लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं — Legislature (विधायिका), Executive (कार्यपालिका) और Judiciary (न्यायपालिका). मीडिया चौथा स्तंभ कहा गया है.
इनके अतिरिक्त भारत के राष्ट्रपति की ओर से कार्य करने वाले अनेक संवैधानिक पद व संस्थाएं हैं – उप-राष्ट्रपति हैं, चुनाव आयोग है, रिज़र्व बैंक, सी.बी.आई., महालेखाकार आदि हैं जो हमारे देश की शासन-व्यवस्था को चलाने का काम करने के लिए हैं.
इनमें से विधायिका का हिसाब हम हर पाँच साल में लिया करते हैं. कुछ इस तरह जैसे चौपड़ खेल रहे हों. पहले जब पाँसे फेंके थे तो सामने वाला जीत गया था. इस बार ऐसे पाँसे फेंकेंगे कि बगल वाला जीते! फिर पीठ पीछे वाले को भी मौका मिलना चाहिए! इस तरह खेल में सब कुछ मनमाना होकर रह जाता है और अपने पीछे अनुशासनहीनता की एक लंबी लकीर बनाता चलता है!
चौथे स्तम्भ यानी मीडिया के लिए इतना कहना पर्याप्त है कि इसे अब तक का सबसे अच्छा कॉम्प्लीमेन्ट किसी ने दिया है तो यह कहने वाले ने कि अगर सब मीडिया, टी.वी., रेडियो, अख़बार वगैरह बंद कर दिये जाएं तो हमारी 50% समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी! टी.वी. के रूप में visual media के छा जाने को देखते हुए क्या यह उचित समय नहीं कि ‘चौथे स्तम्भ’ का तमगा अब पत्रकारिता की यूनिफ़ार्म से उतारकर, सिनेमा को दे दिया जाये? न्यूज़ मीडिया जिन मुद्दों को गुड़ की तरह पीट-पीटकर रेवड़ियाँ बनाता रहता है, सिनेमा ने उन्हीं बातों को अधिक प्रभावी ढंग से जन-सामान्य तक पहुंचाने का काम कर दिखाया है.
अब आते हैं कार्यपालिका अर्थात् Civil Services पर. इनमें प्रमुख सेवायें हैं IAS, IFS (विदेश सेवा), IPS और IRS (इन्कम टैक्स आदि).
IAS-IFS के अधिकारी क्या-क्या करते हैं, कैसे प्रशासन में भयंकर ज़मींदारी चलाते हैं, हर तरह के corruption के मूल लिपिक होते हैं, सब जानते हैं.
IPS वाले पुलिस अधिकारी भी क्या नहीं कर गुज़रते, थोड़ा बहुत हम जानते ही हैं.
किसी ने खोज-बीन की थी कि CRPF आदि सुरक्षा फ़ोर्स के जवान नक्सलियों के हाथ क्यों बड़ी संख्या में मरते हैं? पता चला, क्योंकि उनके DG आदि अधिकारी IPS cadre से आते हैं!
पूछे कोई कि सेना या मिलिटरी इंटेलिजेंस से क्यों नहीं आते?
CBI के अंदरूनी झगड़े का सारा किस्सा Civil Services की पड़ताल करने का अवसर है.
इन IPS और IAS अधिकारियों को कंगारू की तरह छलाँगें लगाती महत्वाकांक्षा किसने थमायी है? और क्यों? इन्हें रिटायर होने की उम्र तक झेलने और खेलने देने के बाद CRPF में, सीबीआई में; IAS है तो CAT या UPSC में या कहीं भी नियुक्त करने की आख़िर क्या मजबूरी है? रिटायरमेंट के बाद पेंशन पकड़ाने के साथ पूरी ‘नमस्ते’ क्यों नहीं? महत्त्वाकांक्षा की मेंढक-कूद बंद होगी तो ताज़िंदगी मूँछ पर ताव देने का इनका अंदाज़ भी बदल जाएगा!
देश के सचिव नहीं जानते देश क्या है. विदेश सचिव नहीं जानते हमारी राष्ट्रीय अस्मिता क्या है और दूसरे देश में कैसा भारत project करना है. IPS अधिकारी नहीं जानते देश के अलग-अलग हिस्सों में ज़मीनी हकीकत क्या है.
पर देश को चलाते हैं!
राम-मन्दिर पर चर्चा – फ़ैसले को नहीं, केवल चर्चा को टालने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से न्यायपालिका पर भी थोड़ी बात होनी चाहिए.
साथ ही कुछ और बातें भी जो सवालों के घेरे में हैं. मसलन सरदार पटेल.
इसलिए आर.के. लक्ष्मण की कार्टून-माला ‘You Said It’ के बाबूजी की तरफ़ से आज दो-टूक हो ही जाये!
किसी का अपमान करने या बुरा लगाने के लिए नहीं. बन गए Perceptions की थाली को हिला-हिलाकर एक सही pattern उकेरने के लिए. कितनी भी कड़वी लगें, नीम की पत्तियाँ चबाने-चबवाने का अवसर है. पेट की व्यर्थ खुद-बुद बंद हो जाएगी!
सबसे पहले यह निवेदन कि देश कोरी क्लर्क-बुद्धि से नहीं चलता. अधिकांश में ऋषि-चेतना से चलता है, चलना चाहिये.
कुछ लोग बुरा मान जाते हैं. तब उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि ‘क्लर्क’ किसी नौकरी या पोस्ट या बाबूगीरी का नाम नहीं है. बड़े-बड़े वकील, IAS अधिकारी, कोर्ट के जज, पत्रकार आदि क्लर्क-बुद्धि से काम चलाते हैं — नियमानुसार. नियमों से ही अनुशासन है.
नियमों के लिए अतिरिक्त आग्रह (और अकड़) क्लर्क-बुद्धि है.
क्लर्क-बुद्धि एक स्वभाव है.
ऋषि-चेतना इस देश का lifestyle है.
जीवन — राष्ट्रों का भी जीवन — हवाई अड्डे की airstrip जैसा सीधा-सपाट न होकर zig zag होता है. आड़ा-तिरछा चलता है. नियम की किताब देख-देखकर कार चलाने वाले का किसी तिरछे मोड़ पर एक्सिडेंट पक्का है!
एक नौजवान को किसी क्लब में दरबान की नौकरी मिल गई. इसके पहले वह कोर्ट में चपरासी था. लिहाज़ा नौकरी पर आने के पहले पूछ लिया क्लब के क्या-क्या नियम हैं. उन्होंने उसे Rules & Regulations की किताब पकड़ा दी. रात भर बैठकर उसने पूरी पढ़ डाली और अपनी नौकरी करने में चाक-चौबंद हो गया. ऐसा हो गया जिसे कहते हैं — ‘very competent’!
दूसरे दिन डूयूटी पर जा पहुँचा.
क्लब में प्रवेश के लिए जो सज्जन आये उन्हें सलाम ठोंका, कार्ड देखा और बताया, “ठीक है, आप अंदर जा सकते हैं. मगर अपना छाता कृपया बाहर ही छोड़ जाइये.”
आगन्तुक ने कहा, “मगर मेरे पास तो छाता है ही नहीं.”
दरबान ने बताया, “तब तो आप वापिस जाइये, छाता लेकर आइये, बाहर छोड़िये, और अन्दर प्रवेश कीजिए. हमारे कानून में ‘Other Priorities’ के नीचे साफ़ लिखा है कि मेम्बरान को छाता बाहर छोड़ कर ही अन्दर जाना मिलेगा.”
चीफ़ जस्टिस ने साफ़ कह दिया कि राम-मंदिर पर सुनवाई में कोई जल्दी नहीं. We have other priorities.
बात और ढाई-तीन महीने की होती तब भी असह्य और अनादर-भरी थी. मगर ढाई महीने बाद तो यह तय होगा कि कैसे सुनवाई होगी, कौन करेगा और कब-कब करेगा. मतलब कि चार-छह साल और निकाले जा सकते हैं!
इतना तिरस्कार!
यह भी मतलब साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट के वचन का भरोसा करना व्यर्थ है. पहले रोज़ सुनवाई का निर्णय दिया था जो अकारथ था! क्योंकि अब मुकर गये हैं. आगे जब और जो होगा तब और सो होगा!
इस फ़ैसले से देश के करोड़ों लोग ख़ुश हो गये. साथ ही इन करोड़ों से कहीं ज़्यादा करोड़ों की संख्या में लोग अप्रसन्न हो गये.
एक चीफ़ जस्टिस आते हैं, चन्द मिनट भी बात नहीं सुनते, पहले से जो मन बनाकर आये हैं उसके अनुसार कह देते हैं ‘We have other priorities’.
मध्यमा उँगली को अँगूठे पर रखा और करोड़ों-करोड़ भारतीयों को कंधे पर आ बैठे झींगुर की तरह एकबारगी झाड़ दिया!
यह दंभ की पराकाष्ठा थी या पहले वाले चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के प्रति घृणा की?
सुना है कि बड़े-बड़े जज निजी रुचि-अरुचि, जानकारी और मनोभावों से फ़ैसले नहीं लिया करते.
क्या यह बात सही है?
यह भी सुना है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अधीन है. स्वयं संविधान Preamble से परिचालित है. Preamble भी आरंभिक वाक्यांश — ‘We, the People….’ के अधीन है.
क्या यह बात सही है?
क्योंकि We, the People तो कंधे पर आ बैठा झींगुर सिद्ध हो रहे हैं!
श्रीराम हम ‘झींगुरों’ के हृदय पर जो एकच्छत्र राज करते आ रहे हैं उन्हें यह ‘छाता’ छोड़ देना पड़ेगा.
‘Other Priorities’ का नियम है!
इधर भूतपूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने एक नया शोशा छोड़ा, जिससे बहुत से मुस्लिम प्रवक्ता गला-फाड़ आवाज़ में सहमत हो रहे हैं.
अंसारी के अनुसार 1947 में देश के विभाजन के लिए हिंदू समान रूप से ज़िम्मेदार हैं. इसके लिए अंसारी ने सरदार पटेल के ऐसे वक्तव्य quote किये हैं जिनका लुब्बेलुबाब यह है कि मैं (पटेल) सब तरह विचार करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि देश का बँटवारा करना ही पड़ेगा.
अब ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सिर पर क्रेप की पट्टी लपेटकर इस पर बात करना चाहेंगे तो नहीं होगी, क्योंकि Secular का मतलब ही है कि सच कहने की छूट नहीं है!
विचारणीय है कि सरदार पटेल ने कितने ही वक्तव्य दिये हों, किसी भी वक्तव्य का यह अर्थ कहाँ निकलता है कि हिंदुओं का अलग देश बना दिया जाये? मुसलमानों का अलग देश तो मुसलमानों को ही चाहिये रहा था!
कांग्रेस के partition struggle में (गांधीजी को छोड़ कांग्रेस का कोई freedom struggle था ही नहीं! आज़ादी लाने में उसका कोई असर भी नहीं था!) पटेल के कहने का ज़्यादा से ज़्यादा मतलब यह निकलता है कि ये जिन्नाह-वादी जो गुर्राये चले जा रहे हैं उनके सामने टुकड़ा डालना ही पड़ेगा! सच तो यही है कि पाकिस्तान फेंका गया टुकड़ा ही था! कोई भी भारतीय, विशेषतः हिंदू, अपने ही देश के विभाजन के लिए राज़ी और ज़िम्मेदार कभी नहीं होगा. बस टुकड़ा फेंक कर मुँह झौंसने भर को राज़ी हो तो हो!
3 जनवरी, 1948 को कोलकाता की जनसभा को संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने अपने भाषण में जो बातें कही थीं उनमें से दो यहाँ उल्लेखनीय हैं. एक तो यह कहा था कि जाओ, राज़ी-खुशी आपको पाकिस्तान दिया. अब बनाओ अपना पाकिस्तान. दूसरी बात यह कही कि अब हिंदुस्तान में जो 4 करोड़ मुसलमान रह गए हैं, उनमें बहुत-से ऐसे हैं जिन्होंने पाकिस्तान के बनने में मदद की थी.
आज 4 करोड़ से बढ़कर आप बीस करोड़ हो गए हैं. इनमें वे लोग भी तो बढ़कर कम से कम 5 करोड़ हो गए होंगे, जिन्होंने पाकिस्तान के बनने में मदद की थी! हामिद अंसारी 10 वर्ष तक संवैधानिक पद पर रहने के बावजूद इन्हीं में से किसी परिवार के वंशज साबित हो रहे हैं!
सच यह भी है कि RSS एकमात्र संगठन था जो देश तोड़ने का घोर विरोधी था. पटेल ने जो ban वगैरह लगाये वे कांग्रेसी होने की मजबूरी से. इस तरह के ban लगा दिये जाने से RSS बुरा नहीं, अच्छा ही सिद्ध होता है! भले ही सरदार पटेल ने लगाए!!
अंसारी का यह कहना कि बँटवारे के लिए किसी को तो ज़िम्मेदार ठहराना था, इसलिए मुसलमानों को ठहरा दिया, एक typical मानसिकता का वक्तव्य है. इस बयान का अभिप्राय साफ़ है कि आजकल जो बहुत ‘हिंदू-हिंदू’ सुनायी पड़ रहा है तो मौक़ा है कि फिर अपना अलग देश मांग लो. ये हिंदू जो पहले भी ‘बराबर के ज़िम्मेदार’ थे, फिर बँटवारे को ‘राज़ी’ (मजबूर?) हो जायेंगे!
एक सच यह भी है कि उस हालत में हिंदू विभाजन के लिए बराबर के ज़िम्मेदार ठहराये जा सकते थे अगर सरदार पटेल ने 1947 में यहाँ रह गये मुसलमानों से यह कह दिया होता:
“चलिये, अब यह हिंदुस्तान हिंदुओं का और उधर मोमनिस्तान मुसलमानों का. आपने हमारा देश चुना, पाकिस्तान नहीं, बड़ी अच्छी बात है. आप सब मुसलमान यहाँ आराम से रहें, भले ही आप में से बहुत लोगों ने अलग पाकिस्तान के बनने में मदद की थी. यहाँ आपको सब civil rights मिलेंगे, हिंदुओं के बराबर. मगर आपको अब यहाँ कोई Political right नहीं होगा. आप न चुनाव लड़ सकेंगे, न आपको वोट डालने का हक़ होगा. अगर आपमें से किसी को लगता है कि देश के प्रशासन में मुसलमानों की भी say होनी चाहिये, तो आपने पाकिस्तान आपकी say के ही लिए माँगा था. आपको वहाँ जाकर अपने ढंग से प्रशासन चलाने की छूट है.”
ऐसा तो किसी ने कहा नहीं था. तो हिंदू विभाजन के लिए बराबर के ज़िम्मेदार कैसे हो गये? कहीं अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर कही जाती वही बात तो सच नहीं कि मुसलमान पहले एक देश में जाते हैं, फिर वहाँ अपनी संख्या बढ़ाते हैं, फिर शरीयत की मांग करते हैं, और अंत में अपना अलग देश मांग लेते हैं! इनका गुर्राना किसी तरह कम नहीं होता.
ठहरिये जनाब, बुरा मानने की इतनी जल्दी क्या है? अभी सच और भी है! मगर पहले उस आम मुसलमान की तरफ़ भी देख लीजिए जो सच्चे अर्थ में, पूरी नेकनीयत और ईमानदारी से ‘We, the People….’ का हिस्सा है और जो आप जैसों की नादानियों से सबसे ज़्यादा भुगत जाता है. यह वह हिन्दुस्तानी मुसलमान है जो सबके साथ मिलकर गणेशोत्सव, दुर्गा-पूजा, विजयदशमी के लिए मूर्त्तियाँ बनाता है, दीपावली के लिए दीये बनाता है, इस देश के ऋतुचक्र के अनुसार फ़सलें उगाता है, रसखान की कलम से कृष्ण-भक्ति का काव्य रचता है, दारा शिकोह बनकर फलों के राजा आम को संस्कृत में नाम देता है – ‘रसाल’, बड़े ग़ुलाम अली खाँ साहब के गले से गाता है – ‘हरि ओं तत्सत’, अब्दुल हमीद बनकर पाकिस्तान के टैंक नष्ट करता और ‘परमवीर चक्र’ से सज्जित होता है!
आप कहते हैं कि अब्दुल हमीद जैसे मुसलमान गिनाकर भी आप हिन्दू लोग हम मुसलमानों पर शक करते हैं! सो जनाब, आप तो अब्दुल हमीद नहीं हैं. आप अब्दुर्रहीम खानखाना भी नहीं, रसखान, दारा शिकोह, उस्ताद हाफिज़ अली खाँ या उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खाँ या उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ या उस्ताद अमजद अली खाँ भी नहीं हैं! ये सब तो बिना कहे हर हिन्दुस्तानी के लिए उतने आदरणीय और पूजनीय हो गए जितना घर का कोई बड़ा-बुज़ुर्ग होता है. अगर हिन्दू कहें ‘ईश्वर-अल्ला’ कहने वाला एक गाँधी हो तो गया, और क्या चाहिए, तो क्या आपके लिए काफ़ी होगा?
कौन कहता है कि हिंदुस्तान में मुसलमान नहीं चाहिएं? जो नहीं चाहिए वह है पाकिस्तान-मानसिकता! महत्त्व उन 15 करोड़ मुसलमानों का है जो सच्चे हिन्दुस्तानी हैं. आप 5 करोड़ (या इससे कम या इससे ज़्यादा) पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों का नहीं!
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘Nationalism’ (1917) में पश्चिमी सभ्यता से आ रहे ‘बाज़ार’ मनोवृत्ति वाले ‘राष्ट्रवाद’ की निंदा करते हुए लिखा है कि (तुर्क-मुग़ल-पठान आदि) के आक्रमणों के लम्बे दौर और शासन के बावजूद हमने अपने पाँवों के तलुवों को चुभने वाले कंकरों वाली ज़मीन पर चलने की आदत डाल ली थी. मगर अब (इस यूरोपीय ‘राष्ट्र’-वादी सरकार के कारण) लगता है जैसे कंकड़ जूते में घुस गया हो!
तलुवों को कंकरीली ज़मीन की आदत डाल लेने में कोई योगदान पाकिस्तान-मानसिकता वाले मुसलमानों का नहीं है. उन का है जो ‘हरि ओम् तत्सत’ गाते हैं, जो गाने से पहले या साज़ छेड़ने से पहले माँ सरस्वती को प्रणाम करते हैं – बिना कुफ़्र कमाये, और जो फिर भी हंड्रेड परसेंट मुसलमान हैं, योगदान उनका है जो सबके साथ मिलकर दीपावली के दीये बनाते हैं. योगदान उनका है जो किताब में पढ़े बिना समझ जाते हैं कि यह हिंदुत्व जीवन-शैली है, कोई मज़हब नहीं. उनका है जो जान गए हैं कि यह जीवन-पद्धति एक अर्थव्यवस्था का नाम है जो कृषि-आधारित है. ये वे मुसलमान हैं जो सदियों पहले इस सत्य को भाँप गए थे, जबकि आधुनिक विश्व अब कहीं जाकर माना है कि कृषि ही एकमात्र उत्पादक आर्थिक चेष्टा है, अन्य सभी consume करने वाली गतिविधियाँ हैं! योगदान उनका है जो जान गए हैं कि यह ऐसी अर्थव्यवस्था है जो गाय से शुरु होती है और होली-दीवाली के आसपास लगने वाले मेलों में पूरी होती है, जब फ़सलें आ जाती हैं. योगदान उनका है जिन्होंने देख लिया है कि इन मेलों में लाखों-करोड़ों रुपयों का व्यापार हो जाता है! धर्म कहें कि अर्थव्यवस्था – बस कुल मिलाकर एक जीवन-शैली है जिससे दुश्मनी पालने का कोई मतलब नहीं है.
और आप हैं कि निंदा करने के लिए कहते हैं, ये हिन्दू तो बाँटते हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — पूरे समाज को चार में बाँट दिया! हम मुसलमान बस एक ख़ुदा को लेकर चलते हैं. मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य महमूद पराचा ने एक टी.वी. बहस में कहा था.
चार? और — एक?
तो गिनिए ज़रा, यह क्या है — शिया , सुन्नी, अहमदिया, बरेलवी. अल हदीसी, हयाती, पठान, मुग़ल, धुनिया, कुरैशी, सैय्यद , सिद्दीकी, ममाती, देवबंदी, वहाबी?
गिनने में तो चार से ज़्यादा लग रहे हैं!
कुल मिलाकर कुछ नहीं रखा इन बातों में. बहुत सी बातें इसलिए नहीं कही जाती रहीं कि उन्हें बकुरना अशिष्टता होकर रह जाती है. फिर भी, होठों पर उँगली रखे बैठा सच भी सच ही होता है! आप चंद लोगों की गुस्ताखियाँ जो हिंदुस्तान के मूल lifestyle के खिलाफ़ बढ़ती जाती हैं यह सच केवल उनका प्रतिबिंब है. आपने कुएं में झाँका तो जो नीचे दिखा वह आप ही थे!
होगा इससे भी कुछ नहीं. हर संवैधानिक संस्था और पद को यह अच्छी तरह समझा दिये जाने से होगा कि आप ‘We, the People’ का दिया खा रहे हैं. ज़रा तुलना कीजिये अपनी दिन भर की मेहनत की और किसान के दिन भर के परिश्रम की. अब तुलना कीजिये महीने भर की अपनी लाखों की पगार की जो आप अकसर कुछ किये बिना भी घर ले जाते हैं, और आपके जीवनाधार उस किसान की जिसे किसी-किसी महीने कुछ भी नहीं!
अब आपको यह जान रखना होगा कि जब-जब आपको दिये जा रहे भत्तों में दो-अढ़ाई प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है, तब हर बार किसान को भी उसके लिए निर्धारित MSP का उतने प्रतिशत महँगाई भत्ता दिया जाना ज़रूरी है! (इस तरह के निर्णय को ठीक से regularise करना होगा). भले ही इसके लिए आपका वेतन कम करना पड़े! इस तरह के फैसले का justification क्लर्क-बुद्धि के शाब्दिक “twenty-twenty” में नहीं, ऋषि-चेतना के न्याय में मिलेगा. यदि नहीं मिलता तो यह ‘We, the People’ से घनघोर द्रोह है, संविधान की अवहेलना है जो दंडनीय होनी चाहिए. जिस तरह contempt of Court ग़लत है, उसी तरह मूल lifestyle पर ज़मींदारी जमाना सौ गुना बड़ा अपराध है. ऐसा करते ही ‘We, the People’ से छल हो जाता है. आप चारों स्तंभों के होने मात्र का अर्थ समाप्त हो जाता है. संविधान की किताब को तकिये के नीचे दबाकर सोये पड़े रहने का क्या मतलब है? खाली-पीली पगार लेने के लिए?
आख़िर एक विशिष्ट भारतीय जीवन-शैली का जो मूल है यह उसी का पसीना है जो आपकी पगार के हरे-हरे नोटों में बदलता है. यह उसी का श्रम है जो हरी-भरी फ़सलों का रूप लेकर लहलहाता है और ‘शस्य श्यामलां मातरं, वन्देमातरम्’ गुनगुनाता है! और अंतत: भारत के अर्थचक्र के घूमने की शुरुआत होती है मंदिरों के इर्द-गिर्द लगने वाले लोक-मेलों से और जा पहुँचती है वित्त मंत्रालय के सेंट्रल कम्प्यूटर तक!
नज़र आ रहा है कि ‘other priorities’ कोई परिश्रम भरा काम हैं या राजनैतिक महत्त्वकांक्षाओं की कंगारू-कूद!
जो भी सही काम होगा वह केवल लोकतंत्र के चारों स्तंभों के ‘We, the People’ के प्रति नतमस्तक commitment से होगा, उन्हें झींगुर मानकर नहीं. यदि आपको लगता है कि मूल भारतीय जीवन-शैली से प्रतिबद्धता ‘भगवाकरण’ है तो लगने दीजिये. रोज़ सुबह जो सूरज उगता है, वह न हरा होता है, न सफ़ेद. वह भगवा होता है!
यह lifestyle सदा ऐसा खूँटा रहा है हम जिससे बँधी गाय की तरह थे. कितना भी दूर निकल जायें, दिशाहीन कभी नहीं हुए. इस खूँटे को उखाड़ फेंकने के बाद से हम खो गई हुई गाय हो गये हैं. कोई भी आता है, हमारी दुम उमेठने में लग जाता है!
इधर-उधर की सोचिये मत. यह देश उत्सव-प्रिय है, उत्सव-प्रिय ही रहेगा. मुहर्रम-प्रिय कभी नहीं बनेगा!
न ही कभी एक और पाकिस्तान बनेगा!
अब भारतवर्ष का अपना एक मज़बूत संविधान है. अब तो जो भी होगा इसी संविधान के अनुसार होगा.
कुंभकर्ण के कान चाहे घड़े जितने बड़े-बड़े हों, जब वह सोया रहता है किसी की नहीं सुनता. लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ इस मुगालते में हैं कि वे हमारे भाग्य-विधाता हैं, नौकर नहीं. कुंभकर्णी निद्रा में बड़बड़ा-बड़बड़ाकर जाने हमें क्या-क्या पढ़ाये चले जा रहे हैं!
वे कृपया स्वयं ध्यान से पढ़ लें, यह संविधान जहां से शुरू होता है, वहाँ लिखा है –
“We, the People………..
02-11-2018
Great critical analysis sir
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बहुत सारगर्भित और विश्लेषात्मक लेख। जो विभिन्न विषयों की गहन पकड़ और समझ से ही संभव हो सकता है। कुम्भकर्णी नींद और मूछों पर ताव देने के स्वभाव का अंत होना ही चाहिए।
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विश्लेषणात्मक
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