Me Too!


मैं एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति हूँ. आचार-विचार, जीवन शैली, रुपये-पैसे, शारीरिक व्यक्तित्त्व – सभी दृष्टियों से. शारीरिक व्यक्तित्त्व आकर्षक नहीं है, मगर अरुचिकर भी नहीं है. अपने चेहरे पर सदा सबका स्वागत करती-सी मुस्कान लिये हुए है. सन 1981-82 में 32-34 साल के युवा में जो शारीरिक त्वरा रहती है, मुझ में भी थी. व्यक्तित्व के बालपन को छिपाता-सा प्लेन ग्लासेस वाला बड़े फ़्रेम का चश्मा कुछ vulnerability ढाँपने के लिए, कुछ थोड़ी maturity दिखाने के लिए आँखों पर रहता था. आजकल जो चश्मा है, नज़र का है. तब नज़रिये का था.

1977 में एक बार चुनाव हारने के बाद कुछ ही साल में श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 में वापिस सत्तारूढ़ हो चुकीं थीं. 1981-82 में कभी उन्हें अजमेर और ब्यावर के बीच कहीं किसी गाँव में एक स्कूल का दौरा करना था और उसके पहले एक जनसभा को संबोधित करना था.

उन दिनों प्रधानमंत्री की रिकॉर्डिंग आर्काईव्ज़ में भेजने की ज़िम्मेदारी आकाशवाणी की हुआ करती थी. (अब क्या व्यवस्था है, नहीं मालूम). उसी रात रेडियो-रिपोर्ट भी प्रसारित करनी होती थी. आकाशवाणी, जयपुर की ओर से इस कवरेज के लिए मुझे लगाया गया और जयपुर केंद्र के कार्य-दक्ष प्रोडक्शन असिस्टेंट मदन शर्मा के साथ इंजीनियरों की टीम देकर हमें रवाना कर दिया गया.

कार्यक्रम दूसरे दिन सुबह-सुबह था. खुले मैदान की रेतीली ज़मीन ओस से गीली थी और ठंडी भी. अपने टेप रिकॉर्डर जमाने के लिये इंजीनियरों को एक टेबल की ज़रूरत थी. मैंने इधर-उधर देखा कि टेबल का जुगाड़ कैसे किया जाये. पास में एक तरफ़ एक पुलिस दल बहुत सी टेबलें जमाकर उनपर सफ़ेद चादरें बिछाये कुछ व्यवस्था करने में व्यस्त था. मैं उनके पास गया और अपना परिचय देकर मैंने उन्हें बताया कि मुझे इंदिरा जी की रिकॉर्डिंग करनी है. इसलिए इक्विपमेंट रखने को एक टेबल चाहिए.

पुलिस वालों ने अपने राजस्थानी लहज़े में जो टका-सा जवाब दिया वह कुछ इस तरह था कि भाई, इंदिरा तेरा जब जो करेगी, तब करेगी. हमारे डीआईजी साहब तो हमारा अभी का अभी बना-बिगाड़ जावेंगे. इसलिए टेबल तो नहीं मिलेगी.

लिहाज़ा मैंने फिर इधर-उधर नज़र दौड़ाई कि कोई उपयुक्त अधिकारी दिख जाये तो उससे कहूँ. ऐसा व्यक्ति तो कोई नहीं मिला मगर कुछ दूर एक टेन्ट लगा दिखा. मैंने आव देखा न ताव उसमें घुस गया. वह प्रधानमंत्री के आराम करने के लिए अस्थायी व्यवस्था थी जहां टॉयलेट आदि का भी इंतज़ाम था. सोफ़े बिछे हुए थे और उनके सामने एक सेंट्रल टेबल रखी हुई थी.

तब सेक्योरिटी आदि के इतने लफ़ड़े नहीं थे. मैंने लपक कर सेंट्रल टेबल उठाई और लाकर अपनी टीम के सामने धर दी.

इंजीनियर अपना इक्विपमेंट जमाने में लग गये और मैं पैंट की जेबों में दोनों हाथ डाले टहलते-टहलाते पास के स्कूल की बिल्डिंग से मालूम कर लाया कि वहाँ प्रधानमंत्री का क्या प्रोग्राम था.

हमारी टीम के दाहिनी ओर कुछ गज़ के फ़ासले पर ऊंची मचान बनाकर मंच तैयार किया गया था जहां से इंदिराजी को जन-सम्बोधन करना था.

प्रधानमंत्री समय से कुछ पहले ही वहाँ पहुँच गईं और सीधे मंच पर जा खड़ी हुईं. उन्होंने सब तरफ का जायज़ा लिया. हमारी टीम सेंट्रल टेबल पर झुकी हुई थी. मैं ही था जो निठल्ला जेबों में हाथ ठूँसे तन कर खड़ा था.

थोड़ी देर में प्रधानमंत्री ने मेरी ओर देखा. मुझे इतमीनान हुआ कि चलो, प्रधानमंत्री ने नोटिस लिया है कि उनके देशवासी मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहे हैं. थोड़े समय के बाद उन्होंने फिर देखा. कुछ ज़्यादा समय के लिये. तीसरी बार फिर देर तक देखा, गोया अपनी दिमागी मशीन में मेरी पहचान का ज़िरॉक्स निकाल रही हों!

एक अलर्ट प्रधानमंत्री!

भाषण शुरु हुआ और समयानुसार पूरा भी हुआ.

उन दिनों सोनी के बैटरी-ओपेरेटेड अल्ट्रा-पोर्टेबल टेप रिकॉर्डर हुआ करते थे, लंबे-से माईक के साथ. मैंने वह रिकॉर्डर कंधे पर लटकाया, माईक हाथ में थामा और स्कूल के मुख्य द्वार पर जा खड़ा हुआ, जहाँ से प्रधानमंत्री को प्रवेश करना था.

इंदिराजी आयीं और स्कूल में चल दीं. लोगों के झुंड झुक-झुक कर उनके पाँव छूकर आशीर्वाद ले रहे थे. वहाँ उन्हें इंस्पेक्शन मात्र करना था और लोगों से कुछ-कुछ पूछना था. मेरा काम था उस बातचीत को रेकॉर्ड करना ताकि उसे रेडियो रिपोर्ट में शामिल किया जा सके. मैं उनके साथ हो लिया और माईक इंदिराजी के मुख के सामने करके पकड़े रहा ताकि उनका बोला हुआ रेकॉर्ड हो सके.

मैं नहीं जानता इंदिराजी के इतना निकट और कौन जा सका होगा, उनका कोई मंत्री भी! सिवा उन लोगों के जो उनके पाँव छू रहे थे. या सिवा एम.ओ. मथाई के, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘Reminiscences of the Nehru Age’ में ‘मैमूना बेगम’ को याद रखा है.

ऐसे में कभी अचानक मेरा कंधा इंदिराजी के कंधे से टकराया. पर मैं बिना लड़खड़ाये पूरी चुस्ती से अपना काम करता रहा.

ज़रा आगे चले तो इंदिराजी का कंधा एक बार फिर मेरे कंधे से टकराया.

अब मैं चौकन्ना हुआ. मुझे लगा इंदिराजी जानबूझकर ऐसा हो लेने दे रहीं हैं!

कहाँ वह सत्ता पर आरूढ़ विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली महिलाओं में से एक, और कहाँ मैं आकाशवाणी का मामूली सा प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव! सारी कायनात उन दिनों जिस महिला की मदद में जुटी हुई थी वह इंदिरा गाँधी!

उस भारी भीड़ में सरेआम वे कुछ क्षण इंदिराजी के साथ मेरे नितांत निजी पल थे! पलक झपकने की गति से आये वे पल उतनी ही तेज़ी से फिसल गये!

Perhaps my own ‘Me-Too’ moments!

अद्भुत और असंभव!!

उस समय का कोई फ़ोटोग्राफ़ यदि कहीं हो तो बस वही साक्षी होगा कि कैमरे ने उन पलों को आँख-भर देखा था!

आगे की बात मैं स्वर्गीय इंदिराजी की आत्मा से क्षमा-याचना के साथ ही कह पाऊँगा. आख़िर वह मेरी माँ के समान थीं.

एम जे अकबर तो कैबिनेट मिनिस्टर भी नहीं. इंदिराजी तो प्राइम मिनिस्टर थीं. एम जे को लेकर कांग्रेस गिरी हुई राजनीति कर रही है ताकि चुनी हुई सरकार को परेशानी में डाला जा सके. क्या खेल नहीं किया गया? अवाॅर्ड वापसी, कैम्ब्रिज अनालिटिका, गुजरात चुनाव, केरल, कर्णाटक, पुणे कोरेगांव, और सबसे बढ़कर वहाबी इस्लामी आतंकवाद के साथ नियो-नाज़ीवाद के लिए काम!

और अब ‘Me Too’ को औज़ार बनाना!

फिर भी, मेरा उद्देश्य राजनीतिक उत्तर देना नहीं है. इससे बात भटक जाएगी. समाज में आ रहे आचरण-गत बदलाव में स्त्री और पुरुष दोनों की स्थिति का जायज़ा लेने के लक्ष्य पर आने के पहले इतना ज़रूर कहूँगा कि मोतीलाल नेहरू के इस परिवार का चरित्र क्या रहा है, किसी से छुपा नहीं है. शेख़ अब्दुल्ला की बात तो बहुतों ने की, फिर करना बंद कर दी. मगर इससे कौन इंकार करेगा कि सिनेमा की गायिका और संगीतकार जद्दनबाई (अभिनेत्री नरगिस की माँ) मोतीलालजी की बेटी थी. औलाद हो जाने के बाद राखी बंधवाकर डोली में बैठा देना मोतीलाल नेहरू की ख़ास अदा थी. जद्दन की माँ की शादी हुई और जद्दनबाई को हिन्दू पिता होने के बावजूद एक मुसलमान की ही तरह पाला गया, जिसमें ऐतराज़ की कोई बात नहीं.

अकबर इलाहाबादी शायर तो थे ही, आई.सी.एस. ऑफिसर भी थे. कांग्रेस को अंग्रेजों और भारतीयों के बीच संवाद के लिये शुरु किया गया था. भारतीयों के लीडर होकर मोतीलाल नेहरू कांग्रेस में जाते थे. हम हिंदुस्तानियों के ‘कष्टों’ पर उनके सब लच्छन बहुत नज़दीक से देखकर अकबर इलाहाबादी ने यह शे’र लिखा था:

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ ।

रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ।।

नरगिस का पुत्र संजय दत्त अपने रक्त में मोतीलालजी के जीवाणु लिये क्या-क्या गुल नहीं खिलाता रहा! कभी ए.के. 47 तो कभी ड्रग्स! अच्छा खासा भावुक व्यक्ति और अभिनेता कैसा बर्बाद हुआ!

लेडी माऊन्टबेटन ने जवाहर लाल से क्या नहीं करवा लिया? भारत का विभाजन भी, और सुभाषचंद्र बोस को ‘युद्ध-अपराधी’ की तरह पकड़कर अंग्रेजों के हवाले करने का आश्वासन लिखित में ले लेना भी!

स्वयं इंदिराजी का फ़ीरोज़ गांधी से संबंध, फिर हिन्दुओं में तलाक़ का क़ानून लाने का कारण बनना. मनोविज्ञान कहता है सत्ता का नशा किये स्त्री या पुरुष को vulnerable-सा पुरुष या स्त्री दिखे तो सबसे पहली गुदगुदी उसके मन के अहंकार में और तन के सेक्स-सेंटर में होती है. कहना न होगा कि इस सब हिस्ट्री के बीच अगर कंधा टकराने में एक मातृतुल्य स्त्री में ‘ईडीपस कॉम्प्लेक्स’ कहीं सक्रिय रहा हो तो क्या आश्चर्य? मैं ज़रूर उसके बाद दो दिन तक नहाया नहीं था, न कपड़े बदले थे.

राजीव-सोनिया ने देश का क्या किया वह सब बताने का यह मौक़ा नहीं है, पर जानते सब हैं. संजय गांधी का तो नाम ही लेना काफ़ी है. और अब राहुल पप्पू के तो कहने ही क्या? दिल्ली के बाहर के किस फ़ार्म हाऊस से नशे में धुत उठाकर कब-कब गाड़ी में डाले गए, किस से छिपा है? मुंबई में भले ही 26/11 हो रहा हो! पप्पू इस वंशवृक्ष पर उगा ऐसा फल है जो हमेशा याद दिलाता रहेगा कि मूल बीज ही में भयंकर गड़बड़ थी! इतने लंबे वक़्त तक इस परिवार को माथे पर बैठाये रखने की ही सज़ा है कि हमें जब-तब पप्पू की अनाप-शनाप प्रेस कॉन्फ्रेंस झेलनी पड़ती हैं!

हम हिन्दुस्तानी भले लोग रहे हैं, इसलिए आँख बचाकर निकल लेते हैं, ज़्यादा कुछ बोलते नहीं.

मगर अब ‘MeToo’ में बहुत बोला है!

राजनीति की इतनी बात भी इसलिए करनी पड़ी कि इस पूरे ‘MeToo’ प्रकरण को जिस आचरण-गत बदलाव – transition in behavioural pattern के परीक्षण का अवसर देख रहा हूँ, हमारे उस behaviour को इस नेहरू-परिवार के इर्द-गिर्द चली सही-ग़लत, अच्छी-बुरी राजनीति ने अपनी उँगलियों पर बहुत घुमाया है!!

पहले हम आचरण में बदलाव के उस पहलू को लेते हैं जिसकी भूमिका समस्या के वास्तविक मनोविज्ञान में अधिक है. यह पक्ष है money power – धन की शक्ति. कुछ लोग यहाँ सत्ता को धन से अधिक बताना चाहेंगे. मगर मैं सत्ता को धन के ही अंतर्गत मानता हूँ.

हमारे समाज में (शिक्षित सभ्य समाज में अधिक) धन और सत्ता के बल पर हो रहे आचरण को कोई भी आसानी से पहचान सकता है. ये विशेष लक्षण पुरुषों के behaviour में अधिक दिखाई देते हैं. अब समानता के दौर में आप इन लक्षणों को स्त्रियों में भी देख सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर, धनवान अथवा सत्ताधीश व्यक्ति (पुरुष हो या स्त्री) दूसरों के कल्याण-कार्यों में रुचि कम लेगा, दिखावा ज़्यादा करेगा. वह हमेशा दूसरों को एक ख़ास ‘टाईप’ की परिभाषा से आँकेगा. आपसे बात करेगा तो आँख मिलाकर बात करने में अपनी हेठी समझेगा. अपने बारे में उसे हमेशा यही लगेगा कि जो वह चाहे वह मिलना उसका जन्मजात अधिकार है. दूसरा कोई भी सामने हो तो वह सवाल किये बिना उसकी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए है. क्योंकि व्यवहार के जो नियम दूसरों के लिए हैं, वे उसपर लागू नहीं होते. गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर ही रखा रहता है और पलटवार के अंदाज़ में जवाब देने में ही उसकी श्रेष्ठता है! क़ानून कोई सा भी हो उसे तोड़ने में उसकी शान है! उसे तो कोई हाथ तक नहीं लगा सकता. वह क़ानून के ऊपर की सत्ता है. उसके ग़ैरक़ानूनी व्यवहार और धंधों में उसे वैसे ही दूसरे लोगों का साथ और समर्थन भी मिल जाता है.

पैसे और सत्ता वालों के बच्चे बचपन से ही ये सब लक्षण अपने माँ-बाप से सीखते रहते हैं. सत्ता बहुत लुभावनी होती है और बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती है. हिन्दू शास्त्रों ने तो सत्ता के जाल के फैलने को बताया ही इन शब्दों में है : “बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति”! इसीलिये power आदत डालने वाली चीज़ है. ज़्यादातर यह आदत नशों की होती है.

सबसे ख़ास बात तो यह है कि सत्ता की स्थिति में आने को प्रयत्नशील व्यक्ति हर तरह की सामाजिक हैसियत का इस्तेमाल करके वहाँ पहुंचता है और पहुँचते ही भूल जाता है कि अब उसे समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार करना उचित है. इस प्रक्रिया में उसने अगर कभी किसी का अहसान लिया होता है तो उसकी खिसियाहट मिटाने के लिए वह दुर्व्यवहार को नॉर्मल मानता है. कभी अहसान का बदला चुकाने के लिए अहसानकर्त्ता को उसकी ज़रूरत भी पड़ सकती है. ऐसे में उसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जो वह नहीं करना चाहता!

जिस किसी ने अपने को किसी भी पावर की हैसियत में माना – पैसा, अधिकार और अफ़सरी, लेखक,बुद्धिजीवी, पत्रकार की हैसियत, कलाकार का दर्ज़ा, चर्च-मस्जिद-मंदिर का मठाधीश, आध्यात्मिक गुरु या बाबा, अत्यंत रूपवती स्त्री — समझ लीजिये कि उसके हाथों अपराध होने ही वाला है!

‘MeToo’ में जितने नाम सामने आए उनमें से क्या एक भी ऐसा है जो ऊपर दी गई शास्त्रीय परिभाषा से बाहर हो? लगता है एक भी पुरुष ‘चरित्रवान’ नहीं है! उन सबके आचरण के एक-एक detail विस्तार में बताकर क्या हासिल होगा? पैसे वाली और सत्ता में बैठी स्त्रियाँ क्या गुल खिलाती हैं, क्या उनके भी MeToo सामने लाये जाएँ? तब उससे क्या होगा? ‘घर की इज्ज़त’ पर हाथ डालने वाला तो मरा समझो! पकड़े जाने पर पुरुष की सम्पत्ति हो जाना इन स्त्रियों को स्वीकार हो जाता है ! पुरुषों के साथ-साथ white collar class की स्त्रियों का भी वही चरित्र है.

हम सब मिलकर स्वयं समाज को इस ‘गर्व करने योग्य’ स्थिति में ले गए थे. अब भी इरादा समाज को सही दिशा में ले जाने का है या नहीं?

जब तक पुरुष स्वयं को मालिक और स्त्री को संपत्ति मानने की गफ़लत में पड़ा रहेगा और सत्ता अथवा पैसे में खेल रही स्त्रियाँ पुरुष को कामना-पूर्ति का खिलौना बनाए रहेंगी, यह खेल ऐसे ही चलता रहेगा.

दूसरे को अपनी संपत्ति समझना बंद करो!

Behavioural pattern में परिवर्तन देखे जाने के लिए दूसरा क्षेत्र है सेक्स!

पैसा (सत्ता) और सेक्स ऐसी दो driving force हैं जो जीवन को चलाती हैं.

सेक्स के विषय में यह जान रखना काफी होगा कि यह जीवनदायिनी शक्ति भी है और जानलेवा बीमारी भी. इसीलिये सेक्स संबंधी तमाम विश्लेषण अक्सर एड्स व अन्य यौन-रोगों, contraceptive के उपयोग व सावधानियों आदि तक सिमट कर रह जाते हैं. दुर्भाग्य से इसके बारे में कोई सर्वमान्य-सार्वजनिक अध्ययन अथवा नियमावलि उपलब्ध नहीं है. यह कमोबेश एक व्यक्तिगत मामला ही समझा जाता रहा है. तथापि, 1980 के बाद के भारत को लेकर कुछ अध्ययन हुए हैं जिनके अनुसार लोगों की मानसिकता में sexuality को लेकर एक बड़ा बदलाव यह देखा जा रहा है कि जिन बातों को पहले ‘स्कैंडल’ का कारक माना जाता था, और जिन्हें दबा-छुपा देना ही ‘सामाजिक आचरण’ माना जाता था ताकि स्थापित चारित्रिक मानदंडों की अनुपालना होती रह सके, उन बातों को अब सहज-सामान्य की तरह स्वीकार किया जाने लगा है. वे सब बातें अब वर्जना नहीं रहीं. ले-देकर एक ‘Hite Report on Female Sexuality’ अवश्य उपलब्ध है, और 1975 से उपलब्ध है! 1981 में इन्हीं जर्मन मनोचिकित्सक महिला शेरे हाईट ने ‘Hite Report on Male Sexuality’ भी उपलब्ध कराई. ये दोनों रिपोर्ट हज़ारों-हज़ार स्त्री-पुरुषों को प्रश्नावली भेजकर और लिखित उत्तर प्राप्त करके तैयार की गईं और अब तक का सर्वाधिक ग्राह्य अध्ययन मानी गईं.

मगर भारतीय महिलाएं शायद इस परिवर्तन से भी अस्पर्शित ही रह गईं. या शायद किसी ने उनकी सुध नहीं ली. साहित्य, कला और सिनेमा ने उनके बारे में सोचा ज़रूर मगर वह नाकाफ़ी रहा. महेश भट्ट ने ‘आश्रम’ नाम की फिल्म बनाई जिसमें देवी हेमा मालिनी ने एक साध्वी की भूमिका निभाई थी. इस फ़िल्म में साध्वी के प्रेम (सेक्स?)-जीवन पर विचार किया गया. कुछ साल पहले “मारग्रेटा विद ए स्ट्रॉ’ अनुराग कश्यप कैंप से आई जिसमें सेरेब्रल पाल्सी का शिकार लड़की की सेक्स-लाईफ़ की चिंता की गई. ये दोनों हिन्दी फिल्में बेअसर रहीं क्योंकि इनकी नीयत साफ़ नहीं थी. 2010 के आसपास ‘थैंक्स माँ’ नाम की हिन्दी फ़िल्म आई थी जिसके बारे में शायद ज़्यादा लोग जानते तक नहीं. इसे कोरियोग्राफ़र कमाल के पुत्र इरफ़ान कमाल ने बनाया था. यह एक फ़िल्म मेरी राय में पूरी ईमानदारी से बनी फ़िल्म थी जिसने सेक्स के विषय में व्हाईट कॉलर क्लास और उच्च मध्यम वर्ग की दोगली मानसिकता को बुरी तरह उधेड़कर रख दिया था.

ये ‘MeToo’ ऐसी ही किसी मानसिकता में से निकलकर आ रहे हैं जिसे उधेड़कर ही हम किसी वास्तविक behavioural परिवर्तन का द्वार खोल पायेंगे.

महिलाओं को बुरा तो लगेगा, मगर अब यह कहना आवश्यक है कि वे चाह तो रही हैं कि अपने बारे में, अपनी ज़रूरतों के बारे में, और स्वयं को खुलकर अभिव्यक्त करें, मगर अब भी हिचकिचा रही हैं, डर रही हैं. अपने को असहाय और शोषित सिद्ध करने तक सीमित हो रही हैं.

दूसरी बात, जो महिलाएं अपना विवाहित जीवन व्यतीत करती दिख रही हैं, यदि उनके विवाहोपरांत परिवार के अंदर के ‘MeToo’ सामने लाये जाएं तो ये सुप्रकाशित ‘MeToo’ पीले पड़ जाएंगे! यदि वास्तव में स्त्री की ज़रूरतों को समझना है तो विवाहित सम्बन्धों में सच तलाश कीजिये. पड़ाव-दर-पड़ाव समस्या आपको वहाँ तम्बू गाड़े मिलेगी. पुरुष जो स्वयं को सत्ता का केन्द्र माने बैठा है, उसकी बेचारगी भी उजागर हो जाएगी. यह एक-पक्षीय ‘MeToo’ नौटंकी क्यों खुक्खल है, यह भी पता चल जाएगा.

इसमें संदेह नहीं कि स्त्रियाँ हर समाज का सर्वाधिक शोषित-उपेक्षित वर्ग रही हैं. हमेशा taken for granted! पुरुष अब भी ऐसे आचरण किये चला जा रहा है जैसे वही सत्ता है. वही है जो औरत को कुछ ‘देनेवाला’ है और स्त्री को उसका ‘दिया हुआ’ thankful होकर स्वीकार करते रहना चाहिए.

तो जनाब, सभी समझ लें, न तो पुरुष कुछ देने की हैसियत में है, न स्त्री उस दीनावस्था में है कि वह कुछ भी स्वीकार कर लेगी!

स्त्री की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता तभी स्थापित होगी जब वह सब डर छोड़ देगी. सेक्स-predator कहलाने वाले पुरुष को उसे तत्काल ज़न्नाटेदार थप्पड़ से ‘कैश पेमेंट’ करना होगा. इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है. इन ‘MeToo’ विवरणों में केवल अपनी असहाय अवस्था की स्वीकृति है. महिलाओं को ऊपर इंगित किये गए सत्ताधारी के लक्षणों से बचकर दिखाना होगा और अपनी प्रत्येक संभावना को शिखर तक ले जाकर पूरे समाज में — स्त्री और पुरुष दोनों में — behavioural परिवर्त्तन को आने के लिए force करना होगा.

अभी तो बस धुआँ उठ रहा है!

महिलाएं छोड़ें यह धुआँ-धुआँ ज़िंदगी. पैसा (सत्ता) और किसी भी तरह का behavioural pattern वह दहकता अंगारा है जिसमें से धुआँ नहीं निकला करता. वहाँ केवल सुलगती आँच होती है! उस आँच से हाथ सेंकना-न सेंकना पूरी तरह से स्त्री की अपनी स्वतंत्रता है!

चलते-चलते मैं स्वर्गीय इंदिराजी से पुनः क्षमा-याचना करूंगा. वह जो भी थीं, जैसी भी थीं – अच्छी या बुरी – इस या ऐसे अन्य प्रसंगों के बिना भी वैसी थीं.

और यह सत्य एक सिरे से सब पर लागू होता है!

15-10-2018

2 thoughts on “Me Too!

  1. अद्भुत, बार बार पढ़ना पड़ेगा क्योंकि जिस गहराई से लिखा गया है वैसा ही समझा भी जाना चाहिए।

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    1. सही कहा. यों, MeToo के छिछलेपन में डूबी महिलाओं को यह बात कहनी उचित थी.

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