मेरे एक मित्र हैं “रँगीले ठाकुर”. एकदम राजा आदमी हैं. इसलिए मैं उन्हें ‘राजा सा’ब’ कहकर ही सम्बोधन करता हूँ. वह क्रिया-योगी भी हैं, संगीतज्ञ भी, और धर्मतत्त्व के ज्ञाता भी.
इस दीपावली पर राजा सा’ब ने सोशल मीडिया पर मेरा अभिवादन तो स्वीकार कर लिया, मगर साथ ही एक प्रश्न भी उठा दिया. उन्होंने कहा, दीवाली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान अब तो एक formality होकर रह गया है. समझना मुश्किल है कि दीपावली को कैसे देखा जाये!
वैसे तो राजा सा’ब! मुझे ज़्यादा कुछ पता-वता है नहीं, मगर थोड़ा सिरफिरा ज़रूर हूँ. आप मेरी छोटी सी ‘समझदानी’ के प्रति प्रेमवश मुझे और-और विचार करने का अवसर प्रदान करते हैं, अतः आभारी होकर कुछ कहने का प्रयास करता हूँ.
एक दीपावली ही क्या, पूरे का पूरा हमारा जीवन-धर्म ही एक formality बनाकर रख दिया गया है! यह सिलसिला आठवीं शताब्दी के बाद से शुरु हुआ जब यवन और म्लेच्छों के आक्रमण बहुत बढ़ गये और हमारे इतिहास को केवल कुरीतियों वाले समाज की गाथा के रूप में लिख दिया गया. बुद्ध, महावीर, सम्राट् अशोक, चाणक्य-चंद्रगुप्त, वैशाली गणराज्य, मगध, नालंदा, विजयनगरम्, चोल, पालव, चेर और पाण्ड्य राजवंशों वाले भारत में किसी भी प्रकार के दारिद्र्य, अंधविश्वास, कुरीति, अभाव, सामाजिक अन्याय आदि की परिकल्पना कर पायेंगे आप?
आगे बढ़ने के पहले ज़रा ‘कुरीति’ और बाहरी आक्रमणकारियों के इस रिश्ते को समझ लिया जाये.
गाँव में लड़की की शादी पूरे गाँव की बेटी की शादी मानी जाती थी. सभी मिलकर पूरा प्रबंध देख लिया करते थे. मुख्य (कच्ची) सड़क से शादी वाले घर तक बारात के आने के लिए साफ़-सफ़ाई, छिड़काव वगैरह किसी ने संभाल लिया, खाने का बंदोबस्त किसी ने, बारात के ठहरने, सुख-सुविधा का प्रबंध किसी ने. गाँव के ग़रीब से ग़रीब घर में शादी का ख़र्च कैसे निकल आया, पता तक न चलता था. हौले से यह सामुदायिक व्यवस्था कैसे दहेज़-प्रथा बन गई, ख़बर तक न हुई. सामाजिक बुराई का ठप्पा और लग गया! बाहरी प्रभाव में धीरे-धीरे nuclear families जो बन चलीं थीं! यहाँ तक कि न कोई बुलाना चाहे, न कोई जाना चाहे. फिर भी मंहगे-मंहगे गिफ़्ट के पैकेट देना हर individual की सामाजिक ‘शिष्टता’ हो गयी और शादी का पूरा बोझ उठाना उस अकेले परिवार की ज़िम्मेदारी.
ख़ुद ही फैसला कर लीजिये, यह सामाजिक बुराई है, या वह सामुदायिक भाव जिसपर ‘दहेज़’ का लेबल चिपका दिया गया था?
सती. सती? हाँ-भई-हाँ सती!
गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘आक्रोश’ याद है? 1980 में बनी इस फ़िल्म में ग़रीब किसान (ओम पुरी) की पत्नी (स्मिता पाटिल) जमींदार के गुर्गे द्वारा रेप का शिकार होकर आत्महत्या करती है, लेकिन हत्या के इल्ज़ाम में फँसा दिया जाता है ख़ुद ग़रीब किसान को. किसान के पिता की मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए पुलिस किसान को लाती है. जवानी की दहलीज़ में कदम रख रही अपनी बहन पर जमींदार के उसी गुर्गे की लोलुप नज़र देखकर वह किसान कुल्हाड़ी उठाकर अपनी बहन की हत्या कर देता है.
इस फ़िल्म को ‘गोल्डन ग्लोब’ पुरस्कार दिया गया.
बाहरी आततायियों और उनके उनके गुर्गों की लोलुपता की आए दिन होती घटनाओं के कारण उनसे अपने घर की युवा विधवा को बचाने के लिए कुछ परिवारों ने जब यही ‘आक्रोश’ अपनाया तो उसे ‘सती-प्रथा’ का ‘कीचड़-ग्लोब’ दे दिया गया! अलाउद्दीन खिलजी के सामने यही आक्रोश देवी पद्मावती ने दिखाया था! केवल सती-प्रथा के उदाहरण लें तो भी इतिहास साक्षी है कि करोड़ों के समाज में सती की नौ सौ के लगभग घटनायें हुई नहीं कि हिन्दू समाज ने इस बुराई के विरुद्ध कानून के आने का रास्ता खाली कर दिया था!
मुद्दा यह है कि सामाजिक बुराई का ठप्पा हिन्दू-समाज पर लगाना आसान था इसलिए ‘कर्त्तव्य’ की इतिश्री कर ली गई. क्योंकि यही ‘बाहरी’, ‘आततायी’, ‘आक्रांता’, ‘म्लेच्छ’ जैसे शब्दों से आँख चुराने का भी रास्ता था! ये सब शब्द-सत्य बोलने पड़ेंगे इस से तो अच्छा है कि हिन्दू-समाज को ही कुरीतियों वाली क़ौम घोषित कर दिया जाये! इन तथ्यों को बुहार फेंकना भारत को पद-दलित करते चले जाने के लिए ज़रूरी भी था.
सामाजिक बुराई या षड्यंत्र? स्वयं तौल लीजिये.
‘महाभारत’ के द्रोण के जीवन में था कि पुत्र अश्वत्थामा को पिलाने के लिए उनके पास दूध तक नहीं होता था. आचार्य की पत्नी को दूध के नाम पर आटा घोलकर पुत्र को बहलाना पड़ता था. यह स्थिति एकलव्य के जीवन में नहीं थी.
जैसाकि मैंने पहले भी निवेदन किया था, मुझे संयोगवश यह सौभाग्य मिला जो मैं आदिवासी जीवन के बीच जा पाया. अधिक नहीं, बहुत थोड़ा. फिर भी इतना कि पढ़ने योग्य पाठ पढ़ आऊँ. मैंने पाया कि आज भी किसी आदिवासी के यहाँ दस लोग मेहमान बनकर चले जायें तो वह परिवार आग्रहपूर्वक उन्हें भोजन करवाएगा, तभी जाने देगा. इससे उस परिवार पर कोई आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता. इधर हम पढ़े-लिखों को कभी एक बार चार लोगों को खाने पर बुलाना पड़े तो हमारा महीने भर का बजट गड़बड़ा जाता है. यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि आदिवासी समस्याओं से मुक्त जीवन जी रहे हैं. मगर ध्यान रहे कि जितनी गड़बड़ समस्याओं की मौजूदगी में है, उससे कहीं ज़्यादा घोटाला समस्या को मापने के पैमाने में है.
रह जाती है बात कि द्रोणाचार्य ने क्यों एकलव्य को धनुर्विद्या नहीं सिखलायी.
सिखलाने-न सिखलाने से क्या होता? एकलव्य तो द्रोण की मिट्टी की मूर्त्ति मात्र के सामने अभ्यास करके निपुण हो गया था. बात थी हस्तिनापुर के राजपरिवार को द्रोण द्वारा दिये गए वचन की रक्षा की. इसका जाति से क्या संबंध था?
गुरु-दक्षिणा में आचार्य ने एकलव्य से जो माँगा वह और भी विचित्र है; और उसका प्रचलित narrative उससे कहीं बढ़कर अजीब!
गुरु द्रोण ने कहा गुरु-दक्षिणा में मुझे केवल एक चीज़ चाहिये — यह वचन कि तुम राज्य की किसी स्पर्धा में भाग नहीं लोगे. न ही युद्ध होने पर किसी भी पक्ष की ओर से लड़ोगे.
परीक्षाओं में से सफलता पूर्वक गुज़रने के बाद हर युवक का स्वप्न होता है स्पर्धा में उतरे और स्वयं को सिद्ध करे. बात तीरन्दाज़ी की हो तो अपनी धाक जमाने का अवसर युद्ध से बढ़कर और कहाँ मिलेगा?
एकलव्य को लगा इस दक्षिणा में तो आचार्य ने जैसे मेरा अँगूठा ही माँग लिया है!
महाभारत में यह प्रसंग इस तरह है. मगर उसका प्रचार जिस तरह है, हम सबको उसी तरह मालूम है!
एकलव्य के प्रसंग को कैसे-कैसे हमें शर्मिंदा करने के लिए इस्तेमाल किया गया है!
फिर सोचिये, सामाजिक बुराई या षड्यंत्र?
उस डॉक्टर का किस्सा सुना है जिसके पास से पेट-दर्द ठीक करने की दवा ले जाते हुए मरीज़ ने आश्वस्त होना चाहा, “पेटदर्द ठीक तो हो जाएगा न डॉक्टर साहब?”
डॉक्टर ने कहा, “ पेटदर्द का तो पता नहीं, सिरदर्द ज़रूर शुरू हो जाएगा. तब मेरे पास आना.”
मरीज़ चकराया. “सिरदर्द क्यों?”
डॉक्टर साहब ने बताया, “क्योंकि मैं सिर्फ़ सिरदर्द का इलाज जानता हूँ.”
‘सामाजिक बुराइयाँ’ वास्तव में हैं या केवल इसलिए कि बाहर से आए विजेता बस ऐसे ही ‘सिरदर्द’ से परिचित थे! इतिहास की तोड़-मरोड़ academic dishonesty और धंधा नहीं तो और क्या थी?
जबकि सच यह साक्षात दीख पड़ रहा है कि भारत एक उत्सव-प्रिय देश है. ‘उत्सव’ का अर्थ केवल festivities नहीं है. ‘उत्सव’ यानी निरंतर अभ्युदय और उन्नति!
अरब देशों में एक लोक-विश्वास प्रचलित है कि जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तो अल्लाह आकर उसके कान में कहता है, “मैंने तेरे जैसा एक तू ही बनाया है”.
पूरी पश्चिमी सभ्यता का यह आधारभूत विचार है. सब तरह के अभावों में जीने वालों को इसी से आत्मविश्वास मिलता है. ‘मैं श्रेष्ठतम हूँ’ के आचरण की यह psychological background है!
यहाँ से शुरु होती है ‘happy birthday’ वाली formality-संस्कृति! आठवीं सदी के बाद का भारत निरंतर पतन की कहानी इसलिए है कि formality में श्रेष्ठ होने वालों को वास्तविक श्रेष्ठता का कुछ भी आभास नहीं था. वे लूट और हत्या के दानवी बल को ‘श्रेष्ठता’ का पर्याय मानते रहे.
अत्यंत संवेदनशील भारतीय जीवन शैली प्रकृति की हर नज़ाकत से identify करने के कारण कभी विश्वास न कर पायी कि ‘मनुष्य’ जैसे दिखने वाले ये आततायी ‘संस्कृति-विहीन’ हैं. इसलिए हमारा-उनका interaction कुछ ऐसा हुआ जैसे अभी-अभी उगी दूब के ऊपर से फ़ौजी बूट गुज़र गये हों! यही interaction हमारी पराजयों की कहानी हो गया.
तभी मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि तलवार आत्मा को नहीं काट सकती, मगर गर्दन आत्मा नहीं है, इसलिए उसे काटती आ रही है!
इस हिंसा से बढ़कर formality-culture ने हमारा नुकसान यह कर दिया कि हमारी उत्सव-प्रियता जो अहंकार के समर्पण का अवसर हुआ करती थी, अहंकार को पुष्ट करने वाली औपचारिकता होकर रह गयी! आज हर भारतीय यह सिद्ध करने में लगा है कि मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ, क्योंकि मैं ज़्यादा मँहगा दीवाली-गिफ़्ट दे रहा हूँ! मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि देखो, मैंने कितना intelligent ‘Happy Birthday’ भेजा है. मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मैं हर तरह का दिखावा तुमसे ज़्यादा होशियारी और चालाकी से कर लेता हूँ!
इस formality-संस्कृति को ठीक से समझने के बाद हमें दीपावली पर बात करना आसान हो जाता है.
उत्सव-प्रिय अर्थात् अभ्युदय-प्रिय हम लोग वे हैं जो बचपन से ही ‘ईश्वर’ के साथ खेलकर बड़े होते हैं. हमने (ऋषि भृगु ने) इस ईश्वर की छाती पर लात मार दी तो भगवान् विष्णु उसका निशान आज तक वक्ष पर सँजोये घूम रहे हैं! हमने बैठने को एक ईंट विट्ठल के सामने डाल दी (पुंडलीक ने) तो नारायण आज तक उस ईंट पर एक पाँव से खड़े हैं! हमने अपने इस खिलंदड़े साथी ‘ईश्वर’ का हाथ छोड़ देने के बजाय विष का प्याला पी लिया (मीराँ ने) तो उसका ‘विषैलापन’ पतली गली से निकल लिया!
ऐसी सब घटनायें गिनाने लगेंगे तो और चार ‘वेद’ लिख दिए जायेंगे!
हमारी जीवन शैली में कुछ भी formal नहीं, है तो बस real है! ख़ुदा को आकर हमारे कान में कहना नहीं पड़ता ‘तेरे जैसा एक ही बनाया’. उसे मालूम है कि हम हाथ ही उस ख़ुदा का पकड़ते हैं जो बस ‘एक’ है!
दीपावली को हम प्रायः वैष्णव त्योहार मानते हैं और इस दिन श्रीराम के अयोध्या लौट आने को celebrate करते हैं.
श्रीराम अयोध्या से इसलिए निकले थे ताकि महाराज दशरथ को श्रवण-वध का कर्म हो जाने से पुत्र-वियोग में देह-मुक्त होने को मिले. उधर रावण को ब्राह्मणों का माँस ऋषियों को खिला देने के ‘कर्म’ से केवल नारायण ही मुक्त कर सकते थे, इसलिए तमाम खटकर्म हुए. श्रीराम का अयोध्या लौट आना कर्म-चक्र के निरंतर घूमते रहने का सबक है, इसलिए दीपावली है. इससे कर्म-गति याद रहती है, हम अहंकार का विसर्जन करते हैं और formality- संस्कृति से खुद को बचाकर ego को solidify नहीं होने देते.
एक बार भगवान् शिव के एक गण ने, जिसका नाम था प्रमथ, भगवान् केदारेश्वर की प्रदक्षिणा की जिसमें माता पार्वती को छोड़ दिया. देवी अप्रसन्न हुईं और भगवान् शिव से इस उपेक्षा का कारण जानना चाहा. भोलेनाथ ने बताया कि हे देवी! तुम्हारे पास वह शक्ति नहीं है जो ‘आशुतोष’ होने से मिलती है. इस कारण ऐसा हुआ.
देवी का समाधान नहीं हुआ और उन्होंने ऋषि गौतम से निदान पूछा. ऋषिवर ने उन्हें केदारेश्वर व्रत करने का परामर्श दिया. इस अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले वरदान के रूप में माता पार्वती ने भगवान् शिव के वामांग में उनके शरीर का आधा भाग हो जाना माँगा. इस प्रकार भगवान् केदार ‘अर्धनारीश्वर’ हुए, जिन्हें तंत्र में ‘सदाशिव’ कहा गया है.
दक्षिण भारत में यह त्योहार ‘केदार-गौरी’ व्रत के रूप में मनाया जाता है जिसे ‘दीपावली’ कहते हैं. गाय की पूजा इस व्रत का प्रमुख अंग है.
आप किसी भी तरह देखिये, गोमाता भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का आधार ठहरती है.
दीपावली एक शैव त्योहार भी है.
हमारे शरीर का जो हिस्सा मेरुदंड का सबसे ऊपरी हिस्सा है, ब्रह्मरंध्र के ठीक नीचे, जिसे medulla oblongata कहा जाता है शिव-धनुष है. हमारी कुंडलिनी जब इसे भेदकर ब्रह्मरंध्र तक पहुँचती है तो ‘शिवधनुष’ टूटता है. केवल परमहंस योगी साक्षी हैं कि ‘शिवधनुष’ के ‘भंग’ होने से जो ‘ध्वनि’ होती है वह तीनों लोक गुँजा देती है. यह क्षण हमारे पूरे अस्तित्व के आमूल-चूल कायाकल्प का जो है!
इस प्रकार दीपावली योग-विद्या का भी त्योहार है. यह पर्व Law of Karma, योग-विद्या और नित्य-नैमित्तिक जीवन के निरंतर अभ्युदय का समन्वय करता है.
एक ओर हम दीप प्रज्ज्वलित करके घोषणा करते हैं – “दीपज्योतिः परंब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ; दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते” (वाग्भूषण) — दीपक का प्रकाश सर्वोच्च ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करता है; (ब्रह्मांड के स्वामी) जनार्दन का भी प्रतिनिधित्व करता है; (प्रार्थना है कि) इस दीपक का प्रकाश हमारे पापों का हरण करे! मैं इस प्रकाश (जीवनदाता) को अभिवादन करता हूँ.”
दूसरी ओर, इस दिन हम जीवन को सम्पन्न बनाने के लिए विनय भी करते हैं – “चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह” (श्रीसूक्त) — हे जातवेद (सर्वज्ञ अग्निदेव) चन्द्रवत् प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करो!
दीपावली इसलिए हमारा सबसे बड़ा उत्सव है.
भ्रामक आधुनिकता के फेर में हमने क्या-क्या गँवा दिया है, यह उसका एक छोटा-सा reminder है.
शुभमस्तु!
07-11-2018
मेरा हमेशा ज्ञान वर्धन ही होता है आप की अद्भुत लेखनी और अभिव्यक्ति।
यद्यपि अनुभूति अभिव्यक्त नहीं की जा सकती, और प्रयास लगातार जारी रहता ही है।
पुनः धन्यवाद इस महत्वपूर्ण विश्लेषण के लिए
प्रणाम
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