Sabrimala


[नोट: ये बहुत मूलभूत बातें है. कृपया बहुत ध्यान से पढ़ें. चूक गये तो कुछ हाथ नहीं आयेगा. डांवांडोल विचार वालों को छूट है.]

संजय लीला भंसाली ने अपनी फ़िल्म ‘देवदास’ में शाहरुख़ खान से एक संवाद बुलवाया था: “अगर किसी चीज़ को पूरी शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलवाने पर मजबूर हो जाती है.”

आजकल इसी डायलॉग का इस्तेमाल रिलायंस जिओ के दीपिका पादुकोण वाले विज्ञापन में किया जा रहा है.

दरअसल सबसे पहले यह विचार ब्राज़ील के लेखक पाऊलो कोहेलो ने अपने लोकप्रिय उपन्यास ‘द अलकेमिस्ट’ में इन शब्दों में व्यक्त किया था — “When you want something; all the universe conspires in helping you to achieve it.”

यह सब इसलिए ध्यान में आया कि यदि सिनेमा में हम इन शब्दों को सुनते-देखते हैं, फ़िल्मी सितारों के श्रीमुख से सुनते हैं, या किसी यूरोपीय-अमेरिकी-लातीनी अमेरिकी व्यक्ति का लिखा पढ़ते हैं तो बड़े सहज ढंग से ‘कायनात’ या ‘universe’ जैसे शब्दों से रिश्ता बना लेते हैं. मन में कोई सवाल नहीं उठता. किन्तु जैसे ही कोई कहे – ब्रह्मांड, सृष्टि, परम पिता, परमात्मा, मंदिर, धर्म, पूजा-पाठ, मंत्र, संस्कृत, हिन्दू, ब्राह्मण – हम तुरंत तिरस्कार से भर जाते हैं मानो अंधविश्वास और पोंगापंथ के बीसियों बिच्छू हमारे ऊपर से रेंग गए हों.

यदि कुछ दिखावे के तामझाम में लिपटा है या विदेश का है तो ‘प्रोग्रेसिव’ है. वही यदि भारतीय या ‘हिन्दू’ है तो पिछड़ेपन की निशानी है. अर्थात् ‘हिन्दू’ तो है ही भर्त्स्ना-योग्य!

ग़ज़ब तो यह है कि पाकिस्तान भी इसलिए तेवर दिखाता रहता है कि धर्म के आधार पर बने उस देश के हर बाशिंदे को पक्का है, हिन्दू पिटने योग्य होते हैं, इन्हें जब-तब ठोकते रहना चाहिए. इस ‘सबाब’ के लिए वे बाबर से लेकर अहमदशाह अब्दाली तक को याद करते रहते हैं. यह झूठी बात है कि आम पाकिस्तानी को हिंदुस्तान के नागरिकों से बैर नहीं है. एक सिरे से सबको बैर है. हिन्दू ‘काफ़िर’ जो ठहरा! इस सबाब-यज्ञ में मुट्ठी भर-भर सरहद के इस पार से भी लगातार आहुतियाँ दी जाती रहती हैं. अकेले मुसलमानों पर लांछन लगाना ग़लत होगा. हिंदुओं द्वारा भी योगदान दिया जाता है. पाकिस्तान यह भूल जाता है कि बाहरी आक्रांताओं से भारत की विभिन्न सेनायें अगर पराजित होती रहीं तो इस कारण कि राजपूत आदि जातियाँ अपनी नैतिकता को भी तलवार की बराबरी का धन मानकर लड़ा करती थीं. और सबाब-यज्ञ के आहुति-दाता हिन्दू तो तब भी थे ही. आज देश पर मर मिटने वाले करोड़ों मुसलमान और दूसरे ग़ैर-हिन्दू भी यहाँ हैं और अब फ़ौज की आधुनिक रणनीति बाबरों-अब्दालियों के ज़माने की तरह नहीं बनती.

पाकिस्तान एक मच्छर बराबर भी नहीं.

मगर, सैन्य-बल के कारण नहीं, अन्यथा भी पाकिस्तान के साथ-साथ हर किसी को यह भूल जाना चाहिये कि हिन्दू तिरस्कार के योग्य हैं.

इस बात को सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अब चल रहे झंझट की रोशनी में समझना होगा.

पूरा ज़ोर इस बात पर है कि there is a ‘right’ to worship. क्या कभी किसी ने यह सोचा कि to worship एक right नहीं, duty है? कम से कम सुप्रीम कोर्ट से यह तवक़्क़ो थी कि वह too much right-conscious समाज को थोड़ा duty-conscious होने की राह दिखाएगा.

जब हम अपनी ड्यूटी, अपने करणीय कर्त्तव्य के लिए ईमानदार होते हैं तो जानते हैं कि ड्यूटी अपने स्थान और स्थिति से की जाती है. यथा, सुप्रीम कोर्ट में चपरासी की ड्यूटी करने वाला यह नहीं कह सकता कि मेरे समान अधिकार हैं इसलिए जजमेंट पर मेरे भी हस्ताक्षर होने चाहियें. वेतनमान में सुधार, भत्तों में बढ़ोतरी, मेडिकल बिल की सुविधा आदि में अधिकार समान हैं, तथापि लागू तो उसी अनुपात में होंगे जो चीफ़ जस्टिस और चपरासी की स्थिति और स्थान का अनुपात है. आप समान अधिकारों और अपनी-अपनी ड्यूटी को गड्डमड्ड कैसे करेंगे?

यह उदाहरण मैंने दे तो दिया, मगर कुतर्क यह किया जाएगा कि क्या महिलाएं चपरासी हैं? या ड्यूटी भी करनी हो तो क्या पुरुषों से कमतर हैं?

जी नहीं. हिंदुत्त्व में महिलाएं पुरुषों से श्रेष्ठतर हैं!

हमारी intensity – शिद्दत — और ईमानदारी को देखकर, तौलकर पूरी कायनात के जो तत्त्व हमारी मदद में जुट जाते हैं, वे स्वयं को जब ‘पुरुष’ शरीर के रूप में अभिव्यक्त करते हैं तो उनका उद्देश्य जीवन के रक्षण का होता है. जब कायनात के वही elements अपने आप को ‘स्त्री’ शरीर के रूप में प्रकट करते हैं तो उद्देश्य जीवन की सुरक्षित संरचना का रहता है. यह भूमिका ज़्यादा बड़ी है.

जब एक फूल दूसरे फूल पर अपने पराग-कण फेंक रहा होता है और मधुरिमा-युक्त नए जीवन की सृष्टि हो रही होती है तो ये फूल स्त्री-पुरुष की ही भूमिका में होते हैं.

जीवन-रक्षण के लिए कायनात ने पुरुष को ‘बल’ दिया. संरचना हेतु स्त्री को ‘शक्ति’ दी. साथ ही दिया धैर्य, जो पुरुष को नहीं दिया. और दिया मातृत्व का पोषक वात्सल्य! शिशु के प्रति वात्सल्य पिता में भी रहता है. पिता का वात्सल्य संतान को ‘शिक्षा’ देता है. माता का वात्सल्य उसी शिक्षा को ‘विद्या’ में तबदील कर देता है.

हमारे ऋषि-मुनि पुरुष हैं, मगर उनमें भरी हुई अध्यात्म-विद्या का उत्स स्त्री है!

पुरुष का ‘बल’ जैसे घी. स्त्री का माधुर्य जैसे शहद.

स्त्री को पुरुष के साथ समानता पर लाकर एक तो हम उसे उसकी श्रेष्ठता से नीचे लाते हैं. दूसरे, शहद और घी को समान भाग में मिलाने से जो हलाहल विष बनता है वह कोब्रा के ज़हर से भी अधिक मारक होता है. प्रकृति का नियम है.

स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ कहा तो मक्खन लगाने के लिए नहीं कहा, संक्षेप में कहे गए ये अतिरिक्त गुण उसे देने के कायनात के निर्णय के कारण कहा.

जब मैं गुजरात में था तो कायनात ने चाहा और दैव मुझपर प्रसन्न हो गया. वैसे मैं कभी मंदिर-वंदिर जाता नहीं था. छोटा-मोटा नास्तिक था और इस डर से कि कहीं सचमुच कोई ईश्वर हुआ माँ जिसकी आरती करती थी, उसने गुस्से में कोई श्राप जैसा कुछ दे दिया तो मुश्किल हो जाएगी. इस कारण दूसरों की आँख बचाकर कभी-कभी आस्तिक भी हो लिया करता था. अब वही मैं भुज (कच्छ) के द्विधामेश्वर महादेव के मंदिर में जाने लगा. धीरे-धीरे नित्य ऑफ़िस जाने के पहले मंदिर से हो लेने का नियम बन गया. फिर हौले से कभी कुछ साधु-संतों से भेंट हुई. फिर और ऊंचे सिद्धों और गुरुओं की संगति और आशीर्वाद मिला. इसी प्रक्रिया में कुछ मंत्र मिले. मंत्र की परिभाषा मिली. ‘मननात त्रायते इति: मंत्र:’ — मन की जो आदत हर समय मनन-चिंतन और चिंता करने की होती है, उससे जो त्राण दिलाये वह मंत्र! मैं तो नास्तिक की तरह रटा-रटाया मंत्र बोल दिया करता था. इसी प्रक्रिया में मैंने पाया कि हम कुछ नहीं करते, जो भी करता है मंत्र करता है. उसकी शक्ति कुछ अलग ही चीज़ है!

ऐसे में मैंने एक बार अपनी एक अनुभूति महात्मा गुरुओं के सामने व्यक्त की. मुझ मूर्ख को लग रहा था कि यदि मैं एक चवन्नी कसकर मुट्ठी में बंद कर लूँ और मन-ही-मन मंत्र पर concentrate करूँ तो वह चवन्नी थोड़ी देर के लिए स्वर्ण की हो जाएगी!

क्या ऐसा संभव था?

गुरुओं ने समझाया कि पहले तो ऐसी कोई अनुभूति होती नहीं. किन्तु चलिये मान लेते हैं कि मंत्र के कारण आपको ऐसा लगने लगा, तो क्या आप स्वयं को भृगु, वसिष्ठ, दुर्वासा या याज्ञवल्क्य समझने लगे कि जहां-तहां श्राप या वरदान बांटने लगेंगे? इन ऋषि-मुनियों के पास तप की अखूट संपदा रहती है. वे कुछ भी कर सकते हैं. जितना सोना आप बाज़ार से चार-छह हज़ार रुपये में खरीद सकते हैं उसके लिए जो थोड़ी बहुत ‘शक्ति’ आपके पास जमा हुई होगी, उसे यों ‘ख़र्च’ कर लेंगे तो हो चुका अध्यात्म! जाइए, अपना काम कीजिए.

समझ में आ गया कि मंत्र क्या कर सकता है, कब कर सकता है और कैसे कर सकता है. समझ में आ गया कि बहुत कठिन है डगर पनघट की!

मंत्र दो तरह के हैं – वैदिक और शाबर. बहु-प्रचलित गायत्री आदि मंत्र वैदिक मंत्र हैं. लोक-भाषा मिश्रित मंत्र शाबर मंत्र हैं; जैसे ‘ॐ नमो हनुमंताय ब्रज्ज का कोठा, जिसमें पिंड हमारा पेठा’ आदि. चार पंक्तियों का यह हनुमान-मंत्र एक शाबर मंत्र है. (यहाँ सावधानीवश पूरा मंत्र नहीं दिया जा रहा). इस मंत्र का जाप स्त्रियों को वर्जित है. जपेंगी तो उनके दाढ़ी-मूँछ निकलने लगेंगी!

जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं शाबर मंत्र उनसे आए हैं. जब मैं कहता हूँ कि दैव मुझ पर प्रसन्न हुआ तो साधु-संतों की संगति से ज़्यादा बड़ा वरदान मुझे यह मिला कि आदिवासियों के बीच जाते रहने का संयोग हुआ. जिन आदिवासियों को हम अपने से पीछे मानकर छोटा समझते आए हैं, वे हमसे दसियों साल आगे हैं. ये वे लोग हैं जो कभी शबरी, सीता, मंदोदरी, जांबवान, हनुमान, अंगद, मेघनाद हुआ करते थे, जिनके बीच नारायण ने राम का तो कभी कृष्ण का अवतार लिया, जो कभी भीष्म, युधिष्ठिर, द्रोण, अर्जुन, भीम, सुयोधन, सुशासन, द्रौपदी, कुंती हुआ करते थे. जिन लोगों को कभी पहले-पहल वेद ‘ज्ञात’ हुए थे.

ये आदिवासी हमारे पूर्वज हैं!

इन्हीं पूर्वजों की जीवन-पद्धति भारतवर्ष की जीवन-शैली है जिसे हिन्दुत्व कहकर तिरस्कार करने की कोशिश होती रहती है. इन्हीं पूर्वजों की जीवन-पद्धति से ‘रामायण’ निकली जिसने हमें हमारे जीवन-मूल्य और आदर्श दिये. इन्हीं को देखकर मेरे ध्यान में आ गया कि शास्त्र ‘लोक’ से निकलता है और लोक से बड़ा नहीं होता. आगे चलकर यही शास्त्र लोक का मार्गदर्शक बनता है. यह कुछ-कुछ इस्लाम की ‘हदीस’ की तरह हो जाता है. तब जनसामान्य के लिए ‘परम्परा’ या ‘आस्था’ भले ही पर्याप्त हो मगर जनसामान्य के conscience keeper बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ‘आस्था’ काफ़ी नहीं होनी चाहिये. हमारे लिए ‘जानना’ लोकधर्म है.

इन पूर्वजों के बीच जाकर जाना कि इस तरह हमें मिला ‘लोक’, हमें मिले मंत्र और अध्यात्म, हमारे बीच ‘स्त्री’ लहराई, ‘पुरुष’ खिलखिलाया. यह सब हमने हासिल किया अपनी इसी कायनात से जिसके हम बाशिंदे हैं.

यह कायनात कोई रहस्य-कथा नहीं, एक जीती जागती entity है. इसमें निरंतर एक मूवमेंट है. पृथ्वी भी हर समय घूमती रहती है. इस निरंतर churning में कभी भूकंपों में ज़मीन के अंदर दब गई चट्टान का कोई टुकड़ा धरती की परत फोड़कर बाहर झाँकने लगता है तो वह हमारा ‘स्वयंभू’ शिवलिंग हो जाता है. कायनात के किसी वरदान का अपमान करना हम हिंदुस्तानियों ने नहीं सीखा. Universe ने इसीलिये सदा हमारे पक्ष में conspire किया.

इस पूरी प्रक्रिया में प्रकृति अपने आप को maintain भी करती रहती है. जैसे किसी शेर के पंजे में चोट लग जाये तो वह ख़ुद ही उसे जीभ से चाट-चाट कर ठीक कर लेता है, प्रकृति भी अपने आप को निरंतर ‘ठीक’ करती रहती है. जीवन-चक्र धीरगति से चलता रह सके यह उसका सहज विज्ञान है.

घर को ठीक-ठाक रखने के लिए रोज़ सफाई करनी पड़ती है. दीवाली के पहले बड़ी सफ़ाई भी की जाती है. यह सब कुदरत की प्रक्रियाओं का ही छोटा रूप है.

माँ के गर्भ में पल रहा बालक नाभि-रज्जु से जुड़ा होता है. उसी से उसे श्वास मिलती है, आहार मिलता है, विचार मिलते हैं, संस्कार ट्रांसफ़र होते हैं.

कायनात जो हमारी मदद में जुटी रहती है, सो इसलिए कि हम ब्रह्मांड में पल रहा वह शिशु हैं जो एक अदृश्य नाभि-रज्जु से कायनात से जुड़ा हुआ है. सब वरदान, सब विचार, सब अच्छा-बुरा, हित-अनहित हमें वहीं से मिलता है. इसको मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा है: “आते हैं ग़ैब से ही मज़ामीं ख़याल में!” सब विचार, संस्कार, विषय-वस्तु हमें उस परोक्ष से आते हैं!

इन ‘मज़ामीं’ का नाज़ुक काँच ग़ज़ल बनने के पहले किसी चश्मेबद की ठेस से बिखरने न पाये, पूरी शिद्दत से इस चाहत का रूप है मंदिर में दुष्प्रभावों को ‘कील’ देना. ऐसा मंत्रों की शक्ति को तांत्रिक प्रक्रिया से सक्रिय करके संभव होता है.

यही कारण है कि तिरुवनंतपुरम के मंदिर में जो सात कक्ष तालाबंद मिले थे, उन्हें खोलने से मना किया गया था. फिर भी कोर्ट ने छह दरवाज़े खुलवा दिये. सातवाँ खोलने की हिम्मत अभी तक नहीं हुई. क्योंकि घोर अनर्थ की चेतावनी है. ये भी मेरी तरह के नास्तिक मालूम पड़ते हैं जो कायनात के डर के मारे आस्तिक भी हो लेते हैं! जिन विषयों का ज्ञान क़ानून की किताबों से नहीं मिलता उनमें भी चंचुपात करते हैं! यही हाल लोकतन्त्र के ‘चौथे स्तम्भ’ न्यूज़ मीडिया का भी है. जो विषय इन्हें पढ़ाने-सिखाने वाली एकेडमियों की समझ के परे हैं, न्यूज़ मीडिया उनका भी विद्वान् है!

केरल में क्या हुआ? ऐसी बाढ़ देखी न सुनी. और केरल में ही क्यों? वह तो ‘एपिसेंटर’ था, जहां ताले खुलते ही मंत्र शक्ति जो चश्मेबद से बचा रही थी छू हो गई! विश्व के किस कोने में जल-प्रलय नहीं हुआ? आख़िर धरती का पूरा ग्लोब इसी कायनात का एक छोटा-सा हिस्सा है.

और तो और, उस बेचारी सुकन्या पायल रोहतगी ने कह क्या दिया कि यह बाढ़ इसलिए आई कि खुली सड़क पर गाय काटकर खाई गई थी, सब उसकी निंदा में जुट गए. सिनेमा की कलाकार होना यहाँ रक्षा न कर सका क्योंकि हिंदुओं की ठुकाई का अवसर मिल गया था. लोग यह भी भूल गए कि कायनात में घटी हर घटना आपस में जुड़ी हुई है और हमारी मदद की उसकी नीयत को प्रभावित करती है.

धरती पर जिस स्त्री-शरीर में कायनात ने स्वयं को प्रकट किया, स्वच्छ होने की प्रक्रिया में वह स्त्री रजस्वला होती है. यह अपवित्र नहीं है, पवित्रता की प्रक्रिया है. उसे बड़े काम के लिए तैयार होते रहने के प्रोसेस का हिस्सा है.

घर की सफ़ाई में अगर फ़र्श-धुलाई का पानी गठरी में एक कोने में बंधे रखे साफ़ कपड़ों को भिगो जाये तो सफ़ाई के काम में एक काम और बढ़ जाता है.

मंत्र से संकलित शक्ति न तो चवन्नी को सोना बनाने में गँवाने के लिये है, न मंदिर में किए गए ‘कीलन’ के प्रभाव को कम करके काम और बढ़ा देने के लिए है.

यह कारण है कि रजस्वला स्त्री के शरीर के माध्यम से कायनात की चल रही पवित्रता की प्रक्रिया के समय उसका सिद्ध मंदिरों में प्रवेश वर्जित किया गया. उसे किसी तरह हेय मानकर नहीं किया गया. यह समय कायनात के स्त्री-शरीर को आराम देने का है, उससे ड्यूटी करवाने का नहीं. उसे श्रेष्ठता मिली है बड़े काम के लिए, क्षुद्र झंझटों में पड़ने के लिए नहीं.

आपके पास अब भृगु, वसिष्ठ, दुर्वासा या याज्ञवल्क्य तो हैं नहीं जो कम हो गये या छूमंतर हुए ‘सत्व’ को पुनः प्रतिष्ठित कर देंगे! सृष्टि की प्रक्रियाएं चलती रहेंगी. वे बाढ़ होंगी, सूखा होंगी या हरियाली कौन जाने? हमारे पास बस कायनात से वह संवाद नहीं होगा जो उसकी अनुकूलता बनाये रखता था!

अब कुतर्क यह होगा कि विज्ञान इस तर्क को नहीं मानता. यह अवैज्ञानिक बात है.

पहले यह तो तय कर लीजिये कि कायनात विज्ञान का विषय है या अध्यात्म का, या दोनों का? आपका अधिक झुकाव विज्ञान की ओर होगा. क्योंकि यदि अध्यात्म की बात की तो इस क्षेत्र में विश्व-अग्रणी भारत बड़ी आसानी से अमिताभ बच्चन का यह डायलॉग बोल देगा: “रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं; नाम है हिंदुत्व!”

स्थिति तो यह है कि हमारे यहाँ के मौलवी लोग भी मानते हैं कि संसार में पहला वचन वेद है. और आख़िरी वचन क़ुरान है. यह बात अब से पाँच-छह सदी पहले तक ठीक थी. पहला वचन तो अब भी वेद ही है. मगर अब आख़िरी वचन श्री गुरु ग्रंथ साहब है. आप हमारे यहाँ के सिख पंथ को एक स्वतंत्र और पूर्ण धर्म मानने से कतरा क्यों रहे हैं?

यह हिंदुस्तान है जनाब. अध्यात्म में हमेशा नम्बर वन!

चलिये, अमिताभ बच्चन का संवाद नहीं बोलते. आप सबको बुरा लग जाएगा.

इसी तरह आप भी ध्यान रखिये कि आप ऐसी कोई बात न कहें, न ऐसा काम करें जिससे हमको बुरा लगे.

अब कोई यह भी कहेगा कि तीन तलाक़ में भी तो कोर्ट आया था.

सो बंधुओ, तीन तलाक़ सामाजिक बुराई है. स्त्री का रजस्वला होना सामाजिक बुराई नहीं है.

आपकी मदद के लिए एक छोटी सी कहानी.

उस छोटे से कस्बे के घरों में काम करके गुज़ारा करने वाली वह बुढ़िया गाँव के बाहर थोड़ी दूर एक झोंपड़ी में रहती थी. भली औरत थी इसलिए सभी उसका ध्यान रखते थे और इज़्ज़त करते थे.

एक दिन सुबह-सुबह उस बुढ़िया की झोंपड़ी से चिल्लाने की आवाज़ आई – “बचाओ, बचाओ. मदद करो. आग लग गई.”

सुनकर सब मदद के लिए दौड़े. पानी के बर्त्तन लिये हुए. जिसके हाथ में जो आया – बाल्टी, डोल, पतीला, घड़ा, वह वही पानी से भरकर दौड़ा.

जब बस्ती के लोग झोंपड़ी पर पहुंचे तो देखा कहीं कोई आग नहीं लगी है.

सबको बड़ा बुरा लगा कि काम वाली बाई ने सुबह-सवेरे अच्छा मज़ाक नहीं किया. बुढ़िया से पूछा कि अम्माँ, आग कहाँ लगी है?

बुढ़िया ने कहा, “आग तो अंदर लगी है, मन में.”

यह कहानी कहती है कि जब हम अंदर की आग बुझाने का इंतज़ाम करते हैं तो अध्यात्म के मार्ग पर होते हैं. और जब बाहर की आग बुझाने को तत्पर होते हैं तो विज्ञान हमारी उँगली थामे होता है.

यह है भारतवर्ष! विज्ञान और अध्यात्म को लेकर इतनी साफ़-संतुलित दृष्टि और कहाँ मिलेगी?

सबरीमला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अंदर की आग को बुझाने में बाहर की आग वाली कार्बन डाइऑक्साइड स्प्रे हो गई है.

फैसले पर पुनर्विचार करना ही उचित है. चिंता न करें, पूरी कायनात आपकी मदद में जुट जाएगी.

16-10-2018

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One thought on “Sabrimala

  1. अति उत्तम, किन्तु हम लोग तब तक किसी बात को नहीं मानेंगे जब तक कि विदेशी ठप्पा न लग जाये। तब तक तो हम दकियानूसी ही कहलायेंगे। हम तुम्हारे बाप हैं, यह सुनने को हम हिन्दू ही तैयार नहीं हैं, पुरातन और अद्भुत संस्कृति का गर्व हम नहीं कर सकते पर फ़िल्मी गाने’ भारत का रहने वाला हूं’ पर थिरक कर अपने को धन्य मान लेते हैं। इस सारगर्भित लेख को कितना कोई समझ सकेगा देखना पड़ेगा…… कभी तो जागेंगे….. वो सुबह कभी तो आएगी।

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