मसीत में सोइबो’. और फिर उन्होंने रामायण लिख डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने का क्या तुलसी को ज़रा भी अफ़सोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं !”
जिन तुलसीदास को ‘चार फल जानिहौं चार हि चनक को’ कहना पड़ा था, चार चने मिल जाएं तो लगता था जैसे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों फल प्राप्त हो गए, उनकी पूरी बात इस तरह है : “मांगि के खाइबो, सोइबो मसीत में, लैबो को एक न दैबो को दोऊ”. माँग के तो खाता ही हूँ, लेना एक न देना दो, अब तो सोना भी मस्जिद में पड़ेगा. “तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै जो सो कहे कछु कोऊ”. मेरा श्रेष्ठ नाम तुलसी है जो राम का सेवक है. जिसके जो मनभाये, कहता रहे” !
इन्हीं तुलसीदास जी को एक बार बाबर ने फतेहपुर सीकरी बुलवा भेजा था. बाबर के बारे में तुलसी के जो विचार थे, लौटे तो उन्होंने लिख डाले : “संतों को सीकरी से भला क्या काम? आने-जाने में पादुका भी टूटी, हरिनाम भूले रहे, सो अलग ! जिसका मुँह तक देखने से पाप लगता है, उसे प्रणाम और करना पड़ा !”
“संतन को कहा सीकरी सों काम.
आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम.
जाकौ मुँह देखै अघ लागै, ताकौ करन परी परनाम.”
तुलसी ने जन्मस्थान का मंदिर तोड़े जाने पर कुछ लिखा क्यों नहीं, यही प्रश्न इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष भी था. श्री रामभद्राचार्य जी को ‘इंडियन एविडेन्स एक्ट’ के तहत एक एक्सपर्ट गवाह के तौर पर हाईकोर्ट में बुलाया गया था. श्री रामभद्राचार्य ने तुलसी के संकलित दोहों ‘तुलसी शतक’ में से साक्ष्य उपस्थित किया और बताया कि यह कहना पूरी तरह ग़लत है कि तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में न कहीं इस घटना की चर्चा की है, न मुग़लों का उल्लेख किया है.
“मंत्र उपनिषद ब्राह्मणहू बहु पुराण इतिहास.
जवन जराये रोष भरि करि तुलसी परिहास.
“तुलसी कहते हैं यवनों ने कोप करके अनेक उपनिषद और ब्राह्मण ग्रन्थ जला डाले और मंत्रों का मज़ाक उड़ाया.
“सिखा सूत्र से हीन करि बल ते हिन्दू लोग.
भमरि भगाये देश ते, तुलसी कठिन कुयोग.
“तुलसी कहते हैं, मुसलमानों ने हिंदुओं को ज़बरदस्ती शिखा और यज्ञोपवीत से हीन कर डाला. उन्हें बलपूर्वक अपना घर छोड़ने को मजबूर किया. कितना कठिन और दुर्दैव-भरा समय आया.
“संवत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतु अनुमानि.
तुलसी अवधहि जड़ जवन अनर्थ किए अनमानि.
(ज्योतिषीय काल-गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाने पर इस प्रकार संवत का निर्धारण होगा — सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1. अर्थात् विक्रम सम्वत 1585. विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 होता है.)
“तुलसी कहते हैं, लगभग ग्रीष्म ऋतु का समय था जब संवत 1585 (ईस्वी सन 1528) में इन जड़बुद्धि बर्बर यवनों ने अयोध्या में अनगिनत ज़ुल्म ढाये.
“रामजनम महिं मंदिरहिं तोरि मसीत बनाय.
जवनहिं बहु हिंदुन हते तुलसी कीन्हीं हाय.
“तुलसी के मुँह से उस समय अनायास ‘हाय’ निकली जब रामजन्मभूमि का मंदिर तोड़कर वहाँ मुसलमानों ने मस्जिद बना दी और अनेकों हिंदुओं को मार डाला.
“दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज.
तुलसी रोवत हृदयहत, त्राहि त्राहि रघुराज.
“मीरबाकी ने अयोध्या का मंदिर पद-दलित कर डाला, राम-भक्तों को मार दिया. यह देखकर भग्न-हृदय तुलसी रो दिया और पुकार उठा, हे रघुकुल के राजा श्रीराम, हमारी रक्षा करो !
“रामजनम मन्दिर जहं लसत अवध के बीच.
तुलसी रची मसीत तहं मीरबाकि खल नीच.
“जहाँ कभी रामजन्मस्थान का मन्दिर शोभित हुआ करता था, तुलसी कहते हैं वहाँ निम्नकोटि के मनुष्य नीच मीरबाकी ने मस्जिद खड़ी कर ली !
“रामायन घरि घण्ट जहं श्रुति पुरान उपखान.
तुलसी जवन अजान तहं कह्यो कुरान अजान.
“तुलसी कहते हैं जहां कभी श्रुतियों और पुराणों की कथायें सुनाई देती थीं, हर घड़ी जहाँ घण्ट-ध्वनि के साथ रामायण गूँजती थी, वहाँ अब ये अज्ञानी यवन अपनी अज़ान और क़ुरान कहने लगे हैं.
“बाबर बर्बर आइके कर लीन्हे करवाल.
हने पचारि पचारि जन तुलसी काल कराल.
“तुलसी कहते हैं यह वह भयंकर समय था जब आततायी बाबर हाथ में तलवार लिये आया और उसने लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मारा.”
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन्हीं परिस्थितियों के लिए अपनी पुस्तक ‘Nationalism’ में लिखा था कि हमने तलुवों को चुभने वाले कंकरों पर चलने की आदत डाल ली थी.
इस बाबर ने मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया, 1494 से 1497 तक. हुमायूं को तो ठोक-पीटकर भगा दिया था. मुग़ल साम्राज्य की नींव अकबर डाल पाया था. और यह साम्राज्य जहाँगीर-शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब के आते-आते उखड़ भी गया.
कुल 100 वर्ष (अकबर 1556 ई. से औरंगजेब 1658 ई. तक) के समय के शासन को मुग़ल-काल नाम से इतिहास में इस तरह पढ़ाया जाता है मानो सृष्टि के आरम्भ से आज तक के कालखण्ड में यदि तीन भाग कर दिये जाएं तो बीच का मध्यकाल पूरा मुग़लों के राज का युग रहा. अब इस स्थिर (?) शासन की इन तीन-चार पीढ़ियों के लिए किताबों, पाठ्यक्रमों, सामान्य ज्ञान और कंपीटीटिव-परीक्षाओं में प्रश्न ठूंस-ठाँसकर, विज्ञापनों में तरह-तरह के भोंडे गीत मचा-मचाकर हल्ला ऐसा कर रखा है, मानो पूरा मध्ययुग बस इन्हीं 100 वर्षों के इर्द गिर्द था ! जबकि उक्त समय में मेवाड़ इनके पास नहीं था. दक्षिण और पूर्व भी मुग़लों के लिए बस एक सपना हो कर रह गया था.
इतिहास की तोड़-मरोड़ तब स्पष्ट हो जाती है जब देखते हैं कि भारत में तीन चार-पीढ़ी तक अथवा सौ वर्ष से अधिक समय तक राज्य करने वाले मुग़लों से इतर वंशों को इतना महत्त्व या स्थान मिलना तो दूर उन्हें भारत के इतिहास से ग़ायब ही कर दिया गया है. सिर्फ़ इसलिए कि उनसे भारत के असली गौरव की प्रतिष्ठा होती है !
अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्ष तक टिका रहा. हम्पी नगर में हीरे और मणि-माणिक्य की मण्डियां लगती थीं. महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध-वंश के 22 राजाओं ने, प्रद्योत-वंश के 5 राजाओं ने 138 वर्ष तक, 10 शैशुनागों ने 360 वर्षों तक, 9 नन्दों ने 100 वर्षों तक, 12 मौर्यों ने 316 वर्ष तक, 10 शुंगों ने 300 वर्ष तक, 4 कण्वों ने 85 वर्षों तक, 33 आंध्रों ने 506 वर्ष तक, और 7 गुप्तों ने 245 वर्ष तक राज्य किया था! फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया. इतने महान् सम्राट होने पर भी वह भारत के इतिहास में से गुमनाम कर डाले गये ! सही इतिहास के जानकार और गंभीर अध्येताओं – भगवतशरण उपाध्याय, जयशंकर ‘प्रसाद’, चतुरसेन शास्त्री, जयचंद्र विद्यालंकार, रांगेय राघव व अनगिनत अन्य को भुला दिया गया.
यह सब कैसे और किस उद्देश्य से किया गया इसे हमने कभी ठीक से समझने की कोशिश नहीं की. तथाकथित ‘प्रोग्रेसिव/रैशनलिस्ट/वैज्ञानिक’ सोच का घुन जाने किस हीन-भावना में या आत्मविश्वास की कमी से अपनी संस्कृति को लगता चुपचाप देखते रहे ! एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत हिन्दू योद्धाओं को इतिहास से बाहर कर सिर्फ मुग़लों को महान बतलाने वाला नकली इतिहास पढ़ाने लगे. महाराणा प्रताप के स्थान पर अत्याचारी व अय्याश अकबर को ‘महान्’ लिखा जाने दिया ! अब यदि इतिहास में हिन्दू योद्धाओं को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है तो शिक्षा के ‘भगवाकरण’ का शोर मचा दिया जाता है. यह शोर केवल ‘कहीं-की-बिंदी’ ले उड़ने की मनोवृत्ति है जो हिंदुओं के प्रति इस इतिहास-based घृणा में से निकलती है और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के इंशा-अल्ला में बदल जाती है.
यही इंशा-अल्ला है जो इस सबको ‘तहज़ीब’ का नाम देता है.
दरअसल हमारे देश में भिखारी बहुत हैं जो हर समय यही हिसाब लगाते रहते हैं कि उनके कमंडल में किसने कितना डाला ! ये प्रगतिशील बहुत गद्गद रहते हैं कि मुसलमानों ने हमें कितना दिया !
पहली तो बात यह है कि भारत संसार का एकमात्र ऐसा देश है जो किसी से कुछ लेता नहीं, देता ही देता है. दूसरी बात, इस्लामी तहज़ीब और दीन-ओ-मज़हब वाले मुसलमानों को पीछे छोड़कर ये आततायी हमलावर यहाँ आते थे और यहाँ के लोगों की नेकनीयत देखकर यहाँ बसने का मन बना लेते थे. हुकूमत चलाने को बैठ जाते ज़रूर थे मगर रहते क्या थे इसे पिछले दिनों जश्ने-रेख्ता में जावेद अख्तर ने बताया था. जावेद जी के मुताबिक अकबर की जो कल्पना हम ‘मुग़ल-ए-आज़म’ देखकर करते हैं, वह वैसा बिलकुल नहीं था. अकबर एक मामूली इंसान था, लुंगी पहने यहाँ-वहाँ घूमता था और पंजाबी में बतियाता था. उर्दू उस वक़्त थी भी नहीं. रामायण और महाभारत के ऐश्वर्यशाली वर्णनों की प्रतियोगिता ने मुग़ल बादशाहों को मुग़ल-ए-आज़म बना दिया.
इन आक्रमणकारियों के यहाँ बस जाने के बाद हिंदुस्तान के असर से एक तहज़ीब बनना शुरु हुई थी. बनते-बनते यह तहज़ीब जो बनी लखनऊ की तहज़ीब उसका श्रेष्ठ उदाहरण है. उर्दू का एक भाषा के रूप में बनना इसी तहज़ीब के बनने का हिस्सा था. हमारे जीने के ख़ुशहाल ढंग का असर मुग़लों पर यह हुआ कि उनमें से कुछ के दिमाग़ की परतें खुलना शुरु हुईं. उन्होंने भी बड़ा सोचना शुरु किया. दुर्गा-पूजा जैसे उत्सवों को देखकर मुहर्रम पर इन्हें भी ताजिये निकालने की सूझी. जब ताजियों की ऊँचाई इतनी बढ़ने लगी कि बिजली और टेलीफ़ोन के तार काटने पड़ते थे और हिन्दू विमूढ़-से देखा करते थे, तब लोकमान्य तिलक ने ‘गणेशोत्सव’ की परंपरा शुरु की. केवल भारत में ही मुहर्रम के ताजिये निकलते हैं. यह भारत की उत्सव-प्रियता का असर है.
इतना ही नहीं, उर्दू की शायरी और साहित्य देश का गौरव बना. ख़ुदा से संवाद करने की नई शैली ‘क़व्वाली’ के रूप में निकली. अमीर खुसरो ने अपने नाम के साथ ‘देहलवी’ जोड़ा और अरब-फ़ारस, तुर्किस्तान के संगीत को हिन्दुस्तानी लहज़ा दिया. मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित सूफ़ी दर्शन ने हिंदुस्तानी मुहावरा पाया और मलिक मुहम्मद जायसी जैसे कवि पैदा हुए. अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना, बुल्लेशाह और शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ‘रसखान’ जैसे हिन्दी कवि इस संस्कृति का अहम हिस्सा बने. दारा शिकोह जैसे विद्वान् संस्कृत के ज्ञान को शिखर तक ले गए. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत ने तो अनगिनत मुसलमान उस्तादों को हम सब का ही पूज्य बना दिया.
इतिहास को इस तरह पेश करना कि ये सब तो लूट-पाट और हत्या-बलात्कार के लिए आए ही नहीं थे, सिर्फ़ एक ‘तहज़ीब’ लेकर आए थे, भारत से विद्वेष की पराकाष्ठा है. यह वह इतिहास है जो पाकिस्तान में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तानियों को अभी तक विश्वास है कि वे शहंशाहों की विजेता जाति हैं और हिन्दू उनकी प्रजा होने भर को हैं. वे अभी तक बाबर से लेकर अहमदशाह अब्दाली की महानता का नशा किए हुए हैं. वे नहीं जानते कि धन के लोभ और प्राण जाने के भय से धर्म-परिवर्त्तन करने वाला हर व्यक्ति ‘बादशाही’ खानदान का नहीं हो जाता.
भारत ने कभी संस्कृतियों, जातियों व धर्मों के आपसी सम्पर्क से होने वाली सांस्कृतिक समृद्धि को पीछे ढकेलने का उपक्रम नहीं किया. उसका पूरा बड़प्पन ही इस बात में है कि भारत ने सदा कहा, आओ और खुसरो बन जाओ, आओ और बुल्लेशाह, रहीम, जायसी, रसखान और मिर्ज़ा ग़ालिब बन जाओ. भारत ने बाँहें पसार कर कहा आओ और बड़े ग़ुलाम अली ख़ान, अमीर खाँ, बिस्मिल्ला खाँ, अमजद अली खाँ, ज़ाकिर हुसैन बन जाओ.
यह सब भारत ने बाहर से आने वाले हर किसी को दिया और अपना बना लिया. भारत के करोड़ों मुसलमान पूरी तरह मगन होकर सच्चे हिन्दुस्तानी हैं. मगर उनके नेता और प्रवक्ता आज भी मुसलमानों को पाकिस्तान की तर्ज़ पर बाबर, तुग़लक, औरंगजेब, अब्दाली से जोड़ते हैं. उनके नये आदर्श हैं अफ़ज़ल गुरु, याक़ूब मेमन, इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन और ज़ाकिर नाईक आदि !
हिंदुस्तान ने गले न लगाया होता तो रह जाते सब के सब तैमूर, चंगेज़, महमूद ग़ज़नवी और नादिरशाह बनकर. असदुद्दीन ओवैसी औरंगज़ेब को ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ कहकर याद करता है. उससे पूछा जाये कि औरंगज़ेब के बारे में हम ओवैसी की सुनें या गुरु गोबिन्द सिंह और शिवाजी महाराज की बात मानें.
सच तो यह है कि हिंदुओं को भी मुहर्रम मनाना चाहिए. यह मुहम्मद साहब के पोते हुसैन अली की कुर्बानी को याद करने का दिन है. हम हिंदुओं के लिए ऐसी ही उस कुर्बानी को याद करना उचित होगा जो श्री गुरु गोबिन्द सिंह के चार पुत्रों बाबा अजीत सिंह, बाबा जुझार सिंह, बाबा ज़ोरावर सिंह और बाबा फ़तेह सिंह ने औरंगज़ेब के हाथों दी थी. और इनके भी पहले गुरु गोबिन्द सिंह के पिता श्री गुरु तेग़बहादुर ने दी थी. औरंगज़ेब ने श्री गुरु महाराज को तपते तवे पर बैठाकर न केवल यातना दी, बल्कि अंतत: उनका सिर भी काटकर दिल्ली के लाल क़िले की प्राचीर पर लटका दिया था ताकि हर हिन्दू और सिख देखे ! इन पाँच बलिदानों को हर वर्ष याद करना अपने इतिहास से जुड़े रहना है जबकि इसे निरन्तर हर तरह से किसी गुमराह अफ़साने में बदला जा रहा है. उन लाखों दिल्लीवासियों की बात अलग जिनकी ‘लिंचिंग’ नादिरशाह ने एक ही झटके में कर डाली थी. अपने इसी पुरखे के संस्कारवश असदुद्दीन ओवैसी ने भारत को ‘लिंचिस्तान’ नाम दे डाला !
सोचने जैसा है कि क्या वजह है जो इधर भारत के ये मुस्लिम नेता, कांग्रेसी, कम्यूनिस्ट, तमाम ‘प्रोग्रेसिव-रेशनलिस्ट’ और उधर पूरा पाकिस्तान एक ही ज़ुबान बोलते हैं?
क्योंकि हम हिंदुस्तान का नहीं पाकिस्तान का इतिहास लिखते और पढ़ते-पढ़ाते हैं ! कम्युनिस्टों को ऐसा इतिहास लिखने का सॉलिड आधार मिला जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में जो कमोबेश अंग्रेजों की जेल में बैठे-बैठे पाश्चात्य इतिहास पुस्तकों का चरबा था. अगर पश्चिमी घुमक्कड़ और आक्रांता भारत की डिस्कवरी न कर लेते तो भारत मानो था ही नहीं !
कल्पना कीजिये, इनमें से किसी वामपंथी या तथाकथित प्रोग्रेसिव इतिहास-वीर को ‘डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम से पाकी-इतिहास लिखना हो तो वह कैसे लिखेगा/लिखेगी? जो इतिहास हम अपने देश में अपने मूल गौरव को त्याज्य स्थापित करके चला रहे हैं वह ‘डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान’ है या नहीं? क्या यह इतिहास यह सिद्ध नहीं करता कि पाकिस्तान का बनना पूरी तरह ज़रूरी और justified था? क्या सभी तर्क और बयान यह नहीं बताते कि अगर फिर एक और पाकिस्तान बनने की नौबत आयी तो वह भी इसी तरह औचित्यपूर्ण होगी? क्या भारत के टुकड़ों वाला ‘इंशा अल्ला’ इसी औचित्य (?) का पूर्व-कथन नहीं है? क्या नसीरुद्दीन शाह का ‘असुरक्षा’-बयान और पाक-प्रधान का उसे समर्थन इसी इतिहास-मनस की तार्किक परिणति नहीं है?
इतिहास के प्रति इसी कमिटमेंट और माइंड-सेट ने हिंदुस्तानी अस्मिता की बेतरह विकृति करने वाली एक पैरेलल ‘तहज़ीब’ की भी डिस्कवरी कर डाली ! यदि आपने पहले भी कहीं पढ़ा हो, तब भी राहुल गांधी को याद करते हुए और भगवान् श्रीराम से (और रावण से भी) क्षमा-याचना करते हुए पूरा पढ़ जाइए कि इस ‘डिस्कवरी ऑफ़ तहज़ीब’ ने हमारी राम-कथा और दीपावली मनाने की शुरुआत को किस तरह समझना शुरु किया. यह इनकी मानसिक पंगुता को पूरी तरह बेनकाब करने के लिए काफ़ी है :
“So, like this dude had, like, a big cool kingdom and people liked him. But, like, his step-mom, or something, was kind of a bitch, and she forced her husband to, like, send this cool-dude, he was Ram, to some national forest or something… Since he was going, for like, something like more than 10 years or so… he decided to get his wife and his bro along… you know…so that they could all chill out together. But Dude, the forest was reeeeal scary shit… really man…they had monkeys and devils and shit like that. But this dude, Ram, kicked with darts and bows and arrows… so it was fine.
But then some bad gangsta boys, some jerk called Ravan, picks up his babe Sita and lures her away to his hood. And boy, was our man, and also his bro, Laxman, pissed… all the gods were with him… So anyways, you don’t mess with gods. So, Ram, and his bro get an army of monkeys… Dude, don’t ask me how they trained the damn monkeys… just go along with me, ok…
So, Ram, Lax and their monkeys whip this gangsta’s A*s in his own hood… Anyways, by this time, their time’s up in the forest… and anyways… it gets kinda boring, you know… no TV or malls or shit like that. So, they decided to hitch a ride back home… and when the people realize that our dude, his bro and the wife are back home… they thought, well, you know, at least they deserve something nice… and they didn’t have any bars or clubs in those days… so they couldn’t take them out for a drink, so they, like, decided to smoke and shit… and since they also had some lamps, they lit the lamps also…so it was pretty cooool… you know with all those fireworks… Really, they even had some local band play along with the fireworks… and you know, what, dude, that was the very first, no kidding.., that was the very first music-synchronized fireworks… you know, like the 4th of July stuff, but just, more cooler and stuff, you know. And, so dude, that was how, like, this festival started.”
अब ये प्रगतिशील जीव नागपुर को इस वाली ‘तहज़ीब’ के मर जाने की कहानी बताना शुरु हो जाएंगे ! क्या इनकी एक भी बात स्वीकार करने योग्य है, इनके लिखे इतिहास सहित?
तथाकथित ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण का दम भरने वाले ये किताबी इतिहासकार राष्ट्र-द्वेष को तथ्यात्मकता का नाम देकर जो इतिहास बुनते हैं वह भारतीय जीवन-पद्धति में छिद्रान्वेषण की बदनीयती पर आधारित रहता है. कहने वाले इनके लिए हज़ारों वर्ष पहले सुभाषित कह गए हैं : “अति रमणीय काव्ये पिशुनो दूषण मन्वेष्यति। अति रमणीये वपुषि व्रणमिव मक्षिका निकर:।।“ — दुष्ट लोग सब तरह से सुंदर काव्य-रचना में केवल दोष ढूँढते हैं, ठीक वैसे जैसे मक्खियों का झुण्ड अत्यन्त सुंदर शरीर पर भी केवल ज़ख्म तलाश करता है !
इनका यह गिरोह जो ‘प्रगतिशीलता’ भिनभिनाता है वह ऐसी है जैसे कोई अपने अत्याधुनिक और महँगे स्मार्ट फ़ोन की स्क्रीन और सेल्फ़ी-कैमरे को शेव बनाने के लिए मिरर की तरह इस्तेमाल करता हो !
अयोध्या किसी तरह की तथाकथित तहज़ीब के मरने की कहानी नहीं, भारत के वास्तविक इतिहास को गुमराह होने से बचाने के प्रयास का नाम है.
24-12-2018
बहुत सुंदर लिखा है सर
प्रणाम
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आप सबने जो प्रेरणा दी, उसी का संकलन है. प्रणाम आपकी प्रेरणाओं को.
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बहुत सुन्दर, तथाकथित प्रगतिवादी बहुत आसानी से कह देते हैं कि सारे विवाद को खत्म कर के वहाँ हॉस्पिटल या कॉलेज बनाया जाये । यह सुझाव समस्या से पलायन तो है ही और अयोध्या के इतिहास को झुठलाना भी है। किंतु मुटठी भर लोगों के कहने से कुछ नहीं होता मंदिर तो अयोध्या में बनना है।
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