प्रभु जोशी निःसन्देह सर्जनात्मक प्रतिभा के धनी हैं. भारत सरकार के ‘स्वच्छता-अभियान’ पर रेडियो-चैनलों के ताबड़तोड़ विज्ञापनों पर खफ़ा होकर उन्हें लगा कि अब यह भाषा की नाक पर रूमाल रखने का समय है. पूरा ठीकरा जोशीजी ने ‘विविध भारती’ के सिर फोड़ा है. उन्हें लगा कि ‘हुज़ूर’ (सरकार) के कहते ही मीडिया के ‘कम-अक्ल कारिंदे’ विज्ञापन बनाते समय ‘सांस्कृतिक भद्रता’ को क्रूरता से कुचल डालते हैं और विज्ञापन की ‘अर्थ-ध्वनि’ शर्मिंदा कर जाती है.
‘विज्ञापनी-बुद्धि’ पर प्रभु जोशी का गुस्सा जायज़ है. मगर जैसे समय पर न्याय न देना न्याय से इनकार है, समय पर गुस्सा न करना भी एक लाचार किस्म की करुणा है.
रेडियो के एफ.एम. चैनलों की स्पर्धा में जब ‘सांस्कृतिक भद्रता’ को कपड़े उतारने को कहा जा रहा था ताकि ‘कमाई’ हो सके, गुस्से की घड़ी तो तब थी. नहीं क्या? अब दिखाई जा रही झुंझलाहट से तो लग रहा है कि देश को स्वच्छ रखने की पूरी सरकारी बात ही गुस्सा होने जैसी है.
यों भी एफ.एम. तकनीक पाश्चात्य symphony और उस तरह के संगीत के विस्तार की अनुकूलता में है जिसमें सैंकड़ों साज़ रहते हैं. मानो कोई तैर कर इंग्लिश चैनल पार कर रहा हो. भारतीय शास्त्रीय अथवा लोक-संगीत में एफ.एम. कहाँ चाहिये? यहाँ तो कुशल गोताखोर को गहरे में डुबकी लगानी होती है!
तैरने वाले को मेडल मिलता है. गोताखोर मोती लाता है.
सोचने जैसा है कि टेक्नोलोजी एक सांस्कृतिक मुद्दा भी है!
ख़ैर.
अब प्रभु, ऐसा लगता नहीं कि यह मसला आज का है. ऐसा भी नहीं लगता कि मसला सरकारी है. बात रेडियो-टी.वी. और विज्ञापनबाज़ी भर की नहीं है. रेडियो में अगर सिर्फ़ आकाशवाणी और टी.वी. में बस दूरदर्शन होता, सो भी सरकारी नियंत्रण में, तो मसला सरकारी हो सकता था. बात है मीडिया के उपयोग-सदुपयोग-दुरुपयोग की. मीडिया यानी माध्यम यानी अभिव्यक्ति. बात है अभिव्यक्ति की आज़ादी की.
अभिव्यक्ति की आज़ादी या अभिव्यक्ति की ज़िम्मेदारी? शायद Freedom of expression जैसा कुछ होता नहीं, जो भी है वह responsibility of expression होता है. इस संदर्भ में कोई कह रहा था कि आज यदि कबीर आ जाये तो क्या उस पर भी रोक लगाने की नौबत नहीं आ जाएगी? फिर संजय लीला भंसाली या श्याम बेनेगल को अभिव्यक्ति की आज़ादी क्यों न हो?
प्रश्न इस रूप में विचारणीय है ही नहीं.
सोचिए, अगर श्याम बेनेगल दाल-रोटी के लिए बिजली कंपनी में बिल-क्लर्क की नौकरी करते हों और अभिव्यक्ति के लिए फ़िल्म बनाते हों तो और बात होगी. कबीर दाल-रोटी के लिए कपड़ा बुनते थे, दोहे लिखकर दाँव पर नहीं लगाते थे. कबीर पर रोक कभी लग ही नहीं सकती. करोड़ों दाँव पर लगे हों तो कभी भी कॉम्प्रोमाइज़ की सिचुएशन आ सकती है (जिसे commitment कहते हैं, वह आज़ादी का इस नाम से कॉम्प्रोमाइज़ है), इसलिए freedom of expression या responsibility of expression का सवाल उठेगा ही उठेगा. मामला माध्यमों के इस्तेमाल का है और इसे चलताऊ, सतही या तात्कालिक प्रतिक्रिया की तरह handle करना अनुचित होगा.
जिन दिनों रेडियो में अनाप-शनाप एफ़ एम चैनलों पर काम चल रहा था, (और टी वी में उसके तमाम चैनलों पर), तब इनके समर्थन में बहुत बातें बनाई जाती थीं. किन्तु तीन तर्क विशेष रूप से दिये जाते थे. एक तो यह कि ढेरों छिपा टेलेंट सामने आयेगा. दूसरे, असंख्य लोगों को रोज़गार मिलेगा. तीसरे, रेवेन्यू लाकर माध्यमों को आर्थिक आत्मनिर्भरता दी जा सकेगी. यह सामने आया टेलेंट ही है जो ‘अब तक फंसी’ हुई जतलाकर साउण्ड इफ़ेक्ट भी देता है. टेलेंट न हुआ मूँगफली हो गई कि ठेले से उठाओ और दाने निकाल लो!
रही बात रोज़गार की, सो इसी देश ने सदियों तक शौच को एक जाति-विशेष के पेट भरने से जोड़े रखा. अब कम से कम शौच का धंधा पेट भरने के लिए वर्णाश्रम से तो बाहर आया!
इतना ही नहीं. एक pathologist काम करते हुए stool test (हिन्दी में लिखने में ‘टेस्ट’ हुआ जा रहा है!) के लिए स्लाइड तैयार कर रहा था और stool को काँच की स्लाइड पर पोत रहा था. पास खड़े देख रहे मित्र ने पूछा, “यह क्या कर रहे हो?” उसने बताया, “यार, हम इसी की तो रोटी खाते हैं”.
नाक पर रूमाल तो ठीक, पर जाने कितनों ही के पेट पर लात क्यों मार रहे हैं?
भाषा की नाक पर रूमाल उसी दिन आ गया था जब गुलाब को खाद का रक्त चूसने वाला ‘कैपिटलिस्ट’ कहकर महामना निरालाजी ने ‘अबे अशिष्ट’ को काव्य की भाषा में शामिल कर लिया था.
यह तो कुछ भी नहीं. आगे चलकर अज्ञेयजी के संपादकत्व में निकलने वाले साप्ताहिक ‘दिनमान’ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने जो लूप फ़िट कराने वाली औरत की “धागे निकलते हैं” की तकलीफ़ का खुलासा किया था, भाषा की नाक पर रूमाल तो तब भी था. ऐसा नहीं कि केवल विविध भारती के उद्घोषक ही नाक पर रूमाल थोपने के ज़िम्मेदार हैं.
और, रूमाल नहीं, भाषा की नाक पर उस दिन कपड़े का पूरा थान आ गिरा था जब हमने हिन्द पाकेट बुक्स का विज्ञापन देखा था – ‘हिन्दी में पहली बार – किसी उपन्यास की एक साथ पाँच लाख प्रतियाँ’.
वह महान ‘साहित्यिक’ रचना थी ‘झील के उस पार’, लेखक गुलशन नंदा. एकता कपूर के टी वी सीरियल इसका ही अगला कदम होने को थे!
मीडियाकर्मियों, विशेषतः बुद्धिजीवियों को कभी सूझा ही नहीं कि वे आनन्द बक्शी नहीं, जयशंकर प्रसाद या अज्ञेय हैं, वे गुलशन नंदा नहीं, इलाचन्द्र जोशी या वृन्दावन लाल वर्मा हैं! ज़रा सोचिए, भाषा, नाक, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, रचनाधर्मिता, रूमाल, कफ़न सब मीडिया के Mall में उस दिन एक साथ बिराजेंगे जब हिन्दी साहित्य के इतिहास में पंत-प्रसाद-निराला और आनंद बक्शी तथा राजेंद्र यादव और गुलशन नंदा एक साथ बखाने जाएंगे!
लूप से ध्यान में आया, हमारे देश की बहुत निंदा इस बात पर हुई थी कि नाक और रूमाल के रिश्ते के चलते इस देश को परिवार-नियोजन (नाक के इसी चक्कर में इसे परिवार-कल्याण कहना पड़ा) पर — नसबंदी, लूप, कंडोम पर — ‘खुलकर’ बात करने में साठ बरस लग गए! अब एक ‘नीच किस्म के आदमी’ ने शौचालय का मुद्दा उठा ही लिया है तो मणिशंकर अय्यर वाला छद्म-ब्राह्मणवाद भाषा बदलकर क्यों बोल रहा है? इसमें भी आगे और साठ साल? क्यों भई ?
संस्कार की चर्चा किए बिना बात पूरी नहीं होगी. एक वक्त था कि वी. शांताराम की फ़िल्म ‘स्त्री’ में पं. भरत व्यास का गीत था – ‘आज मधु वातास डोले’. इस गीत में दुष्यंत शकुंतला पर मोहित हुआ कह रहा है –“मैं कहूँ कुछ कान में तुम जानकर अनजान कर लो”. दुष्यंत ने शकुंतला के कान में ऐसा क्या कहा जिसे जानकर उसे अनजान करना है? हमारे बुद्धिजीवी, शिक्षक और संस्कार के ठेकेदार स्तर को यहाँ तक घसीट लाये हैं कि इसे समझने के लिए ‘मैनफोर्स’ कंडोम का विज्ञापन देखना पड़ेगा. अगर इस सुसंस्कृत गीत के बल पर कंडोम बेचने की कोशिश करेंगे तो एक भी नहीं बिकेगा! तब इसके लिए भी पं. नरेन्द्र शर्मा वाली विविध भारती ज़िम्मेदार?
दुष्यंत ने शकुंतला से इसी गीत में ‘चिर लजीली लाज का पट’ खोलने को भी कहा है!
कहाँ-कहाँ रूमाल रखेंगे?
विज्ञापन की तो हद यह है कि कोई भी कार छोरी की फोटू के बिना बिकती ही नहीं! जानते हैं क्यों?
आज औरत एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति बन रही है. परंपरावादी पुरुष मानसिकता को अपनी मुट्ठी ढीली होती दिख रही है. उसकी हरचंद कोशिश है कि अर्थ-शक्ति और आर्थिक निर्णय औरत के हाथ में न जायें. मीडिया, विज्ञापन, प्रचार-प्रसार को सम्मानजनक दुनिया घोषित करके औरत को यों ही अर्थोपार्जन में भटकाये रखो और ख़ुद इस तरह ‘इज्ज़त की रोटी’ खाते रहो!
यह है मीडिया का रूमाल जो भाषा की नाक पर रखा भले दिखाई पड़ता हो, दरअसल कटी नाक छिपा रहा है!
मीडिया को, और शिक्षा को, धंधा बनाने को किसने कहा था?
संस्कृति सिर्फ़ नाक पर रखा रूमाल नहीं, हाथ में उठाया जूता भी होनी चाहिए!
04-10-2018
जनाब बहुत पुराना और चिर कालीन और शाश्वत मुद्दा है । फर्क शुद्ध घी के अडदिया और वनस्पति में बने समोसे का है । व्यक्ति अपनी शिक्षा, रुझान, समझ, हैसियत के अनुसार चुन लेता है ।
जूता उठाने के लिए दोनों के भेद को समझने की बुद्धि चाहिए। और चाहिए political resolve जो समाज के हित को ध्यान में रखते हुए अंकुश लगा सके । परंतु यहां भी समझ और vested interest का टकराव तो होगा ही ।
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bahut hi achhha vishleshan.kya aap kabhi aakashvani ya doordarshan mein rahe hai to aur vistaar se bataiya ki in madhyamo ki ab tak ki yaatra mein kya kuch sahi aur galat hua,ab to radio on karne par sirf vigyapan hi sunai dete hai.sarkar hi bazaar ka tool ban gayi hai maano
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